लाल किला गरीब था किंतु बहादुरशाह जफर का हरम आबाद था!
जब ईस्वी 1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली पर अधिकार किया था तब लाल किला नितांत गरीब एवं असहाय था। बादशाह शाहआलम (द्वितीय) अंधा और बूढ़ा था किंतु जब ई.1806 में उसका पुत्र अकबरशाह (द्वितीय) बादशाह बना तो लाल किले की रंगीनियां लौट आईं।
पतन के गर्त में पोर-पोर डूब चुकी सल्तनत के मालिक होने के बावजूद बहादुरशाह जफर का हरम फिर से औरतों से भरने लगा था। बादशाह की अय्याशियां दिल्ली के नए मालिकों अर्थात् अंगेजों को भी प्रभावित करती थीं।
दिल्ली का पहला अंग्रेज रेजीडेंट डेविड ऑक्टरलोनी मुगल बादशाह की तरह जामा और पगड़ी पहनकर हाथी पर बैठकर दिल्ली की सड़कों पर निकला करता था। उसकी तेरह हिन्दुस्तानी बीवियां थीं। उसकी बेगमों में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख एवं ईसाई आदि सभी धर्मों की औरतें शामिल थीं।
ऑक्टरलोनी की प्रमुख बेगम का नाम बीबी महरुतन मुबारकुन्न्सिा बेगम था। वह ऑक्टरलोनी की बेगमों में ससबे कम उम्र की थी तथा बूढ़े जनरल को अंगुलियों पर नचाया करती थी। जब तक ऑक्टरलोनी दिल्ली का रेजीडेंट रहा, दिल्ली की वास्तविक शासक यही महरुतन मुबारकुन्न्सिा बेगम रही।
वास्तव में वह पूना में नाचने वाली एक ब्राह्मण लड़की थी जो बाद में मुसलमान बना दी गई थी। डेविड ऑक्टरलोनी संध्या काल में हाथी पर बैठकर तथा अपनी तेरह बेगमों को अलग-अलग हाथी पर बैठा कर लाल किले की चार दीवारी के चारों ओर बनी सड़क पर हवाखोरी करने निकलता था।
भारत के कला संग्रहालयों में डेविड ऑक्टरलोनी के बहुत से चित्र देखने को मिलते हैं जिनमें वह अपने दरबार में मसनद के सहारे अधलेटा होकर चांदी का हुक्का गुड़गुड़ाता हुआ दिखाई देता है। इस तरह और भी अंग्रेज अधिकारी थे जो उस जमाने में मुगल बादशाहों के हरम तथा उसकी संस्कृति की नकल करके स्वयं को कृतार्थ समझने लगे थे। दिल्ली का रेजेडेंट थियोफिलस मेटकाफ सुबह नाश्ता करने के बाद आधे घण्टे तक चांदी का हुक्का गुड़गुड़ाया करता था।
जब तक बहादुरशाह जफर बादशाह बना तब तक बादशाह को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तरफ से पन्द्रह लाख रुपया सालाना पेंशन मिलने लगी थी। बादशाह को लगभग अठारह लाख रुपए की वार्षिक आय अपनी निजी सम्पत्तियों के किराए से मिल जाती थी। बादशाह इस आय में से अपने हरम से लेकर, शहजादों एवं सलातीनों को उनके निजी खर्च के लिए हर महीने रुपए बंटवाता था। शाही परिवार के कुछ सदस्य लखनऊ में भी रहते थे, उन्हें भी बादशाह एक हजार रुपए प्रतिमाह भिजवाता था।
1850 के दशक में बादशाह बहादुरशाह जफर के शहजादों की आर्थिक स्थिति भले ही खराब हो किंतु बादशाह का अपना हरम पूरी तरह गुलजार था। उसकी चार विवाहिता बेगमों के साथ-साथ बहुत सी चहेती स्त्रियां भी रहती थीं जिन्हें इतिहासकारों ने बादशाह की रखैलें कहकर सम्बोधित किया है।
बादशाह का अधिकांश समय हरम में ही गुजरता था। विलियम डैलरिंपल ने लिखा है कि ई.1853 में कम से कम पांच ऐसी औरतें थीं जो बहादुरशाह की खिदमत अंजाम देती थीं। क्योंकि उसी साल जुलाई में जफर ने चांदी के पांच जोड़ी पलंग बनवाए थे। जफर के हरम में हर समय खूब रौनक रहती थी तथा उसके अस्सी साल के होने तक हरम इसी तरह गुलजार रहा।
विलियम के अनुसार जफर के 16 बेटियां और 31 बेटे थे। उसके अंतिम पुत्र अब्बास के जन्म के समय बादशाह पूरे सत्तर साल का था। जफर का हरम अनुशासन और सुरक्षा की कमी के कारण काफी बदनाम था। एक बार बादशाह की खास रखैल पिया बाई तानरस खान नामक एक दरबारी से गर्भवती हो गई। कई अन्य रखैलों पर भी कई बार खुले आम आपत्तिजनक आरोप लगे।
शहजादे जवांबख्त के विवाह से दो माह पहले एक सिपाही जो किले के यमुना के नीचे के किनारे खुलने वाले पानी दरवाजे के पहरे पर था, वह बादशाह के हरम की एक दासी से प्रेम करने लगा तथा उससे मिलने के लिए चोरी-छिपे बादशाह के महल में जाने लगा। यह दासी बहादुरशाह की भी रखैल थी।
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जब यह बात बादशाह तक पहुंची तो उसने सिपाही को पकड़वाकर उसमें कोड़े लगवाए तथा जंजीरों से बांधकर जेल में डलवा दिया। दासी को चक्की पीसने की सजा दी गई। लाल किले की 1 फरवरी 1852 की दैनिक डायरी में लिखा है कि- ‘बादशाह ने किले के प्रबंधक को बुलाकर उससे कहा कि बादशाह जनाने के प्रबंध से बेदह अप्रसन्न है। सारे चौकीदार और चोबदार हर समय गायब रहते हैं। इस कारण बाहर के लोग आसानी से जनाने में आ-जा सकते हैं।’
बादशाह की रखैल चांदबाई ने बादशाह को बताया कि ख्वाजासराओं द्वारा रोके जाने के बावजूद नबी बख्श जबरदस्ती सुल्तान बाई के घर में घुस गया। ऐसा लगता है कि उस समय जनानखाने में बिल्कुल अफरा-तफरी मच गई।
विलियम ने लिखा है- ‘बहादुरशाह में कई खूबियां हो सकती हैं किंतु हरम को काबू में रखना उसके वश में नहीं था।’
मुगलों का हरम धरती भर में सबसे अधिक चमक-दमक वाली एवं मजबूत संस्था हुआ करता था किंतु बादशाह की तमाम रंगीन तबियत के बावजूद उसका हरम गुजरे हुए जमाने का खण्डहर मात्र ही प्रतीत होता था। शहजादे भी हरम में ही रहते थे। उन्हें पढ़ाई-लिखाई सीखने, शिकार पर जाने, कबूतरवाजी या बेटेरबाजी करने की पूरी छूट थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता