छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक होते हुए देखना मुगलिया इतिहास के लिए जहर का घूंट पीने के समान थी। औरंगजेब के लिए तो यह और भी शर्मनाक थी किंतु हिन्दू इतिहास को युगों-युगों तक गौरवान्वित करने वाली थी।
शिवाजी को आगरा से लौटकर आए हुए आठ साल बीत गए थे किंतु औरंगजेब के मन का दुःख किसी तरह कम नहीं हेाता था। औरंगजेब ने जब से मिर्जाराजा जयसिंह को अपमानित करने के लिए दक्खिन की सूबेदारी से अलग किया था और जिन रहस्यमय परस्थितियों में मिर्जाराजा की मृत्यु हुई थी, उसके बाद से हिन्दू राजा औरंगजेब से घृणा करने लगे थे तथा मन मारकर औरंगजेब की नौकरी कर रहे थे।
अंग्रेज इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है- ‘जब तक वह कट्टरपंथी औरंगजेब, अकबर के सिंहासन पर बैठा रहा, एक भी राजपूत उसे बचाने के लिए अपनी अंगुली भी हिलाने को तैयार नहीं था। औरंगजेब को अपनी दाहिनी भुजा खोकर दक्षिण के शत्रुओं के साथ युद्ध करना पड़ा।’ यहाँ दाहिनी भुजा से लेनपूल का आशय राजपूतों की मित्रता से है।
जोधपुर नरेश जसवंतसिंह अब भी औरंगजेब की नौकरी में थे और उन्हें छत्रपति शिवाजी को नष्ट करने के काम पर लगाया गया था किंतु महाराजा जसवंतसिंह, छत्रपति के विरुद्ध प्रभावी कार्यवाही नहीं करते थे। इस कारण छत्रपति ने अपने राज्य का बहुत विस्तार कर लिया। उनकी आय भी बढ़ गई थी और उनकी सेना का आकार भी काफी बड़ा हो गया था।
इस समय तक शिवाजी की तलवार के घाव खा-खाकर मुगल सेनाएं दक्षिण भारत में पूरी तरह जर्जर हो चुकी थीं। बीजापुर तथा गोलकुण्डा के पुराने सुल्तान मर चुके थे और नए सुल्तानों में शिवाजी का प्रतिरोध करने की शक्ति शेष नहीं बची थी।
इसलिए शिवाजी अब अपने राज्य के सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न स्वामी थे। फिर भी शिवाजी किसी राजा के पुत्र नहीं थे, न उनका कभी राज्याभिषेक हुआ था। इसलिए बहुत से राजा उन्हें अपने बराबर नहीं मानते थे। यहाँ तक कि राजपूत राजाओं एवं काशी के पण्डितों द्वारा शिवाजी का कुल भी नीचा माना जाता था।
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार एक राजा ही प्रजा पर कर लगा सकता है और अपनी प्रजा को न्याय तथा दण्ड दे सकता है। राजा को ही भूमि दान करने का अधिकार प्राप्त है। इसलिए माता जीजाबाई ने शिवाजी से कहा कि वह काशी के ब्राह्मणों को बुलाकर अपना राज्याभिषेक करवाएं। इस प्रकार छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक माता जीजाबाई के आदेश का परिणाम थी।
शिवाजी ने भी राजनीतिक दृष्टि से ऐसा करना उचित समझा ताकि वे अन्य राजाओं के समक्ष स्वतंत्र राजा का सम्मान और अधिकार पा सकें। ई.1674 में शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि धारण करने का निर्णय किया।
कुछ भौंसले परिवार जो कभी शिवाजी के ही समकक्ष अथवा उनसे अच्छी स्थिति में थे, वे शिवाजी की सफलता के कारण ईर्ष्या करते थे तथा शिवाजी को लुटेरा कहते थे जिसने बलपूर्वक बीजापुर तथा मुगल राज्यों के इलाके छीन लिए थे। बीजापुर राज्य अब भी शिवाजी को एक जागीरदार का विद्रोही पुत्र समझता था।
ब्राह्मणों की मान्यता थी कि शिवाजी किसान के पुत्र हैं इसलिए उनका राज्याभिषेक नहीं हो सकता। इसलिए शिवाजी ने अपने मंत्री बालाजी, अम्बाजी तथा अन्य सलाहकारों को काशी भेजा ताकि इस समस्या का समाधान किया जा सके। इन लोगों ने काशी के पण्डित विश्वेश्वर से सम्पर्क किया जिसे गागा भट्ट भी कहा जाता था। वह राजपूताने के कई राजाओं का राज्याभिषेक करवा चुका था। शिवाजी के मंत्रियों ने गागा भट्ट से शिवाजी की वंशावली देखने का अनुरोध किया। पण्डित गागा भट्ट ने शिवाजी की वंशावली देखने से मना कर दिया। शिवाजी के मंत्री कई दिनों तक उसके समक्ष प्रार्थना करते रहे। अंततः एक दिन गागा, शिवाजी की वंशावली देखने को तैयार हुआ।
उसने पाया कि शिवाजी का कुल मेवाड़ के सिसोदिया वंश से निकला है तथा विशुद्ध क्षत्रिय है। उसने छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक करने की अनुमति प्रदान कर दी। इसके बाद यह प्रतिनिधि मण्डल राजपूताने के आमेर तथा जोधपुर आदि राज्यों में भी गया ताकि राज्याभिषेक के अवसर पर होने वाली प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों की जानकारी प्राप्त की जा सके।
गागा भट्ट की अनुमति मिलते ही रायपुर में राज्याभिषेक की तैयारियां होने लगीं। बड़ी संख्या में सुंदर एवं विशाल अतिथि-गृह एवं विश्राम-भवन बनवाने आरम्भ किए गए ताकि देश भर से आने वाले सम्माननीय अतिथि उनमें ठहर सकें। नए सरोवर, मार्ग, उद्यान आदि भी बनाए गए ताकि शिवाजी की राजधानी सुंदर दिखे।
गागा से प्रार्थना की गई कि वह स्वयं रायपुर आकर राज्याभिषेक सम्पन्न कराए। गागा ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। काशी से महाराष्ट्र तक की यात्रा में गागा भट्ट का महाराजाओं जैसा सत्कार किया गया। उसकी अगवानी के लिए शिवाजी अपने मंत्रियों सहित रायपुर से कई मील आगे चलकर आए तथा उसका भव्य स्वागत किया।
भारत भर से विद्वानों एवं ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। 11 हजार ब्राह्मण, शिवाजी की राजधानी में आए। स्त्री तथा बच्चों सहित उनकी संख्या 50 हजार हो गई। लाखों नर-नारी इस आयोजन को देखने राजधानी पहुंचे। सेनाओं के सरदार, राज्य भर के सेठ, रईस, दूसरे राज्यों के प्रतिनिधि, विदेशी व्यापारी भी रायपुर पहुंचने लगे। चार माह तक राजा की ओर से अतिथियों को फल, पकवान एवं मिठाइयां खिलाई गईं तथा उन लोगों के राजधानी में ठहरने का प्रबन्ध किया गया।
ब्रिटिश राजदूत आक्सिनडन ने लिखा है कि प्रतिदिन के धार्मिक संस्कारों और ब्राह्मणों से परामर्श के कारण शिवाजी राजे को अन्य कार्यों की देखभाल के लिए समय नहीं मिल पाता था। जीजाबाई इस समय 80 वर्ष की हो चुकी थीं। छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक होते हुए देखकर वही सबसे अधिक प्रसन्न थीं।
उनका पुत्र शिवा आज धर्म का रक्षक, युद्धों का अजेय विजेता तथा प्रजा-पालक था। जिस दिन राज्याभिषेक के समारोह आरम्भ हुए, उस दिन शिवाजी ने समर्थ गुरु रामदास तथा माता जीजाबाई की चरण वंदना की तथा चिपलूण के परशुराम मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन किए।
शिवाजी ने अपनी कुल देवी तुलजा भवानी की प्रतिमा पर सवा मन सोने का छत्र चढ़ाया जिसका मूल्य उस समय लगभग 56 हजार रुपए था। शिवाजी ने अपने कुल-पुरोहित के निर्देशन में महादेव, भवानी तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा की। ब्राह्मणों तथा निर्धनों को विपुल दान दक्षिणा दी गई। मुख्य पुरोहित गागा भट्ट को 7000 स्वर्ण-मुद्राएं तथा अन्य ब्राह्मणों को 1700-1700 मुद्राएं दी गईं जिन्हें होन कहा जाता था।
शिवाजी द्वारा जाने-अनजाने में किए गए पापों एवं अपराधों के प्रायश्चित के लिए उनके हाथों से सोना, चांदी, तांबा, पीतल, शीशा आदि विभिन्न धातुओं, अनाजों, फलों, मसालों आदि से तुलादान करवाया गया। इस तुलादान में शिवाजी ने एक लाख होन भी मिलाए ताकि ब्राह्मणों में वितरित किए जा सकें।
कुछ ब्राह्मण इस दान-दक्षिणा से भी संतुष्ट नहीं हुए तथा उन्होंने शिवाजी पर 8 हजार होन का अतिरिक्त जुर्माना लगाया क्योंकि शिवाजी ने अनेक नगर जलाए थे तथा लोगों को लूटा था। शिवाजी ने ब्राह्मणों की बात मान ली। इस प्रकार भारी मात्रा में स्वर्ण दान लेकर ब्राह्मणों ने शिवाजी को पाप-मुक्त, दोष-मुक्त एवं पवित्र घोषित कर दिया।
5 जून का दिन शिवाजी ने आत्म-संयम और इंद्रिय-दमन में व्यतीत किया। उन्होंने गंगाजल से स्नान करके, गागा भट्ट को 5000 होन का दान किया तथा अन्य प्रसिद्ध ब्राह्मणों को सोने की 2-2 स्वर्ण मोहरें दान में दीं और दिन भर उपवास किया।
6 जून 1674 को शिवाजी का राज्याभिषेक कार्यक्रम आयोजित किया गया। राज्याभिषेक के अवसर पर शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि धारण की। छत्रपति शिवाजी महाराज की जय-जयकार से आकाश गुंजारित हो गया। राज्याभिषेक हो चुकने के बाद छत्रपति के मंत्री नीराजी पंत ने अंग्रेजों के दूत हेनरी आक्सिनडन को शिवाजी के सम्मुख प्रस्तुत किया।
आक्सिनडन ने पर्याप्त दूरी पर खड़े रहकर छत्रपति का अभिवादन किया तथा दुभाषिए की सहायता से अंग्रेजों की तरफ से हीरे की एक अंगूठी भेंट की। दरबार में कई और विदेशी भी उपस्थित थे, उन्हें भी शिवाजी महाराज ने अपने निकट बुलाया तथा उनका यथोचित सम्मान किया और परिधान भेंट किए।
अपने राज्याभिषेक के पश्चात् महाराज शिवाजी ने अपने नाम से सिक्के ढलवाए तथा नए संवत् का भी प्रचलन किया। भारतीय आर्य राजाओं में यह परम्परा थी कि जब कोई राजा स्वयं को स्वतंत्र सम्राट या चक्रवर्ती सम्राट घोषित करता था तो उसकी स्मृति में नवीन मुद्रा तथा संवत् का प्रचलन किया करता था। प्राचीन भारत में विक्रम संवत, शक संवत तथा गुप्त संवत इसी प्रकार आरम्भ किए गए थे।
शिवाजी का राज्याभिषेक एक युगांतरकारी घटना थी। औरंगजेब के जीवित रहते यह संभव नहीं था किंतु शिवाजी ने औरंगजेब के साथ-साथ बीजापुर एवं गोलकुण्डा के मुसलमान बादशाहों और सुल्तानों से लड़कर अपने राज्य का निर्माण किया तथा स्वयं को स्वतंत्र राजा घोषित किया। उस समय उत्तर भारत में केवल महाराणा राजसिंह तथा दक्षिण भारत में केवल छत्रपति शिवाजी ही ऐसे राजा थे जिनकी मुगलों से किसी तरह की अधीनता, मित्रता या संधि नहीं थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता