जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605 ई.)
अकबर का व्यक्तित्व
अकबर की गणना भारत के महान् शासकों में की जाती है। उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में विद्वानों ने इतना अधिक लिख दिया है कि वास्तविकता का पता लगाना कठिन हो गया है। अबुल फजल जैसे प्रशंसकों ने उसके व्यक्तित्व को अत्यन्त अतिरंजित करके उसे एक आदर्श शासक बताया है परन्तु बदायूनी जैसे आलोचकों ने उसे इस्लाम का शत्रु घोषित करके उसके व्यक्तित्व को अश्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास किया है। उपलब्ध साक्ष्यों का अध्ययन करने पर अनुमान होता है कि उसका व्यक्तित्व अपने युग के मुस्लिम बादशाहों से कहीं
अधिक श्रेष्ठ था। उसमें ऐसे अनेक गुणों का समावेश था जिनके बल पर वह अपने राज्य का अभूतपूर्व विस्तार कर सका, उसे स्थायित्व दे पाया तथा अपने वंशजों के लिये मार्ग दर्शक सिद्धांतों का निर्माण करने में सफल रहा।
(1.) शारीरिक गठन: अकबर का कद मझोला और शरीर गठीला था। उसकी भुजायें लम्बी तथा आँखें चमकीली थीं। उसका रंग गेहुँआ और आवाज बुलन्द थी। वह परिश्रमशील तथा जिज्ञासु प्रकृति का व्यक्ति था।
(2.) स्वभाव: अकबर का स्वभाव कोमल था। अहंकार तथा दम्भ से उसे घोर घृणा थी, क्रोध आने पर वह भयंकर रूप धारण कर लेता था किन्तु उसके क्रोध को शान्त होने में अधिक समय नहीं लगता था।
(3.) व्यवहार: अकबर व्यवहार कुशल शासक था। मधुर वाणी तथा सद्व्यवहार से वह अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति को वशीभूत कर लेता था। वह प्रजा में लोकप्रिय शासक था। जेसुइट पादरी जेवियर के कथनानुसार उसका व्यवहार महान् के साथ महान् और तुच्छ के साथ तुच्छ था। वह सदैव न्याय का पक्ष लेता था। अपने कुटुम्बियों तथा सम्बन्धियों के साथ उसका व्यवहार प्रेम-पूर्ण था। अपने भाई हकीम द्वारा विद्रोह किये जाने पर भी अकबर ने उसके साथ उदारता का व्यवहार किया और उसे क्षमा कर दिया। अपने पुत्र सलीम के द्वारा अनेक बार आज्ञा का उल्लंघन करने तथा विद्रोह करने पर भी अकबर ने उसके साथ जीवन भर स्नेह-सिक्त व्यवहार किया तथा उसे अपना उत्तराधिकारी स्व्ीकार कर लिया।
(4.) बुद्धिमत्ता: यद्यपि अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु वह कुशाग्र बुद्धि का धनी था। उसकी स्मरण-शक्ति बहुत अच्छी थी। उसकी कल्पना शक्ति बड़ी उच्च-कोटि की थी। उसे कल्पनाओं का शाहजादा कहा गया है किंतु वह कोरा काल्पनिक नहीं था। उसमें व्यावहारिकता तथा प्रयोगात्मक बुद्धि भी थी।
(5.) रुचि: अकबर को आखेट खेलने का शौक था। उसे जंगली पशुओं का पीछा करने में बड़ा मजा आता था। आसव पीकर मस्त हुए हाथियों के युद्ध देखने का भी उसे बड़ा चाव था। पोलो खेलने में उसकी विशेष रुचि थी। वह कभी-कभी रात्रि में भी प्रकाश करवा कर पोलो खेलता था।
(6.) घुड़सवारी: अकबर अपने समय का अच्छा घुड़सवार था। एक बार उसने अजमेर से आगरा तक की 240 मील की दूरी घोड़े पर बैठकर केवल 24 घण्टे में तय की। इसी प्रकार वह सीकरी से अहमदाबाद जो 450 मील दूर है, घोड़े पर सवार होकर ग्यारह दिन में पहुँच गया था।
(7.) निशोनेबाजी: अकबर अच्छा निशानेबाज था। चित्तौड़ दुर्ग के घेरे में उसने बन्दूकचियों के प्रधान इस्माइल खाँ तथा राठौड़ सरदार जयमल पर दूर से ही बंदूक से निशाना साधकर घायल कर दिया जिससे इस्माइल खाँ की मृत्यु हो गई तथा राठौड़ सरदार जयमल बुरी तरह घायल हो गया।
(8.) धार्मिक प्रवृत्ति: अकबर बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। ईश्वर की सत्ता तथा महानता में उसकी पूर्ण आस्था थी। वह मानव के भ्रातृत्व में विश्वास रखता था तथा धर्म को सत्य की खोज का साधन समझता था। उसने इबादत खाना की स्थापना करके विभिन्न धर्मों के आचार्यों एवं उपदेशकों के प्रवचन और शास्त्रार्थ करवाकर सत्य की खोज करने का प्रयास किया। अकबर में धर्मान्धता अथवा धार्मिक कट्टरता न होकर उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। सुलह-कुल की नीति में उसका पूर्ण विश्वास था। वह समस्त धर्म वालों के साथ दया तथा सहानुभूति का व्यवहार करता था।
(9.) चिश्ती सम्प्रदाय में विश्वास: धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण अकबर साधु-सन्तों तथा फकीरों का बड़ा आदर करता था। चिश्ती सम्प्रदाय के सूफियों, विशेषतः शेख सलीम चिश्ती में उसका बड़ा विश्वास था। किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य को करने से पहले वह उनका आशीर्वाद प्राप्त करता था।
(10.) सत्य से प्रेम: यद्यपि अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु उसकी निरक्षरता उसके ज्ञानार्जन में किसी प्रकार बाधक सिद्ध नहीं हुई। अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा स्मरणशक्ति के बल पर उसने अपार ज्ञान अर्जित कर लिया था। इस कारण उसे सत्य से बहुत प्रेम था। वह किसी भी धर्म की मान्यताओं को ज्यों की त्यों स्वीकार करने की बजाय उसे सत्य की कसौटी पर कसना चाहता था। प्रत्येक धर्म की अच्छी बात को स्वीकार करने में उसे किंचित् भी परहेज नहीं था।
(11.) साहित्य तथा कला से अनुराग: यद्यपि अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु उसे साहित्य तथा कला से बड़ा अनुराग था। वह साहित्यकारांे तथा कलाकारों का आश्रयदाता था। उन्हें हर प्रकार की सहायता तथा प्रोत्साहन देता था। उसका दरबार बड़े-बड़े विद्वानों से सुशोभित था। अब्दुर्रहीम खानखाना, अबुल फजल, फैजी, तानसेन, मानसिंह, टोडरमल, बीरबल, मुल्ला तथा हकीम हुमाम उसकी सभा के नौ-रत्न थे। अकबर बड़ा ही जिज्ञासु था और उसे ज्ञानार्जन का चाव था। वह विद्वानों का सत्संग अपने ज्ञान-कोष की वृद्धि के लिए करता था।
(12.) श्रेष्ठ योद्धा तथा महान सेनानायक: अकबर में एक जुझारू सैनिक तथा योग्य सेनापति के गुण विद्यमान थे। भयानक संकट आ जाने पर भी उसका धैर्य भंग नहीं होता था। रणक्षेत्र में वह निर्भय होकर अपने प्राणों की बाजी लगा देता था। वर्षा-ऋतु में वह उमड़ी हुई नदियों में अपना घोड़ा डाल देता था और पार कर जाता था। युद्ध में उसने स्वयं को अजेय सिद्ध कर दिया था।
(13.) महान् साम्राज्य निर्माता: अकबर एक महान् साम्राज्य निर्माता था। मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक वही था। उसने अपने पिता के मृतप्राय साम्राज्य को न केवल फिर से जीवित कर दिया था अपितु उसे विशाल तथा संगठित साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। जिस समय हुमायूँ का निधन हुआ उस समय अकबर के पास न तख्त था और न साम्राज्य। इन दोनों ही के लिए उसे भीषण संघर्ष करना पड़ा। अपने बाहु-बल से उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका राज्य पूर्व में अफगानिस्तान के हेरात तथा कंदहार से लेकर पूर्व में चिटगांव तक एवं उत्तर में कश्मीर से लेकर दौलताबाद तथा नांदेड़ तक विस्तृत हो गया।
(14.) महान् शासक: एक शासक के रूप में अकबर की सफलताएं श्लाघनीय थीं। वह उदार, सहृदय तथा धर्म सहिष्णु शासक था। उसने अपने राज्य में शान्ति की स्थापना की तथा भूमि का समुचित प्रबन्ध करके अपनी प्रजा को संतुष्ट करने का प्रयास किया। उसने अपनी हिन्दू-प्रजा से वे समस्त कर हटा लिये जो मुसलमान प्रजा पर नहीं लगते थे। उसने हिन्दुओं के लिये भी सरकारी नौकरियों के द्वार खोल दिये। अकबर ने उस युग में सुलह-कुल की नीति का अनुसरण करके अपने शासन को समन्वयकारी बनाया। उसने सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण कर दीन-इलाही चलाने का प्रयास किया। उसमें भी किसी के साथ जोर जबरदस्ती नहीं की उसने अनेक फारसी ग्रन्थों का संस्कृत में और संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद कराकर सांस्कृतिक समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि अकबर एक प्रतिभावान, धर्म-सहिष्णु, साहित्य एवं कलाप्रेमी शासक था। वह एक अच्छा योद्धा, साम्राज्य निर्माता तथा अच्छा शासक था। उसमें प्रजा के कल्याण की भावना थी। उसके ये गुण उसे मध्य-युग के इतिहास में अन्य मुस्लिम शासकों से अलग स्थान प्रदान करते हैं।
इतिहासकारों की दृष्टि में अकबर
मध्यकालीन इतिहासकारों से लेकर आधुनिक इतिहासकारों ने अकबर के बारे में बहुत कुछ लिखा है। बदायूनी जैसे अधिकांश लेखकों ने भावनाओं के साथ बहकर लेखन किया गया है। आधुनिक यूरोपीय एवं भारतीय इतिहासकारों ने भी स्वयं को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिये अकबर को काल्पनिक गुणों का स्वामी बताया है। इस सारे मिथ्या लेखन के बीच अकबर के वास्तविक चरित्र एवं सफलताओं का विश्लेषण करना कठिन हो जाता है। यहाँ अकबर के सम्बन्ध में कुछ इतिहासकारों के विचार दिये जा रहे हैं-
विन्सेट स्मिथ ने अकबर की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘वह मनुष्य का जन्मजात शासक था और इतिहास में परिज्ञात सर्वशक्तिशाली शासकों में स्थान पाने का वस्तुतः अधिकारी है। यह अधिकार निःसंदेह उसके अलौकिक एवं प्राकृतिक गुणों, उसके मौलिक विचारों तथा उसकी शानदार सफलताओं पर आधारित है।’
के. टी. शाह ने अकबर के बारे में लिखा है- ‘मुगलों में अकबर सबसे महान् था और यदि मौर्यों के काल से नहीं तो कम से कम एक सहò वर्षों में वह सबसे बड़ा भारतीय शासक था।’
लेनपूल ने अकबर की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘वह भारत का भद्रतम शासक था…..वह साम्राज्य का सच्चा संस्थापक तथा संगठनकर्ता था…..वह मुगल साम्राज्य के स्वर्ण-युग का प्रतिनिधित्व करता है।’
एडवडर््स तथा गैरेट ने अकबर की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अकबर ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी योग्यता को सिद्ध कर दिया है। वह एक निर्भीक सैनिक, एक महान् सेनानायक, एक बुद्धिमान प्रबन्धक, एक उदार शासक और चरित्र का सही मूल्यांकन करने वाला था। वह मनुष्यों का जन्मजात नेता था और इतिहास का सर्वशक्तिमान् शासक कहलाने का वास्तव में अधिकारी है।’
हेग ने अकबर की प्रशंसा करने हुए लिखा है, वास्तव में वह एक महान् शासक था क्योंकि वह जानता था कि अच्छा शासक वही है जिसका उसकी प्रजा आज्ञा-पालन के साथ-साथ आदर-सम्मान और प्यार करती हो न कि भयभीत रहती हों। वह ऐसा राजकुमार था जिसे समस्त लोग प्यार करते थे, जो महान् व्यक्तियों के साथ दृढ़, निम्न-स्थिति के लोगों के प्रति उदार और जो छोटे-बड़े परिचित अपरिचित समस्त लोगों के साथ न्याय करता था।’
मुगल सल्तनत का वास्तविक संस्थापक
मुगल सल्तनत का आरम्भिक संस्थापक बाबर था परन्तु इसका वास्तविक संस्थापक अकबर ही था। यह सत्य है कि पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी को और खनवा के युद्ध में राणा सांगा को परास्त करके बाबर ने भारत में मुगल सल्तनत की स्थापना कर दी थी परन्तु न तो अफगानों को और न राजपूतों की ही शक्ति को पूर्ण रूप से नष्ट-भ्रष्ट कर सका था। अफगान लोग बगाल एवं बिहार में और राजपूत लोग राजस्थान में अपनी बिखरी हुई शक्ति को संगठित करने में संलग्न थे। उन्होंने अपने को इतना प्रबल बना लिया कि वे नव-निर्मित मुगल सल्तनत के लिये भयानक चुनौती बन गये।
बाबर की भारतीय विजय कोरी सैनिक विजय थी। उसने अपने सैनिक बल तथा रण-कौशल से भारतीय साम्राज्य को प्राप्त किया था। यह साम्राज्य शक्ति पर आधारित था और शक्ति द्वारा ही यह सुरक्षित रखा तथा स्थायी बनाया जा सकता था। बाबर में अलौकिक सैनिक प्रतिभा थी और नेतृत्व ग्रहण करने की अदभुत् क्षमता थी। अतः जब तक वह जीवित रहा तब तक वह अपने भारतीय साम्राज्य को सुरक्षित रख सका। परन्तु दुर्भाग्यवश वह केवल चार वर्ष तक जीवित रहा और उसके आँख बंद करते ही शक्ति का पलड़ा उलट गया। अब शक्ति अफगानों के हाथ में चली गई और वे संगठित होकर मुगलों का सामना करने के लिए उद्यत हो गये।
बाबर में सैनिक प्रतिभा तो थी परन्तु उसमें प्रशासकीय प्रतिभा की कमी थी। वह अपने साम्राज्य को संगठित तथा सुव्यवस्थित नहीं बना सका। न उसने शासन सम्बन्धी कोई सुधार किये और न वह नई शासन संस्थाओं की स्थापना कर सका। अतः उसके द्वारा निर्मित साम्राज्य निराधार तथा निर्मूल था जो स्थायी सिद्ध नहीं हो सकता था।
साम्राज्य को स्थायी बनाने के लिये आर्थिक सुदृढ़ता की आवश्यकता होती है। अर्थ शक्ति का बहुत बड़ा स्रोत होता है। शक्ति से साम्राज्य को स्थायित्व प्राप्त होता है। अभाग्यवश बाबर की आर्थिक नीति अदूरदर्शिता पूर्ण थी। उसने धन का अपव्यय कर अपना कोष खाली कर दिया जिससे साम्राज्य का आधार कमजोर पड़ गया था।
बाबर की भारतीय विजय नैतिक-बल से भी रिक्त थी। मुगल लोग भारत में विदेशी, बर्बर एवं रक्त-पिपासु समझे जाते थे। अफगान तथा हिन्दू दोनों ही उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते थे तथा दोनों ही मुगल सल्तनत को उन्मूलित करने की ताक में रहते थे। भारतीय प्रजा की सहानुभूति मुगलों के साथ नहीं थी। भारतीय प्रजा मुगलों को उन्मूलित करने में किसी के भी साथ सहयोग कर सकती थी। इस प्रकार नैतिक-बल विहीन नव-निर्मित मुगल साम्राज्य रेत के दुर्ग के समान था जिसे एक हल्का सा आघात नष्ट कर सकता था। रशब्रुक विलियम्स ने लिखा है- ‘बाबर ने अपने पुत्र को ऐसा साम्राज्य प्रदान किया जो केवल युद्ध की परिस्थितियों में चल सकता था और शान्ति के समय के लिए निर्बल तथा निराधार था।’ इस दुर्बलता के कारण इस साम्राज्य का नष्ट हो जाना अनिवार्य था।
हुमायूँ के तख्त पर बैठते ही विद्राहों की भंयकर आँधियाँ चलने लगीं और मुगल सल्तनत की जड़ें हिलने लगीं। हुमायूँ का अफगानों के साथ भीषण संग्राम आरम्भ हो गया जिसका अन्तिम परिणाम यह हुआ कि जिस साम्राज्य की स्थापना बाबर ने की थी वह उन्मूलित हो गया और उसके स्थान पर द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना हो गई। शेरशाह ने बाबर के समस्त पुत्रों को हिन्दुस्तान से मार भगाया। हुमायूँ ने भागकर फारस के शाह के यहाँ शरण ली और उसके अन्य भाई अफगानिस्तान भाग गये और वहीं शासन करने लगे। मुगल सल्तनत को उन्मूलित करने के बाद पन्द्रह वर्षों तक अफगानों ने फिर भारत पर शासन किया।
पन्द्रह वर्ष बाद हुमायूँ ने फारस के शाह की सहायता से भारत की पुनर्विजय का प्रयत्न किया। पहले उसने अपने भाइयों को नत-मस्तक किया। इसके बाद उसने अफगानों को परास्त कर दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार एक बार फिर वह भारत में मुगल सत्ता स्थापित करने में सफल हो गया। हुमायूँ ने अपने पिता के साम्राज्य को खो देने के लांछन को तो धो दिया परन्तु जिस साम्राज्य की उसने पुनर्स्थापना की वह पहले से अधिक निर्बल था। पंजाब में अभी असन्तोष की आग व्याप्त थी। दिल्ली तथा आगरा पर भी दृढ़ता से मुगलों की शक्ति स्थापित न हो पाई थी। अफगान लड़ाके चारों और सक्रिय थे और अपनी सत्ता की पुनर्स्थापना के लिये संग्राम लड़ रहे थे। इन्ही परिस्थितियों में हुमायूँ का निधन हो गया। न वह अपने राज्य को संगठित कर सका और न शासन की समुचित व्यवस्था कर सका। वह अकबर के लिए असुरक्षित, अव्यवस्थित तथा असंगठित राज्य छोड़ गया जो विपत्ति के एक ही झोंके में समाप्त हो सकता था। अतः हुमायँॅ को भी मुगल सल्तनत का वास्तविक संस्थापक नहीं कहा जा सकता।
वस्तुतः मुगल साम्राज्य की वास्तविक स्थापना का भार अकबर के ही कन्धों पर पड़ा जिसकी अवस्था उस समय केवल तेरह वर्ष चार महीने थी। यद्यपि अकबर अल्प-वयस्क, अनुभव शून्य तथा साधनहीन था परन्तु सौभाग्य से उसे बैरमखाँ जैसे योग्य, स्वामिभक्त, अनुभवी तथा सैनिक एवं प्रशासकीय प्रतिभा-सम्पन्न संरक्षक की सेवाएँ प्राप्त हो गईं। बैरमखाँ की सहायता से अकबर ने दिल्ली तथा आगरा पर दृढ़ता से अधिकार स्थापित कर लिया। इसके बाद उसने साम्राज्य निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया। उसने एक अत्यन्त सुसज्जित तथा सुसंगठित सेना का निर्माण करके उत्तरी-भारत के बहुत बड़े भाग पर प्रभुत्व स्थापित किया। उसने इस विशाल साम्राज्य की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की।
अकबर की विजयें कोरी सैनिक विजयें न थीं। उसने अत्यंत संगठित तथा सुव्यवस्थित शासन की व्यवस्था भी की। उसने ऐसी लोकप्रिय शासन व्यवस्था स्थापित की जिसने उसके साम्राज्य को सुदृढ़ बना दिया। उसने राजनीति में नये सिद्धान्तों का प्रयोग किया जिससे वह अत्यन्त लोकप्रिय बन गया। उसने राजनीति में उदारता, सहिष्णुता, धार्मिक स्वतंत्रता, न्याय एवं निष्पक्षता की नीति का अनुसरण किया जिससे उसका शासन लोकप्रिय बन गया।
अकबर का साम्राज्य शक्ति अथवा भय पर आधारित नहीं था। उसने अपनी प्रजा के हृदय पर विजय प्राप्त कर उसकी शुभकामनायें प्राप्त कर लीं। इससे अकबर के साम्राज्य को नैतिक-बल प्राप्त हो गया। इससे अकबर का राज्य स्थाई हो गया। लगभग तीन सौ वर्षों तक उसके वंशज भारत में शासन करते रहे। अतः अकबर को ही मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मानना चाहिए।
पेन ने लिखा है- ‘मुगल सल्तनत का आरोपण सर्वप्रथम बाबर ने किया था। शेरशाह ने उसे ने उसे उन्मूलित कर दिया, हुमायूँ ने उसे फिर आरोपित किया और अन्त में अकबर ने उसे वास्तव में अच्छी प्रकार आरोपित किया।’
स्मिथ ने लिखा है- ‘यह नहीं कहा जा सकता कि सिंहासनारोहण के समय अकबर के पास कोई साम्राज्य था। यह अकबर की अलौकिक प्रतिभा तथा बैरमखाँ की स्वामि-भक्ति थी जिसने एक विशाल सल्तनत की प्राप्ति की।’
जेम्स टॉड ने लिखा है- ‘मुगलों के साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अकबर था जिसने सर्वप्रथम राजपूतों की स्वतन्त्रता पर सफलतापूर्वक विजय प्राप्त की……..वह उस रज्जु को तैयार कर सका जिसमें उसने उसको बांध दिया।’
हण्टर ने लिखा है- ‘जब 1556 ई. में अकबर तख्त पर बैठा तब भारत उसे छोटे-छोटे हिन्दू तथा मुसलमान राज्यों में विभक्त मिला जिनमें संघर्ष व्याप्त था। 1605 ई. में जब वह मरा तो एक संगठित साम्राज्य छोड़ गया।’
पनिक्कर ने लिखा है- ‘जब अकबर मरा तब अपने पुत्र के लिए एक व्यवस्थित साम्राज्य और राजवंश के प्रति भक्ति रखने वाली प्रजा छोड़ गया।’