Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 64 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 6

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद क्रांतिकारी आन्दोलन

प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद गांधीजी ने रोलट एक्ट, जलियांवाला बाग हत्याकांड और खिलाफत के प्रश्न को लेकर असहयोग आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन 1920 से 1922 ई. तक चला किन्तु इसका कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला। इस अवधि में क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियों को स्थगित रखा। वे इस अहिंसात्मक आन्दोलन का परिणाम देखने को उत्सुक थे किंतु जब उन्होंने देखा कि अहिंसात्मक आन्दोलन का कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला है, तब उन्होंने पुनः क्रांतिकारी संगठनों को सक्रिय किया। क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल आम माफी मिलने पर फरवरी 1920 में जेल से बाहर आ गये थे। उन्होंने विभिन्न क्रांतिकारी दलों को संगठित करके हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ की स्थापना की।

काकोरी षड़यंत्र केस

क्रांतिकारियों ने अपने कार्यकर्ताओं को बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए बंगाल के क्रांतिकारियों को बुलाने और पैसा इकट्ठा करने के लिए बैंक, डाकखाने और सरकारी खजानों पर धावा बोलने का निश्चय किया। 9 अगस्त 1925 को हरदोई से लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी से काकोरी ग्राम के निकट सरकारी खजाना लूट लिया गया। सरकारी पुलिस व गुप्तचर विभाग ने इसका कुछ सुराग लगाया और 40 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर उन पर ट्रेन डकैती का मुकदमा चलाया। इसे काकोरी षड़यंत्र केस कहा जाता है। दो साल की सुनवाई के बाद इस केस में पं. रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह सान्याल को आजीवन कारावास की सजा हुई। मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष जेल हुई। अशफाक उल्लाह को फांसी की सजा हुई। फांसी के तख्ते पर चढ़ने से पूर्व अशफाक उल्लाह ने देशवासियों के नाम यह संदेश छोड़ा- ‘भारतवासियो! चाहे आप किसी सम्प्रदाय या धर्म के अनुयायी हों किन्तु आप देशहित के कार्यों में एक होकर योग दीजिए। आप लोग व्यर्थ झगड़ रहे हैं। सब धर्म एक हैं, चाहे रास्ते भिन्न हों परन्तु सबका लक्ष्य एक है। इसलिए आप सब एक होकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। मैं हत्यारा नहीं हूँ, जैसाकि मुझे साबित किया गया है। मैं पहला भारतीय मुसलमान हूँ जो स्वतंत्रता के लिए फांसी के तख्ते पर चढ़ रहा हूँ।’

लालाजी की हत्या

क्रांतिकारी आन्दोलनों एवं स्वराज्य दल की गतिविधियों से विवश होकर ब्रिटिश सरकार ने भारत में संवैधानिक सुधारों के बारे में सलाह देने के लिए 1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन के समस्त सदस्य अँग्रेज थे। इसलिये इसे व्हाइट कमीशन भी कहते हैं। कांग्रेस ने इसका बहिष्कार करने का निश्चय किया। 30 अक्टूबर 1928 को कमीशन का बहिष्कार करने के लिए लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस निकला। अँग्रेज पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लालाजी पर लाठियों के अनेक प्रहार करके उन्हें गम्भीर चोटें पहुँचाई। इन चोटों के कारण 17 नवम्बर 1928 को लालाजी का निधन हो गया। लालाजी द्वारा 1921 ई. में लाहौर में स्थापित नेशनल कॉलेज के छात्र रहे भगतसिंह तथा उनके साथियों ने इस घटना को राष्ट्रीय अपमान समझा और इसका बदला लेने का निर्णय लिया।

नौजवान सभा

1926 ई. में भगतसिंह, छबीलदास तथा यशपाल आदि नवयुवकों ने नौजवान सभा की स्थापना की। इस सभा के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार से थे- (1.) देश के युवकों में देशभक्ति की भावना जगाना, (2.) मजदूरों और किसानों को संगठित करना, (3.) ब्रिटिश शासन का अन्त करके सम्पूर्ण भारत में मजदूर और किसानों का राज्य स्थापित करना। इस सभा के कार्यकर्ताओं में केदारनाथ सहगल, शार्दूलसिंह, आनन्द किशोर, सोढ़ी पिंडीदास आदि प्रसिद्ध आन्दोलनकारी सम्मिलित थे। नौजवान सभा द्वारा आयोजित सभाओं में भूपेन्द्रनाथ दत्त, श्रीपाद डांगे, जवाहरलाल नेहरू आदि बड़े नेताओं ने भी भाषण दिये। नौजवान सभा ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कई कदम उठाये। सभा ने पंजाब की किरती किसान पार्टी के सहयोग से पंजाब के प्रत्येक गांव में अपनी शाखा खोलने तथा नौजवानों में क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करने का निर्णय लिया। यह 1928-29 ई. की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी का दौर था। पंजाब के लोगों में भी असंतोष की लहर थी। इस कारण जन साधारण में नौजवान सभा को तेजी से लोकप्रियता मिली।

नौजवान सभा के क्रांतिकारियों- भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयगोपाल ने लाला लाजपतराय की हत्या का प्रतिशोध लेने का निश्चय किया। 17 दिसम्बर 1928 को पुलिस कार्यालय के ठीक सामने साण्डर्स को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया। साण्डर्स को गोली मारने के बाद क्रांतिकारी वहाँ से भागकर लाहौर के डी. ए. वी. कॉलेज में जा छुपे। पुलिस ने उन्हें पकड़ने का भरसक प्रयास किया परन्तु असफल रही। क्रांतिकारी युवक भेष बदलकर लाहौर से दिल्ली आ गये। इसके बाद उनकी तरफ से एक इश्तिहार जारी किया गया जिसमें कहा गया था- ‘साण्डर्स मारा गया, लालजी की मृत्यु का बदला ले लिया गया।’ इससे सारे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

साण्डर्स की हत्या के बाद एक और घटना हुई। केन्द्रीय विधानसभा में सरकार की ओर से लोक-सुरक्षा विधेयक और व्यापारी-विवाद अधिनियम प्रस्तुत किये गये। केन्द्रीय विधानसभा ने दोनों विधेयकों को अस्वीकृत कर दिया। गवर्नर जनरल ने केन्द्रीय विधानसभा की अस्वीकृति के उपरांत भी अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुए दोनों अधिनियम लागू कर दिये। इससे सम्पूर्ण भारत में असन्तोष भड़क उठा। क्रांतिकारियों ने परिस्थितियांे का लाभ उठाते हुए, ससंदीय मार्ग और संघर्ष की संवैधानिक विधियों की र्व्यथता को जनता के समक्ष रखा। उनका नारा था- ‘हम दया की भीख नहीं मांगते हैं। हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक की लड़ाई है, यह फैसला है- जीत अथवा मौत।’

8 अप्रेल 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा के केन्द्रीय हॉल में बम फैंक कर इन अधिनियमों के विरुद्ध भारतीय रोष और विरोध का परिचय दिया। बम का धमाका करने के बाद उन्होंने इश्तिहार फैंके तथा क्रांति जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे लगाये और पूर्व योजनानुसार स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए पं. नेहरू ने लिखा- ‘यह बम देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक बहुत बड़ा धमाका था।’

सरकार ने भगतसिंह और उसके साथियों पर मुकदमा चलाया। मुकदमे के दौरान दिये गये अपने वक्तव्य में क्रांतिकारियों ने कहा कि उनका उद्देश्य किसी व्यक्ति की हत्या करना नहीं था अपितु इस गैर-जिम्मेदार और निरंकुश राज्य के विरुद्ध लोगों को सावधान करना था। जनता को अहिंसा और संवैधानिक संघर्ष की व्यर्थता के बारे में बताना था। सरकार को चेतावनी देना था कि अध्यादेश और सुरक्षा अधिनियम भारत में स्वतंत्रता की भड़की हुई आग को दबा नहीं सकते। इस मुकदमे के दौरान ही ज्ञात हुआ कि साण्डर्स की हत्या में भगतसिंह का भी हाथ था। अतः भगतसिंह और उसके दो साथियों- राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई। बी. के. दत्त को आजीवन कारावास की सजा मिली। 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई और पुलिस ने उनके शव फिरोजपुर में ले जाकर रात्रि में जला दिये। इन क्रांतिकारियों की मृत्यु से क्रांतिकारी दल, विशेषकर नौजवान सभा को बड़ी क्षति पहुँची और समूचा देश शोक में डूब गया। भगतसिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने कहा- ‘भगतसिंह जिंदाबाद और इन्कलाब जिन्दाबाद का एक ही अर्थ है।’

काकोरी षड़यंत्र केस में चन्द्रशेखर अजाद भी सम्मिलित थे तथा साण्डर्स की हत्या में भी उन्होंने सरदार भगतसिंह का साथ दिया था। जिस समय भगतसिंह जेल में थे तब चन्द्रशेखर आजाद ने उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए एक योजना बनाई परन्तु उसमें सफलता नहीं मिली। वायसराय लॉर्ड इरविन ने जनमत के भारी दबाव के उपरान्त भी भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी की सजा को कम नहीं किया। चनद्रशेखर आजाद और यशपाल ने वासराय की ट्रेन को उड़ाने का निश्चय किया। अतः निजामुद्दीन स्टेशन के पास दिल्ली-मथुरा रेल लाइन की पटरियों के नीचे बम गाड़ दिये गये और उनका सम्बन्ध तारों से कई सौ गज दूरी पर रखी एक बैटरी से कर दिया गया। जब वायसराय की ट्रेन उस जगह पहुँची तो स्विच दबा दिया गया। बड़े जोर का धमाका हुआ और रेलगाड़ी पटरी से नीचे उतर गई। गाड़ी के तीन डिब्बे क्षतिग्रस्त हो गये किंतु वायसराय इरविन बाल-बाल बच गया। इसी दिन, क्रतिकारियों ने पंजाब के गवर्नर को भी मारने की योजना बनाई थी। जब गवर्नर, पंजाब विश्वविद्यालय में दीक्षान्त भाषण देने आया तब हरकिशन नामक क्रतिकारी ने उन पर गोली चला दी। गवर्नर घायल हो गया तथा हरकिशन पकड़ा गया। 9 जून 1931 को उसे फांसी पर लटका दिया गया।

भगतसिंह की मृत्यु के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने संघर्ष जारी रखा। कुछ दिनों बाद पुलिस ने आजाद के बहुत से साथियों को पकड़ लिया। आजाद उत्तर प्रदेश की ओर चले गये। 27 फरवरी 1931 को चन्द्रशेखर आजाद, यशपाल और सुरेन्द्र पाण्डे इलाहाबाद आये। चंद्रशेखर आजाद पर सरकार ने 10 हजार रुपये का इनाम घोषित कर रखा था। जब वे अल्फ्रेड पार्क में थे तब किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस ने आजाद को चारों तरफ से घेर लिया और उन पर अंधाधुंध गोलियां चलानी आरम्भ कर दीं। प्रत्युत्तर में आजाद ने भी गोलियां चलाईं जिनसे कई पुलिस कर्मी घायल हो गये। अन्त में आजाद ने पुलिस के हाथों में पड़ने से बचने के लिये स्वयं को गोली मार ली क्योंकि उन्होंने शपथ ली थी कि वे आजाद ही मरेंगे।

23 जनवरी 1932 को क्रांतिकारी यशपाल इलाहाबाद गये। पुलिस को उनकी भनक लग गई और उन्हें बंदी बना लिया गया। उन्हें 14 वर्ष की जेल हुई। 1937 ई. में जब उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का मंत्रिमण्डल बना तब मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत ने 2 मार्च 1938 को उन्हें बिना शर्त रिहा किया।

पूर्वी बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

पूर्वी बंगाल का चटगांव बन्दरगाह क्रांतिकारियों का केन्द्र बना हुआ था। इनके संगठन का नाम चटगांव रिपब्लिकन आर्मी था। इसके नेता सूर्यसेन थे। इस संगठन के सदस्य जन-साधारण के बीच क्रांति का प्रचार करते थे। इस संगठन ने बम बनाने का कारखाना और गैरकानूनी छापाखाना भी खोल रखा था। 18 अप्रैल 1930 की रात्रि में सूर्यसेन के नेतृत्व में लगभग 50 युवक-युवतियों ने फौजी वेशभूषा पहनी और रिवाल्वरों तथा बमों से लैस होकर चटगांव के पुलिस शस्त्रागार पर आक्रमण किया। एक अधिकारी को मौत के घाट उतार कर उन्होंने वहाँ रखी समस्त बन्दूकों को लूट लिया। इन क्रांतिकारियों ने चटगांव के समस्त थानों पर कब्जा करके सड़कों पर नाकेबन्दी कर दी और कई दिनों तक शहर पर कब्जा बनाए रखा…… किन्तु क्रांतिकारियों की योजना में एक त्रुटि रह गई थी। उन्होंने चटागांव के बन्दरगाह पर कब्जा नहीं किया था। इससे अँग्रेजों को कलकत्ता से शीघ्र ही सैनिक सहायता पहुँच गई। तब क्रांतिकारियों ने शस्त्रागार में आग लगा दी और क्रांतिकारी, सूर्यसेन के नेतृत्व में जलाालबाद की पहाड़ियों में चले गये। अँग्रेजी सेना ने पहाड़ियों को चारों तरफ से घेरना आरम्भ कर दिया। इस पर बहुत से क्रांतिकारी वहाँ से भाग निकले। सूर्यसेन भी भागने में सफल रहे। बाद में एक साथी के विश्वासघात के कारण पकड़े गये। बाद में कई और क्रांतिकाकारी भी पकड़ लिये गये। प्रीतिलता बाडेदर ने गिरफ्तार होने से बचने के लिए आत्महत्या कर ली। कल्पना दत्त पकड़ी गई। एक अन्य क्रांतिकारी नेता टेगराबल लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। सरकार ने समस्त बंदियों पर मुकदमा चलाया, जो चटगांव आर्मरी रेड के नाम से मशहूर हुआ। सूर्यसेन को फांसी हो गई तथा अम्बिका चक्रवती, अनंतसिंह, गणेश घोष, लोकनाथ और अन्य क्रांतिकारियों को लम्बी काले पानी की सजाएं हुईं। सूर्यसेन की फांसी के बाद पूर्वी बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ कम हो गईं।

पेशावर में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

पेशावर में पुलिस ने एक जुलूस पर गोली चलाई जिससे लोगों में आक्रोश फैल गया। लोगों को नियंत्रित करने के लिये सेना बुलाई गई। इस सेना में पंजाबियों की प्रधानता थी तथा क्रांतिकारियों के गुप्त संगठन भी सेना के भीतर सक्रिय थे। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने 18वीं रॉयल गढ़वाली राइफल्स को बुलवाया परन्तु चन्द्रसिंह गढ़वाली की अपील पर गढ़वालियों ने पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया और अपनी राइफलें भी उन्हें सौंप दी। 25 अप्रैल को जनता ने पेशावर पर कब्जा कर लिया जो 4 मई तक स्थापित रहा। बाद में अन्य सैनिकों की सहायता से पेशावर पर पुनः अधिकार किया गया। चनद्रसिंह गढ़वाली को आजीवन कालेपानी की और 16 अन्यों को 3 से लेकर 15 साल तक की कड़ी सजा दी गई। 1937 ई. में कांग्रेस सरकारों के दबाव से वे सब रिहा कर दिये गये।

उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्र में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्र भी क्रांतिकारी गतिविधियों से अलग नहीं रहा। यहाँ के नागाओं ने ब्रिटिश शासन का अन्त कर नागा राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया। उन्होंने यदुनाग के नेतृत्व में अँग्रेजों से लोहा लिया। अँग्रेजों ने यहाँ भी कठोर दमन का साहरा लिया। 1930 ई. में यदुनाग को गिरफ्तार करके फांसी दे दी गई। उसके बाद संगठन का नेतृत्व उसकी सहायिका गाइडिलिउ ने संभाला। उसके नेतृत्व में 1931-32 ई. में विद्रोही नागाओं ने ब्रिटिश अधिकारियों को बहुत तंग किया। गाइडिलिउ को पकड़ने के लिए लोगों को तरह-तरह के पुरस्कारों का प्रलोभन दिया गया। जब इसमें सफलता नहीं मिली तो बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाही की गई। अक्टूबर 1932 में उसे पकड़कर आजीवन कारावास की सजा दी गई। आजादी के बाद इस वीरांगना को रिहा किया गया।

सामान्यतः यह माना जाता है कि 1934 के आस-पास क्रांतिकारी आन्दोलन समाप्त हो गया परन्तु यह सत्य नहीं है। 1942 ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान यह फिर सक्रिय हो उठा था।

जल सेना और वायु सेना में विद्रोह

जब आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर लाल किले में मुकदमे चल रहे थे और जनता उनकी रिहाई के लिए आन्दोलन चला रही थी, उस समय भारतीय सेना में भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आवाज उठी। अँग्रेज अधिकारियों के दुर्व्यवहार से तंग आकर 20 जनवरी 1946 को कराची में वायुसेना के सैनिकों ने हड़ताल कर दी जो बम्बई, लाहौर और दिल्ली स्थित वायुसेना मुख्यालयों पर भी फैल गई। नौ-सेना ने भी वायु सेना का अनुसरण किया। 19 फरवरी 1946 को भारतीय नौ-सैनिकों ने भी हड़ताल कर दी। 21 फरवरी 1946 को यह हड़ताल क्रांति के रूप में बदलने लगी तथा बम्बई के साथ-साथ कलकत्ता, कराची और मद्रास में भी फैल गई। अँग्रेज अधिकारियों ने इस क्रांति का दमन करने के लिए गोलियां चलाईं। क्रांतिकारी सैनिकों ने भी गोली का जवाब गोली से दिया। इससे ब्रिटिश सरकार घबरा गई। बड़ी कठिनाई से सरदार पटेल ने सरकार और नौ-सैनिकों के बीच समझौता करवाया। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार को अनुमान हो गया कि अब उनके लिये भारत पर शासन करना संभव नहीं रह गया है।

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