जब शिवाजी लाल किले में खड़े होकर गरजे तो औरंगजेब जैसे क्रूर एवं मदांध बादशाह की रूह भी कांप उठी। शिवाजी की गर्जना से लाल किले की दीवारें कांप उठीं! शिवाजी की गर्जना न केवल मुगल इतिहास की, अपितु हिन्दुओं के इतिहास की भी अत्यंत महत्वपूर्ण घटना बन गई।
जब औरंगजेब के बख्शी असद खाँ ने छत्रपति शिवाजी को पांच हजारी मनसबदारों की पंक्ति में महाराजा जसवंतसिंह के पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया तो शिवाजी बहुत आहत हुए। मुगल दरबार में हिन्दू राजाओं एवं मुस्लिम अमीरों के खड़े होने की व्यवस्था अकबर के समय से ही निर्धारित थी। दरबार में बादशाह के अतिरिक्त सब खड़े रहते थे। उनके खड़े होने का क्रम मनसब के अनुसार होता था।
भारत का बड़े से बड़ा राजा इस दरबार में घण्टों पैरों पर खड़ा रहता था, थक जाने पर वह दो मिनट के लिए अपने पीछे लगी लकड़ी की बल्ली का सहारा लेता था। यदि कोई राजा या अमीर अधिक समय तक बल्ली का सहारा लेता था तो औरंगजेब के सिपाही उसे पीछे से लकड़ी चुभाकर सीधे खड़े होने का संकेत करते थे। जो राजा बूढ़े होते थे, उनके सहारे के लिए छत से रस्सी लटकाई जाती थी जिसे पकड़कर वे घण्टों खड़े रहते थे।
शिवाजी को संभवतः मुगल दरबार की इस व्यवस्था की जानकारी नहीं थी, यदि होती तो वे कभी भी इस दरबार में नहीं आते। शिवाजी को आशा थी कि उन्हें औरंगजेब के दरबार में सम्मानपूर्वक बैठाया जाएगा, इस भयावह अपमानजनक स्थिति में शिवाजी दो पल भी खड़े नहीं रह सकते थे। उन्होंने देखा कि उनके ठीक आगे जोधपुर नरेश महाराजा जसवंतसिंह खड़े हुए थे। यह देखते ही शिवाजी क्रोध और अपमान से तमतमा गए।
शिवाजी ने सोचा कि मेरे आगे खड़ा यह वही महाराजा जसवंतसिंह है जिसे मैंने कोंडाणा दुर्ग की चढ़ाई में परास्त किया था और जिसके डेरे के सामने से मैं औरंगजेब के ममेरे भाई का कटा हुआ सिर लेकर निकला था। आज वही महाराजा जसवंतसिंह औरंगजेब के दरबार में शिवाजी की तरफ पीठ करके खड़ा था! इस अपमान से शिवाजी तमतमा गए।
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जब औरंगजेब ने सरदारों और अमीरों को खिलअतें बांटीं तो शिवाजी ने खिलअत पहनने से मना कर दिया। इस पर औरंगजेब ने मिर्जाराजा जयसिंह के कुंअर रामसिंह से कहा कि वह शिवाजी की तबियत के बारे में पूछे और उसे खिलअत पहनने के लिए समझाए। जब रामसिंह शिवाजी के पास गया तो शिवाजी ने जोर से चिल्ला कर कहा- आपने और आपके पिता ने देखा कि मैं किस तरह का इंसान हूँ फिर भी मुझे अपमानित करके इतनी देर तक खड़ा रखा गया। इसलिए मैं यह खिलअत पहनने से अस्वीकार करता हूँ।
कुंअर रामसिंह ने शिवाजी को शांत करने के लिए उनकी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो शिवाजी ने उसका हाथ झटक दिया और औरंगजेब की तरफ पीठ करके चलते हुए एक कौने में जाकर बैठ गए तथा जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि मेरी मृत्यु ही मुझे इस स्थान पर खींच लाई है। शिवाजी की इस भयंकर गर्जना से औरंगजेब के दरबार में भारी हलचल मच गई। हिन्दू राजाओं की बेचैनी और मुस्लिम सूबेदारों की घबराहट उनके चेहरों पर साफ देखी जा सकती थी। उनकी दृष्टि में शिवाजी ऐसा रहस्यमय व्यक्ति था जो किसी भी समय कुछ भी करने में समर्थ था।
शिवाजी की गर्जना के कारण औरंगजेब का मुंह अपमान से पीला पड़ गया। हालांकि औरंगजेब ने अपने जीवन में पहली बार यह दृश्य नहीं देखा था, इससे पहले भी वह अपने पिता शाहजहाँ के दरबार में अमरसिंह राठौड़ को सिंह-गर्जना करते हुए देख चुका था।
औरंगजेब के लिए यह तो अच्छा ही हुआ था कि शिवाजी को दरबारे आम में प्रस्तुत न करके दरबारे खास में प्रस्तुत किया गया था। अन्यथा आम जनता के सामने औरंगजेब की जो किरकिरी होती और जनता में शिवाजी के साहस के बारे में जो किस्से गढ़े जाते, उनका जवाब समूची मुगलिया सल्तनत के साहित्यकार मिलकर भी नहीं कर सकते थे।
शिवाजी के इस तरह विक्षुब्ध हो जाने और इतनी कठोर प्रतिक्रिया देने से औरंगजेब सहम गया। वह समझ चुका था कि उसने अनजाने में ही किस स्वाभिमानी हिन्दू राजा को नाराज कर दिया है। इसलिए उसने अपने अमीर-उमरावों को संकेत किया कि वे शिवाजी को समझाएं तथा खिलअत पहनाकर बादशाह के समक्ष लाएं।
औरंगजेब के अमीर-उमारावों ने ने शिवाजी को समझाने के बहुत प्रयास किए तथा बादशाह से कहकर उन्हें तथा उनके पुत्र को बड़ा मनसब दिलवाने के लालच दिए किंतु वीर शिवाजी ने खिलअत पहनने तथा दुष्ट औरंगजेब के सम्मुख जाने से मना कर दिया। शिवाजी इस समय भी क्रोधित थे और जोर-जोर से चिल्ला रहे थे कि मैं खिलअत नहीं पहनूंगा। बादशाह चाहे तो मुझे मार डाले या फिर मैं ही आत्मघात कर लूंगा किंतु बादशाह के समक्ष दुबारा नहीं जाऊंगा। मुझे मुसलमान बादशाह की सेवा नहीं करनी है।
औरंगजेब ने शिवाजी को अपमानित करने का प्रयास किया था किंतु स्वयं अपमानित हो गया। अपनी कपट चाल के कारण, वह जीती हुई बाजी हार चुका था। अंत में औरंगजेब के मंत्रियों ने औरंगजेब को सूचित कर दिया कि अब शिवाजी नहीं मानने वाला। इस पर औरंगजेब ने कुंअर रामसिंह कच्छवाहे से कहा कि वह शिवाजी को अपने डेरे पर ले जाकर शांत करे तथा अगले दिन फिर से हमारे सामने पेश करे।
कुंअर रामसिंह शिवाजी को आगरा के किले से निकालकर अपनी हवेली पर ले गया। उसने शिवाजी को बहुत ठण्डा-मीठा किया तथा दूसरे दिन उन्हें पुनः औरंगजेब के दरबार में लेकर आया। औरंगजेब का दरबार आज सुबह से ही ठसाठस भरा हुआ था। हर कोई यह देखना चाहता था कि आज शिवाजी क्या करेंगे? क्या दहकता हुआ अंगारा रात भर में शांत होकर बुझ चुका होगा, या फिर उस अंगारे की आंच और तेज हो गई होगी!
औरंगजेब भी रेशम से लिपटे अपने लकड़ी के कटरे के भीतर संभल कर बैठा था, हालांकि उसे पूरी आशा थी कि रात भर में राजकुमार रामसिंह ने शिवाजी को समझा-बुझा कर ठण्डा कर दिया होगा फिर भी उसे हिन्दू राजाओं का भरोसा नहीं था। क्या पता, कहीं वे एक साथ शिवाजी के पक्ष में आ गए तो सारी सल्तनत ताश के पत्तों की तरह एक क्षण में ढह जाएगी। इसलिए चिंता की लकीरें औरंगजेब के माथे पर रह-रह कर दिखाई पड़ती थीं। औरंगजेब ने अपने शहजादों को अपने कटरे के भीतर खड़ा कर लिया ताकि वे किसी भी अनहोनी का सामना कर सकें।
आखिर वह क्षण आ ही गया। कुंअर रामसिंह शिवाजी की अगवानी करता हुआ दरबारे खास में प्रविष्ट हुआ। कुंअर को पूरा विश्वास था कि आज शिवाजी शांत रहेंगे और बादशाह उन्हें क्षमा कर देगा किंतु शिवाजी के दरबार में प्रवेश करते ही जो कुछ हुआ, उसकी तो कल्पना भी किसी ने नहीं की थी।
औरंगजेब को देखते ही शिवाजी की गर्जना आरम्भ हो गई। शिवाजी ने उस म्लेच्छ शासक के समक्ष जाने से मना कर दिया तथा बादशाह की तरफ पीठ करके दीवान-ए-खास से बाहर निकल गए। लाल किले की दीवारें छत्रपति शिवाजी की गर्जना से भयभीत होकर सहम गईं।
देश भर से आए राजाओं, राजकुमारों और अमीर-उमरावों की सैंकड़ों जोड़ी आंखें शिवाजी पर टिकी हुई थीं किंतु औरंगजेब उनकी तरफ देख पाने का साहस भी नहीं कर पा रहा था। वह हताश होकर तख्त पर रखे तकिए से टिक गया। जिस छत्रपति को औरंगजेब बड़ी हिकारत से पहाड़ी चूहा कहता था, वह सिंह जैसी शान से औरंगजेब के सामने से निकल कर जा रहा था और हतप्रभ औरंगजेब सूनी आंखों से न जाने किस शून्य में देख रहा था!
शिवाजी, औरंगजेब के दरबार से निकलकर वजीर जाफर खाँ के घर गए जो औरंगेब का मौसा था और जिसकी शिवाजी से पुरानी पहचान थी। शिवाजी ने उसे बहुमूल्य उपहार देकर अनुरोध किया कि वह शिवाजी के, आगरा से वापस जाने का प्रबन्ध करे। जाफर खाँ की पत्नी, औरंगजेब की मौसी थी। उसने जाफर खाँ को अंदर बुलाकर कहा कि इस व्यक्ति को यहाँ से तुरंत भगा दो। यह वही आदमी है जिसने आपके साले शाइस्ता खाँ पर जानलेवा हमला किया था और शाइस्ता खाँ के पुत्र का सिर तलवार से उड़ा दिया था।
जब जाफर खाँ ने अपनी बेगम को समझाने का प्रयास किया तो वह जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने लगी। इस पर जाफर खाँ ने शिवाजी को अपने घर से जाने के लिए कह दिया।
उधर औरंगजेब के हरम की औरतों को शिवाजी द्वारा बादशाह का अपमान किए जाने और जाफर खाँ के घर जाकर भेंट करने के बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने बादशाह को संदेश भिजवाया कि इस उद्दण्ड हिन्दू राजा को दण्ड दिए बिना नहीं छोड़ा जाए। हरम की औरतों की अगुवाई औरंगजेब की बहिन जहाँआरा कर रही थी जो इस समय शाहबेगम के पद पर नियुक्त थी।
जहानआरा शिवाजी से इसलिए नाराज थी क्योंकि शिवाजी ने उसकी जागीर में स्थित सूरत बंदरगाह को बेरहमी से लूटा और जलाया था। शाइस्ता खाँ की बेगम जो कि औरंगजेब की मामी थी, वह भी चाहती थी कि हाथ आए हुए शिवाजी को प्राणदण्ड मिलना चाहिए। वह भी हाय-तौबा मचाने लगी।
हरम की औरतों की चीख-पुकार से तंग आकर औरंगजेब ने शिवाजी तथा उसके पुत्र सम्भाजी को कुंअर रामसिंह के सरंक्षण में बंदी बनाने के निर्देश दिए। रामसिंह ने विवश होकर शिवाजी को बंदी बना लिया।
इस प्रकार शिवाजी अतिथि से बंदी हो गए। औरंगजेब के हरम की औरतें चाहती थीं कि शिवाजी को जान से मार डाला जाए क्योंकि शिवाजी ने शाइस्ता खाँ को घायल किया था और उसके पुत्र को मार डाला था किंतु औरंगजेब इस सम्बन्ध में जल्दबाजी में कोई खतरनाक निर्णय नहीं लेना चाहता था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता