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अध्याय – 26 (द ) : मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापना

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605 ई.)

अकबर की शासन व्यवस्था

अकबर की शासन व्यवस्था त्रिस्तरीय थी जिसमें सर्वोच्च स्तर पर केन्द्रीय शासन, मध्यम स्तर पर प्रांतीय शासन तथा निम्नतम स्तर पर स्थानीय शासन था।

केन्द्रीय शासन

अकबर का केन्द्रीय शासन पूर्ण रूप से स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश राजतंत्र पद्धति पर आधारित था। इस केन्द्रीय शासन का कार्य न केवल राजधानी में रहने वाली प्रजा पर नियंत्रण रखना था अपितु प्रांतों अथवा सूबों एवं उससे भी नीचे गांवों में रहने वाली प्रजा पर भी नियंत्रण रखने हेतु शासन तंत्र का निर्माण करना था।

केन्द्रीय शासन के अंग

(1.) बादशाह: बादशाह शासन का सर्वोच्च प्रधान था। उसकी सर्वोच्चता चुनौती रहित थी। राज्य की समस्त शक्तियाँ उसमें निहित थीं। वही नियमों का निर्माण करता था तथा उनका पालन करवाता था। वह नियम भंग करने वालों को दण्ड देता था। बादशाह ही समस्त सेनाओं का सर्वोच्च प्रधान था। वह सेनापतियों को नियुक्त करता था तथा उन्हें युद्ध अभियानों पर भेजता था। वह समस्त अधिकारों तथा नियमों का स्रोत था। वह स्वयं को दैवी शक्ति से सम्पन्न समझता था और अपनी प्रजा के कल्याणार्थ प्रतिदिन झरोखे से दर्शन देता था। यद्यपि अकबर का शासन विशुद्ध स्वेच्छाचारी शासन था और उस पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं था परन्तु लोक मंगलकारी होने के कारण उसे उदार एवं निरंकुश शासन कह सकते हैं। अकबर अपनी प्रजा के कल्याण को सर्वोपरि समझता था और उसे सुखी बनाने का प्रयास करता था।

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(2.) विभागीय व्यवस्था: अकबर का शासन पूर्णरूप से केन्द्रीभूत नौकरशाही पर आधारित था जिसका वह स्वयं प्रधान था। शासन की सुविधा के लिए उसने अलग-अलग विभागों की स्थापना की। राज्य के विभिन्न कार्यों को उसने विभिन्न विभागों में विभक्त किया और प्रत्येक विभाग के कार्य की देखभाल के लिए अलग-अलग योग्य अधिकारी नियुक्त किये। प्रत्येक विभाग का अलग अध्यक्ष था जो उसके कार्यों को ढंग से चलाने के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी था। समस्त उच्च अधिकारियों की नियुक्त बादशाह करता था और वे सीधे बादशाह के प्रति उत्तरदायी होते थे। स्मिथ के शब्दों में- ‘उसके मंत्री उसके शिष्य थे, उसके गुरु नहीं थे।’

(3.) केन्द्रीय पदाधिकारी: अकबर के केन्द्रीय पदाधिकारी उसके शासन की रीढ़ थे। वे विभागीय व्यवस्था के भी अध्यक्ष थे जो अगल-अलग विभाग का कार्य देखते थे।

वकील: साम्राज्य में बादशाह के बाद सबसे ऊँचा पद वकील का होता था जो प्रधानमंत्री की तरह कार्य करता था। वकील किसी विभाग विशेष का प्रधान नहीं होता था किंतु वह शासन के प्रत्येक अंग में बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में काम करता था और समस्त विभागों के काम-काज की देखभाल करता था। प्रान्तीय सरकारें सीधे उसी के नियन्त्रण में काम करती थीं।

दीवान: वकील के नीचे दीवान होता था। वह राजकोष विभाग का अध्यक्ष होता था। वह साम्राज्य के आय-व्यय का हिसाब रखता था और राजकोष की सुदृढ़ता के लिये उत्तरदायी होता था।

खान-ए-समान: राजपरिवार के व्यय का हिसाब रखने के लिए नियुक्त अधिकारी ‘खान-ए-समान’ कहलाता था। वह शाही गोदाम का प्रबन्धक होता था और राजपरिवार की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता था।

बख्शी: सैन्य विभाग का अध्यक्ष बख्शी कहलाता था। बख्शी अरबी भाषा के ‘बख्शीदन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बाँटना। चूँकि इस अधिकारी का प्रधान कार्य सैनिकों को वेतन बाँटना होता था इसलिये वह बख्शी कहलाता था। सैनिकों का वेतन निश्चित करना तथा उन्हें अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित करना भी उसका कर्त्तव्य था।

सद्र-ए-सुदूर: दान विभाग का अध्यक्ष सद्र-ए-सुदूर कहलाता था। सुदूर सद्र का बहुवचन है। जो पदाधिकारी सद्रों का प्रधान होता था वह सद्र-ए-सुदूर कहलाता था। बादशाह, शहजादे तथा राज-परिवार के अन्य लोग बहुत-सा धन तथा भूमि दान दिया करते थे। इन सबका प्रबन्ध ‘सद्र-ए-सुदूर’ करता था।

मुह्तसिब: मुहत्सिब उस पदाधिकारी को कहते थे जो प्रजा के आचरण तथा आचार व्यवहार का ध्यान रखता था। इस विभाग के माध्यम से अकबर ने प्रजा के नैतिक जीवन के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास किया।

मीर-आतिश: तोपेखाने के विभाग का अध्यक्ष मीर-आतिश होता था। मीर का अर्थ होता है प्रधान और आतिश का अर्थ होता है आग। चूँकि तोपों से आग की वर्षा की जाती थी इसलिये तोपखाने के अध्यक्ष को मीर-आतिश कहते थे। उसे तोपखाने की सम्पूर्ण व्यवस्था करनी पड़ती थी।

काजी-उल-कुजात: न्याय-विभाग का अध्यक्ष काजी-उल-कुजात कहलाता था जिसका अर्थ होता है काजियों का काजी। कुजात काजी का बहुवचन है जिसका अर्थ होता है न्यायाधीश। काजी-उल-कुजात का प्रधान कर्त्तव्य न्याय की समुचित व्यवस्था करना था। स्थानीय काजियों की नियुक्त भी वही करता था।

दारोगा-ए-डाक चौकी: डाक विभाग का अध्यक्ष दारोगा-ए-डाक चौकी कहलाता था। उसका प्रधान कार्य डाक भेजना तथा प्राप्त करना होता था। वह साम्राज्य के विभिन्न भागों में होने वाली घटनाओं की सूचना रखता था।

अन्य अधिकारी: राज्य की टकसालों तथा विभिन्न प्रकार के कारखानों की देखभाल के लिए भी अलग-अलग दारोगा होते थे।

प्रान्तीय शासन

केन्द्रीय राजधानी आगरा तथा फतहपुर सीकरी से अकबर के विशाल साम्राज्य का संचालन सम्भव नहीं था। इसलिये अकबर ने अपने साम्राज्य को 18 सूबों में विभक्त किया- (1.) काबुल, (2.) मुल्तान, (3.) लाहौर, (4.) दिल्ली, (5.) आगरा,

(6.) इलाहाबाद, (7.) अवध, (8.) बिहार, (9.) बंगाल, (10.) अजमेर,

(11.) मालवा, (12.) गुजरात, (13.) खानदेश, (14.) बरार, (15.) अहमदनगर, (16.) उड़ीसा, (17.) काश्मीर तथा (18.) सिन्ध। कुछ इतिहास लेखकों ने केवल 15 सूबों का उल्लेख किया है। प्रान्तीय शासन केन्द्रीय शासन का लघु प्रतिरूप था।

प्रांतीय शासन के अंग

(1.) सूबेदार: प्रान्तीय शासन का प्रधान सूबेदार या सिपहसालार कहलाता था। वह प्रान्त में बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था। उसकी नियुक्त बादशाह करता था और वही उसे हटाता अथवा बदलता भी था। सूबेदार को बादशाह के आदेशों के अनुसार काम करना पड़ता था। बादशाह प्रत्येक सूबेदार पर कड़ा नियन्त्रण रखता था। सूबेदार सूबे में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी था। इसलिये सूबेदार प्रांतीय सेना का सेनापति होता था। सूबेदार किसी विदेशी राजा अथवा राजकुमार के साथ सन्धि अथवा विग्रह नहीं कर सकता था। वह प्रांतीय क्षेत्र में न्यायाधीश का कार्य करता था परन्तु वह किसी को प्राणदण्ड नहीं दे सकता था।

(2.) दीवान: प्रान्त का दूसरा प्रधान अधिकारी दीवान था। वह सूबेदार के समकक्ष होता था। उसकी भी नियुक्त भी बादशाह करता था। वह सूबेदार से बिल्कुल स्वतंत्र रहकर सीधे बादशाह के नियन्त्रण में काम करता था। वास्तव में सूबेदार तथा दीवान एक दूसरे के कामों पर दृष्टि रखते थे जिससे विद्रोह की सम्भावना कम रहती थी। दीवान का प्रधान कार्य प्रान्त के आय-व्यय का हिसाब रखना और अर्थ सम्बन्धी समस्त विषयों का निरीक्षण करना एवं नियन्त्रण रखना था। भूमि तथा लगान सम्बन्धी विवादों का फैसला दीवान ही करता था। वह कृषि में वृद्धि का प्रयत्न करता था।

(3.) सुद्र: ‘सुद्र’ की नियुक्त केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती थी। सुद्र का प्रधान कार्य दान विभाग का प्रबन्ध करना होता था। विद्वानों, सन्तों, फकीरों, दीन दुखियों, असहायों आदि की सहायता के लिए राज्य की ओर से भूमि तथा धन दान में दिया जाता था। इसकी व्यवस्था सुद्र करता था। इस पद पर उच्चकोटि के विद्वान तथा पवित्र आचरण के लोग नियुक्त किये जाते थे।

(4.) आमिल: आमिल का अर्थ होता है अमल में लाने वाला। उसका प्रधान कार्य मालगुजारी वसूल करना होता था। इसलिये उसे कारकून, मुकद्दम तथा पटवारी के कागजों का निरीक्षण करना पड़ता था। प्रान्त में शान्ति तथा सुव्यवस्था करने में भी उसे सहयोग देना पड़ता था। आमिल अन्य कई प्रकार के कार्य करता था।

(5.) वितिक्ची: वितिक्ची आमिल का समकक्षी था। हिसाब-किताब में निपुण तथा लेखन कला में प्रवीण व्यक्ति इस पद पर नियुक्त होते थे। वितिक्ची प्रत्येक ऋतु की लगान का हिसाब रखता था और केन्द्रीय सरकार को वार्षिक लगान का हिसाब भेजता था।

(6.) पोतदार: पोत का अर्थ होता है लगान और दार का अर्थ होता है वाला। अतः पोतदार उस अधिकारी को कहते थे जो किसानों से लगान प्राप्त करता और सरकारी कोष को सुरक्षित रखता था।

(7.) फौजदार: सूबेदार के नीचे प्रान्त का सबसे बड़ा सैनिक अफसर फौजदार कहलाता था। उसकी नियुक्त सूबेदार करता था। प्रत्येक प्र्रान्त में कई फौजदार होते थे। इनका मुख्य कार्य प्रान्त में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखना होता था। फौजदार, सूबेदार को प्रत्येक कार्य में सहायता देता था।

(8.) कोतवाल: प्रान्तीय नगरों में कोतवाल लोग शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए नियुक्त किये जाते थे। कोतवाल नगर का सबसे बड़ा पुलिस अफसर होता था। चोरी तथा डाके को रोकना, अपराधों का पता लगाना और बाजार में नाप-तौल का निरीक्षण करना उसके मुख्य कार्य थे।

(9.) सूचना तंत्र: राजकीय सूचनाएँ लाने-ले जाने के लिए सूचना वाहक नियुक्त किये जाते थे। वे चार भागों में विभक्त थे- (1.) वाक-ए-नवीस,

(2.) सवानह-निगार, (3.) खुफिया नवीस तथा (4.) हरकारह। नवीस का अर्थ होता है लिखनेवाला। वाक-ए-नवीस प्रान्त की समस्त बातों की सूचना रखता था और उसे केन्द्रीय सरकार के पास भेज देता था। सवानह-निगार का अर्थ होता है वाकयात या घटनाएँ और निगार का अर्थ होता है लेखक। सवानह-निगार का कर्त्तव्य सच्ची बातों का पता लगाकर वाक-ए-नवीस के पास भेजना होता था। खुफिया नवीस प्रान्त का गुप्तचर होता था और वह गुप्त रूप से बातों का पता लगाता था। हरकारह एक स्थान से दूसरे स्थान की सूचनाएँ ले जाता था। ये चारों प्रकार के सूचना वाहक एक दरोगा के नियन्त्रण में काम करते थे।

(10.) लगान वसूलने वाले कर्मचारी: लगान वसूल करने के लिए कई कर्मचारी होते थे। करोड़ी लगान वसूल करके पोतदार के पास भेजता था। अमीन लगान निश्चित करता था। अमीन का अर्थ होता है अमानत अर्थात् धरोहर रखने वाला। यह विश्वसनीय कर्मचारी होता था। कानूनगो परगना अफसर होता था। गो का अर्थ होता है कहने वाला। कानूनगो भूमि सम्बन्धी कानूनों तथा नियमों को जानता था। वह भूमि तथा लगान के ब्यौरे का रजिस्टर रखता था। गाँवों में पटवारी तथा मुकद्दम होते थे। मुकद्दम कदम शब्द से बना है जिसका अर्थ है आगे चलने वाला या मुखिया।

स्थानीय शासन

सबसे निचले अर्थात् तीसरे स्तर पर स्थानीय शासन होता था। इसमें जिला प्रशासन से लेकर परगना प्रशासन तथा ग्राम प्रशासन की इकाइयाँ होती थीं। इन तीनों इकाइयों के विभिन्न अंग होते थे-

(1.) सरकार या जिला: शासन की सुविधा के लिए प्रत्येक सूबे को कई ‘सरकारों’ या जिलों में विभक्त किया गया था। सरकार का सबसे बड़ा हाकिम फौजदार होता था। कोतवाल, वितिक्ची तथा पोतदार जिले के अन्य पदाधिकारी होते थे।

(2.) महाल या परगना: प्रत्येक सरकार या जिला कई महाल या परगनों में विभक्त रहता था। परगने का प्रबन्ध शिकदार, आमिल तथा कानूनगो के हाथ में रहता था।

(3.) गाँव: प्रत्येक महाल या परगने में कई गाँव होते थे। गाँव, शासन की सबसे छोटी इकाई थे। गाँव का प्रधान अधिकारी मुकद्दम कहलाता था। यह गाँव का प्रधान या मुखिया होता था और लगान वसूल करने तथा शान्ति एवं सुव्यवस्था बनाये रखनें में सरकारी कर्मचारियों की सहायता करता था। गाँव का दूसरा मुख्य कर्मचारी पटवारी था जो भूमि एवं लगान आदि का रजिस्टर रखता था।

अकबर का सैन्य प्रबन्धन

अकबर ने विशाल मुगल सल्तनत का निर्माण सेना के बल पर ही किया था। सल्तनत की सुरक्षा एवं सल्तनत में शांति बनाये रखने के लिये भी एक विशाल, सेना की आवश्यकता थी। इसलिये अकबर को विशाल सेना के प्रबंधन के लिये कई कदम उठाने पड़े।

सेना के दोषों का निवारण

सर्वप्रथम उसने अपनी सेना के उन दोषों को दूर करने का प्रयास किया जो उस युग की सेना में विद्यमान थे।

(1.) नगद वेतन की व्यवस्था: मुगल सैन्य व्यवस्था में सबसे बड़ा दोष यह था कि अफसरों को नकद वेतन देने के स्थान पर जागीरें दी जाती थीं। अकबर ने 1575 ई. में जागीर प्रथा को समाप्त करके सैनिक अधिकारियों एवं सैनिकों को नकद वेतन देने की व्यवस्था आरम्भ की।

(2.) घोड़ों को दागने की प्रथा: मुगल सेना में घोड़ों को दागने की प्रथा नहीं थी। इससे झूठे घोड़ों के दिखला देने की आशंका बनी रहती थी। अकबर ने बलबन की तरह घोड़ों को दागने की प्रथा को फिर से आरम्भ किया। समस्त अधिकारियों को आदेश दिये गये कि वे अपने घोड़ों को बख्शी के सामने लाकर दाग लगवायें।

(3.) प्रत्येक अमीर के लिये दाग का अलग निशान: घोड़ों को दागने की प्रथा आरम्भ करने के बाद कुछ लालची अधिकारी दूसरों के दाग लगे घोड़े दिखाकर बख्शी को धोखा देने लगे। इस बेईमानी को रोकने के लिए अकबर ने प्रत्येक अधिकारी की सेना के लिए अलग-निशान निश्चित कर दिये।

(4.) वर्ष में एक बार घोड़ों का निरीक्षण अनिवार्य: घोड़ों को वर्ष में कम से कम एक बार बख्शी को दिखाना पड़ता था। यदि कोई अमीर अपने घोड़ों को दाग लगवाने में देरी करता था तो उस पर कड़े जुर्माने किये जाते थे।

विभिन्न प्रकार की सेनाओं का प्रबंधन

अकबर के अधीन पाँच विभिन्न प्रकार की सेनाएँ थीं- (1.) अधीन राजाओं की सेना, (2.) मनसबदारों की सेना, (3.) दाखिली सेना, (4.) अहदी सेना तथा

(5.) स्थायी सेना।

(1.) अधीन राजाओं की सेना: बहुत से राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इन राजाओं को अपनी-अपनी सेनाओं के साथ साम्राज्य की सेवा करनी पड़ती थी। राजा लोग इन सेनाओं का संगठन अपने ढंग से करते थे और वही उसके सेनापति होते थे। साधारणतः उन्हें शाही खजाने से कोई राशि नहीं दी जाती थी। प्रत्येक राजा कितनी सेना भेजेगा यह निश्चित कर दिया गया था।

(2.) मनसबदारों की सेना: अकबर ने मनसबदारी प्रथा का प्रचलन किया था। ‘मनसब’ का अर्थ होता है पद या दर्जा। मनसबदारों की सेना का संगठन पद या दर्जे के आधार पर किया गया था। अकबर ने मनसबदारांे के पद या दर्जे बनाये। मनसबों की संख्या 33 थी। नीचे से ऊपर तक मनसबदारों की शृंखला बनी हुई थी। सबसे छोटे मनसबदार के पास 10 सैनिक और सबसे बड़े मनसबदार के पास बारह हजार सैनिक होते थे। जिन मनसबदारों के पास 500 से 2500 तक सैनिक होते थे वे अमीर कहलाते थे। जिनके पास 2500 से अधिक सैनिक होते थे वे अमीर आजम कहलाते थे। सबसे बड़ी सैनिक उपाधि खान-ए-जमान थी जो बाद में खान-ए-खानान में बदल दी गई। यह उपाधि एक समय में एक ही व्यक्ति को दी जाती थी। पाँच हजार से ऊपर के मनसब प्रायः मुगल शहजादों के लिये सुरक्षित रहते थे। कोई भी अफसर सात हजार से अधिक का मनसब प्राप्त नहीं कर सका था। मनसबदारों का पद आनुवंशिक नहीं होता था। वे बादशाह द्वारा नियुक्त किये जाते थे। मनसबदारों को ऊँचे वेतन दिये जाते थे जिनमें से आधा वेतन उन्हें अपनी सेना की व्यवस्था पर व्यय करना पड़ता था और आधे वेतन में वे अपना निजी व्यय चलाते थे।

(3.) दाखिली सेना: दाखिली अरबी भाषा के दख्ल शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है अन्दर या भीतर। इस प्रकार दाखिली सेना का अर्थ हुआ आन्तरिक सेना। यह सेना आन्तरिक शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये थी। इसकी तुलना आज की पुलिस व्यवस्था से की जा सकती है। दाखिली सैनिक राज्य की ओर से भर्ती किए जाते थे। उन्हें शाही कोष से वेतन मिलता था। यह सेना मनसबदारों की अध्यक्षता में काम करती थी।

(4.) अहदी सेना: अहदी अरबी भाषा के अहद शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है वचन देना। अहदी उन सैनिकों को कहते थे, जो बादशाह के बड़े विश्वसनीय होते थे और जो बादशाह के लिये अपना तन-मन-धन न्यौछावर करने का वचन देते थे। अहदी सेना में कुलीन लोग रखे जाते थे। उन्हें ऊँचे वेतन दिये जाते थे। मनसबदारों से इनका सम्बन्ध नहीं रहता था। यह स्वतन्त्र सेना होती थी और सीधे बादशाह से आदेश प्राप्त करती थी। इस सेना के दीवान तथा बख्शी अलग होते थे। प्रत्येक अहदी सैनिक को अधिकतम आठ घोड़े रखने पड़ते थे किन्तु बाद में घोड़ों की अधिकतम संख्या पाँच कर दी गई। अहदी सैनिक बादशाह के अंगरक्षक का भी काम करते थे।

(5.) स्थायी सेना: यह सेना सदैव बादशाह के साथ रहती थी। बादशाह इस सेना को कोई भी कार्य करने के लिये तुरन्त आदेश दे सकता था। बादशाह स्वयं इस सेना का संचालन करता था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि अकबर की स्थायी सेना का आकार बहुत छोटा था परन्तु अकबर जैसे महत्त्वाकांक्षी एवं साम्राज्यवादी बादशाह की स्थायी सेना निश्चित रूप से काफी बड़ी रही होगी।

सेना के विभिन्न अंग

मुगल सेना 6 भागों में विभक्त थी- (1.) घुड़सवारों की सेना, (2.) पैदल सेना, (3.) हाथियों की सेना, (4.) तोपखाना, (5.) नौसेना तथा (6.) शाही खेमा।

(1.) अश्वारोहियों की सेना: यह सेना मुगल सेना की सबसे महत्त्वपूर्ण तथा प्रधान अंग समझी जाती थी और इसी पर मुगल सर्वाधिक भरोसा करते थे। समतल मैदानों के युद्ध में यह सेना विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होती थी क्योंकि वह बड़ी ही गतिशील होती थी और इसका प्रहार बड़ा ही प्रभावशाली होता था। चूँकि भारत में अभी बन्दूकों का अधिक प्रचलन नहीं था इसलिये अश्वारोहियों के महत्त्व में कोई कमी नहीं आई थी। वास्तव में अश्वारोही ही मुगल सेना के सबसे प्रबल अंग थे।

(2.) पैदल सेना: अकबर के पास विशाल पैदल सेना थी। ऊबड़-खाबड़ तथा पर्वतीय प्रदेशों में पैदल सेना अश्वारोहियों की सेना से अधिक लाभदायक सिद्ध होती थी। युद्ध की दृष्टि से पैदल सेना दो भागों में विभक्त थी- (1.) बन्दूकची तथा

(2.) शमशेरबाज। बन्दूकची सैनिक बंदूकों से युद्ध करते थे। अकबर के समय में इनकी संख्या 12,000 थी। ये सैनिक ‘दारोगा-तोपचियन’ की अध्यक्षता में युद्ध करते थे। शमशेरबाजों की सेना उनके अस्त्रों के अनुसार विभिन्न रिसालों में विभक्त रहती थी। जो सैनिक तलवार लेकर लड़ते थे वे शमशेरबाज कहलाते थे। यह सेना तलवार के अतिरिक्त कटार, चाकू, कोड़े आदि का भी प्रयोग करती थी। इन्हीं हथियारों के अनुसार इनके रिसाले होते थे।

(3.) हाथियों की सेना: हाथियों का प्रयोग समान ढोने तथा युद्ध करने में होता था। सावधानी से प्रयोग करने पर हस्ति सेना बड़ी लाभदायक सिद्ध होती थी परन्तु हाथी बिगड़ जाने पर खतरनाक सिद्ध होते थे और पीछे मुड़कर अपनी सेना को रौंद डालते थे। अकबर की हस्ति सेना में 5000 शिक्षित हाथी थे। बादशाह अपने हाथियों के प्रशिक्षण एवं भोजन पर विशेष रूप से ध्यान देता था।

(4.) तोपखाना: भारत में तोपखाने का प्रयोग सबसे पहले बाबर ने किया था। उसके बाद शेरशाह सूरी ने भी युद्धों में तोपों का सफल प्रयोग किया। अकबर ने अपने तोपखाने में सुधार करके उसे और अधिक उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया। उसने ऐसी बन्दूकें बनवाईं जो गाड़ी से अलग की जा सकती थीं और सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाई जा सकती थीं। तोपखाने का प्रधान ‘मीर-आतीश’ अथवा ‘दारोगा-ए-तोपखाना’ कहलाता था।

(5.) नौ-सेना: गुजरात पर अधिकार कर लेने के बाद अकबर के साम्राज्य की सीमा समुद्र-तट तक पहुँच गई थी इसलिये अकबर ने नौ-सेना का भी निर्माण किया। इन दिनों पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर अपनी नौ-शक्ति को अत्यन्त प्रबल बना लिया था। यदि कोई भारतीय शासक नौ-सेना के संगठन तथा वृद्धि का प्रयत्न करता तो उनके साथ संघर्ष हो जाना अनिवार्य था। इस संघर्ष से भारतीय व्यापार को बहुत बड़ी क्षति की आशंका थी। दक्षिण भारत पर पूर्ण रूप से अपना प्रभुत्व स्थापित किये बिना अकबर नौ सेना के संगठन को सफल नहीं बना सकता था। नदियों के युद्ध के लिये अकबर ने बड़ी-बड़ी नावों का निर्माण करवाया। इन नावों का प्रयोग बंगाल, बिहार तथा सिन्ध में किया जाता था। लाहौर तथा इलाहाबाद में नावों के निर्माण की व्यवस्था की गई थी।

(6.) शाही सेना: मुगल सैनिक संगठन की एक बहुत बड़ी विशेषता शाही खेमे की व्यवस्था थी। शाही शिविर बड़ा ही विशाल होता था विशेषतः तब जबकि बादशाह स्वयं सेना के साथ चलता था। उस समय उसका खेमा एक बड़े नगर का रूप धारण कर लेता था। वह पाँच से बीस मील तक विस्तृत होता था और उसमें एक से दो लाख तक व्यक्ति विद्यमान रहते थे। इस विशाल जनसमुदाय में पूर्ण संयम तथा अनुशासन बना रहता था। शाही खेमे की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि केवल चार घण्टे के भीतर इसकी व्यवस्था कर दी जाती थी। शाही खेमे में आवश्यकता की समस्त वस्तुएँ उचित मूल्य पर मिलती थीं। खाने-पीने की चीजें बंजारे दिया करते थे जो खेमे के साथ चलते थे। अमीर तथा बड़े-बड़े अफसर कई दिनों की खाद्य सामग्री अपने साथ लेकर चलते थे। साधारण सैनिक तथा सेवक लोग खाने का सामान उर्दू बाजार से खरीदते थे। मुगल खेमे में सामान आपूर्ति की अच्छी व्यवस्था की गई थी।

अकबर का भूमि प्रबन्धन

अकबर ने सैनिक सुधारों की भांति भूमि सुधार भी गुजरात विजय के बाद ही आरम्भ किये। इस्लामशाह की मृत्यु के बाद शेरशाह द्वारा स्थापित की हुई भूमि व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। जब हुमायूँ ने अपने खोये हुए भारतीय साम्राज्य को फिर से प्राप्त किया तब उसने अपने राज्य को अपने अमीरों तथा अफसरों में बाँट दिया। राजकीय भूमि तथा जागीर भूमि को स्पष्ट रूप से एक दूसरे से अलग नहीं किया गया था। इससे बड़ी गड़बड़ी फैली हुई थी। बैरमखाँ भी अपने शासन काल में भूमि सम्बन्धी कोई महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं कर सका था। उसके शासन काल में केन्द्रीय सरकार प्रतिवर्ष उपज तथा परगना में प्रचलित मूल्य के आधार पर सरकारी लगान निश्चित करती थी। हुमायूं की लगान व्यवस्था में कई दोष थे। प्रतिवर्ष उपज तथा अन्न के मूल्य के बदलते रहने से सरकारी लगान की दर भी बदलती रहती थी और जब तक केन्द्र से दर निश्चित होकर नहीं आ जाती थी तब तक लगान वसूली भी नहीं हो सकती थी। इससे लगान वसूल करने में बड़ा विलम्ब होता था तथा सरकार और कृषक दोनों को परेशानी होती थी। उपज तथा मूल्य का पता लगाने में भी धन व्यय होता था और यह मूल्यांकन अविश्वनीय होता था। अकबर इन दोषों से अवगत था और उनके निराकरण के लिए दृढ़ संकल्प था। अकबर के मन्त्रियों ने भूमि सम्बन्धी सुधार आरम्भ कर दिये थे परन्तु गुजरात तथा बंगाल विजय के उपरान्त अकबर ने स्वयं भूमि प्रबन्ध की ओर ध्यान दिया। जब अकबर ने जागीर प्रथा को समाप्त कर दिया तब भूमि का पुनर्प्रबन्धन अनिवार्य हो गया।

(1.) भूमि की नाप: 1575 ई. में अकबर ने अपने अधिकारियों को साम्राज्य की भूमि की नाप करने तथा अन्य प्रकार की सूचनाएँ एकत्रित करने के आदेश दिये। उस समय भूमि की नाप का काम तनाव अर्थात् रस्सी द्वारा किया जाता था जिसके फैलने और सिकुड़ने की सम्भावना रहती थी। अकबर ने रस्सी के स्थान पर बाँस के टुकड़ों का प्रयोग करवाया जो लोहे के छल्लों से जुड़े रहते थे और जिनके फैलने और सिकुड़ने की संभावना नहीं थी।

(2.) करोड़ियों की नियुक्ति: सम्पूर्ण मुगल सल्तनत में 182 करोड़ी नियुक्त किये गये। प्रत्येक करोड़ी के अधिकार क्षेत्र में एक करोड़ रुपये तक की आय वाली भूमि रखी गई। करोड़ी को अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा निश्चित करने, लगान के विभिन्न साधनों का लेखा रखने, प्रत्येक कृषक से कितनी धन राशि मिलती है इसका हिसाब रखने और प्रत्येक प्रकार की फसल का लेखा रखने के निर्देश दिये गये। प्रत्येक करोड़ी की सहायता के लिए एक कारकूून और एक पोतदार अर्थात् कोषाध्यक्ष नियुक्त किया गया।

(3.) प्रांतों का गठन: 1580 ई. तक केन्द्रीय सरकार के कार्यालय में समस्त आवश्यक सूचनाएँ एकत्रित कर ली गईं। इन दिनों राजा टोडरमल प्रधान अर्थमंत्री था। सुधार के कार्य को टोडरमल के सहयोगी ख्वाजा शाह मन्सूरी ने किया। सुधार का पहला काम यह किया गया कि सरकारों अथवा जिलों को मिला कर प्रान्त बनाये गये। कुल बारह प्रान्तों का निर्माण किया गया। प्रत्येक प्रान्त में लगान के मामलों की देखभाल के लिये एक दीवान नियुक्त किया गया।

(4.) दह-सालह बंदोबस्त: अकबर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सुधार दह-सालह अर्थात् दस वर्ष की दर पर आधारित भू-प्रबन्ध करना था। प्रत्येक सूबे में ऐसे परगनों को, जिनकी उपज एक समान थी मिलाकर एक क्षेत्र बना दिया गया और उसकी लगान निश्चित कर दी गई। उपज के एक तिहाई भाग के बराबर लगान तय किया गया। लगान के नकद भुगतान की व्यवस्था के लिये 1580 ई. के पहले के दस वर्षों के मूल्य का औसत निकाल कर नकद लगान निश्चित कर दी गई। इस प्रकार उपज तथा मूल्य के घटने-बढ़ने का प्रभाव समाप्त हो गया और किसानों से एक निश्चित राशि लगान के रूप में लेनी निर्धारित कर दी गई।

दह-सालह बंदोबस्त से सरकार को लाभ: दह-सालह प्रबन्ध से सरकार तथा किसानों दोनों ही को लाभ हुआ। यह कि व्यवस्था इतनी सरल थी कि इसे कार्यान्वित करने में सरकारी कर्मचारियों को कोई कठिनाई नहीं हुई। अब उन्हें केन्द्रीय सरकार के आदेश की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी। चूॅकि लगान की राशि निश्चित हो गई थी इसलिये वे फसल के पकते ही लगान वसूल करना आरम्भ कर देते थे। इस व्यवस्था से एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि खेतों के बो देने के बाद ही राजकीय अधिकारियों को यह पता लग जाता था कि इस वर्ष सरकार को लगान से कितना रुपया मिलेगा।

दह-सालह बंदोबस्त से किसानों को लाभ: दह-सालह व्यवस्था से किसानों को बड़ा लाभ हुआ। लगान निश्चित हो जाने से खेत बोते ही किसान को पता लग जाता था कि उसे कितना लगान देना है। इससे वह सरकारी कर्मचारियों की बेईमानी से बच गया। इस व्यवस्था से किसानों को नुक्सान भी हुआ। अब उपज तथा मूल्य के घटने-बढ़ने से जो लाभ-हानि होती थी वह राज्य के स्थान पर किसानों को भोगनी पड़ती थी। फिर भी किसानों को पुरानी व्यवस्था की तुलना में नई व्यवस्था अधिक न्याय-संगत जान पड़ी इसलिये वे संतुष्ट हो गये। जब सरकार ने किसानों से यह वायदा किया कि यदि अकाल या दैवी प्रकोपों से फसल नष्ट हो जायेगी तो लगान में कमी कर दी जायेगी तो किसानों का संतोष और अधिक बढ़ गया। फलतः सरकार तथा किसान दोनों ही ने दह-सालह व्यवस्था का स्वागत किया और यह व्यवस्था पूरी सल्तनत में लागू कर दी गई।

(5.) भूमि का वर्गीकरण: अकबर ने भूमि की उर्वरता के अनुसार उसका वर्गीकरण करवाया। यह वर्गीकरण इस प्रकार से था-

(अ.) पोलज: जिस भूमि में वर्ष में दो बार फसल काटी जाती थी और जिस पर निरन्तर खेती की जाती थी पोलज कहलाती थी। यह सबसे उत्तम भूमि होती थी।

(ब.) पड़ौती: दूसरी श्रेणी की भूमि पड़ौती कहलाती थी। यह भूमि कुछ दिनों तक खेती करने के बाद एक वर्ष के लिए परती या खाली छोड़ दी जाती थी जिससे वह अपनी खोई हुई उर्वरा शक्ति को फिर से प्राप्त कर ले।

(स.) चाचर: तीसरी कोटि की भूमि चाचर कहलाती थी। वह भूमि पड़ौती से भी निम्न कोटि की होती थी। उर्वरा शक्ति कम हो जाने पर इसे तीन-चार वर्ष तक परती छोड़ देना पड़ता था जिससे वह अपनी उत्पादन शक्ति को फिर से प्राप्त कर ले।

(द.) बंजर: सबसे निम्न कोटि की भूमि बंजर कहलाती थी। इस भूमि को पाँच वर्ष या उससे भी अधिक समय तक परती छोड़ना पड़ता था।

पोलज तथा पड़ौती भूमि को पुनः तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया था- उत्तम श्रेणी, मध्यम श्रेणी तथा निम्न श्रेणी।

(6.) उपज का औसत: भूमि का वर्गीकरण करने के उपरांत उत्तम, मध्यम तथा निम्न-श्रेणी की पोलज तथा पड़ौसी भूमि की उपज की औसत निकाली गई। चाचर तथा बंजर भूमि की उपज की औसत निकालते समय सिंचाई की व्यवस्था का ध्यान रखा गया।

(7.) लगान का निर्धारण: उपज की औसत निकालने के बाद औसत उपज का तीसरा भाग सरकारी लगान निश्चित कर दिया गया। यह लगान नकद अथवा जिन्स दोनों ही रूपों दे दी जा सकती थी परन्तु सरकार नकद रुपया ही देने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करती थी।

(8.) मालगुजारी का भुगतान: अकबर के समय में मालगुजारी की तीन व्यवस्थाएँ प्रचलित थीं- (1.) गल्ला-बख्शी, (2.) नस्क तथा (3.) जाब्ती।

(1.) गल्ला-बख्शी: गल्ला-बख्शी प्रथा भारत में बड़ी पुरानी थी। इस प्रथा के अनुसार फसल का कुछ भाग सरकार ले लेती थी। किसान इस प्रथा को स्वीकार करने अथवा न करने के लिए स्वतन्त्र थे।

(2.) नस्क: इस प्रथा में भू-स्वामि तथा सरकार के बीच लगान का समझौता हो जाता था। रैयतवारी प्रथा में यह समझौता किसान और सरकार के और जमींदारी प्रथा में यह समझौता सरकार तथा जमींदार के बीच होता था।

(3.) जाब्ती: इस प्रथा में लगान का निश्चय फसल के आधार पर होता था। जिस प्रकार की फसल खेत में बोई जाती थी उसके अनुसार लगान का निश्चय होता था। सरकार इस प्रथा को अधिक पसन्द करती थी क्योंकि इससे नकद रुपया मिलता था और उपज के घटने-बढ़ने का प्रभाव सरकारी कोष पर नहीं पड़ता था। अकबर के शासन काल में ये तीनों प्रथाएँ प्रचलन में थीं। किसान किसी भी प्रथा को अपना सकते थे।

अकबर द्वारा किये गये भू-प्रबंधन के परिणाम

अकबर के शासन काल में किसानों के लिये नई व्यवस्था के तहत जो लगान निश्चित किया गया वह बहुत कम नहीं था परन्तु किसान नई व्यवस्था से बहुत सन्तुष्ट थे। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इस व्यवस्था में पारदर्शिता अधिक थी। इस कारण सरकारी कर्मचारियों की लूट कम हो गई। यह व्यवस्था अत्यंत सरल थी जिस कारण किसानों के समझ में आ गई। लगान के निश्चित हो जाने से किसान तथा सरकार दोनों ही चिन्ता से मुक्त हो गये।

अन्य करों में कमी

अकबर ने प्रजा पर से अनेक करों को समाप्त कर दिया। उसने हिन्दू प्रजा पर से जजिया, जकात तथा तीर्थयात्रा करों को समाप्त कर दिया। आम प्रजा से वृक्ष-कर, बाजार-कर, गृह-कर तथा ऐसे ही अनेक अन्य करों को भी समाप्त कर दिया। बादशाह ने कोतवालों तथा अमल-गुजारों को आदेश दिया कि वे नियमों का ठीक से पालन करायें और भ्रष्ट कर्मचारियों को कठोर दण्ड दें। अकाल अथवा अन्य दैवी प्रकोप होने पर किसानों के लगान में कमी की जाती थी। निर्धन किसानों की धन से भी सहायता की जाती थी जिससे वे बीज, पशु तथा औजार आदि खरीद कर सकेें। इन सुधारों से किसानों की दशा में सुधार हुआ। मोरलैण्ड ने लिखा है- ‘यदि उस समय के स्तर से मूल्यांकन किया जाय तो आर्थिक दृष्टिकोण से अकबर का शासन श्लाघनीय था क्योंकि उसके कोष में सदैव वृद्धि होती गई और जब उसने पंचत्व प्र्राप्त किया तब वह संसार का सर्वाधिक समृद्ध शासक था।’

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