पौराणिक धर्म (वैष्णव धर्म) को लोकप्रिय बनाने के प्रयास
जनसामान्य को जैन-धर्म और बौद्ध धर्म के प्रभाव से निकालकर पुनः वैदिक धर्म की ओर लाना अत्यन्त चुनौतीपूर्ण कार्य था। ब्राह्मणों ने इस चुनौती को स्वीकार किया तथा वैदिक धर्म एवं दर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तों और मन्तव्यों को शृंखलाबद्ध एवं तर्क-संगत रूप देकर महाकाव्यों, स्मृतियों तथा पुराणों की रचना की और वैदिक धर्म के नवीन एवं पूर्णतः परिवर्तित रूप अर्थात् पौराणिक धर्म को लोकप्रिय बनाने के अनेक उपाय किए। इनमें से कुछ उपाय निम्नलिखित हैं-
(1.) वैदिक धर्म का नवीन रूप: ई.पू.400 से ई.पू.200 तक अर्थात् सम्पूर्ण मौर्यकाल में वैदिक धर्म को प्राचीन यज्ञ-प्रधान धर्म के स्थान पर नया भक्ति-प्रधान पौराणिक रूप दिया गया।
(2.) दर्शनों का निर्माण: वेदों में भारतीय दर्शनों के मूल विचार मौजूद थे। ब्राह्मण ग्रंथों एवं उपनिषदों में उन्हीं विचारों का विकास हुआ था। पौराणिक काल में उन्ही विचारों को नए सिरे से शास्त्रीय रूप दिया गया। कपिल तथा कणाद आदि ऋषियों को भारतीय दर्शन का प्रणेता समझा जाता है किन्तु उन्होंने पुराने विचारों को नए सिरे से शृंखलाबद्ध एवं सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया।
(3.) लोक-प्रचलित देवताओं को मान्यता: आर्यों में देवताओं की पूजा होती थी जबकि अनार्यों में यक्षों, भूत-प्रेतों, जड़ पदार्थों तथा सर्प आदि जंतुओं की पूजाएँ प्रचलित थीं। बौद्धों ने यक्षों को बुद्ध का उपासक बनाकर उनकी पूजा प्रारम्भ की। हिन्दुओं ने भी उनका अनुकरण किया तथा लोक प्रचलित देवताओं को यथापूर्ण रखते हुए उन्होंने उस पर वैदिक धर्म की हल्की सी छाप लगाकर उन्हें ग्रहण कर लिया।
मथुरा में वासुदेव (श्रीकृष्ण) की पूजा प्रचलित थी, उन्हें वैदिक देवता विष्णु से मिलाकर वेदानुयायियों के लिए भी पूज्य बना दिया। ऋग्वेद में वर्णित रुद्र को भी नया रूप देकर समस्त जीवों का मंगल करने वाले शिव के रूप में पूजा जाने लगा। वैदिक धर्म के पुनरुत्थान की लहर ने उस समय पूजनीय प्रत्येक जड़ और मनुष्य देवता में किसी न किसी वैदिक देवता का साम्य बिठा दिया।
वनचरों के भयंकर देवी-देवता काली और रुद्र के रूप बन गए। भारत भर में पूजित विभिन्न प्रकार के देवी-देवता शिव, विष्णु, सूर्य, स्कन्द आदि विभिन्न शक्तियों के सूचक बन गए। जहाँ किसी पुराने पुरखे की पूजा होती थी, उसे भी किसी न किसी देवता का अवतार मान लिया गया। प्रत्येक पूज्य पदार्थ को किसी न किसी देव-शक्ति का प्रतीक बना दिया गया।
(4.) लोकप्रिय धर्मग्रन्थों का प्रणयन: बौद्धों की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण जातक कथाएँ और अवदान साहित्य था। इनमें बुद्ध के पूर्वजन्मों तथा बोधिसत्वों की रोचक कथाएँ होती थीं जिनमें उनके दया, दान, आत्मत्याग आदि गुणों पर सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला गया था। महात्मा बुद्ध सुन्दर कथाओं और दृष्टांतों द्वारा धर्म के गूढ़ मर्म को जनता तक पहुँचाते थे। उनके शिष्यों ने इस कला को, जातक तथा अवदान साहित्य में पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया।
प्राचीन वैदिक साहित्य में लोकप्रिय त्तव अत्यल्प था। बौद्धों के प्रभाव से ब्राह्मणों ने प्राचीन वीर पुरुषों के शूरतापूर्ण कार्यों पर आधारित ऐतिहासिक गाथाओं को धर्मप्रचार की गाथाओं में बदल दिया। रामायण और महाभारत के नवीन संस्करण तैयार किए गए। महाभारत का प्रधान उद्देश्य आख्यानों द्वारा नए धर्म की शिक्षाओं का प्रचार करना था। अतः श्रीकृष्ण को देवता और विष्णु का अवतार माना गया।
विष्णु और शिव की महिमा के गीत गाए गए और भगवद्गीता द्वारा भागवत् धर्म का प्रचार किया गया। महाभारत में 400 ई.पू. से 200 ई. तक की लगभग समस्त धार्मिक और दार्शनिक विचारधाराओं का समावेश है। इसी प्रकार रामायण की मूल कथा में राम एक आदर्श वीर पुरुष थे।
रामायण के दूसरे से छठे काण्ड तक राम इसी रूप में चित्रित हैं किन्तु पुराण काल में उसमें पहला और सातवाँ काण्ड जुड़ा और राम भी विष्णु के अवतार बन गए। इन दोनों महाकाव्यों ने भक्ति-प्रधान वैष्णव और शैव-धर्मों को नवीन रूप देने एवं लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वर्तमान पौराणिक हिन्दू-धर्म की आधारशिला रामायण और महाभारत ने रखी और पुराणों ने उसे नया रूप दिया। इसी युग में अधिकांश पुराणों की रचना हुई।
(5.) ब्राह्मणों के वर्चस्व से बाहर: पुराणों का पठन-पाठन याज्ञिक ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था। जब अश्वमेध यज्ञ से आख्यान बाहर निकल गए तो पुराणों से ब्राह्मणों का सम्बन्ध टूट गया और इनके वाचन का कार्य सूतों, चारणों तथा कथावाचकों के पास चला गया। उत्तरवैदिक काल में वेद और उपनिषदों के पठन-श्रवण का अधिकार केवल ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को था किन्तु रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार स्त्रियों और शूद्रों को भी था।
(6.) पौराणिक हिन्दू-धर्म को राज्याश्रय: शुंग एवं गुप्त शासक भागवत धर्म के उपासक और पोषक थे। उनके शक्तिशाली संरक्षण में वैष्णव धर्म का विशेष उत्कर्ष हुआ। गुप्तों के बाद प्रतिहार, चन्देल, मौखरी, कलचुरी, वलभी और कामरूप के राजा वैष्णव या शैव थे। पालवंशी राजा अवश्य बौद्ध अनुयाई थे किन्तु सेनवंशी राजा वैष्णव ओर शैव थे। दक्षिण में शुरुआती चालुक्य राजा जैन-धर्म के पोषक थे किन्तु बाद में वे हिन्दू-धर्म के उपासक बन गए। थे।
राष्ट्रकूटों में कुछ शासक जैन-धर्म के उपासक थे किन्तु अधिकांश राजा हिन्दू मतावलम्बी थे। पल्लवों और होयसलों के आरम्भिक राजा जैन-धर्म के समर्थक थे किन्तु बाद के पल्लव राजा शैव थे और बाद के होयसल राजा वैष्णव। इससे स्पष्ट है कि पुराण धर्म के उत्कर्ष काल में बौद्ध धर्म और जैन-धर्म को पर्याप्त राज्याश्रय प्राप्त नहीं हुआ और यही उनके ह्रास का एक मुख्य कारण भी था।
पुराणों का सांस्कृतिक महत्त्व
पुराण ही पौराणिक हिन्दू-धर्म की आत्मा हैं। पुराणों ने ही हिन्दू-धर्म को वर्तमान स्वरूप प्रदान किया। पुराणों में जिस धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय का परिपाक हुआ उसकी तुलना विश्व के किसी अन्य धर्म से नहीं की जा सकती। गुप्तकाल से लेकर वर्तमान काल तक भारत के साहित्य, शिल्प, स्थापत्य, अध्यात्म, संगीत, नृत्य, गायन, जीवन शैली, वेशभूषा, खानपान आदि जीवन के समस्त अंगों पर उसकी गहरी छाप है।
वर्णाश्रम धर्म और भागवत धर्म का समन्वय
उत्तरवैदिक-काल के धर्म को वर्णाश्रम धर्म भी कहा जाता है क्योंकि उसमें मनुष्य के लिए चतुर्वर्ण अधारित कर्म एवं चर्तुआश्रम आधारित जीवन जीने का अनुशासन स्थिर किया गया था। पुराणों ने वर्णाश्रम धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया और शैव तथा वैष्णव धर्मों को इसके साँचे में ढाल दिया।
विष्णु-पुराण में राजा सगर के यह पूछने पर कि विष्णु की पूजा कैसे करनी चाहिए, और्व ने उत्तर दिया- ‘वही व्यक्ति परमेश्वर की पूजा कर सकता है जो अपने वर्ण और आश्रम सम्बन्धी कर्त्तव्य को पूरा करता हो।’
कूर्म पुराण में देवी कहती है- ‘मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मज्ञान के साथ-साथ वेदविहित एवं स्मृतिसम्मत वर्णाश्रम धर्म का पालन करो।’
वायु पुराण कहता है– ‘जब यज्ञों में कमी हो जाती है तो भगवान विष्णु बारम्बार धर्म की स्थापना के लिए जन्म लेते हैं।’
इस पुराण में शिव को वर्णों और आश्रमों के पृथक् कर्मों का प्रवर्तक बताया है। पुराणों में वर्णाश्रम धर्म की पुष्टि के लिए अनेक कथाएँ सृजित की गई है।
विष्णु-पुराण, वायु पुराण और भागवत पुराण में राजा वेन की कथा आती है जिसमें लिखा है– ‘वर्णाश्रम धर्म की अवहेलना के अपराध में ऋषियों ने उसे यमलोक पहुँचा दिया।’
विष्णु-पुराण में यम अपने दूतों को निर्देशित करते हैं कि-‘वे विष्णु के उपासकों के हाथ न लगाएँ, क्योंकि वे वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन करते हैं। ‘ समस्त पंचरात्र संहिताओं में वर्णाश्रम धर्म को स्वीकार किया गया है। इस प्रकार पुराणों के माध्यम से वैष्णव और शैव धर्म प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के पोषक बन गए।
पुराणों मे वैदिक विचारों का नया रूप
पुराणों में वैदिक विचारों, देवताओं और विश्वासों को नवीन आख्यानों का सम्बल दिया गया। पुराणों के चिन्तन-मनन का तात्त्विक आधार वैदिक चिंतन ही है। वेद के अव्यय, अक्षर और क्षर पुरुष, पुराणों में ब्रह्म, विष्णु और शिव हो गए।
वेद की ‘त्रिधाम विद्या’ या ‘सप्तधाम विद्या’ पुराणों में ‘विष्णु की वामनावतार’ कथा बन गई। वेद की ‘दक्ष-अदिति-विद्या’ पुराणों में ‘दक्ष-यज्ञ-विध्वंस’ की कथा बन गई। वेद की ‘अग्नि-चयन-विद्या’, मत्स्य पुराण की ‘कुमार-जन्म-वृत्तान्त’ बन गई। वेद की ‘चित्र-शिशु-विद्या’ जिसे शतपथ ब्राह्मण में ‘अग्नि-रूप-विद्या’ कहा गया है, मार्कण्डेय पुराण के रौद्र सर्ग की ‘अष्टमूर्ति विद्या’ के साथ जोड़ दी गई।
इसी प्रकार वेदों की सोम विद्या, विराजधेनु विद्या, देवासुर विद्या, भृग्वंगिरोमय-अग्निसोम विद्या, पितृ-विद्या, सावित्री विद्या और पशु विद्या क्रमशः समुद्रमंथन, पृथुपृथिविदोहन, इन्द्रवृत्रोपाख्यान, सुकन्याच्यवन विवाह, श्राद्धकल्प, सावित्री सत्यवान कथा और पाशुपतशास्त्र के पौराणिक आख्यानों में परिवर्तित हो गयी है। अतः कहा जा सकता है कि वेदों और पुराणों में कोई मौलिक एवं तात्त्विक अंतर नहीं है।
महायान धर्म के महाकरुणा तत्त्व का समन्वय
जिस प्रकार पुराणों ने वैदिक धर्म को भागवत धर्म के साथ समन्वित किया, उसी प्रकार बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय के महाकरुणा और लोकमंगल के आदर्श को भी अपनाया। मार्कण्डेय पुराण में विदेह के राजा विपश्चित की कथा में शान्तिवेद ने बोधिचर्यावतार से मिलते-जुलते विचार प्रकट किए हैं। इस राजा को अच्छे कर्मों के कारण स्वर्ग प्राप्त हुआ किंतु किसी लघु त्रुटि के कारण कुछ क्षणों के लिए नर्क का दण्ड भी मिला।
जब वह नर्क में पहुँचा और उसने वहाँ के लोगों की करुण चीत्कार सुनी तो उसका हृदय पिघल गया और उसने संकल्प किया कि स्वर्ग के सुखों का भोग करने की अपेक्षा वह नर्क में रहकर दुःखी लोगों की सेवा करेगा। इन्द्र और यम के समझाने पर भी वह अपने सकंल्प पर दृढ़ रहा। अन्त में विवश होकर यम को नर्क के सारे निवासियों का उद्धार करना पड़ा। उसके बाद ही राजा ने स्वर्ग जाना स्वीकार किया।
मार्कण्डेय पुराण में राजा हरिश्चन्द्र की कथा में लिखा है कि जब देवदूत उसे शुभ कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग ले जाने लगे तो उसने उत्तर दिया कि राजा जो कुछ करता है, प्रजा के सहयोग से करता है, अतः उसके कर्मों का फल भी समस्त प्रजा में बँटना चाहिए। प्रजा के एक दिन का सुख, राजा के अपने अनन्त सुखों से बेहतर है। इन विचारों और भावों में बोधिसत्व का महाकरुणा तत्त्व निहित है।
विभिन्न प्रवृत्तियों का समन्वय
पुराणों में कर्म और मोक्ष, प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। पद्म पुराण, अग्नि पुराण, कूर्म पुराण और गरुड़ परुाण में कहा गया है कि संसार में आकर कर्म करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। विद्याध्ययन समाप्त कर विवाह करना, गृहस्थ जीवन बिताना, लोकसंग्रह के काम करना प्रत्येक मनुष्य के लिए अनिवार्य है। प्रव्रज्या और गृहत्याग लोक-विरुद्ध होने के कारण निन्दनीय हैं।
मनुष्य में कर्म करने और उसके द्वारा सुख प्राप्त करने की जो असीम शक्ति है, उसका विकास लौकिक जीवन द्वारा ही सम्भव है किन्तु लोक-जीवन बिताते हुए उसे ‘साधारण धर्म’ और ‘स्वधर्म’ का सामंजस्य करना चाहिए। ‘साधारण धर्म’ सार्वजनिक और सार्वभौम है। इनमें अहिंसा, क्षमा, शम, दम (इन्द्रिय निग्रह), दया, दान, शौच, सत्य, तप, ज्ञान आदि सम्मिलित हैं।
पद्म पुराण के अनुसार अहिंसा सर्वोपरि है, इसमें समस्त धर्मों का सार है। इसी पुराण के अनुसार अहिंसा के साथ सत्य जुड़ा हुआ है। सत्य वह है जिससे प्राणिमात्र का भला होता है। इसलिए मनुष्य को अप्रिय सत्य नहीं कहना चाहिए। नृसिंह पुराण में कहा गया है कि मन को काम और क्रोध से मुक्त रखना अनिवार्य है।
इसके लिए इष्टदेव की भक्ति अपेक्षित है। देवताओं में भेद करना या किसी देवता की निन्दा करना बहुत बड़ा अपराध है, क्योंकि समस्त देवता मूलतः एक ही हैं। इस ‘साधारण धर्म’ की परिधि में व्यक्ति को ‘स्वधर्म’ का पालन करना चाहिए, जिसका सम्बन्ध उसकी जाति, वर्ण, आश्रम और स्वभाव से है। इसके अनुसार व्रत, दान और प्रायश्चित का विधान है।
संसार की सबसे बड़ी शांतिपूर्ण धार्मिक क्रांति
यद्यपि पुराणों में भारत को कर्मभूमि और पुण्यभूमि कहा गया है तथापि पुराणों की दृष्टि विश्व के समस्त प्राणियों पर थी। इस कारण पुराणों में निहित ‘धार्मिक और सांस्कृतिक समन्वय का आदर्श’ भारत से बाहर भी फैल गया। दक्षिणी-पूर्वी एशियाई द्वीपों में पौराणिक संस्कृति का प्रसार हुआ जो आज भी विद्यमान है।
पौराणिक संस्कृति का यह प्रसार किसी तलवार के जोर पर नहीं हुआ अपितु यह विशुद्ध सांस्कृतिक प्रक्रिया थी जिसे विभिन्न द्वीपों की प्रजा ने सहर्ष एवं स्वेच्छा से अंगीकार कर लिया। इस प्रकार की शांति-पूर्ण एवं दिग्दिगन्तर व्यापी धार्मिक क्रांति सम्पूर्ण धरती पर पौराणिक धर्म के अतिरिक्त और किसी धर्म ने घटित नहीं की।