Sunday, December 22, 2024
spot_img

भारत में जजिया

जजिया एक विशेष प्रकार का कर है जो मुस्लिम शासकों द्वारा अपनी गैर-मुस्लिम प्रजा से लिया जाता था। भारत में जजिया से प्रथम परिचय ई.712 में हुआ था जब मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध प्रदेश को जीतकर वहाँ के हिन्दुओं पर जजिया लागू किया था। लाल किले के नए मालिकों ने भी कई बार भारत में जजिया लगाया और हटाया।

इसके बाद जब ई.1206 में कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली का सुल्तान बना तो उसने अपनी सल्तनत में रहने वाले हिन्दुओं पर जजिया आरोपित किया। जैसे-जैसे दिल्ली सल्तनत का प्रसार होता रहा, जजिया कर का दायरा बढ़ता रहा।

ई.1556 में जब अकबर दिल्ली और आगरा का बादशाह बना तो उसने कुछ सालों बाद हिन्दू राजाओं को अपने पक्ष में लेने के लिए हिन्दुओं पर से जजिया समाप्त कर दिया। जहांगीर और शाहजहाँ के समय में भी यही व्यवस्था बनी रही किंतु औरंगजेब यह सहन नहीं कर सकता था कि उसके राज्य में काफिर जनता बादशाह को जजिया न दे।

जब तक प्रबल हिन्दू राजा जीवित रहे, तब तक औरंगजेब जजिया लगाने का साहस नहीं कर सका किंतु जोधपुर नरेश जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब का रास्ता साफ हो गया। आम्बेर का शासक मिर्जाराजा जयसिंह पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो चुका था।

किशनगढ़ का प्रबल राजा रूपसिंह राठौड़ एवं बूंदी का प्रबल राजा छत्रसाल हाड़ा भी शामूगढ़ के मैदान में काम आ चुके थे, बीकानेर का राजा कर्णसिंह भी राज्यच्युत होकर औरंगाबाद में मृत्यु के मुख में जा चुका था। इन राजाओं के उत्तराधिकारियों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे औरंगजेब का विरोध कर सकें। इसलिए औरंगजेब ने 2 अप्रेल 1679 को मुगल सल्तनत की हिन्दू प्रजा पर फिर से जजिया लगा दिया।

हिन्दुओं के लिए यह अनिवार्य था कि वे यह कर अपने हाथों से कर-वसूली अधिकारी को विनम्रता पूर्वक प्रदान करें। समस्त गैर-मुस्लिम प्रजा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया था। तत्कालीन इतिहासकार मनूची ने लिखा है कि पहली श्रेणी वाले हिन्दू 48 दरहम, द्वितीय श्रेणी वाले हिन्दू 24 दरहम तथा तृतीय श्रेणी वाले हिन्दू 12 दरहम वार्षिक जजिया चुकाते थे।

औरंगजेब के समय में एक दरहम का मूल्य चार आने से कुछ अधिक होता था तथा एक आना चार पैसे का होता था। अर्थात् जजिया की अधिकतम राशि लगभग आठ रुपए वार्षिक तथा न्यूनतम राशि लगभग 2 रुपए वार्षिक थी।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

इन करों से बचने के लिए बहुत से हिन्दू अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन गए। प्रत्येक हिन्दू को प्रयाग में गंगा-स्नान करने के लिए 6 रुपए 4 आने तीर्थ-कर के रूप में देने पड़ते थे। अन्य तीर्थों पर भी उनकी महत्ता के अनुसार अगलग-अलग कर लगाया गया था।

औरंगजेब के इस निर्णय का पूरे देश में विरोध हुआ। सबसे अधिक प्रबल विरोध उसकी अपनी राजधानी दिल्ली तथा उसके निकटवर्ती प्रांतों मथुरा एवं राजस्थान में हुआ। बहुत से स्थानों पर जजिया वूसली अधिकारियों को पीटा गया तथा उनकी दाढ़ी नौंचकर उन्हें भगा दिया गया।

मथुरा में इस विद्रोह का नेतृत्व जाटों ने किया तथा राजस्थान में जाट एवं राजपूत जातियों ने मिलकर किया। कुछ स्थानों पर मस्जिदों को तोड़ दिया गया तथा उनमें नमाज पढ़ने वालों को भी भगा दिया गया। मथुरा में मंदिरों को तोड़ने वाले अधिकारी अब्दुल नबी को जाटों ने मार डाला तथा सादाबाद परगने को लूट लिया।

To purchase this book, please click on photo.

जब औरंगजेब जुम्मे की नमाज पढ़ने के लिए लाल किले से जामा मस्जिद जाया करता था, तब हजारों हिन्दू उसके मार्ग में खड़े होकर उससे प्रार्थना करते थे कि भारत में जजिया हटा दिया जाए। औरंगजेब पर इन प्रार्थनाओं का कोई प्रभाव नहीं हुआ। इसलिए एक शुक्रवार को हजारों हिन्दू उस मार्ग में लेट गए जिस मार्ग से होकर बादशाह का काफिला जुम्मे की नमाज पढ़ने के लिए जामा मस्जिद जाया करता था। औरंगजेब ने अपने आदमियों से कहा कि अपने हाथियों और घोड़ों को इन लोगों के ऊपर से होकर ले जाया जाए। बादशाह के इस आदेश पर भी हिन्दू जनता सड़कों पर लेटी रही। इस कारण सैंकड़ों लोग हाथियों एवं घोड़ों के पैरों के नीचे कुचल कर मारे गए एवं बहुत से घायल हो गए। जब यह समाचार भारत के विभिन्न भागों में में फैला तो घर-घर में कोहराम मच गया।

कुफ्र हटाने के लिए औरंगजेब ने जो मार्ग चुना था, उसने भारतवासियों को तैमूर लंगड़े की याद दिला दी थी जिसने पंजाब से लेकर दिल्ली और हरिद्वार तक लाशों के ढेर लगवा दिए थे।

मध्यकाल के मुस्लिम शासकों का मानना था कि जो लोग इस्लाम को स्वीकार न करें उनके विरुद्ध जेहाद या धर्मयुद्ध किया जाये परन्तु यदि वे जजिया देने को तैयार हों तो उनकी जान बख्श दी जाये। दुनिया भर में मुस्लिम बादशाहों एवं सुल्तानों द्वारा यहूदियों तथा ईसाइयों के साथ भी यही व्यवहार किया जाता था। हिन्दुओं को जजिया से बहुत घृणा थी। इससे उन्हें अपनी गुलामी का अहसास होता था। इस कर को फिर से लगाकर औरंगजेब ने हिन्दुओं, विशेषकर राजपूतों की भावनाओं को बड़ा आघात पहुँचाया।

मराठा शासक छत्रपति शिवाजी तथा मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब को कड़े पत्र लिखकर भारत में जजिया लगाने के लिए उसकी जबर्दस्त भर्त्सना की। महाराणा ने लिखा कि यदि बादशाह को गरीबी ने घेर लिया है तो सबसे पहले वह मुझसे जजिया वसूल करके दिखाए तथा उसके बाद जयपुर के कच्छवाहे रामसिंह से जजिया वसूल करे। जबकि छत्रपति शिवाजी ने लिखा कि यदि तुझे अपनी गरीबी दूर करनी है तो पहले महाराणा राजसिंह से और फिर मुझसे जजिया वसूल करके दिखाए।

यह एक आश्चर्य ही है कि छत्रपति शिवाजी तथा महाराणा राजसिंह द्वारा बादशाह को लिखे गए पत्रों की भाषा बहुत मिलती-जुलती है। इससे अनुमान होता है कि दोनों ने एक राय होकर ही औरंगजेब को ये पत्र लिखे थे। कुछ इतिहासकारों ने इन पत्रों को नकली सिद्ध करने का प्रयास किया है। यहाँ छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा लिखे गए पत्र का मुख्य अंश दिया जा रहा है। महाराणा द्वारा लिखा गया पत्र भी लगभग ऐसा ही है।

छत्रपति ने यह पत्र मूलतः हिन्दी भाषा में लिखा था तथा नीला प्रभु नामक एक व्यक्ति से इस पत्र का फारसी भाषा में रूपांतरण करवाकर औरंगजेब को भेजा था। छत्रपति ने लिखा-

‘सम्राट आलमगीर की सेवा में, यह सदा मंगल कामना करने वाला शिवाजी ईश्वर के अनुग्रह तथा सम्राट की अनुकम्पा का धन्यवाद करने के बाद जो सूर्य से भी अधिक स्पष्ट है, जहांपनाह को सूचित करता है कि यद्यपि यह शुभेच्छु अपने दुर्भाग्य के कारण बिना आपकी आज्ञा लिए ही आपकी खिदमत से चला आया तथापि वह सेवक के रूप में पूरा कर्त्तव्य यथासम्भव उचित रूप में निभाने के लिए तैयार है।

हाल ही में मेरे कानों में यह बात पड़ी है कि मेरे साथ युद्ध में आपका धन समाप्त हो जाने तथा कोष खाली हो जाने के कारण आपने आदेश दिया है कि जजिया के रूप में हिन्दुओं से धन एकत्र किया जाए और उससे शाही आवश्यकताएं पूरी की जाएं।

श्रीमान्, साम्राज्य के निर्माता बादशाह अकबर ने सर्व-प्रभुता से पूरे 52 ‘चन्द्र-वर्ष’ तक राज्य किया। उन्होंने समस्त सम्प्रदायों जैसे ईसाई, यहूदी, मुसलमान, दादूपंथी, आकाश पूजक, फलकिया, अंसरिया (अर्थात् अनात्मवादी) दहरिया (अर्थात् नास्तिक), ब्राह्मण और जैन साधुओं के प्रति सार्वजनिक सामंजस्य की प्रशंसनीय नीति अपनाई थी। उनके उदार हृदय का ध्येय सभी लोगों की भलाई और रक्षा करना था, इसलिए उन्होंने जगतगुरु की उपाधि पाई।

तत्पश्चात् बादशाह जहांगीर ने 22 वर्ष तक विश्व के लोगों पर अपनी उदार छत्रछाया फैलाई। मित्रों को अपना हृदय दिया तथा काम में हाथ बंटाया और अपनी इच्छाओं की प्राप्ति की। बादशाह शाहजहाँ ने 32 चन्द्र-वर्ष तक अपनी ममतामयी छत्रछाया पृथ्वी के लोगों पर डाली। परिणाम स्वरूप अनन्त जीवन फल प्राप्त किया।

वह जो अपना नाम करता है,

चिरस्थाई धन प्राप्त करता है।

क्योंकि मृत्यु पर्यंत उसके सुकर्मों के आख्यान,

उसके नाम को जीवित रखते हैं।

किन्तु श्रीमान् के राज्य में अनेक किले और प्रदेश श्रीमान् के कब्जे से बाहर निकल गए हैं और शेष भी निकल जाएंगे। क्योंकि मैं उन्हें नष्ट और ध्वंस करने में कोई ढील नहीं डालूंगा। आपके किसान दयनीय दशा में हैं, हर गांव की उपज कम हो गई है। एक लाख की जगह केवल एक हजार और हजार की जगह केवल दस रुपए एकत्रित किए जाते हैं, और वह भी बड़ी कठिनाई से।

जब बादशाह तथा शहजादों के महलों में गरीबी और भीख ने घर कर लिया है तो सामंतों और अमीरों की दशा की कल्पना आसानी से की जा सकती है।

आपका राज्य ऐसा है जिसमें सेना में उत्तेजना है, व्यापारी वर्ग को शिकायतें हैं, मुसलमान रोते हैं, हिन्दुओं को भूना जाता है। अधिकतर लोगों को रात का भोजन नहीं मिलता और दिन में वे अपने गालों को वेदना में पीट-पीटकर सुजा लेते हैं। ऐसी शोचनीय स्थिति में आपका शाही स्वभाव किस तरह आपको जजिया लादने की इजाजत देता है।

यह बदनामी बहुत जल्दी पश्चिम से पूरब तक फैल जाएगी तथा इतिहास की किताबों में दर्ज हो जाएगी कि हिन्दुस्तान का बादशाह भिक्षा पात्र लेकर ब्राह्मणों, जैन साधुओं, योगियों, सन्यासियों, वैरागियों, दरिद्रों, भिखारियों, दीन-दुखियों तथा अकालग्रस्तों से धन वसूल करता है। अपना पराक्रम भिक्षुओं के झोलों पर आक्रमण करके दिखाता है। उसने तैमूर वंश का नाम मिट्टी में मिला दिया है।

न्याय की दृष्टि से जजिया बिल्कुल गैर-कानूनी है। राजनीतिक दृष्टि से यह तभी अनुमोदित किया जा सकता है जबकि एक सुन्दर स्त्री सोने के आभूषण पहने हुए बिना किसी डर के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जा सकती हो किंतु आजकल शहर लूटे जा रहे हैं, खुले हुए देहातों की तो बात ही क्या?

जजिया लगाना न्याय संगत नहीं है, यह केवल भारत में ही की गई सर्जना है और अनुचित है। यदि आप हिन्दुओं को धमकाने और सताने को ही धर्मनिष्ठा समझते हैं तो सर्वप्रथम जजिया आपको राणा राजसिंह पर लगाना चाहिए जो हिन्दुओं के प्रधान हैं। तब मुझसे वसूल करना इतना कठिन नहीं होगा क्योंकि, मैं आपका अनुचर हूँ, किंतु चींटियों और मक्खियों को सताना शूरवीरता नहीं है।

मुझे आपके अधिकारियों की स्वामिभक्ति पर आश्चर्य होता है, क्योंकि वे वास्तविकता को आपसे छिपाते हैं और प्रज्वलित अग्नि को फूस से ढंकते हैं। मेरी कामना है कि जहांपनाह का राजत्व महानता के क्षितिज के ऊपर चमके।’

छत्रपति शिवाजी एवं महाराणा राजसिंह के पत्रों का औरंगजेब पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह समस्त प्रार्थनाओं, अनुनय, विनय और अपीलों को अनसुनी करता गया जिसके परिणाम स्वरूप भारत में जजिया जारी रहा और हिन्दुओं में औरंगजेब के प्रति नफरत की आग तेजी से फैल गई।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source