जब खानखाना लाहौर में अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ तो अकबर ने उसकी ड्यौढ़ी बंद करवा दी।[1] खानखाना निरंतर शहजादे की अप्रसन्नता, सादिकखाँ की शत्रुता और अपनी बेगुनाही के बारे में तरह-तरह से अर्ज करता रहा। जब कई माह बीत गये और कोई परिणाम नहीं निकला तो एक दिन खानखाना ने अंतिम प्रयास करने का निर्णय लिया और एक कवित्त लिखकर अकबर को भिजवाया-
‘रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार।
बायु जु ऐसी बह गयी, बीचन परे पहार।’ [2]
अकबर इस कवित्त को पढ़कर पसीज गया। उसने खानखाना को अपने समक्ष बुलवाया।
जब खानखाना बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ तो बादशाह ने पूछा- ‘खानखाना! दक्षिण फतह का क्या उपाय है?’
– ‘यदि बादशाह सलामत शहजादे मुराद को वहाँ से हटा कर युद्ध की समस्त जिम्मेदारी मुझे सौंप दें तो दक्षिण पर फतह की जा सकती है।’
खानखाना का जवाब सुनकर अकबर का चेहरा फक पड़ गया। उसे अनुमान नहीं था कि खानखाना भरे दरबार में शहजादे पर तोहमत लगायेगा। इसके बाद उसने खानखाना से कोई बात नहीं की और खानखाना को अपने मन से उतार कर फिर से उसकी ड्यौढ़ी बंद कर दी।
जब अकबर लाहौर से आगरा के लिये रवाना हुआ तो खानखाना तथा खानेआजम कोका को भी आगरा के लिये कूच करने का आदेश दिया गया। मार्ग में अम्बाला पहुंचने पर खानखाना की पत्नी माहबानूं बीमार पड़ गयी। माहमबानू अकबर की धाय की पुत्री थी और खानेआजम कोका की सगी बहिन थी। अकबर ने माहबानंू की देखभाल के लिये खानखाना और खाने आजम दोनों को अम्बाला में ही रुकने की अनुमति दी और स्वयं आगरा चला गया। कुछ दिन बाद माहबानूं मर गयी।
भाग्य का पहिया उलटा घूमना आरंभ हो गया था। अब तक अब्दुर्रहीम को संसार में मिलता ही रहा था किंतु माहबानूं की मृत्यु के साथ अब्दुर्रहीम से नित्य प्रति दिन कुछ न कुछ छिन जाने का सिलसिला आरंभ हो गया था। माहबानूं को अम्बाला में ही दफना कर रहीम आगरा चला आया।
[1] बादशाह के खास अमीरों को बादशाह के महलों में ड्यौढ़ी पर हाजिर होने का अधिकार होता था। जब बादशाह किसी अमीर से नाराज हो जाता था तो उसका यह अधिकार छीन लिया जाता था।
[2] कभी ऐसा था कि हार का भी व्यवघान असह्य था और कुछ ऐसी हवा चली कि वे हार छाती पर पहाड़ हो गये हैं और ऐसी स्थिति में चुपचाप सहना ही एक मात्र विकल्प रह गया है।