ठाकुर कुशालसिंह जोधपुर राज्य की आउआ जागीर का सामंत था। वह जोधपुर के राजा से नाराज था। इस कारण उसने अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में खुलकर भाग लिया।
राजपूताना की नसीराबाद छावनी के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली पहुंच चुके थे। मध्य भारत की नीमच छावनी के क्रांतिकारी जब राजपूताना होते हुए दिल्ली की तरफ बढ़े तो मार्ग में उनका स्थान-स्थान पर स्वागत हुआ। शाहपुरा रियासत के शासक लक्ष्मणसिंह ने क्रांतिकारी सिपाहियों को शरण दी तथा उनके लिये रसद आदि की व्यवस्था की।
निम्बाहेड़ा में भी इन सिपाहियों का भव्य स्वागत हुआ। इन सिपाहियों ने देवली पहुँच कर सैनिक छावनी को लूटा। अँग्रेज पहले ही देवली को खाली करके जहाजपुर जा चुके थे।
विद्रोही सिपाही देवली से टोंक तथा कोटा होते हुए दिल्ली पहुँचे और दिल्ली के क्रांतिकारियों से मिलकर अंग्रेज सेना पर आक्रमण करने लगे। कप्तान शावर्स ने सेना लेकर विद्रोही सिपाहियों का पीछा किया। वह शाहपुरा भी गया किंतु शाहपुरा के शासक लक्ष्मणसिंह ने कप्तान शावर्स के लिये नगर के द्वार नहीं खोले। कैप्टेन शावर्स जहाजपुर एवं नीमच भी गया। उसकी सहायता के लिये ए.जी.जी. जार्ज लॉरेन्स भी आ गया किंतु तब तक क्रांतिकारी दिल्ली के लिये कूच कर चुके थे।
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नसीराबाद, नीमच, शाहपुरा तथा निम्बाहेड़ा के समाचार मारवाड़ राज्य में स्थित सैनिक छावनियों में भी पहुंच रहे थे। इन छावनियों में बहुत लम्बे समय से असंतोष की आग सुलग रही थी। मारवाड़ राज्य पर उस समय महाराजा तख्तसिंह का शासन था। वह ईडर से लाकर राजा बनाया गया था इसलिये मारवाड़ के सामंत उसे विदेशी शासक मानते थे। तख्तसिंह ने मारवाड़ के सामंतों से परंपरागत रेख के साथ नजराना भी मांगा तथा हुक्मनामे में वृद्धि कर दी।
महाराजा तख्तसिंह ने गुजरात से अपने साथ आये आदमियों को राज्य में उच्च पद दिये। इससे मारवाड़ के सामंत, राजा से नाराज थे। उन्होंने राजा को रेख, नजराना व हुक्मनामा देने से मना कर दिया। इनमें आसोप, आउवा तथा पोकरण के ठाकुर प्रमुख थे।
मारवाड़ राज्य में ई.1836 में जोधपुर-लीजियन नामक सेना स्थापित की गई थी जो ई.1857 में माउण्ट आबू तथा एरिनपुरा में तैनात थी। 18 अगस्त 1857 को जोधपुर लीजियन के कुछ सिपाहियों ने माउण्ट आबू में अँग्रेज सैनिकों की बैरकों में घुसकर गोलियां चलाईं तथा ए.जी.जी. के पुत्र ए. लॉरेंस को घायल कर दिया। कप्तान हॉल ने अंग्रेज सिपाहियों की सहायता से विद्रोही भारतीय सिपाहियों को अनादरा गाँव तक खदेड़ दिया। इसके बाद विद्रोही सैनिक 23 अगस्त 1857 को ऐरिनपुरा पहुँचे।
ऐरिनपुरा में इनका स्वागत हुआ तथा ऐरिनपुरा के भारतीय सिपाहियों में भी विद्रोह हो गया। विद्रोही सिपाही पाली की ओर बढ़े। जोधपुर नरेश तख्तसिंह ने जोधपुर के किलेदार अनाड़सिंह को सेना देकर अंग्रेजों की सहायता के लिये भेजा। इस पर क्रांतिकारी सैनिक पाली जाने के बजाय आउवा की तरफ मुड़ गये। आउवा ठाकुर कुशालसिंह ने इन सैनिकों का स्वागत किया। कुशालसिंह को लाम्बिया, बांटा, भीवलिया, राडावास, बांजावास आदि ठिकानों के सामंतों का समर्थन प्राप्त था। ठाकुर कुशालसिंह ने जोधपुर के पोलिटिकल एजेंट मॉक मेसन को सूचित किया कि उसने क्रांतिकारियों को इस बात पर सहमत कर लिया है कि यदि उन्हें क्षमा कर दिया जाये तो वे अपने हथियार तथा सरकारी सम्पत्ति अंग्रेज सरकार के पास जमा करवा देंगे।
इस पर पोलिटिकल एजेंट मॉक मेसन ने ठाकुर कुशालसिंह को लताड़ पिलाई कि वह उन लोगों की पैरवी कर रहा है जो देशद्रोही हैं तथा जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया है।
ठाकुर कुशालसिंह ने इसे अपना अपमान समझा तथा क्रांतिकारियों से बात करके उन्हें अपने किले में बुला लिया। कुशालसिंह ने अँग्रेजों से और राजा तख्तसिंह की सेनाओं से लड़ने का निश्चय किया। गूलर का ठाकुर बिशनसिंह, आसोप का ठाकुर शिवनाथसिंह तथा आलणियावास का ठाकुर अजीतसिंह भी अपनी सेनाएं लेकर आउवा पहुंच गये। खेजड़ला ठाकुर ने भी अपने कुछ सैनिक कुशालसिंह की मदद के लिये भेज दिये।
मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के सामंतों ने भी अपनी सेनाएं आउवा भेज दीं। इस प्रकार आउवा मारवाड़ में क्रांतिकारियों का मुख्य केन्द्र बन गया। इसी बीच किलेदार अनाड़सिंह की सहायता के लिये जोधपुर से कुशलराज सिंघवी, छत्रसाल, राजमल मेहता, विजयमल मेहता आदि की सेनाएं भी आ गयीं। अनाड़सिंह ने अपनी तोपों के मुंह आउवा के किले की ओर खोल दिये।
क्रांतिकारी सैनिकों ने भी जोधपुर राज्य की सेना पर गोलीबारी आरम्भ कर दी। जोधपुर की राजकीय सेना के दस सिपाही मारे गये तथा अनाड़सिंह की सेना पराजित हो गयी। लेफ्टीनेंट हीथकोट ने पाँच सौ अश्वारोही लेकर क्रांतिकारी सिपाहियों पर आक्रमण किया। क्रांतिकारी सिपाहियों ने जोधपुर राज्य की सेना के 76 सिपाही मार डाले। किलेदार अनाड़सिंह स्वयं भी इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो गया।
हीथकोट किसी तरह जान बचाकर भागा। कुशलराज सिंघवी और विजयमल मेहता भी मैदान छोड़कर भाग गये। क्रांतिकारी सिपाहियों ने राजकीय सेना के डेरे लूट लिये।
आउवा में पराजय के समाचार सुनकर ए.जी.जी. जॉर्ज लारेंस 18 सितम्बर को आउवा पहुँचा। एजीजी के आ जाने से आउवा और भी महत्वपूर्ण हो गया। एजीजी सम्पूर्ण राजपूतानें में सबसे बड़ा अंग्रेज अधिकारी हुआ करता था। इसलिए जोधपुर राज्य का पॉलिटिकल एजेंट मॉक मेसन भी अपनी सेना लेकर आ गया।
बड़े-बड़े अंग्रेज अधिकारियों को स्वयं मुकाबले में आया देखकर क्रांतिकारी सिपाहियों का उत्साह दुगुना हो गया उन्होंने अंग्रेज सेना पर भयानक गोलीबारी की जिसमें मॉक मेसन मारा गया। क्रांतिकारी सैनिकों ने पोलिटिकल एजेंट मैक मॉसन का सिर काटकर आउवा किले के दरवाजे के सामने लटका दिया। ए.जी.जी. जॉर्ज लॉरेंस डरकर अजमेर भाग गया। इसके बाद आउवा के क्रांतिकारी भी दिल्ली के लिए प्रस्थान कर गए।
मारवाड़ राज्य के गूलर, आसोप, आलणियावास तथा आउवा ठिकानों के ठाकुर भी क्रांतिकारी सिपाहियों का नेतृत्व करते हुए नारनौल तक गये तथा अँग्रेजी फौजों से युद्ध किया। इस प्रकार राजपूताने में जोधपुर, जयपुर, बीकानेर, कोटा आदि बड़ी रियासतों के महाराजा अंग्रेजों की तरफ रहे जबकि उनके अधीनस्थ ठाकुरों ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का नेतृत्व किया। वे लाल किले में बैठे बूढ़े बादशाह बहादुरशाह जफर को फिर से भारत का बादशाह बनाना चाहते थे किंतु उनके प्रयास असंगठित थे, उनके पास कोई योजना नहीं थी, दिल्ली पहुंचकर भी उनके भाग्य में केवल अंग्रजी सेना से लड़ते हुए मर जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद अँग्रेज सेना ने आउवा पर फिर से चढ़ाई की। 20 जनवरी 1858 को कर्नल होमल ने आउवा को घेरा। इस समय ठाकुर कुशालसिंह के पास केवल 700 सैनिक थे। चार दिन तक आउवा का घेरा चलता रहा। दोनों पक्षों में भीषण गोलीबारी हुई।
अंततः ठाकुर कुशालसिंह रात के अंधेरे में आउवा छोड़कर मेवाड़ चला गया और उसके भाई (लाम्बिया ठाकुर) ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया। अंत में अँग्रेजों ने आउवा के किलेदार को रिश्वत देकर किले पर अधिकार कर लिया। अँग्रेजों ने आउवा को जमकर लूटा। सिरियाली के ठाकुर को पकड़ कर राजा तख्तसिंह के पास भेज दिया। गूलर, आसोप एवं आलणियावास की किलेबंदी नष्ट कर दी।
जब अँग्रेजों ने आसोप घेर लिया तब आसोप ठाकुर ने अँग्रेज सेना पर आक्रमण किया। पाँच सप्ताह तक चले इस युद्ध के बाद आसोप ठाकुर की युद्ध सामग्री समाप्त हो गयी और उसे समर्पण करना पड़ा। आसोप ठाकुर को बंदी बना लिया गया तथा उसकी जागीर जब्त कर ली गयी।
गूलर तथा आलणियावास के ठाकुरों की जागीरें भी जब्त कर ली गयीं तथा उन्हें डाकू घोषित किया गया। आउवा ठाकुर भी मेवाड़ से नारनौल चलागया तथा कुछ समय बाद नारनौल से लौटकर कई वर्षों तक अपनी जागीर फिर से प्राप्त करने की जुगत करता रहा। उसने आउवा पर कई आक्रमण किये किंतु असफल रहा। अंत में ई.1860 में उसने नीमच में आत्म-समर्पण किया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता