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अध्याय – 26 (अ) : मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापना

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605 ई.)

अकबर का जन्म

 अकबर का पूरा नाम जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर था। उसके पिता का नाम हुमायूँ और माता का नाम हमीदा बानू बेगम था। जिस समय हुमायूँ शेरशाह से परास्त होकर अपने भाई हिन्दाल के साथ सिन्ध में निवास कर रहा था उसी समय हुमायूँ ने  21 अगस्त 1541 को हिन्दाल के शिक्षक की पुत्री हमीदा बानू बेगम से विवाह किया। हिन्दाल इस विवाह से सहमत नहीं था इसलिये वह हुमायूँ का साथ छोड़कर कन्दहार चला गया। हुमायूं हमीदा बानू बेगम के साथ 22 अगस्त 1542 को अमरकोट पहुँचा। यहीं पर राणा वीरसाल के राजप्रासाद में 15 अक्टूबर 1542 को हमीदा बानू बेगम के गर्भ से अकबर का जन्म हुआ। हुमायूँ को पुत्र के पैदा होने की सूचना मिलने पर बड़ी प्रसन्नता हुई परन्तु उस समय हुमायूँ के पास अपने मित्रों को भेंट देने के लिए कुछ नहीं था। हुमायूँ ने एक कस्तूरी को तोड़ कर अपने मित्रों में बांट दिया और अल्लाह से प्रार्थना की कि कस्तूरी की सुगन्ध की तरह उसके पुत्र का यश भी चारों दिशाओं में फैल जाये।

अकबर का प्रारम्भिक जीवन

जब हुमायूँ ने फारस के शाह के यहाँ जाने का निश्चय किया तब उसने अकबर को अपने कुछ शुभचिन्तकों के संरक्षण में कन्दहार में छोड़ दिया और स्वयं हमीदा बानू बेगम के साथ फारस चला गया। इस समय अकबर केवल एक वर्ष का था। इस प्रकार अकबर शैशवकाल में माता के वात्सल्य से वंचित हो गया। इस समय मिर्जा अस्करी कन्दहार में था। वह अकबर को अपने महल ले गया। उसकी पत्नी सुल्ताना बेगम के कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये उसने बड़े स्नेह से अकबर को पाला। 1545 ई. की शीत ऋतु में अकबर कन्दहार से काबुल भेज दिया गया जहाँ कामरान शासन कर रहा था। उन दिनों बाबर की बहिन खानजादा बेगम काबुल में थी। उसने बड़े लाड़-प्यार के साथ अकबर का पालन किया। इस प्रकार माता-पिता के बिना ही अकबर के जीवन के प्रथम तीन वर्ष व्यतीत हुए। नवम्बर 1545 में हुमायूँ ने काबुल पर अधिकार किया तब अकबर को अपने माता-पिता को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मार्च 1546 में अकबर का खतना किया गया तथा तथा उसका नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर रखा गया। 1546 ई. की वसन्त ऋतु में हुमायूं ने बदख्शाँ के लिए प्रस्थान किया। इस बीच, कामरान ने फिर से काबुल पर अधिकार कर लिया। अकबर एक बार फिर अपने निर्दयी चाचा के हाथ लग गया। जब हुमायूं बदख्शाँ से वापस लौटा और उसने काबुल के दुर्ग का घेरा डालकर उस पर गोले बरसाना आरम्भ किया तब कामरान ने हुमायूँ तथा उसके आदमियों की स्त्रियों तथा बच्चों पर बड़ा अत्याचार किया। उसने बच्चों को दुर्ग की दीवारों से लटकाकर तोप के गोलों से उड़ाने के आदेश दिये। इन्हीं बच्चों में अकबर भी था। उसे भी दीवार से लटका दिया गया। सौभाग्य से हुमायूं के आदमियों ने अकबर को पहचान लिया और ऐन वक्त पर तोपों का मुँह फेरकर अकबर की जान बचाई। यह घटना अप्रेल 1547 की है। इसके बाद अकबर सदैव अपने पिता हुमायूँ के साथ रहा।

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अकबर का विवाह तथा पिता के संरक्षण में युद्ध

1551 ई. में हिन्दाल की मृत्यु होने पर अकबर को गजनी का सूबेदार बनाया गया तथा हिन्दाल की पुत्री रजिया सुल्ताना से अकबर का विवाह कर दिया गया। जब हुमायूँ ने भारत की पुनर्विजय आरम्भ की तब अकबर उसके साथ था। 1555 ई. में जब हुमायूं ने लाहौर पर अधिकार किया तब उसने 22 जनवरी 1555 को सरहिंद नामक स्थान पर अकबर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इसी वर्ष हुमायूँ ने दिल्ली विजय के बाद अकबर को पंजाब का गवर्नर बनाया और बैरमखाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया। उस समय अकबर की आयु 13 वर्ष थी।

अकबर का राज्यारोहण

सरहिन्द के युद्ध में अकबर ने अपने पिता हुमायूँ के साथ अफगानों से युद्ध किया। सरहिन्द की विजय के उपरान्त जब सिकन्दर लोदी शिवालिक की पहाड़ियों की ओर भाग गया तब हुमायूँ ने अकबर तथा बैरमखाँ को उसका दमन करने के लिए पंजाब भेजा और स्वयं दिल्ली चला गया परन्तु 26 जनवरी 1556 को हुमायूँ की अकाल मृत्यु हो गई। बादशाह की मृत्यु की सूचना तुरन्त अकबर तथा बैरमखाँ को भेजी गई। अकबर इस समय पंजाब के गुरदासपुर जिले में कालानूर नामक स्थान पर था। बैरमखाँ ने उसी दिन 14 फरवरी 1556 को वहीं पर ईंटों के एक चबूतरे को तख्त बनाकर अकबर को बादशाह घोषित कर दिया और वहाँ पर उपस्थित अधिकारियों तथा अमीरों से उसका अभिनन्दन कराया। चूँकि उस समय अकबर की आयु तेरह वर्ष चार माह थी, इसलिये बैरमखाँ अकबर की तरफ से शासन चलाने लगा।

अकबर की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ

अकबर की प्रारंभिक कठिनाइयां भयानक थीं। उसे एक ऐसा राज्य मिला था जिसकी पुनर्स्थापना अभी ढंग से नहीं हुई थी और राज्य का संस्थापक चल बसा था। स्मिथ ने लिखा है- ‘जब कालानूर में समारोह किया गया तब यह नहीं कहा जा सकता था कि अकबर के पास कोई साम्राज्य था।’ बैरमखाँ के सेनापतित्त्व में जो छोटी सी सेना थी उसका पंजाब के कुछ जिलों पर अधिकार था। उस सेना पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता था। आगरा तथा दिल्ली भी मुगल प्रांतपतियों के अधिकार में थे। अकबर की प्रारंभिक कठिनाइयां इस प्रकार से थीं-

(1.) अल्पायु की समस्या: इस समय अकबर केवल 13 साल 4 महीने का था। उसे किसी भी प्रकार का सैनिक तथा प्रशासकीय अनुभव नहीं था। न वह स्वयं अपने प्रबल शत्रुओं से लोहा ले सकता था और न अपने राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित कर सकता था। उसे एक विश्वस्त मार्ग दर्शक एवं संरक्षक की आवश्यकता थी जो इन कठिन परिस्थितियों में मुगलों की हिचकोले लेती नाव को मजबूती के साथ खे सके। सौभाग्य से अकबर को बैरमखाँ की सेवाएँ प्राप्त हो गईं।

(2.) मुगल अमीरों को नियंत्रण में रखने की समस्या: बैरम खाँ मूलतः फारस का शिया मुसलमान था। मुगल दरबार के बहुत से अमीर अकबर तथा उसके संरक्षक बैरमखाँ से अधिक वयोवृद्ध थे, जो सुन्नी सम्प्रदाय से थे और अपने को शुद्ध तुर्की रक्त का मानते थे। इन सुन्नी वयोवृद्ध अमीरों को नियन्त्रण में रखना अकबर तथा बैरमखाँ के लिए सरल काम नहीं था।

(3.) शाह अबुल माअली की समस्या: शाह अबुल माअली रूपवान् तथा गुणवान् नवयुवक था। वह सैयद वंश में उत्पन्न हुआ था तथा हुमायूँ का बड़ा प्रिय था। मुगल दरबार में उसका बड़ा सम्मान तथा प्रभाव था। शिया लोगों से उसे घोर घृणा थी और बैरमखाँ का उत्थान उसकी आँखों में खटक रहा था। अबुल माअली अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए विद्रोह का बिगुल बजा सकता था।

(4.) साधनों का अभाव: यद्यपि कालानूर में अकबर का राज्याभिषेक कर दिया गया था परन्तु वास्तव में न तो उसके पास कोई तख्त था और न साम्राज्य। अकबर के पास एक छोटी सी सेना थी जिसके बल पर मुगलों का तख्त प्राप्त करना कठिन था। अकबर के पास कोई खजाना भी नहीं था। इन दिनों दिल्ली तथा आगरा में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था। चूँकि पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अकबर का अधिकार नहीं था, इसलिये उस ओर से भी सैनिकों का मिलना कठिन था।

(5.) सरदारों में मतभेद: राज्य की पुनर्प्राप्ति की रणनीति के सम्बन्ध में अकबर के सरदारों में बड़ा मतभेद था। कुछ सरदारों की राय थी कि पहले अकबर को काबुल ले जाया जाये और वहाँ पर एक सेना का संगठन करके तब अफगानों का सामना किया जाये। अन्य सरदारों की राय थी कि सीधे दिल्ली की ओर प्रस्थान किया जाये और अफगानों का सामना किया जाये।

(6.) काबुल की समस्या: अकबर को तख्त पर बैठे तीन-चार दिन ही हुए थे कि उसे सूचना मिली कि बदख्शाँ के शासक सुलेमान मिर्जा ने एक बड़ी सेना के साथ काबुल का घेरा डाल दिया है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक था कि काबुल की रक्षा के लिए एक सेना तुरन्त भेजी जाये, अन्यथा उसका हाथ से निकल जाना निश्चित था परन्तु मुगल सेना इतनी बड़ी नहीं थी कि उसका कुछ भी भाग काबुल की रक्षा के लिए भेजा जाता, क्योंकि ऐसा करने से भारत का जो भाग अकबर के अधिकार में था, वह भी खतरे में पड़ जाता।

(7.) मुहम्मद शाह आदिल की समस्या: काबुल की समस्या के समाधान पर विचार चल ही रहा था कि दिल्ली के गवर्नर तार्दी बेग से सूचना प्राप्त हुई कि मुहम्मदशाह आदिल के सेनापति हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया है और दिल्ली की ओर बढ़ता चला आ रहा है। यदि समय रहते पर्याप्त सेना दिल्ली नहीं पहुँच सकी तो दिल्ली का हाथ से निकलना निश्चित है।

(8.) सिकंदरशाह सूरी की समस्या: सिकन्दरशाह सूरी अकबर की गतिविधियों पर ताक लगाये हुए था। यह निश्चित था कि यदि अकबर अपनी सेना के प्रधान अंग को दिल्ली या काबुल भेज दे तो सिकन्दरशाह सूरी शिवालिक की पहाड़ियों से निकल कर पंजाब को रौंदना आरम्भ कर देगा।

(9.) साम्राज्य विस्तार की समस्या: इस समय सिंध, मुल्तान, कश्मीर, बंगाल, बिहार, गुजरात, मालवा, राजपूताना तथा समूचा दक्षिण भारत मुगल साम्राज्य से बाहर थे। इन क्षेत्रों को अधिकार में लिये बिना साम्राज्य का निर्माण संभव नहीं था।

(10.) संरक्षक से संघर्ष: राज्य को एक दिशा देने के लिये एक ही व्यक्ति का निर्देशन चल सकता था। अकबर तथा बैरमखाँ दोनों ही प्रतिभाशाली थे। दोनों में राज्य को दिशा देने की क्षमता थी। अतः जैसे ही अकबर वयस्क हुआ, उसके लिये बैरमखाँ का स्वतंत्र व्यवहार बहुत बड़ी समस्या बन गया। ऐसी स्थिति में अकबर तथा बैरामखाँ के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया।

अकबर की कठिनाइयों का निवारण

अकबर की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ भयानक थीं। राज्य विशृंखलित था, चारों ओर से विद्रोह फूट पड़े थे किंतु नियति ने अकबर को इन कठिनाइयों से बाहर निकालने के साधन जुटा दिये।

बैरमखाँ की सेवाएँ

अकबर के सौभाग्य से उसे योग्य तथा अनुभवी सेनापति बैरमखाँ की सेवाएँ प्राप्त हो गईं। वह 16 वर्ष की आयु से हुमायूँ की सेवा में था। संकट के समय वह हुमायूँ के साथ छाया की तरह रहा। उसमें कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता थी। उसमें अपने पद के उपयुक्त योग्यताएँ भी विद्यमान थीं। वह अनुभवी तथा कुशल सेनानायक था। उसे शासन करने का व्यापक अनुभव था। वह विद्वान, व्यवहार कुशल तथा नीति निपुण था। अल्पायु के कारण अकबर में अनुभव का जो अभाव था, उसकी पूर्ति बैरमखाँ ने कर दी। अकबर ने अपने राज्यारोहण के बाद बैरमखाँ को खान-ए-खाना की उपाधि दी तथा उसे राज्य का वकील-ए-सल्तनत नियुक्त किया। उसने प्रारम्भ से ही सावधानी के साथ काम करना आरम्भ किया तथा सबसे पहले अपने प्रतिद्वन्द्वियों को समाप्त करने का निश्चय किया।

शाही शिविर में अनुशासन की स्थापना

बैरमखाँ को राज्य एवं अमीरों पर नियंत्रण स्थापित करने में सबसे बड़ा खतरा शाह अबुल माअली की ओर से था। बैरमखाँ जानता था कि यह व्यक्ति बादशाह तथा तख्त दोनों के लिये खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिये उसने माअली को समाप्त करने का निश्चय किया। एक दिन अकबर के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में एक प्रीतिभोज दिया गया। वहीं पर बैरमखाँ ने माअली को कैद करके उसे लाहौर भेज दिया। इससे अमीरों में बैरमखाँ का भय व्याप्त हो गया तथा शाही शिविर में बादशाह तथा उसके संरक्षक के विरुद्ध विद्रोह की संभावना कम हो गई।

पानीपत का दूसरा युद्ध

(1.) हेमू का उत्कर्ष: हेमू का असली नाम हेमराज था। वह धूसर जाति का बनिया था। कुछ इतिहासकार उसे गौड़ ब्राह्मणों की एक शाखा से मानते हैं। उनके अनुसार हेमू रेवाड़ी में शोरे का व्यापार करता था। इसलिये कुछ इतिहासकारों ने उसे बनिया कहा है। हेमू प्रतिभावान् व्यक्ति था। उसने सुल्तान इस्लामशाह का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। इस्लामशाह ने उसे दिल्ली के बाजारों का निरीक्षक नियुक्त किया। हेमू उन्नति करता हुआ शाही रसोई का निरीक्षक बन गया। वह सैनिकों को भी रसद देता था। कुछ दिनों बाद वह लगान का कनिष्ठ अधिकारी बन गया। बाद में अफगान सेना में उसे कनिष्ठ पद मिल गया। इस्लामशाह की मृत्यु के उपरान्त हेमू ने सुल्तान आदिल शाह को प्रसनन कर लिया और वह उसका प्रधानमन्त्री तथा प्रधान सेनापति बन गया। हिन्दू होते हुए भी वह सुल्तान आदिल शाह का इतना विश्वासपात्र बन गया। अफगान सरदार उसे आदर की दृष्टि से देखते थे और प्राण-पण से उसकी अध्यक्षता में लड़ने के लिए तैयार रहते थे।

(2.) हेमू का आक्रमण: जब हेमू ने सुना कि हुमायूँ मर गया तो वह विशाल सेना लेकर तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ा। इस कारण दिल्ली का गवर्नर तार्दी बेग अत्यंत भयभीत हो गया। बैरमखाँ ने अपने सर्वाधिक योग्य सेनापति पीर मुहम्मद शर्वानी को कुछ अन्य लोगों के साथ तार्दी बेग को ढाढ़स देने के लिए दिल्ली भेजा। इस बीच तार्दी बेग ने आगरा के प्रान्तीय गवर्नर को भी दिल्ली बुला लिया। हेमू भी अपनी सेना के साथ दिल्ली के समीप आ डटा। मुगल तथा अफगान सेनाओं में भीषण संग्राम युद्ध हुआ। प्रारंभ में मुगलों को अच्छी सफलता मिली परन्तु बाद में वे हारने लगे। पीर मुहम्मद लड़ाई के मैदान से भाग खड़ा हुआ। हेमू ने दिल्ली, आगरा तथा संभल पर अधिकार कर लिया।

(3.) बैरमखाँ द्वारा तार्दी बेग की हत्या: बैरमखाँ ने तार्दी बेग को उसकी कायरता का दण्ड देने के लिये अपने खेमे में बुलवाया और उसका वध कर दिया। वृद्ध तुर्की अमीर की हत्या से तुर्की अमीरों में सनसनी फैल गई और वे बैरमखाँ को संदेह की दृष्टि से देखने लगे परन्तु इस संकट काल में समस्त अमीर संगठित रहे और यह निश्चित किया गया कि किसी योग्य व्यक्ति को सिकन्दरशाह पर कड़ी निगाह रखने के लिए छोड़ दिया जाय और शाही सेना दिल्ली के लिए प्रस्थान करे।

(4.) अली कुली खाँ द्वारा हेमू के तोपखाने पर अधिकार: शाही सेना तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ी। अनुभवी तथा दक्ष सेनापति अली कुली खाँ को दस हजार अश्वारोहियों के साथ आगे भेजा गया। संयोगवश अली कुली खाँ हेमू के तोपखाने के पास पहॅुंच गया और उसने हेमू के तोपखाने पर अधिकार कर लिया। यह हेमू की बहुत बड़ी गलती थी कि उसने अपने तोपखाने की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था किये बिना ही आगे भेज दिया था परन्तु इस दुर्घटना से हेमू का साहस भंग नहीं हुआ। वह अपनी सेना के साथ पानीपत के मैदान में आ डटा।

(5.) बैरमखाँ द्वारा हेमू की हत्या: 5 नवम्बर 1556 को हेमू की सेना का मुगल सेना के साथ भीषण संग्राम आरम्भ हुआ। हेमू की सेना में बड़ा उत्साह था और वह बड़ी वीरता से लड़ रही थी। धीरे-धीरे हेमू की सेना को सफलता मिलने लगी और मुगलों के पैर उखड़ने लगे। युद्ध का निर्णय हेमू के पक्ष में जाता हुआ दिखाई देने लगा किंतु दुर्भाग्यवश हेमू की आँख में एक तीर लगा और वह बेहोश होकर हाथी के हौदे में गिर पड़ा। तत्काल ही यह सूचना चारों ओर फैल गई कि हेमू मर गया। फलतः उसकी सेना में भगदड़ मच गई। हेमू के हाथी के महावत ने हेमू को रणक्षेत्र से दूर ले जाने का प्रयास किया किंतु शाहकुली खाँ नामक एक सिपाही ने उसे पकड़ लिया। बेहोश हेमू को अकबर के सामने ले जाया गया। बैरमखाँ ने बादशाह से कहा कि वह अपनी तलवार से हेमू का सिर उड़ा दे। अकबर ने बेहोश  आदमी पर तलवार उठाना उचित नहीं समझा। इसलिये उसने अपनी तलवार से हेमू का गला स्पर्श किया। उसी समय बैरमखाँ ने अपनी तलवार से हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया।

(6.) हेमू की पराजय के कारण: हेमू एक अनुभवी सेनापति था। उसने अपने स्वामी के लिए चुनार से दिल्ली तक बाईस युद्ध किये थे। वह किसी में भी युद्ध में परास्त नहीं हुआ था परन्तु पानीपत की दूसरी लड़ाई में भाग्यलक्ष्मी ने उसका साथ नहीं दिया जिससे वह परास्त हो गया। उसकी पराजय के दो बड़े कारण कारण थे। पहला कारण अनायास ही उसके तोपखाने का हाथ से निकल जाना और दूसरा कारण उसकी आँख में अचानक तीर लग जाना था। इस प्रकार दुर्याेगवश हेमू को पराजय और संयोगवश अकबर को विजय प्राप्त हुई। डॉ. आर. पी. त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हेमू की पराजय एक दुर्घटना थी और अकबर की विजय दैवीय संयोग था।’

(7.) पानीपत की दूसरी लड़ाई के परिणाम: पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू की पराजय का भारतीय इतिहास पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। इस युद्ध के बाद मुगलों की सत्ता दिल्ली तथा आगरा पर दृढ़तापूर्वक स्थापित हो गई और शेष भारत की विजय का मार्ग साफ हो गया।

दिल्ली एवं आगरा पर अधिकार

6 नवम्बर 1556 को अकबर ने विजयी सेना के साथ दिल्ली में प्रवेश किया। इसके बाद अकबर की सेना ने आगरा पर भी अधिकार कर लिया।

आदिलशाह की हत्या

हेमू की पराजय के बाद बंगाल के शासक खिज्र खाँ ने आदिलशाह पर आक्रमण करके उसकी हत्या कर दी। आदिलशाह की मृत्यु से मुगल सेना का रास्ता साफ हो गया, जो अली कुली की अध्यक्षता में आगे बढ़ी।

सिकन्दर सूरी के साथ संघर्ष

दिल्ली तथा आगरा पर दृढ़तापूर्वक अधिकार स्थापित कर लेने के बाद बैरमखाँ ने सिकन्दर सूरी का सामना करने के लिए पंजाब की ओर प्रस्थान किया। सिकन्दर सूरी बैरमखाँ को पानीपत की दूसरी लड़ाई में व्यस्त जानकर शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर पंजाब में लगान वसूल कर रहा था। जब उसे शाही सेना के आने की सूचना मिली तब वह मानकोट के दुर्ग में बन्द होकर बैठ गया। मुगलों ने मानकोट दुर्ग का घेरा डाल दिया जो छः महीने तक चलता रहा। अन्त में सिकन्दर सूरी निराश होकर सन्धि के लिये तैयार हो गया। उसने बैरमखाँ के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि बिहार में उसे कोई जागीर दे दी जाये तो सिकन्दर सूरी आत्म समर्पण कर देगा। सिकंदर सूरी की यह शर्त स्वीकार कर ली गई। इसके बाद सिकंदर सूरी ने 24 मई 1557 को मानकोट दुर्ग मुगलों को समर्पित कर दिया और स्वयं बिहार चला गया, जहाँ कुछ दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गई।

इब्राहीम सूर की मृत्यु

खान-ए-जमान ने इब्राहीम सूर पर आक्रमण करके उसे जौनपुर से बाहर निकाल दिया। वह उड़ीसा की ओर भाग गया। वहीं पर उसकी मृत्यु हो गई। इसके साथ ही 1559 ई. तक दिल्ली के तख्त पर दावा करने वाले सूर वंश का पूरी तरह सफाया हो गया।

काबुल की समस्या का समाधान

हुमायूँ की मृत्यु के बाद सुलेमान मिर्जा ने काबुल पर आक्रमण किया था। वह कई महीने तक काबुल का घेरा डाले रहा परन्तु उसे ले न सका। इसी बीच में उसे सूचना मिली कि उजबेग लोग मध्य-एशिया से चल पड़े हैं और मुगल सेनाएँ दिल्ली से काबुल की रक्षा के लिए आ रही हैं। इसलिये सुलेमान मिर्जा ने काबुल का घेरा उठा लिया और बदख्शाँ चला गया। इस प्रकार काबुल मुगलों के पास ही बना रहा परन्तु कन्दहार अकबर के हाथ से निकल गया। उस पर फारस के शाह ने अधिकार कर लिया।

बैरमखाँ से संघर्ष

बैरमखाँ ने अपने चार वर्षों के शासन काल में अकबर को न केवल उसकी समस्त प्रारम्भिक कठिनाइयों से मुक्त करके उसकी स्थिति को अत्यन्त सुदृढ़ बना दिया था अपितु उसके राज्य का विस्तार करके उसे काबुल से जौनपुर तथा कश्मीर से अजमेर तक बढ़ा दिया था। ग्वालियर जीत लिया गया था और रणथम्भौर तथा मालवा को नत-मस्तक करने का पूरा प्रयत्न किया गया था। इस प्रकार बैरमखाँ ने संकट-काल में बादशाह की बड़ी श्लाघनीय सेवाएँ की थीं।

बैरमखाँ से संघर्ष के कारण

अकबर और बैरमखाँ के बीच संघर्ष के कई कारण थे-

(1.) अकबर की महत्वाकांक्षा: अल्पवयस्क होने के कारण अकबर अब तक बैरमखाँ के निर्देशन में ही कार्य करता आया था किंतु जब वह साढ़े सत्रह वर्ष का हुआ तो उसमें स्वतंत्र रूप से राज्य-कार्य करने की इच्छा बलवती होने लगी।

(2.) बैरमखाँ की स्वतंत्र प्रकृति: बैरमखाँ स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति था। वह अपने निर्णय स्वयं लेता था तथा उन्हें लागू करता था। अकबर इसे सहन नहीं कर पाता था।

(3.) बैरमखाँ की सफलताएँ: लगातार मिलती जा रही सफलताओं के कारण शासन की वास्तविक शक्ति बैरमखाँ में केन्द्रित होकर रह गई थी। यह बात अकबर से सहन नहीं होती थी।

(4.) अमीरों की महत्वाकांक्षाएँ: बैरमखाँ की स्वतंत्र प्रवृत्ति से तुर्की अमीर, असंतुष्ट एवं भयभीत रहते थे। वे शासन में हिस्सेदारी चाहते थे। बैरमखाँ उनके मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट था इसलिये वे बैरमखाँ के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे।

(5.) हरम की महत्वाकांक्षाएँ: बैरमखाँ की स्वतंत्र प्रवृत्ति से बादशाह की धायतें और हरम की बेगमें अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं कर पाती थीं। उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि प्रधानमन्त्री बैरमखाँ उनकी उपेक्षा करता था और उन्हें खर्च के लिए पर्याप्त धन नहीं देता था।

(6.) शिया होने का आरोप: बैरमखाँ के विरुद्ध आरोप था कि वह शिया होने के कारण शिया मुसलमानों को राज्य में ऊँचे-ऊँचे पद देता था। इससे सुन्नी अमीर असन्तुष्ट थे।

(7.) पीर मुहम्मद का निर्वासन: इसी समय बैरमखाँ ने पीर मुहम्मद खाँ शर्वानी को पदच्युत करके उसे निर्वासित कर दिया और उसके स्थान पर एक ईरानी को नियुक्त कर दिया। इससे तुर्की सुन्नी अमीरों में खलबली मच गई और उन्होंने बादशाह के कान भरे। अकबर ने बैरमखाँ के इस कार्य पर असन्तोष प्रकट किया। क्योंकि किसी अमीर को पदच्युत करने तथा नियुक्त करने का अधिकार बादशाह के पास ही था। इस कारण अकबर ने बैरमखाँ को पदच्युत करने का निश्चय कर लिया।

(8.) अकबर तथा असंतुष्ट अमीरों में गठबंधन: अकबर तथा तुर्की अमीरों में बैरमखाँ की सत्ता को समाप्त करने केे लिए गठबन्धन हो गया।

बैरमखाँ का विद्रोह

18 मार्च 1560 को अकबर ने आखेट के बहाने आगरा से दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। 27 मार्च को वह दिल्ली पहुँचा। अकबर ने दिल्ली से एक फर्मान निकाल कर बैरमखाँ को पदच्युत कर दिया और शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। जब बैरमखाँ को इसकी सूचना मिली तो वह आश्चर्य चकित रह गया। उसने अकबर से मिलने का प्रयास किया परन्तु अकबर ने मिलने से मना कर दिया। विवश होकर बैरमखाँ ने विद्रोह कर दिया। वह आगरा से बीकानेर चला गया जहाँ से वह पंजाब गया। पंजाब में उसका शाही सेना से संघर्ष हुआ जिसमें बैरमखाँ परास्त होकर शिवालिक की पहाड़ियों में भाग गया। अकबर ने स्वयं उसका पीछा किया। निराश होकर अक्टूबर 1560 में बैरमखाँ ने आत्मसमर्पण कर दिया।

बैरमखाँ को क्षमादान

बैरमखाँ ने अकबर तथा उसके परिवार की जो सेवाएँ की थीं वे अकबर के हृदय पटल पर अंकित थीं। इसलिये जब मुनीम खाँ, बैरमखाँ को पकड़कर अकबर के सामने लाया तो अकबर ने बड़े सम्मान के साथ अपने संरक्षक का आलिंगन किया तथा उसे अपने दाहिनी ओर बैठाकर उसे अपने राजसी वस्त्र से पुरस्कृत किया। बादशाह के इस सद्व्यवहार से बैरमखाँ के नेत्रों से आँसू बहने लगे। फरिश्ता के अनुसर अकबर ने बैरमखाँ के समक्ष तीन प्रस्ताव रखे- (1.) बैरमखाँ कालपी तथा चन्देरी की सूबेदारी स्वीकार कर ले। (2.) बैरमखाँ बादशाह के दरबार में सम्मानपूर्वक रहे। (3.) बैरमखाँ मक्का की यात्रा पर चला जाये जिसके लिए धन तथा संरक्षकों से उसकी सहायता की जायेगी।

मक्का जाने का निश्चय

बैरमखाँ साम्राज्य का प्रधानमंत्री, खान-ए-खानान तथा सर्वेसर्वा रह चुका था इसलिये उसे प्रथम दो प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुए, उसने बादशाह के तीसरे प्रस्ताव को स्वीकार करके मक्का जाने का निश्चय किया।

बैरमखाँ की हत्या

अकबर ने बैरमखाँ की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था कर दी परन्तु बैरमखाँ के भाग्य में मक्का पहुँचना नहीं लिखा था। जब वह गुजरात में पाटन नामक स्थान पर पहुँचा तब 31 जनवरी 1569 को मुबारक खाँ लोहानी नामक एक अफगान ने, जिसके पिता की हत्या बैरमखाँ ने की थी, अपने कुछ साथियों के साथ बैरमखाँ पर आक्रमण कर दिया। मुबारक ने छल से बैरमखाँ को छुरा भोंक दिया और उसके एक साथी ने बैरमखाँ के सिर को धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार बैरमखाँ की जीवन लीला समाप्त हो गई और अकबर का स्वतन्त्र शासन आरम्भ हो गया।

अकबर के शासन सम्बन्धी उद्देश्य

शासन की बागडोर हाथ में लेने के उपरान्त अकबर ने अपने शासन के उद्देश्यों को निर्धारित किया और तदनुकूल नीति का अनुसरण कर उन उद्देश्यों को प्राप्त करने का सतत प्रयास आरम्भ किया। अकबर के प्रधान उद्देश्य इस प्रकार से थे-

(1.) राज्य में शान्ति तथा व्यवस्था की स्थापना: अकबर का सर्वप्रथम उद्देश्य राज्य में शांति तथा व्यवस्था की स्थापना करना था। इस उद्देश्य को प्राप्त किये बिना अन्य उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती थी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अकबर ने विद्रोहों का दमन करने की नीति अपनाई। उसने क्रूरता के स्थान पर क्षमादान का सहारा लिया। यदि कोई विद्रोही नत-मस्तक होकर क्षमादान के लिये  प्रार्थना करता तो अकबर उसे क्षमा कर देता था।

(2.) प्रजा में एकता की स्थापना: अकबर का दूसरा लक्ष्य राज्य में निवास करने वाली विभिन्न जातियों, धर्म और सम्प्रदायों को मानने वाली प्रजा में एकता की स्थापना करना था। अकबर जानता था कि इससे साम्राज्य की नींव मजबूत होगी और स्थायित्व प्राप्त होगा। वह यह भी जानता था कि मुगल भारत में बड़े आलोकप्रिय हैं। भारतीय जनता उन्हें बर्बर तथा विदेशी समझती है। मुगलों ने दो बार अफगानों से भारत का राज्य छीना था और राजपूतों को खनवा तथा अन्य युद्धों में परास्त किया था। इसलिये अफगान तथा राजपूत, दोनों ही मुगलों को घृणा की दृष्टि से देखते थे। इस घृणा को दूर करके समस्त प्रजा में एकता स्थापित करना आवश्यक था। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अकबर ने उदारता, धार्मिक सहिष्णुता तथा ‘सुलहकुल’ (सबके साथ मेल) की नीति को अपनाया।

(3.) जनता की सर्वतोमुखी उन्नति: अकबर ने जनता की सर्वतोमुखी उन्नति को अपना प्रधान लक्ष्य बना लिया। उसने प्रजा की भौतिक उन्नति के लिए अनेक प्रकार के प्रशासनिक तथा सामाजिक सुधार किए। उसने भूमि सम्बन्धी भी अनेेक सुधार किये और वाणिज्य तथा व्यापार को प्रोत्साहित किया। प्रजा की बौद्धिक उन्नति के लिए अकबर ने हिन्दी तथा संस्कृत को प्रश्रय दिया और फारसी के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। प्रजा की सांस्कृतिक उन्नति के लिए उसने साहित्यकारों तथा कलाकारों को प्रश्रय तथा प्रोत्साहन दिया। प्रजा की आध्यात्मिक उन्नति के लिए अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण कर पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता दे दी ताकि समस्त प्रजा अपने-अपने ढंग से धार्मिक चिन्तन तथा सत्य की खोज करे।

(4.) धार्मिक तत्त्वों का अन्वेषण: अकबर का विश्वास था कि समस्त धर्मों के अन्तःस्तल में कुछ मौलिक सिद्धान्त छिपे हैं, क्योंकि समस्त धर्म अपनी दैवी उत्पत्ति को मानते हैं और पैगम्बरों द्वारा प्रचारित किये जाते हैं। इसलिये अकबर ने इन मौलिक सिद्धान्तों का अन्वेषण करना अपना लक्ष्य बनाया। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अकबर ने इबादतखाना अथवा ‘पूजा गृहों’ की स्थापना की, जहाँ पर समस्त धर्मों के आचार्य एकत्रित होकर अपने धार्मिक विचारों को व्यक्त करते थे। आत्म-चिन्तन तथा विभिन्न धर्मों के आचार्यों से विचार-विनिमय करने के उपरान्त अकबर ने समस्त धर्मों के मूल तत्त्वों को एकत्रित करके ‘दीन इलाही’ नामक नये धर्म का प्रचार करने का प्रयत्न किया, जिसमें समस्त धर्मों की अच्छी-अच्छी बातें विद्यमान थीं।

(5.) विश्व साम्राज्य की स्थापना: अकबर सम्पूर्ण विश्व को एक राजसूत्र में बांध देना चाहता था। विश्व साम्राज्य की स्थापना की प्रेरणा उसे चंगेज खाँ से प्राप्त हुई थी और यह इस्लाम धर्म के अनुकूल थी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अकबर ने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और एक विशाल सेना का संगठन किया। उसने सम्पूर्ण भारत में अपनी सार्वभौम सत्ता स्थापित करने के उद्देश्य से उत्तर तथा दक्षिण भारत में विजय यात्राएँ कीं। भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बाँधने के उपरान्त अकबर मध्य-पूर्व तथा पश्चिम एशिया को भी अपने साम्राज्य में सम्मिलित करना चाहता था।

(6.) सीमा की सुरक्षा की व्यवस्था: भारत को सबसे बड़ा खतरा उत्तर-पश्चिम की ओर से लगा रहता था। इसलिये अकबर ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया। उसने पश्चिमोत्तर प्रदेश के राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण तथा कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये और योग्य सेनापतियों की अध्यक्षता में प्रबल सेनाएँ रखकर सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाया।

(7.) यूरोपीय व्यापारियों का उन्मूलन: अकबर यूरोपीय व्यापारियों की शक्ति का संवर्द्धन, भविष्य के लिये संकट कारक मानता था। इसलिये अकबर ने उन्हें भारत भूमि से निष्कासित करना अपना लक्ष्य बना लिया। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उसने निश्चय किया कि एक प्रबल जहाजी बेड़ा बनाकर भारत के समुद्र तट पर अधिकार स्थापित किया जाये।

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