Sunday, December 22, 2024
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अध्याय – 26 (स) : मुगल सल्तनत की पुनर्स्थापना

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर (1556-1605 ई.)

राजपूत शासकों द्वारा अकबर के साथ मैत्री के कारण

मेवाड़ को छोड़कर शेष राजपूत राज्यों ने अकबर के साथ मैत्री क्यों की, इस विषय पर इतिहासकारों में विभिन्न राय है। इस सम्बन्ध में दिये जाने वाले तर्क इस प्रकार से हैं-

(1.) अकबर से राजपूत मैत्री के युग का आरम्भ राजा भारमल द्वारा अपनी पुत्री का विवाह अकबर के साथ करने के बाद हुआ था। भारमल के लिये इस विवाह के परिणाम सुखद रहे। भारमल की पुत्री भारत की साम्राज्ञी बन गई। भारमल को छोटे-बड़े शत्रुओं से छुटकारा मिल गया तथा उसका राज्य सुरक्षित हो गया। उसके पुत्र तथा पौत्र को मुगल सेना में उच्च पद मिल गये। अन्य राजपूतों ने भी भारमल के इस कदम का अनुकरण करना ही ठीक समझा।

(2.) अकबर ने अपने व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया कि वह मित्र राजपूत राज्यों को उन्मूलित नहीं करेगा। उसने समस्त विजित मुसलमान राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया किंतु एक भी बड़े राजपूत राज्य को मुगल साम्राज्य में नहीं मिलाया।

(3.) युद्ध में परास्त होकर अधीनता स्वीकार करने वाले राजपूत शासकों को भी अकबर ने उसके राज्य से हटाकर अन्य स्थान पर जागीर देकर उसके अस्तित्त्व को बनाये रखा।

(4.) अकबर ने राजपूतों को यह विश्वास दिला दिया कि अकबर केवल इतना ही चाहता था कि समस्त राजपूत राज्य उसकी अधीनता स्वीकार कर लें और मुगल साम्राज्य के निर्माण में सहयोग प्रदान करें। इसके बदले में उन्हें शांति, सुरक्षा, उच्च पद, वेतन एवं जागीरें मिलेंगी।

(5.) जिन राजपूत राज्यों ने अकबर से मित्रता की, अकबर ने उन राजपूत राज्यों के आन्तरिक शासन में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया। उसने उन राज्यों की केवल विदेश नीति पर नियंत्रण स्थापित किया।

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(6.) अकबर ने राजपूतों को विश्वास दिला दिया कि अकबर उनकी स्वतन्त्रता नहीं हड़पना चाहता है और न उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा संास्कृतिक जीवन में किसी प्रकार का हस्तेक्षप करना चाहता है।

(7.) अकबर ने राजपूत राजाओं तथा राजकुमारों को मुगल साम्राज्य में उच्च पद प्रदान किये और उनके साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा दरबार के अन्य मुसलमान अमीरों के साथ किया जाता था। वह राजपूत तथा मुसलमान अधिकारियों को समान दृष्टि से देखता था और जाति तथा धर्म के आधार पर उनसे भेदभाव नहीं करता था।

(8.) राजपूतों को मुगल साम्राज्य में अपनी सामरिक तथा प्रशासनिक प्रतिभा के प्रदर्शन का पूर्ण अवसर प्राप्त था, जिससे वे अपनी भुजाओं का जौहर दिखा सकते थे।

(9.) दिल्ली सल्तनत की स्थापना से बहुत पहले से राजपूत राजा, मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध करते आये थे जिससे उनकी शक्ति को बहुत हानि पहुँची थी। उनके लिये अकबर की विशाल सेनाओं तथा उसके प्रचुर साधनों के समक्ष ठहर पाना कठिन था।

(10.) राजपूत यह समझ गये थे कि अकबर से लोहा लेने का तात्पर्य था भीषण नर-संहार, अपार सम्पत्ति का विनाश और अन्त में असफलता।

(9.) निरन्तर युद्ध का क्षेत्र बन जाने से राजपूताना नष्ट होता जा रहा था। राजपूताने को बचाने तथा शांति स्थापित करने का कार्य अकबर से मैत्री स्थापित करके बड़ी सरलता से किया जा सकता था।

(11.) कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूतों में प्राचीन क्षत्रियों जैसा तेज नहीं रह गया था। इसलिये वे एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासक की छत्रछाया में अपने राज्यों को सुरक्षित बनाये रखना चाहते थे।

(12.) राजपूत शासकों में अहंकार की भावना इतनी अधिक थी कि उनमें परस्पर भाईचारा स्थापित होना संभव नहीं था। वे सदैव किसी न किसी बात पर अपने पड़ौसी राज्यों से लड़ते रहते थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने स्वजातीय राजपूत शासक से परास्त होकर अथवा उसकी अधीनता स्वीकार करके रहने की बजाय विदेशी शक्ति के सहायक होकर रहना अधिक पसंद किया।

(13.) असंतुष्ट राजपूत राजकुमारों के लिये अकबर का दरबार सबसे बड़ी शरण स्थली था जहाँ उसे जागीर, ऊँचा मनसब तथा ऊँचा वेतन पाने के अवसर थे। इसलिये जगमाल जैसे असंतुष्ट राजकुमारों ने मुगलों की चाकरी स्वीकार कर ली।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि राजपूत राजा और राजकुमार लम्बे समये तक मुस्लिम सेनाओं के विरुद्ध लड़ते हुए यह समझ गये थे कि राजपूत नष्ट हो सकते हैं किंतु जीत नहीं सकते। इसलिये वे अकबर द्वारा अपनाई गई सुलह-कुल की नीति का शिकार हो गये। अहंकारी होने के कारण वे परस्पर लड़ते रहे और केन्द्रीय शक्ति की छत्रछाया में अपने राज्यों को सुरक्षित बनाने में सफल रहे।

अकबर द्वारा सीमान्त प्रदेशों की विजय

भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित पर्वतीय मार्गों से विदेशी आक्रमण होते रहे थे। इस कारण अकबर के लिये यह आवश्यक था कि वह अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये गजनी, काबुल, कन्दहार, बिलोचिस्तान तथा सिंध आदि सीमांत प्रदेशों पर अपना प्रभाव स्थापित करे और वहाँ सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण करके उनमें मजबूत सैन्य बल रखे।

काबुल पर अधिकार

हुमायूं के मरने के बाद उसके भारतीय साम्राज्य का शासन उसके बड़े पुत्र अकबर को और काबुल का प्रबन्ध हुमायूँ के छोटे पुत्र मिर्जा हकीम को मिला था। तख्त पर बैठते समय दोनों ही अल्प वयस्क बालक थे। इसलिये अकबर ने बैरमखाँ के संरक्षण में और हकीम ने मुनीमखाँ के संरक्षण में शासन करना आरम्भ किया था।  जिस समय बैरमखाँ ने अकबर से विद्रोह किया उस समय भी मुनीमखाँ काबुल का शासन संॅभाल रहा था। बैरमखाँ के विद्रोह की सूचना पाकर मुनीमखाँ ने काबुल का शासन अपने पुत्र गनीखाँ को सौंप दिया और वह स्वयं अकबर की सहायता करने के लिए पंजाब चला आया।

मुनीमखाँ की अनुपस्थिति में हकीम की माँ चूचक बेगम ने सारी शक्ति अपने हाथ में ले ली और गनीखाँ को दुर्ग में घुसने देने से मना कर दिया। अब वह काबुल में अकबर के प्रभुत्व को समाप्त कर देने की योजनाएँ बनाने लगी। जब अकबर को इसकी सूचना मिली तब उसने मुनीमखाँ को काबुल पर अधिकार करने के लिए भेजा परन्तु वह परास्त होकर लौट आया। साम्राज्य की अन्य समस्याओं में व्यस्त होने के कारण अकबर काबुल की ओर ध्यान नहीं दे सका। हकीम स्वतन्त्रता पूर्वक काबुल पर शासन करने लगा।

हकीम की माँ चूचक बेगम ने अपनी सफलता से प्रोत्साहित होकर अपने पुत्र को हिन्दुस्तान का बादशाह बनाने की योजना बनाई। उसे उजबेग सरदारों से भी प्रोत्साहन मिला। इसलिये हकीम ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया। उजबेगों ने भी उसका साथ दिया और विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। जब अकबर को इसकी सूचना मिली तब उसने स्वयं एक सेना लेकर पंजाब के लिए प्रस्थान किया। हकीम भयभीत होकर काबुल भाग गया। अकबर ने उसका पीछा नहीं किया और उजबेगों के विद्रोह को दबाने में लग गया। इसके बाद 1580 ई. तक हकीम चुप रहा। 1581 ई. में अमीरों के उकसाने पर उसने फिर पंजाब पर आक्रमण किया। इस बार अकबर ने उसका पीछा किया और उसे काबुल से भी निकाल बाहर किया। हकीम ने अकबर से क्षमा याचना की। इस पर अकबर ने उसे फिर से काबुल का शासक बना दिया। इसके बाद फिर कभी हकीम ने विद्रोह नहीं किया। 1585 ई. में हकीम की मृत्यु हो गई और काबुल पर अकबर का प्रत्यक्ष अधिकार स्थापित हो गया।

कबाइली क्षेत्रों पर अधिकार

अफगानिस्तान तथा भारत की पश्चिमोत्तर सीमा के मध्य स्थित पहाड़ी प्रदेश कबाइली क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में उजबेग, रोशनियाँ, युसुफजाई आदि कबीले निवास करते थे जो बड़े ही विद्रोही प्रकृति के थे। काबुल की रक्षा के लिए इन कबीलों पर नियंत्रण रखना आवश्यक था। इसलिये अकबर ने इन कबीलों को परास्त करके उन्हें अपने नियंत्रण में लाने का निश्चय किया। अकबर ने सबसे पहले उजबेगों का दमन आरम्भ किया क्योंकि उजबेगों तथा मुगलों की पुश्तैनी शत्रुता थी और उन्हीं से अकबर को सबसे बड़ा खतरा था। उजबेगों की शक्ति छिन्न-भिन्न करने के बाद अकबर ने रोशनिया कबीले का दमन किया। इसके बाद अकबर ने बीरबल तथा जैनीखाँ को यूसुफजाइयों का दमन करने के लिए भेजा। ये दोनों सेनापति सहयोग से काम नहीं कर सके। बीरबल को यूसुफजाइयों ने मार डाला। बीरबल की मृत्यु से अकबर बहुत दुखी हुआ। उसने दो दिन तक कुछ नहीं खाया-पिया। अंत में अकबर ने राजा टोडरमल तथा शाहजादा मुराद की अध्यक्षता में एक सेना भेजी। इस सेना ने यूसुफजाइयों को परास्त करके उनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया। इस प्रकार पश्चिमोत्तर प्रदेश के कबाइली क्षेत्रों पर अकबर का पूर्ण नियंत्रण हो गया।

काश्मीर विजय

अकबर ने 1586 ई. में राजा भगवानदास तथा कासिमखाँ की अध्यक्षता में एक सेना काश्मीर पर आक्रमण करने के लिये भेजी। पर्वतीय प्रदेश होने के कारण काश्मीर में मुगल सेना को भयानक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा परन्तु अन्त में वह काश्मीर के शासक यूसुफखाँ तथा उसके पुत्र याकूत को परास्त करने में सफल हुई। पिता-पुत्र को बन्दी बनाकर बिहार भेज दिया गया और मानसिंह को काश्मीर का शासक बना दिया गया। इस प्रकार काश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग बन गया।

सिन्ध विजय

पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा के लिए सिन्ध पर अधिकार करना आवश्यक था। उत्तरी सिन्ध पहले से ही मुगल साम्राज्य के अधीन था। केवल दक्षिण सिन्ध को जीतना था, जहाँ पर मिर्जा जानी थट्टा को अपनी राजधानी बनाकर स्वतन्त्रता पूर्वक शासन कर रहा था। 1590 ई. में अकबर ने मुल्तान के हाकिम अब्दुर्रहीम खानखाना को थट्टा पर अधिकार करने के लिये भेजा। मिर्जा जानी मुगलों की विशाल सेना का सामना नहीं कर सका और उसने थट्टा तथा सिंहवान के दुर्ग मुगलों को समर्पित कर दिये। अकबर ने मिर्जा जानी के साथ उदारता का व्यवहार किया और उसे अपना जागीरदार बना लिया।

बिलोचिस्तान विजय

सिन्ध विजय के उपरान्त अकबर ने बिलोचिस्तान पर अधिकार करने का निश्चय किया। इन दिनों बिलोचिस्तान अफगानों के अधिकार में था। 1595 ई. में अकबर ने मासूम खाँ की अध्यक्षता में एक सेना बिलोचिस्तान पर आक्रमण करने के लिए भेजी। इस सेना ने सम्पूर्ण बिलोचिस्तान को जीत लिया। इस प्रकार यह क्षेत्र भी अकबर के अधीन हो गया।

कन्दहार विजय

कन्दहार सामरिक तथा व्यापारिक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण नगर था। इसे भारत का फाटक कहा जाता था। इससे होकर ही विदेशी सेनाएँ भारत में प्रवेश कर सकती थीं। फारस के शाह तथा दिल्ली के बादशाह दोनों की दृष्टि कन्दहार पर लगी रहती थी। इन दिनों कन्दहार पर फारस के शाह का अधिकार था। उसने मुजफ्फर हुसैन मिर्जा को वहाँ का प्रांतपति बना रखा था। किसी कारण से फारस का शाह, मुजफ्फर हुसैन मिर्जा से नाराज हो गया। उजबेग लोग भी कन्दहार पर आक्रमण करके उसे तंग कर रहे थे। इस स्थिति में मुजफ्फर हुसैन मिर्जा ने कन्दहार का दुर्ग अकबर को समर्पित कर दिया। इस प्रकार बिना युद्ध किये ही कन्दहार अकबर के अधिकार में आ गया।

अकबर द्वारा दक्षिण भारत पर विजय

विंध्याचल की पहाड़ियाँ भारत को उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में विभक्त करती हैं। उत्तर भारत के कई शासक दक्षिण भारत पर आक्रमण करके उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित करते आये थे। जब अकबर ने मालवा, गुजरात तथा उड़ीसा पर अधिकार कर लिया तब उसका राज्य दक्षिण भारत की सीमा से जा लगा। अकबर ने दक्षिण भारत पर अधिकार करने का निश्चय किया। इस निश्चय के कई कारण थे-

(1.) अकबर की साम्राज्यवादी नीति: अकबर महत्त्वाकंाक्षी बादशाह था। वह सम्पूर्ण भारत पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करना चाहता था।

(2.) उदासीनता असम्भव: चूँकि मालवा, गुजरात तथा उड़ीसा मुगल साम्राज्य के अंग बन गये थे और ये तीनों ही राज्य दक्षिण भारत के राज्यों के समीपवर्ती थे, इसलिये मुगल साम्राज्य के सूबेदारों का दक्षिण के राज्यों के अधिकारियों से सीमा, व्यापार, क्षेत्र तथा धर्म सम्बन्धी झगड़े हो जाना स्वाभाविक था। ये शिकायतें लगातार अकबर तक पहुँचती रहती थीं। इसलिये अकबर का दक्षिण भारत के राज्यों की ओर से उदासीन रहना असंभव हो गया।

(3.) दक्षिण की अव्यवस्था: इन दिनों दक्षिण भारत की दशा अत्यंत शोचनीय थी। बहमनी राज्य छिन्न-भिन्न होकर पाँच स्वतन्त्र राज्यों- अहमद नगर, बीजापुर, गोलकुण्डा, बीदर तथा बरार में विभक्त हो गया था। जब तक विजय नगर का हिन्दू राज्य जीवित था तब तक ये पाँचों राज्य संगठित होकर उससे मोर्चा लेते रहे परन्तु जब 1565 ई. में विजयनगर की पराजय तथा उसका उन्मूलन हो गया तब दक्षिण के मुसलमान राज्य सर्वोच्चता के लिए परस्पर संघर्ष करने लगे। अकबर ने दक्षिण की इस राजनीतिक कुव्यवस्था से लाभ उठाने का निश्चय किया।

(4.) मुसलमानों में धार्मिक संघर्ष: दक्षिण के राज्यों में इन दिनों शिया, सुन्नी तथा महदवी लोग एक-दूसरे को उन्मूलित करने का प्रयास कर रहे थे। दक्षिण भारत के मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता अंततः इस्लाम का ही नुक्सान कर रही थी इसलिये अकबर को दक्षिण भारत पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन करना ही बेहतर लगा।

(5.) पुर्तगालियों के दमन का निश्चय: इन दिनों अरब सागर के तट पर पुर्तगालियों की शक्ति तेजी से बढ़ रही थी। ये लोग अपनी राजनीतिक तथा व्यापारिक शक्ति बढ़ाने के साथ-साथ अपने धर्म का प्रचार भी कर रहे थे। ये लोग धार्मिक उन्माद के कारण भारतीयों पर बड़े अत्याचार करते थे। इसलिये अकबर ने उनकी उपस्थिति से आश्ंाकित होकर उन्हें अरब सागर के तट से उन्मूलित करने का निश्चय किया। पुर्तगालियों को उन्मूलित करने के दो उपाय थे- या तो अकबर स्वयं एक विशाल जहाजी बेड़े का निर्माण करके पुर्तगालियों पर आक्रमण करता या फिर वह दक्षिण भारत के राज्यों पर अधिकार करके उनके साधनों से पुर्तगालियों पर आक्रमण करता। अनेक कारणों से जहाजी बेड़े का निर्माण संभव नहीं था। इसलिये अकबर ने दक्षिण के राज्यों को मुगल साम्राज्य के अधीन लाने का निर्णय किया।

(6.) सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति: साम्राज्य विस्तार के लिये अकबर ने विशाल सेना का निर्माण कर लिया था। इस सेना को राजधानी के निकट रखना अत्यंत खतरनाक था। वह किसी भी समय विद्रोह कर सकती थी। सेना की विभिन्न टुकड़ियों में संघर्ष न हो इसके लिये उसे निरन्तर युद्धों में संलग्न रखना आवश्यक था। इस सेना का वेतन चुकाने के लिये धन की आवश्यकता रहती थी। सेना की इन तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति दक्षिण भारत पर आक्रमण करके की जा सकती थी।

(7.) शान्तिपूर्ण प्रयासों की विफलता: प्रारम्भ में अकबर ने दक्षिण के राज्यों के साथ शान्ति पूर्वक समझौता करने का प्रयत्न किया। 1591 ई. में उसने दक्षिण के चार प्रधान राज्यों- अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा तथा खानदेश के पास प्रस्ताव भेजा कि वे अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें। खानदेश के शासक ने अकबर के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किंतु शेष तीनों राज्यों ने अकबर का प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसलिये अकबर को दक्षिण के राज्यों पर आक्रमण करने का निश्चय करना पड़ा।

अहमदनगर पर आक्रमण

अकबर ने सबसे पहले अहमदनगर पर आक्रमण किया। इन दिनों अहमदनगर की दशा अत्यंत शोचनीय थी। वहाँ का सुल्तान मर गया था और राज्य में उत्तराधिकार के लिये झगड़ा चल रहा था। दरबार में दो दल हो गये थे। एक दल ने बाजी अपने हाथ से निकलती देखकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और उससे सहायता की प्रार्थना की। दूसरे दल ने चाँद बीबी के नेतृत्व में मुगलों से युद्ध करने का निश्चय किया। अकबर ने अहमदनगर के गृह युद्ध से लाभ उठाया। उसने 1599 ई. में शाहजादा मुराद तथा अब्दुर्रहीम खानखाना की अध्यक्षता में एक सेना अहमदनगर पर आक्रमण करने भेजी। चाँद बीबी ने दृढ़ता से मुगलों का सामना किया और उन्हें पीछे धकेल दिया। मुगलों की प्रबल सेना तथा उसके प्रचुर साधनांे के समक्ष अहमदनगर की सेना बहुत दिनों तक नहीं टिक सकी। इसलिये चाँद बीबी ने मुगलों से सन्धि कर ली और बरार का प्रान्त उन्हें दे दिया। अहमदनगर के अमीरों ने इस सन्धि का विरोध किया क्योंकि इसमें उन्होंने अपनी मान हानि समझी और एक विशाल सेना लेकर बरार पर आक्रमण कर दिया। प्रारम्भ में उन्हें कुछ सफलता मिली परन्तु अन्त में वे परास्त हो गये। अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया।

असीरगढ़ विजय

अभेद्य माना जाने वाला असीरगढ़ दुर्ग खानदेश में स्थित था। यह दुर्ग दक्षिण भारत के मार्ग में स्थित होने से दक्षिण का फाटक कहलाता था। दक्षिण विजय के लिए इस दुर्ग पर अधिकार करना आवश्यक था। यद्यपि खानदेश के सुल्तान रजा अली खाँ ने अकबर के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था परन्तु उसके मर जाने के बाद उसके पुत्र मीरन बहादुर खाँ ने स्वतन्त्र शासक की तरह शासन करना आरम्भ कर दिया था। अकबर की एक सेना ने खानदेश की राजधानी बुरहानपुर पर तथा दूसरी सेना ने असीरगढ़ दुर्ग पर घेरा डाला। मुगल सेना ने बड़ी सरलता से बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया किंतु असीरगढ़ का घेरा 6 महिने तक चलता रहा। जब सफलता की मिलती दिखाई नहीं दी तब अकबर ने मीरन बहादुर को संधि के बहाने से अपने शिविर में बुलाकर कैद कर लिया। फिर भी दुर्ग रक्षकों ने दुर्ग के फाटक नहीं खोले। इस पर अकबर ने दुर्ग रक्षकों को रिश्वत देकर दुर्ग का द्वार खुलवा लिया और उस पर अधिकार कर लिया। अहमदनगर तथा असीरगढ़ पर मुगलों का अधिकार हो जाने से मुगलों के लिये दक्षिण के अन्य राज्यों पर विजय का काम आसान हो गया।

अकबर के अन्तिम दिन

अकबर ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। उसका राज्य कश्मीर से असीरगढ़ तक विस्तृत हो गया था परन्तु उसके अन्तिम दिन सुख से नहीं बीते। उसके दो पुत्र मुराद तथा दानियाल अधिक शराब पीने से अकबर के जीवन काल में ही मर गये थे। सबसे बड़ा पुत्र सलीम भी शराबी तथा विद्रोही प्रकृति का था। वह अकबर के आदेशों की पालना नहीं करता था। इस कारण अकबर बहुत निराशा तथा दुःखी रहता था। इसी चिंता में अकबर बीमार रहने लगा। अकबर ने सलीम को सुधारने का बहुत प्रयास किया किंतु सलीम में कोई सुधार नहीं हुआ। वह अकबर के आदेशों तथा अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करता रहा। अकबर को बीमार जानकार सलीम ने राजधानी के निकट बने रहने का निश्चय कर लिया ताकि अकबर के मरने के बाद सलीम को मुगलों का तख्त प्राप्त करने में कोई कठिनाई न हो। अकबर जब भी सलीम को पश्चिमोत्तर प्रदेश अथवा दक्षिण भारत में जाने का आदेश देता तो सलीम वहाँ जाने से मना कर देता। इस कारण अकबर स्वयं दक्षिण के युद्धों का संचालन करने के लिए गया। अकबर की अनुपस्थिति से लाभ उठाकर सलीम इलाहाबाद को अपना निवास स्थान बनाकर स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगा। उसके इस आचरण से अकबर को बड़ी चिन्ता हुई। 21 अप्रैल 1601 को अकबर ने बुरहानपुर से आगरा के लिए प्रस्थान किया। इस पर सलीम ने प्रकट विद्रोह कर दिया परन्तु अकबर ने धैर्य से काम लेते हुए, शाहजादे के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। अकबर ने सलीम की समस्या सुलझाने के लिये अबुल फजल को दक्षिण से आगरा बुलवाया परन्तु सलीम ने मार्ग में ही ओरछा के सरदार वीरसिंह देव बुन्देला के द्वारा अबुल फजल की हत्या करवा दी। जब अकबर को इसकी सूचना मिली तो वह बेहोश हो गया। होश में आने पर वह कई दिनों तक रोता और छाती पीटता रहा। अबुल फजल की हत्या से अकबर के स्वास्थ्य पर और भी बुरा प्रभाव पड़ा। वह इस कार्य के कारण सलीम से और अधिक अप्रसन्न हो गया परन्तु हरम की स्त्रियों के प्रयास से पिता-पुत्र में समझौता हो गया। सलीम फतेहपुर में अकबर के पास आया और उसके चरणों का चुम्बन किया। अकबर ने अपनी पगड़ी सलीम के सिर पर रख दी और उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इस समझौते के बाद भी सलीम की आदतों तथा व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और अकबर का दुःख समाप्त नहीं हुआ। वह पेट की पीड़ा से ग्रस्त हो गया। यह रोग असाध्य संग्रहणी रोग बन गया। तेईस दिन की बीमारी के उपरान्त 16 अक्टूबर 1605 को अकबर की मृत्यु हो गई।

अकबर: महान साम्राज्य निर्माता

भारत में जिस प्रकार दो अफगान साम्राज्यों की स्थापना हुई थी। ठीक उसी प्रकार तीन मुगल साम्राज्यों की स्थापना हुई थी। पहले मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने की थी जिसे हुमायूँ ने चौसा तथा बिलग्राम की लड़ाई में खो दिया। दूसरे साम्राज्य की स्थापना हुमायूँ ने की थी किंतु उसकी स्थापना का काम अधूरा छोड़कर ही वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। तीसरे साम्राज्य की स्थापना अकबर के संरक्षक बैरमखाँ ने की थी। अकबर ने युवा होते ही बैरमखाँ से पीछा छुड़कार तीसरे मुगल साम्राज्य को काबुल और कश्मीर से लेकर खानदेश तक और बंगाल से लेकर गुजरात तक विस्तृत कर लिया था। इस विस्तृत राज्य के समक्ष बाबर तथा हुमायूँ द्वारा स्थापित राज्य कुछ भी नहीं थे। अतः अकबर एक महान् साम्राज्य निर्माता था।

अकबर के शासन की विशेषताएँ

प्राचीन भारतीय शासन पद्धति में शासक प्रजा के भौतिक एवं आध्यात्मिक कल्याण को सर्वोपरि रखकर शासन करते थे किंतु मुस्लिम बादशाहों के शासन काल में केवल मुस्लिम प्रजा के कल्याण को ही ध्यान में रखा जाता था। अकबर ने मध्यकाल के अन्य बादशाहों से उलट, अपनी समस्त प्रजा को एक समान समझा और सबके लिये एक जैसी शासन व्यवस्था स्थापित की। अकबर के शासन की विशेषताएँ इस प्रकार से थीं-

(1.) कुशल प्रशासक: अकबर अपने युग का कुशल प्रशासक था। उसने शासन व्यवस्था को उच्च आदर्शों पर स्थापित किया। वह भारत का पहला मुस्लिम शासक था, जिसने वास्तव में लौकिक शासन की स्थापना की। उसने राजनीति को धर्म से अलग कर दिया। इस कारण शासन में मुल्ला-मौलवियों तथा उलेमाओं का प्रभाव नहीं रहा। स्मिथ ने उसकी प्रशासकीय प्र्रतिभा तथा शासन सम्बन्धी सिद्धान्तों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अकबर में संगठन की अलौकिक प्रतिभा थी। प्रशासकीय क्षेत्र में उसकी मौलिकता इस बात में पाई जाती है कि उसने इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।’

(2.) धार्मिक सहिष्णुता को प्रमुखता: अकबर ने अपने शासन को धार्मिक सहिष्णुता तथा धार्मिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त पर आधारित किया था। वह ऐसे देश का बादशाह था जिसमें विभिन्न जातियों तथा धर्मों के लोग निवास करते थे। अकबर ने अपनी समस्त प्रजा को धार्मिक स्वतन्त्रता दे दी। जो हिन्दू दरबारी एवं मनसबदार उसके दरबार में रहते थे, उन्हें भी अपने धार्मिक आचारों तथा अनुष्ठानों को करने की पूरी स्वतन्त्रता थी। अकबर के हरम में अनेक हिन्दू स्त्रियाँ थीं जिन्हें हिन्दू धर्म के अनुसार तीज त्यौहार मनाने तथा पूजा पाठ करने की पूरी छूट थी। अकबर स्वयं भी हिन्दुओं के त्यौहारों में सम्मिलित होता था। अकबर ने अपनी समस्त प्रजा को समान कानूनी अधिकार दिये।

(3.) धर्म अथवा जाति के स्थान पर प्रतिभा को प्रमुखता: अकबर ने सरकारी नौकरियों के द्वार समस्त लोगों के लिए खोल दिये। जाति अथवा धर्म के स्थान पर प्रतिभा तथा योग्यता के आधार पर नौकरियां दी जाने लगीं। राज्य को योग्यतम व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त होने लगीं और राज्य की नींव सुदृढ़ हो गई।]

(4.) प्रजा के कल्याण को प्रमुखता: अकबर का शासन सैन्य बल पर आधारित न होकर प्रजा के कल्याण की भावना पर आधारित था तथा पूर्ववर्ती समस्त मुस्लिम शासकों की अपेक्षा उदार तथा लोक मंगलकारी था। उसका मानना था कि जब उसकी प्रजा सुखी तथा सम्पन्न होगी, तभी राज्य में शान्ति तथा स्थायित्व रहेगा और उसका राजकोष धन से परिपूर्ण रहेगा जिसके फलस्वरूप मुगल साम्राज्य की नींव सुदृढ़ हो जायेगी। इसलिये अकबर ने प्रजा के भौतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास के प्रयास किये।

(5.) योग्य सेनापतियों की नियुक्ति: अकबर ने प्रत्येक अभियान के लिये योग्य सेनापतियों का चुनाव किया। उसने परम्परागत सेनापतियों के साथ-साथ प्रशासनिक काम करने वाले मंत्रियों को भी सैनिक अभियानों पर भेजा। वह सदैव दो सेनापतियों को एक साथ भेजता था ताकि विश्वासघात की संभावना न रहे। उसने राजा टोडरमल तथा बीरबल जैसे असैनिक मंत्रियों को भी सैनिक अभियानों पर भेजा।

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