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अध्याय – 26 (य ) : मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापना

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605 ई.)

अकबर की न्याय व्यवस्था

अकबर के सामाजिक सुधार

अकबर की न्याय व्यवस्था में बादशाह सबसे बड़ा न्यायाधीश था। मुकदमों की अन्तिम अपीलें उसी के पास जाती थीं। उसके नीचे काजी-उल-कुजात अर्थात् प्रधान काजी होता था। काजी-उल-कुजात के नीचे अनेक काजी होते थे। प्रत्येक न्यायालय में तीन पदाधिकारी होते थे- काजी, मुफ्ती तथा मीर अदल। काजी मामले की जाँच करता था, मुफ्ती कानून की व्याख्या करता था और मीर अदल फैसला सुनाता था। न्याया का कोई निश्चित विधान नहीं था। मुसलमानों के विवादों का निर्णय कुरान के नियमों के अनुसार होता था। हिन्दुओं के मामलों में उनके रीति-रिवाजों का ध्यान रखा जाता था। दण्ड-विधान बड़ा कठोर था। राजद्रोह तथा हत्या करने वालों को प्राण-दण्ड दिया जाता था। अंग-भंग करने का भी प्रावधान था। छोटे-छोटे अपराधों के लिये भी बड़े जुर्माने किये जाते थे।

अकबर ने ऐसे कई सामाजिक सुधार किये जिनका उसकी समस्त प्रजा के जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। 1582 ई. में अकबर ने एक बहुत बड़े दरबार का आयोजन किया। इस अवसर पर उसने प्रजा के कल्याण के लिये कई घोषणाएं कीं-

(1.) गुलाम प्रथा का निषेध: बादशाह ने आज्ञा दी कि राज्य में गुलामी की प्रथा बन्द कर दी जाये तथा युद्ध बंदियों को भी गुलाम न बनाया जाये। कोतवालों को आदेश दिये गये कि वे गुलामों का क्रय-विक्रय बंद कर दें। इस आज्ञा के बाद गुलामों को मुक्त कर दिया गया। राज्य से न केवल गुलामी की प्रथा को हटा दिया गया अपितु गुलाम शब्द का प्रयोग निषिद्ध कर दिया और इसके स्थान पर ‘चेला’ शब्द का प्रयोग होने लगा।

(2.) बाल विवाह का निषेध: बादशाह ने बारह वर्ष की आयु के पूर्व विवाह न करने की आज्ञा प्रसारित की।

(3.) प्रांतीय गवर्नरों को प्राणदण्ड के अधिकारों का निषेध: बादशाह ने आज्ञा दी कि बादशाह की स्वीकृति के बिना, प्रान्तीय गवर्नर किसी भी व्यक्ति को प्राणदण्ड न दें।

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(4.) अकारण जीव हिंसा का निषेध: बादशाह ने आज्ञा दी कि जहाँ तक सम्भव हो, छोटे पक्षियों की रक्षा की जाये क्योंकि इनको मारने से किसी का पेट नहीं भरता तथा अकारण जीव हिंसा होती है।

(5.) दान-दक्षिणा का आदेश: बादशाह ने आज्ञा प्रसारित की कि उसके महल में प्रतिदिन दान-दक्षिणा दी जाये।

(6.) सरायें तथा अस्पताल बनाने का आदेश: बादशाह ने आज्ञा प्रसारित की कि सल्तनत के समस्त मार्गों पर सरायें बनवाई जायें। दीन-दुखियों की देखभाल की जाय और अस्पतालों की स्थापना की जाये।

अकबर ने इन समस्त घोषणाओं को कार्यान्वित करने के उपाय भी किये।

स्त्रियों की दशा में सुधार के प्रयत्न

(1.) सती प्रथा का निषेध: 1591 ई. में अकबर ने राज्य से ‘जबरन सती प्रथा’ का निषेध कर दिया। उसने आज्ञा प्रसारित करवाई कि कोई भी विधवा स्त्री, अपनी इच्छा के विरुद्ध सती न कराई जाय और जो स्त्रियाँ गौने के पहले विधवा हो जायें उन्हें कदापि सती नहीं होने दिया जाये।

(2.) विधवा विवाह को स्वीकरोक्ति: अकबर ने विधवा विवाह को राज्य की ओर से स्वीकार्य मान लिया।

(3.) एक पत्नी प्रथा को प्रोत्साहन: अकबर ने एक-पत्नी प्रथा को प्रोत्साहित किया। एक पुरुष के एक समय में एक ही पत्नी होनी चाहिये। कोई व्यक्ति अपनी पत्नी के जीवन काल में दूसरा विवाह तभी कर सकता था जब उसकी पत्नी वन्ध्या हो।

(4.) बालिका विवाह का निषेध: 1592 ई. में अकबर ने घोषणा की कि 16 वर्ष की आयु के पहले किसी बालक का और 18 वर्ष की आयु के पहले किसी बालिका का विवाह न किया जाये।

(5.) बलपूर्वक विवाह का निषेध: बादशाह ने आज्ञा जारी की कि कोई व्यक्ति बलपूर्वक अथवा अनैतिक प्रलोभन देकर विवाह नहीं कर सकेगा।

(6.) वेश्यावृत्ति का निषेध: अकबर ने वेश्याओं तथा भ्रष्ट स्त्रियों को नगर छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी। दाखिली सेना को आदेश दिया गया कि जो लोग वेश्याओं के यहाँ जाये अथवा उन्हें अपने यहाँ बुलायें उन पर कड़ी निगाह रखी जाये और उनका नाम रजिस्टर में लिखा जाये।

अन्य सुधार

(1.) धर्म परिवर्तन का अधिकार: अकबर ने अपने राज्य में सब लोगों को अपनी इच्छानुसार धर्म का पालन करने एवं धर्म परिवर्तन करने की स्वतन्त्रता दे दी।

(2.) शराब का निषेध: अकबर ने अपने राज्य में शराब के विक्रय तथा उत्पादन का निषेध कर दिया गया परन्तु लाइसेंस धारकों की दुकानों पर औषधि के लिए शराब मिल सकती थी।

(3.) भिक्षावृत्ति का निषेध: अकबर ने अपनी राजधानी से भिखमंगों को भी दूर करने का प्रयत्न किया।

साहित्य तथा कला

अकबर का काल शांति का काल था। लोगों की आर्थिक स्थिति पहले की अपेक्षा बेहतर थी। अब वे पेट की चिंता के अतिरिक्त भी कुछ सोच समझ सकते थे। इस कारण अकबर के समय में साहित्य, स्थापत्य, शिल्प एवं संगीत कला की बड़ी उन्नति हुई। अकबर का दरबार विद्वानों तथा अपने समय की विभूतियों का आश्रय स्थल बन गया था। अकबर के दरबार में नौ रत्नों की उपस्थिति से भी देश में कला और साहित्य की अत्यधिक उन्नति हुई। अकबर अपने सम्पर्क में आने वाले विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के धर्म, दर्शन, तर्क शास्त्र तथा विचारों को जानने के लिये उत्सुक रहता था। इस कारण वह स्वयं भी विभिन्न धर्मों तथा संस्कृतियों की बहुत सी बातें जान गया था। उसने विभिन्न धर्मों के दर्शन तथा विज्ञान को जानने के लिये अनेक ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। उसके शासन काल में कुरान, बाइबिल, अथर्ववेद, महाभारत, भगवद्गीता, रामायण, हरिवंश पुराण, तुजुके बाबरी, पंचतन्त्र, तख्त बत्तीसी, हयातुल हैवान, कथासरितसागर आदि महत्वपूर्ण ग्रंथों के अनुवाद हुए तथा तारीख-ए-अलफी, अकबरनामा और आईने अकबरी नामक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई। अकबर के नवरत्न फैजी ने नल-दमयन्ती की कथा के आधार पर एक मनसबी लिखी जो इतनी उत्तम थी कि बदायूनी के कथनानुसार इतना अच्छा काव्य-ग्रन्थ पिछले तीन-सौ वर्षों से नहीं लिखा गया था। अकबर को विभिन्न कलाओं से प्रेम था। इस कारण उसके शासन काल में कला की बड़ी उन्नति हुई। काव्यकला में उसकी बड़ी अनुरक्ति थी और उसे उसने बड़ा प्रोत्साहन दिया। उसने चित्रकला और वास्तुकला को भी प्रोत्साहित किया। उसे गायन तथा वादन दोनों ही प्रकार के संगीत से प्रेम था। इस कारण अकबर ने संगीतज्ञों तथा कलाकारों को संरक्षण दिया।

अकबर के धार्मिक विचार तथा उसकी धार्मिक नीति

अकबर अपने युग के मुस्लिम बादशाहों से बिल्कुल उलट, उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण का बादशाह था। वह वैचारिक संकीर्णता से परे था। उसने अपने राज्य एवं शासन में धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया। ऐसा करने के कई कारण थे-

(1.) जीवन की वास्तविकताओं से निकट का परिचय: अकबर का बाल्यकाल संकटों, षड़यंत्रों तथा मुसीबतों से भरा हुआ था। इस कारण जीवन तथा धर्म के प्रति उसका दृष्टिकोण, एक सामान्य बादशाह से भिन्न होना स्वाभाविक था। उसे कामरान तथा अन्य चाचाओं की धूर्तता तथा राज्य लिप्सा के लिये किये गये षड़यंत्रों से अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि अपने ही धर्म के लोग तथा अपने ही रक्त सम्बन्धी, राज्य तथा सम्पत्ति के लिये किसी भी निर्दोष के प्राण लेने के लिये उद्धत हो जाते हैं। इसलिये उसने धर्म तथा रक्त सम्बन्धों को ही सब-कुछ मानने के स्थान पर व्यक्ति के भीतर बसने वाले गुणों को प्रमुखता दी तथा हर धर्म में बसने वाली अच्छी बात को स्वीकार किया।

(2.) पिता हुमायूँ का प्रभाव: यद्यपि अकबर को अपने प्रारंभिक जीवन में अपने पिता हुमायूँ के साथ रहने का अवसर नहीं मिला था किंतु समझ विकसित होने से लेकर हुमायूँ की मृत्यु तक अकबर, अपने पिता के ही साथ रहा। हुमायूँ को अपने भाइयों से कदम-कदम पर धोखे और विश्वासघात मिले थे जो कि हुमायूँ की ही तरह सुन्नी मुसलमान थे। जबकि काफिर समझे जाने वाले शियाओं ने हुमायूँ को अपने यहाँ रखकर उसे अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने का अवसर दिया था। इस कारण हुमायूँ में उतना धार्मिक कट्टरपन तथा उन्माद नहीं था जितना उसके पूर्वज चंगेजखाँ, तैमूरलंग तथा बाबर में था। हुमायूँ सुसंस्कृत, उदार, दयालु तथा सहिष्णु बादशाह था। उसके व्यक्तित्त्व का अकबर पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस कारण अकबर अन्य धर्मों को मानने वालों को भी अपने धर्म वालों के ही समान समझने लगा।

(3.) माता हमीदा बानू का प्रभाव: अकबर की माता हमीदा बानू का जन्म सूफी मत को मानने वाले शिया परिवार में हुआ था। इस प्रकार अकबर की धमनियों में शियाओं, सुन्नियों तथा सूफियों का मिश्रित रक्त प्रवाहित हो रहा था। अकबर की एक विमाता भी फारस के शाह की बहिन की पुत्री थी। ऐसी स्थितियों में अकबर का दूसरे धर्मों के प्रति उदार तथा सहिष्णु हो जाना स्वाभाविक ही था।

(4.) शिक्षकों का प्रभाव: अकबर पर उसके शिक्षकों का भी बड़ा प्रभाव पड़ा। उसके शिक्षकों में बयाजद तथा मुनीमखाँ सुन्नी थे जबकि बैरमखाँ तथा अब्दुल लतीफ शिया थे। अब्दुल लतीफ इतने उदार विचारों का व्यक्ति था कि वह फारस में सुन्नी और भारत में शिया समझता जाता था। उसने अकबर के मस्तिष्क को उदार सूफी विचारों से प्रभावित किया।

(5.) विधर्मियों से मिला सहयोग: अकबर को अपने धर्म के लोगों की बजाय अलग धर्म के लोगों से अधिक सहयोग मिला। बैरमखाँ ने शिया होते हुए भी सुन्नी मत को मानने वाले अकबर के लिये नये सिरे से राज्य की रचना की। हिन्दू अमीरों राजा टोडरमल तथा बीरबल ने अकबर को पूरा विश्वास, समर्थन तथा सहयोग दिया तथा उसके राज्य को उस युग के विश्व के लिये आदर्श बना दिया। यहाँ तक कि उसके लिये अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। इस कारण भी अकबर में धार्मिक सहिष्णुता का भाव निरंतर बना रहा।

(6.) आम्बेर की राजकुमारी से विवाह: जिस समय अकबर ने सुलह-कुल की नीति का निर्माण नहीं किया था, उस समय आम्बेर के राजा भारमल ने अपनी पुत्री हीराकंवर का विवाह अकबर के साथ किया। इस विवाह ने अकबर के धार्मिक विचारों में बहुत परिवर्तन किया। उसने काफिर एवं घृणास्पद समझे जाने वाले हिन्दुओं की अच्छाइयों, आदर्शों एवं नैतिक जीवन को अत्यंत निकटता से देखा। इससे अकबर में हिन्दू धर्म के प्रति आदर का जो भाव उत्पन्न हुआ, वह जीवन भर बना रहा।

(7.) विद्वानों की संगति का प्रभाव: अकबर को फैजी, अबुल फजल, अब्दर्रहीम खानखाना तथा तानसेन जैसे विद्वानों की संगति पसंद थी। इस कारण उसके हृदय से संकीर्णताएं दूर होती चली गईं तथा उदारता आती गई। अकबर विद्वानों को अपने हृदय के इतने अधिक निकट पाता था कि फैजी की हत्या का समाचार सुनकर वह दो दिन तक बेहोश पड़ा रहा। बैरमखाँ के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना को वह इतना पसंद करता था कि अकबर ने उसे खान-ए-खानान अर्थात् अपनी सेना का सर्वोच्च सेनापति नियुक्त किया। यही रहीम अपनी कृष्णभक्ति के हिन्दुओं में तुलसी और सूर के समान समझे जाते हैं। इस प्रकार अकबर का धर्म के प्रति दृष्टिकोण काल्पनिक आदर्श पर आधारित न होकर जीवन की वास्तविक पाठशाला में विकसित हुआ था।

(8.) धार्मिक व्यक्तियों का प्रभाव: अकबर पर धार्मिक व्यक्तियों की संगति का भी गहरा प्रभाव पड़ा। जब वह बैरमखाँ के संरक्षण में था तभी से धार्मिक व्यक्तियों के सम्पर्क में आने लगा था। जब बैरमखाँ का संरक्षण समाप्त हो गया तब उसका शेखों, सन्तों, फकीरों, साधुओं तथा योगियों के साथ सम्पर्क पहले से भी अधिक बढ़ गया। साधुओं में उसका विश्वास इतना अधिक था कि किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य को करने से पहले वह उनका आशीर्वाद लेने जाता था तथा दिवंगत फकीरों एवं दरवेशों की दरगाहों पर उपस्थिति देता था। चिश्ती सम्प्रदाय के संतों, विशेषकर शेख सलीम चिश्ती में अकबर का बड़ा विश्वास था।

(9.) धार्मिक आन्दोलनों का प्रभाव: भारत में तेरहवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों में ही धार्मिक तथा आध्यात्मिक आन्दोलन चले। इन आंदोलनों का भी अकबर के विचारों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। इस काल के धर्म सुधारकों ने अपने-अपने धर्म के बाह्याडम्बरों का खण्डन किया और धर्म के आंतरिक तत्त्वों पर बल दिया। विभिन्न धर्म सुधारक सब धर्मों के बीच लौकिक एकता की खोज तथा धार्मिक समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे थे। इस कारण देश के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में उदारता तथा सहिष्णुता के भाव उत्पन्न हो रहे थे। अकबर भी उन महान विचारों के प्रभाव से मुक्त न रह सका।

(10.) आत्म-चिन्तन का प्रभाव: अकबर चिंतनशील व्यक्ति था तथा आत्म-चिन्तन के माध्यम से सही-गलत में भेद कर सकता था। विभिन्न धर्मों के अग्रणी लोगों के घिसे-पिटे तर्कों तथा कुतर्कों से ऊबकर कर वह ऐसे मार्ग की खोज कर रहा था जो उसकी प्रजा में ईर्ष्या, द्वेष तथा घृणा को दूर करके प्रेम, सहयोग, एकता तथा सद्भावना का संचार करे। इसके लिये आवश्यक था कि वह स्वयं उदारता तथा सहिष्णुता की नीति अपनाये तथा प्रजा के समक्ष उच्चादर्श प्रस्तुत करे।

अकबर की दान व्यवस्था

जब से भारतवर्ष में मुस्लिम राज्य की स्थापना हुई थी तभी से राज्य द्वारा मुस्लिम विद्वानों, फकीरों, दरवेशों, दीन-दुखियों, लूले-लँगड़ों, अपाहिजों, अनाथों, विधवाओं आदि की सहायता की जाती थी। उन्हें राज्य की ओर से नकद रुपया और भूमि दी जाती थी। नकद राशि वजीफा कहलाती थी और दान की भूमि मिल्क, मदादीमाश या सपुरगल कहलाती थी।

जब भारत में मुगलों की राज्य संस्था स्थापित हुई तब उन्होंने भी दान व्यवस्था को बनाये रखा। अकबर ने दान का अलग विभाग खोला जिसका अध्यक्ष सद्र कहलाता था। बैरमखाँ के शासन काल में, अफगानों को पूर्व में मिली हुई माफी की जमीनें उनसे छीनकर अपने आदमियों को दे दी गईं। माफी की कुछ भूमि अफगानों से छीन कर राजकीय भूमि में परिवर्तित कर दी गई। कालान्तर में दान व्यवस्था में कई दोष आ गये। कुछ लोगों के पास दान की भूमि आवश्यकता से अधिक हो गई और कुछ लोगों को बिल्कुल नहीं मिली थी। कहीं-कहीं पर राजकीय भूमि तथा दान की भूमि मिली-जुली रहती थी जिससे दान प्राप्त करने वालों तथा सरकारी अधिकारियों में प्रायः झगड़ा होता था। कुछ लोग बेईमानी से कई स्थानों पर दान की भूमि हड़प बैठे थे। अकबर ने इन दोषों को दूर करने का निश्चय किया। जिन लोगों के पास दान की भूमि पाँच सौ बीघा से अधिक थी, उन्हें अकबर ने अपने पास बुलाया तथा उनकी भूमि का आवश्यकतानुसार पुनर्वितरण किया। अकबर ने वृद्धों के साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया किंतु जो लोग अकबर के सामने नहीं आये उनकी दान की भूमि का कुछ अंश छीन लिया गया।

अकबर द्वारा सत्य की खोज

1576 ई. में अकबर गुजरात से वापस लौटा। इस अवसर पर शेख मुबारक ने अकबर से अनुरोध किया कि उसने जिस प्रकार राजनीति में अपनी प्रजा का पथ-प्रदर्शन किया है, उसी प्रकार धार्मिक मामलों में भी वह अपनी प्रजा का पथ प्रदर्शक बने। अकबर ने शेख मुबारक के आग्रह को स्वीकार कर लिया तथा उसने धर्म-गुरु बनने की योग्यता प्राप्त करने का निश्चय किया। इसके लिये यह आवश्यक था कि भारतवर्ष में प्रचलित समस्त धर्मों के मूल-तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त किया जाये।

(1.) इस्लाम के मूल तत्त्वों का अध्ययन: अकबर ने सबसे पहले इस्लाम के मूल तत्त्वों की जानकारी प्राप्त करने का निश्चय किया। उसने भारत के बड़े-बड़े इस्लामिक विद्वानों की सहायता से इस्लाम का सांगोपांग अध्ययन किया परन्तु अकबर की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई।

(2.) इबादतखाने की स्थापना: 1575 ई. में अकबर ने सत्य की खोज के उद्देश्य से सीकरी में इबादतखाना का निर्माण करवाया। इबादतखाना का अर्थ पूजा घर होता है परन्तु इस इबादतखाने में पूजा नहीं की जाती थी अपितु इसमें धार्मिक विषयों पर विचार-विमर्श तथा वाद-विवाद होते थे ताकि धर्म के मूल-तत्त्वों की बारीक बातों की जानकारी हो जाये। इबादतखाना चार भागों में विभक्त था। पश्चिम की ओर सैयद लोग बैठते थे। दक्षिण की ओर उलेमा बैठते थे। उत्तर की ओर शेख तथा पूर्व की ओर अकबर के वे अमीर तथा दरबारी बैठते थे जो अपनी विद्वता तथा अलौकिक प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध थे। इबादतखाने में दो वर्ष तक केवल इस्लाम धर्म के विद्वान एकत्रित होते रहे। उनकी बैठक प्रत्येक बृहस्पतिवार की रात्रि को होती थी। इस बैठक में अकबर उपस्थित रहकर इस्लामिक विद्वानों के व्याख्यान सुनता था। अकबर ने इस्लामिक विद्वानों से कहा कि इबादतखाना की स्थापना करने का उद्देश्य सत्य की खोज करना, सच्चे धर्म के सिद्धान्तों का अन्वेषण करना, सच्चे धर्म का प्रचार करना और सच्चे धर्म की दैवी उत्पत्ति का पता लगाना है। इसलिये कोई भी विद्वान सत्य पर पर्दा डालने का प्रयास नहीं करे परन्तु मुल्ला मौलवी, अपनी वैचारिक संकीर्णता को नहीं छोड़ सके। इस कारण इबादतखाना की कार्यवाही संतोषजनक सिद्ध नहीं हुई। उसमें जो वाद-विवाद होते थे उनमें संयम तथा मर्यादा का बड़ा अभाव था। वाद-विवाद करते समय विद्वान आपस में लड़ने लगते थे। इस कारण कटुता तथा पारस्परिक मनोमालिन्य बढ़ जाता था। इस कारण कुछ समय बाद इबादतखाना विवादखाना बन गया। अकबर को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि प्रतिष्ठत विद्वान् भी विवाद के समय संयम खो बैठते थे। बहुत से गम्भीर तथा वयोवृद्ध विद्वानों ने झगड़े से बचने के लिये इबादतखाने की बैठकों में भाग लेना बंद कर दिया।

(3.) इबादतखाने में विभिन्न धर्मों के आचार्यों को आने की छूट: 1578 ई. में अकबर ने इबादतखाने का द्वार हिन्दू, जैन, ईसाई, पारसी आदि समस्त धर्मों के आचार्यों एवं विद्वानों तथा नास्तिकों के लिये भी खोल दिया। यदि विभिन्न धर्मों के आचार्य अकबर के वास्तविक उद्देश्य को समझ गये होते और सत्य के अन्वेषण की भावना से बहस करते तो इबादतखाना एक धार्मिक संसद का रूप धारण कर लेता और इससे मानवता का बड़ा कल्याण हुआ होता परन्तु दुर्भाग्यवश अन्य धर्मों के आचार्र्यों के आगमन से भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ और इबादतखाना पूर्ववत् निरर्थक विवादों का रण-स्थल बना रहा जिसमें संयम, धैर्य तथा मर्यादा का अभाव था। इबादतखाना में आत्म-संयम तथा आत्म-नियंत्रण का इतना अभाव था कि यदि अकबर उपस्थित नहीं रहता तो मार-पीट की संभावना उत्पन्न हो जाती थी।

(4.) इबादतखाने बैठकों पर रोक: इबादतखाना की कार्यवाहियों से अकबर को बड़ी निराशा हुई। उसने सोचा था कि विभिन्न धर्मों के आचार्य परस्पर विचार-विमर्श करके एक-दूसरे के धर्म के वास्तविक ध्येय तथा उसके मौलिक सिद्धांतों का पता लगायेंगे परन्तु वे आपस में लड़-झगड़ कर मनोमालिन्य तथा साम्प्रदायिक संकीर्णता की भावना को और अधिक पुष्ट कर रहे थे। निराश होकर अकबर ने 1582 ई. में इबादतखाना की बैठकों को बंद कर दिया।

इबादतखाना बंद कर देने के बाद भी अकबर का धार्मिक चिन्तन समाप्त नहीं हुआ। वह निरंतर सत्य की खोज में लगा रहा। उसने विभिन्न धर्मों के विद्वानों तथा विशेषज्ञों को अपने महल में बुलवाकर उनके साथ सत्य की खोज के लिए धार्मिक चर्चाएं जारी रखीं। उसने पुरुषोत्तम नामक हिन्दू विद्वान तथा देवी नामक हिन्दू विदुषी को अपने महल में आमंत्रित कर तथा हिन्दू साधुओं एवं योगियों से सम्पर्क स्थापित करके हिन्दू-धर्म का ज्ञान प्राप्त किया। 1578 ई. में उसने महयार्जी राना को आमन्त्रित कर पारसी धर्म के सिद्धान्तों को समझा और गोवा से दो पादरियों को बुलाकर ईसाई धर्म के मूल तत्त्वों के जानने का प्रयत्न किया। अकबर इन विद्वानों से धार्मिक चर्चाओं के साथ-साथ सामाजिक समस्याओं पर भी विचार-विमर्श करता था। इन चर्चाओं से अकबर के ज्ञान-कोष में विपुल वृद्धि हो गई तथा उसका दृष्टिाकोण अत्यन्त व्यापक, उदार और सहिष्णु हो गया। अब वह किसी एक धर्म के दायरे में बँधकर नहीं रह सकता था। वह समस्त धर्मों से ऊपर उठ गया था। वह जान गया था कि हर धर्म में कुछ न कुछ बाह्याडम्बर हैं और हर धर्म में कुछ न कुछ विशेषता है। इतना होने पर भी समस्त धर्मों का ध्येय एक है। समस्त धर्मों के मौलिक तत्त्व एक जैसे हैं। हैवल ने लिखा है- ‘वास्तव में अकबर द्वारा इस्लाम धर्म का नेतृत्व ग्रहण करने की समस्या पर विचार करते हुए केवल इस बात का ही ध्यान नहीं रखना है कि वह उलेमा लोगों की धृष्टता पर नियन्त्रण रखना चाहता था वरन् उसकी दूरदर्शी राजनीतिज्ञता पर भी ध्यान रखना है जिसने हिन्दुस्तान की शान्ति तथा मुगल राज्यवंश की सुरक्षा के लिये इस नीति के अनुसरण हेतु प्रेरित किया।

अकबर के धार्मिक विश्वास

अकबर का जन्म इस्लाम के सुन्नी सम्प्रदाय को मानने वाले परिवार में हुआ था। उसकी माता शिया मत के परिवार से थी जो एक सूफी सम्प्रदाय में विश्वास करता था। इस प्रकार अकबर के विचारों पर इन तीन सम्प्रदायों का प्रत्यक्ष प्रभाव था किंतु राजनीतिक परिस्थितियों के चलते वह हिन्दू मंत्रियों तथा हिन्दू सेनापतियों के भी प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहा। उसकी पत्नी हीराकंवर भी हिन्दू धर्म को मानने वाली थी। अकबर ने उस काल में भारत में निवास करने वाले जैनों, बौद्धों, ईसाइयों एवं पारिसयों के धर्मगुरुओं से भी लम्बा विचार विमर्श करके उनके धर्मों के मूल तत्वों को जाना। इस प्रकार अकबर के धार्मिक विश्वासों पर भारत भूमि पर विद्यमान लगभग समस्त प्रमुख धर्मों का प्रभाव पड़ा। इस कारण अकबर के धार्मिक विश्वास किसी एक सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध न होकर एक शाश्वत मानव धर्म के प्रतीत होते हैं।

(1.) इस्लाम में विश्वास: अकबर एकेश्वरवादी था और अवतारवाद में उसका विश्वास नहीं था। उसने इस्लाम के किसी भी सिद्धांत की कभी भी उपेक्षा नहीं की। इससे स्पष्ट है कि अकबर का इस्लाम में पूर्ण विश्वास था।

(2.) भौतिक जगत से परे की सत्ता में विश्वास: अकबर का मानना था कि भौतिक जगत् के अतिरिक्त एक आन्तरिक वास्तविकता है जो चर्म-चक्षुओं को दिखाई नहीं देती वरन् जिसका अनुभव अन्तःप्रेरणा तथा तर्क से किया जा सकता है।

(3.) प्रकाश ईश्वर की सबसे बड़ी देन: अकबर का विश्वास था कि यद्यपि वायु, जल तथा पृथ्वी मनुष्य के लिए आवश्यक हैं परन्तु प्रकाश ईश्वर की सबसे बड़ी देन है जो दो रूपों में प्रकट होता है। प्रथम तो वह अन्तरात्मा, तर्क तथा आध्यात्मिक प्रकाश के रूप में और दूसरा सूर्य, अग्नि, भौतिक प्रकाश तथा गर्मी के रूप में।

(4.) पुनर्जन्म में विश्वास: अकबर का विश्वास था कि मनुष्य बार-बार जन्म लेता है और उसके पूर्व-जन्म का भावी जीवन पर प्रभाव पड़ता है।

(5.) समस्त प्राणियों की पवित्रता में विश्वास: अकबर समस्त प्राणियों के जीवन को पवित्र मानता था। इसे वह दैवीय देन मानता था क्योंकि अन्य किसी में जीवन-दायिनी शक्ति नहीं होती। अतः जीवन को आदर की दृष्टि से देखना चाहिये।

(6.) सब तरह की स्वच्छता में विश्वास: अकबर का मानना था कि मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह अपने शरीर, मस्तिष्क तथा अपनी आत्मा को स्वच्छ और पवित्र रखे और सदाचरण तथा सद्व्यवहार के साधारण नियमों का पालन करे।

(7.) सूर्य उपासना में विश्वास: अकबर सूर्य का उपासक था परन्तु वह सूर्य की उपासना ईश्वर के रूप में नहीं करता था क्योंकि वह एकेश्वरवादी था। कहा जाता है कि पारसियों से प्रभावित होकर उसने सूर्य उपासना आरम्भ की। बदायूनी के विचार में अकबर ने बीरबल तथा अन्तःपुर की हिन्दू रानियों से प्रभावित होकर सूर्य पूजा आरम्भ की थी। मुगलों का विश्वास था कि राजाओं का भाग्य सूर्य से सम्बन्धित होता है। अकबर का भी विश्वास था कि सूर्य उपासना से मनोवांछित फल मिलता है।

(8.) जीव अहिंसा में विश्वास: अकबर का मानना था जीवों की हत्या उचित नहीं हैं। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि हरि विजय सूरी, विजय सेनसूरी, भानुचन्द्र उपाध्याय आदि जैन आचार्यों के सम्पर्क में आने से अकबर उनकी अहिंसा वृत्ति  से प्रभावित हुआ था परन्तु वास्तविकता यह है कि जैन आचार्यों के सम्पर्क में आने से पहले ही अकबर में अहिंसा की भावना ने जन्म ले लिया था। 1578 ई. से ही उसकी शिकार करने में रुचि कम हो गई थी और वह अहिंसा की ओर झुक गया था। सम्भवतः हिन्दू साधुओं, मुस्लिम दरवेशों तथा कुछ सूफी संतों के प्रभाव से अकबर में अहिंसा की मनोवृत्ति ने जन्म लिया तथा जैन आचार्यों के सम्पर्क में आने से अहिंसा की भावना अधिक बलवता हो गई। अकबर ने मांस-भक्षण का पूर्ण त्याग नहीं किया था अपतिु कुछ दिवसों पर पशु-हत्या का निषेध करके मांस-भक्षण को हतोत्साहित करने का प्रयत्न किया था।

(9.) गौ-हत्या का निषेध: अकबर ने अपने राज्य में गौ हत्या का निषेध कर दिया था। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने आर्थिक तथा राजनीतिक कारणों से गौवध का निषेध किया। गाय उपयोगी पशु है और इसकी हत्या से हिन्दुओं के हृदय पर चोट लगती है। इस कारण अकबर ने गौवध का निषेध कर दिया था।

(10.) ईश्वरीय सत्ता में विश्वास: अकबर का विश्वास था कि मनुष्य अपने प्रत्येक कार्य के लिए उस ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है जो सर्व-शक्तिमान्, सर्व-द्रष्टा तथा सर्व-व्यापक है और जिसकी आँख में कोई धूल नहीं डाल सकता। इसलिये अकबर प्रत्येक कार्य को धार्मिक तथा पवित्र समझता था। उसे इस बात का बड़ा दुःख था कि लोग इस महान् सत्य को नहीं समझ पाते कि सबको मेल-जोल से रहना चाहिये। सबको सद्भावना के साथ ईश्वर की खोज में आगे बढ़ना चाहिए और स्वच्छता तथा पवित्रता का जीवन व्यतीत करना चाहिये।

(11.) दूसरों के लिये जटिल पहेली: उस युग के लोगों के लिये अकबर अपने विचारों, धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों के कारण एक जटिल पहेली बन गया जो उसके धर्म के विषय में विभिन्न प्रकार के अनुमान लगाते थे। अकबर के मित्र अबुल फजल के विचार में अकबर एक सच्चा मुसलमान था परन्तु अकबर के आलोचक बदायूनी के विचार में अकबर एक विधर्मी था जो शेख मुबारक, उसके पुत्रों तथा अन्य चाटुकारों के प्रभाव में आकर इस्लाम को नष्ट कर देना चाहता था।

निष्कर्ष

अकबर जीवन पर्यन्त मुसलमान बना रहा परन्तु उसने मौलवियों के कठमुल्लापन को अस्वीकार कर दिया। सूर्य उपासना, गौ-हत्या निषेध एवं जीव अहिंसा में विश्वास करने के कारण कट्टर पन्थियों की दृष्टि में अकबर मुसलमान नहीं था। जबकि वास्तविकता यह है कि उसने इस्लाम के मौलिक सिद्धान्तों की कभी उपेक्षा नहीं की। इस्लाम के साथ-साथ वह शाश्वत मानव धर्म में विश्वास करता था। उसका मानना था कि हर धर्म का मूल तत्व लगभग एक ही है, केवल उसके बाह्य रूप में अंतर है जिसे आधार बनाकर लोग परस्पर लड़ते हैं। हैवेल ने अकबर के उच्च धार्मिक सिद्धान्तों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘राजनीति में उच्चतम धार्मिक सिद्धान्तों को समाविष्ट करके अकबर ने भारतीय इतिहास में अपना नाम अमर बना दिया है।’

दीन-इलाही

दीन-इलाही की स्थापना

दीन-इलाही का शाब्दिक अर्थ, ‘ईश्वर का धर्म’ होता है परन्तु वास्तव में दीन-इलाही कोई धर्म नहीं था। यह ऐसे लोगों की एक गोष्ठी थी जो अकबर के विचारों तथा विश्वासों से सहमत थे और जो उसे अपना पीर या गुरु मानने को तैयार थे। अकबर जानता था कि न तो समस्त धर्मों को जोड़कर एक किया जा सकता है और न नया धर्म चलाया जा सकता है परन्तु वह अपने विचारों तथा विश्वासों को उन लोगों में प्रचलित करना चाहता था जो उनका स्वांग करना चाहते थे। फलतः अकबर ने उन लोगों की एक गोष्ठी बनाने का निश्चय कर लिया जो उसके धार्मिक विचारों तथा आध्यात्मिक सिद्धान्तों से प्रभावित थे और उसे पीर या गुरु मानकर उसके पद चिह्नों पर चलने के लिए को तैयार थे। इसी गोष्ठी का नाम दीन-इलाही पड़ गया।

दीन-इलाही के सदस्य

दीन-इलाही की सदस्यता अत्यन्त सीमित थी। अकबर जानता था कि उसे प्रसन्न करने अथवा अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये बहुत बड़ी संख्या में लोग इसका सदस्य बनने के लिए उद्यत हो सकते थे। अकबर नहीं चाहता था कि लोग भय अथवा प्रलोभन वश इसके सदस्य बनें। बदायूनी भी इस बात को स्वीकार करता है कि दीन-इलाही का सदस्य बनाने के लिए धन अथवा शक्ति का प्रयोग नहीं किया गया। एक भी ऐसा उदाहरण उपलब्ध नहीं है कि दीन-इलाही का सदस्य बनने से किसी के पद में वृद्धि हुई हो अथवा इसका सदस्य बनने से मना कर देने पर किसी प्रकार की क्षति पहुँची हो अथवा दण्ड मिला हो। इसमें केवल वही लोग सम्मिलित हो सकते थे जो स्वेच्छा से इसका सदस्य बनना चाहते थे और जिन्हें अकबर इसका सदस्य बनने योग्य समझता था। बिना अकबर की स्वीकृति के कोई इसका सदस्य नहीं बन सकता था। इतने सारे प्रतिबन्धों के होते हुए भी कई हजार लोग इसके सदस्य बन गये। अब लगभग बीस सदस्यों के नाम उपलब्ध हैं। बीरबल के अतिरिक्त शेष समस्त सदस्य मुसलमान थे। इनमें से कुछ बड़े ही योग्य, चरित्रवान् तथा स्वतन्त्र विचार के व्यक्ति थे। राज्य के बड़े-बड़े हिन्दू मंत्रियों में से, जो अकबर के बड़े विश्वासपात्र थे, यथा भगवानदास, मानसिंह, टोडरमल आदि कोई भी दीन-इलाही का सदस्य नहीं बना।

दीन-इलाही का सदस्य बनने की प्रक्रिया

दीन-इलाही का सदस्य बनने के लिए अकबर ने रविवार को दीक्षा देने का दिन निर्धारित किया। उसी दिन लोग इसके सदस्य बन सकते थे। जो व्यक्ति दीक्षा लेना चाहता था वह अपने हाथों में एक पगड़ी लेकर अपने सिर को अकबर के चरणों पर रख देता था। अकबर उसे उठाकर उसकी पगड़ी उसके सिर पर रख देता था। तब अकबर शिस्त शब्द का उच्चारण करता था। शिष्य भी इस शब्द को दोहराता था। शिस्त शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- कटिया, जिससे मछलियाँ पकड़ी जाती हैं या कटिया लगाना परन्तु यहाँ पर इसका अर्थ है शिष्यता ग्रहण करना। एक पत्र पर शिस्त शब्द अंकित रहता था जिस पर ‘अल्ला-हो-अकबर’ अर्थात् ईश्वर महान् है भी लिखा रहता था। नये शिष्य को अकबर का एक लघु चित्र भी मिलता था जिसे वह प्रायः अपनी पगड़ी में रखता था।

दीन-इलाही के सिद्धांत

दीन-इलाही के सदस्यों को निम्नलिखित सिद्धांतों का पालन करना होता था-

(1.) दीन-इलाही के सदस्य आपस में मिलने पर अल्ला-हो-अकबर अर्थात् ‘ईश्वर महान् है’ कहकर प्रणाम करते थे और जल्ला-जलाल-हू अर्थात् ‘महान् है उसका ऐश्वर्य’ कहकर प्रणाम का उत्तर देते थे।

(2.) दीन-इलाही के सदस्यों को मांस-भक्षण से बचने का यथा-सम्भव प्रयत्न करना चाहिये था और अपने जन्म के महीने में तो स्पर्श भी नहीं करना चाहिये था।

(3.) वन्ध्या, गर्भवती स्त्रियों तथा रजस्वला होने के पूर्व कन्याओं के साथ मैथुन करने का निषेध था।

(4.) दीन-इलाही का न कोई धर्मग्रन्थ था, न कोई आचार्य थे, न कोई देवालय या पूजागृह था और दीक्षा के अतिरिक्त न कोई त्यौहार या अनुष्ठान था।

(5.) बदायूनी ने लिखा है कि दीन-इलाही के अनुयायियों को लिखित वचन देना पड़ता था कि वे इस्लाम को त्याग देंगे।

(6.) त्याग की चार कोटियाँ थीं- सम्पत्ति का त्याग, जीवन का त्याग, सम्मान का त्याग तथा धर्म का त्याग।

दीन-इलाही के उद्देश्य

अकबर द्वारा दीन-इलाही को आरम्भ करने के निम्नलिखित उद्देश्य थे-

(1.) अकबर किसी नये धर्म का प्रचार नहीं करना चाहता था और न किसी धर्म को नष्ट करना चाहता था। वह घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, कलह तथा पारस्परिक संघर्ष के जगत् में प्रेम, सहयोग तथा सद्भावना का राज्य स्थापित करना चाहता था।

(2.) अकबर अपने राज्य से वैचारिक संकीर्णता तथा धार्मिक असहिष्णुता को दूर करके सब लोगों में सुलह, शान्ति तथा सद्भावना स्थापित करना चाहता था।

(3.) अकबर की धारणा थी कि लोग अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए भी कुछ समान आदर्शों तथा सिद्धान्तों के सूत्र में बंधकर भ्रातृत्व का संचार कर सकते थे।

(4.) अकबर अपने चिंतन तथा सत्संग से कुछ महान् आदर्शों का सृजन कर सका था, उन्हें वह अपने व्यावहारिक जीवन में चरितार्थ करके दिखाना चाहता था।

(5.) अकबर प्रजा की राजभक्ति को सुदृढ़ बनाना चाहता था।

दीन-इलाही का महत्व

(1.) अकबर की मृत्यु के साथ ही दीन-इलाही समाप्त हो गया परन्तु अकबर ने जिन आदर्शों तथा सिद्धान्तों को स्थापित किया, उसके वंशज दो पीढ़ियों तक उनका पालन करते रहे।

(2.) शहजादा खुसरो तथा शहजादा दारा अकबर की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते रहे। यदि राज-सत्ता उनके हाथों में चली गई होती तो अकबर की विचारधारा आगे भी जीवित रहती।

(3.) राजनीतिक दृष्टि से दीन-इलाही को विशेष महत्त्व नहीं है क्योंकि बहुत थोड़े से लोग ही इसके सदस्य बने परन्तु इसने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जिसका ईश्वर तथा अकबर में ध्रुव विश्वास था और जो अकबर के लिये अपना सर्वस्व निछावर करने के लिये उद्यत था।

(4.) दीन-इलाही ने इस बात को सिद्ध कर दिया कि राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक मतभेद होते हुए भी लोगों के लिये यह सम्भव था कि वे ईश्वर तथा बादशाह की सेवा एक सूत्र में बँध कर करें।

(5.) यदि दीन-इलाही सफल हुआ होता तो यह जन सामान्य में अकबर के प्रति अटल विश्वास उत्पन्न कर देता।

(6.) औरंगजेब के बादशाह बनते ही मुगल शासकों में उदारता का विलोपन हो गया तथा राज्य से दीन इलाही का प्रभाव पूर्णतः समाप्त हो गया।

दीन-इलाही की आलोचना

(1.) मुस्लिम तथा ईसाई इतिहासकारों ने दीन-इलाही की तीव्र आलोचना की है। बदायूनी के अनुसार दीन-इलाही का प्रचार इस्लाम को नष्ट करने के लिये किया गया था।

(2.) विन्सेन्ट स्मिथ ने इसे अकबर की मूर्खता का द्योतक बताया है। स्मिथ के अनुसार दीन-इलाही, अकबर के हास्यास्पद दम्भ तथा अनियन्त्रित अधिनायकतन्त्र के दानवीय विकास का फल था।

(3.) हेग ने लिखा है- दीन-इलाही वास्तव में लज्जाजनक असफलता रही। वह हिन्दू, मुसलमान तथा ईसाई किसी को भी अच्छा नहीं लगा।

दीन-इलाही की प्रशंसा

अधिकांश हिन्दू इतिहासकारों ने दीन-इलाही की प्रशंसा की है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने दीन-इलाही की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘यह एक ऐसा धर्म था जिसमें समस्त धर्मों के गुण विद्यमान थे। इसमें रहस्यवाद, दर्शन तथा प्रकृति पूजा के तत्त्व संयुक्त थे। यह तर्क पर आधारित था। इसने किसी अन्ध-विश्वास को नहीं अपनाया, किसी ईश्वर या पैगम्बर को स्वीकार नहीं किया। अकबर ही इसका मुख्य प्रवर्तक था।’

प्रो. श्रीराम शर्मा ने लिखा है- ‘दीन-इलाही अकबर की राष्ट्रीय आदर्श की उच्च-कोटि की अभिव्यंजना थी।’ एक अन्य इतिहासकार ने लिखा है- ‘जो लोग अकबर की धार्मिक खोज में यह देखते हैं कि उसने राजनीतिक ध्येय से एक ऐसे धर्म को स्थापित करने का प्रयास किया जिसमें उसकी प्रजा एकता के सूत्र में बँध जाती, वे सत्य के केवल धरातल को ही देख सके हैं और वे भी बिनयॉन की भाँति उस व्यक्ति के अन्तःस्थल तक नहीं पहुँच सके हैं।’

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