Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 9 : बंगाल में अंग्रेज शक्ति का उदय एवं बक्सर-युद्ध

नवाब मीर कासिम

मीर कासिम के प्रारम्भिक जीवन के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। उसका जन्म निश्चय ही किसी शासक परिवार में हुआ होगा, तभी मीर जाफर ने उसे अपना दामाद बनाया होगा। जब मीर जाफर बंगाल का नवाब बना तो मीर कासिम ने पूर्णिया और रंगपुर के फौजदार के रूप में अपनी प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया। वह योग्य सेनापति था। मीर जाफर के पुत्र मीरन की मृत्यु के बाद मीर कासिम की महत्त्वाकांक्षा जाग उठी और वह बंगाल का नवाब बनने का स्वप्न देखने लगा। अन्त में वेन्सीटार्ट के साथ साँठगाँठ करके वह बंगाल का नवाब बनने में सफल रहा।

मीर कासिम की समस्याएँ

नवाब बनते ही मीर कासिम के सामने समस्याएं मुँह बाये खड़ी थीं। उसकी प्रमुख समस्याएं इस प्रकार थीं-

(1.) धन की समस्या: अँग्रेजों से हुई संधि के अनुसार मीर कासिम द्वारा अंग्रेजों को बहुत-सा धन दिया जाना था। शासन व्यवस्था को सुधारने तथा सेना का पुनर्गठन करने के लिए भी धन की आवश्यकता थी।

(2.) सेना के पुनर्गठन की समस्या: मीर कासिम ने सेना की स्थिति को सुधारने की आवश्यकता को भी अनुभव किया, ताकि वह बाह्य आक्रमणों और आन्तरिक उपद्रवों का सामना करने में सक्षम सिद्ध हो सके। बंगाल को अब भी अली गौहर के आक्रमण, मराठों की लूट-खसोट तथा अवध के नवाब की विस्तारवादी नीति का भय बना हुआ था। वीरभूम के जमींदार तथा बिहार के नायब-सूबेदार जैसे आन्तरिक शत्रुओं का दमन भी करना था।

(3.) अँग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त होने की समस्या: मीर कासिम अपने श्वसुर से गद्दारी करके तथा अँग्रेजों से कई प्रकार के वायदे करके नवाब बना था किंतु वह शीघ्र ही समझ गया कि यदि नवाबी करनी है तो उसे अँग्रेजों के नियंत्रण से मुक्ति पानी होगी।

समस्याओं के निराकरण के प्रयास

मीर कासिम ने समस्याओं से छुटकारा पाने के लिये कई कदम उठाये जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

(1.) राजधानी का परिवर्तन: मीर कासिम अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से हटाकर मुंगेर ले गया जो कलकत्ता से काफी दूर था। यहाँ वह कम्पनी के अधिकारियों के नियंत्रण से मुक्त होकर अधिक स्वतंत्रता से काम कर सकता था।

(2.) बारूद तथा तोप बनाने के कारखाने की स्थापना: मीर जाफर ने मुंगेर में बारूद बनाने तथा अच्छी तोपें बनाने का कारखाना स्थापित किया।

(3.) सेना का प्रशिक्षण: मीर जाफर ने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित करने के लिये फ्रांसीसी तथा अमरीकी अधिकारियों को नियुक्त किया।

(4.) जमींदारों एवं अधिकारियों का दमन: मीर कासिम ने उन समस्त जमींदारों तथा अधिकारियों का दमन किया, जो नवाब की अवज्ञा करते थे और ठीक प्रकार से कर नहीं चुकाते थे। उसने बिहार के नायब सूबेदार रामनारायण को पदच्युत करके उसकी सम्पत्ति जब्त कर ली तथा उसे बंदी बना लिया।

(5.) अवध के नवाब से समझौता: मीर कासिम ने अवध के नवाब से समझौता करके सीमावर्ती क्षेत्रों में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित की।

(6.) धन की व्यवस्था: अँग्रेजों को पुरानी देनदारी चुकाने, कम्पनी के अधिकारियों को उपहार देने, शासन चलाने तथा सेना का वेतन चुकाने के लिये धन जुटाने हेतु मीर कासिम ने कई उपाय किये। उसे जिस किसी व्यक्ति के पास अधिक धन होने की जानकारी मिली उसे मीर जाफर का समर्थक ठहराकर उसके धन को जब्त कर लिया। पुराने राजकीय अधिकारियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उनकी सम्पत्ति को जब्त कर लिया। राजस्व विभाग में विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त किया। सरकारी खर्चे में कमी करने के लिये अनेक कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। जनता पर नये कर लगाये। इन प्रयासों से राज्य की आय में काफी वृद्धि हो गई।

अँग्रेजों के साथ झगड़ा

अँग्रेजों के साथ झगड़ा उठ खड़े होने के कई कारण थे। इनमें से अधिकांश कारण अँग्रेजों की तरफ से खड़े किये गये थे। इनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1.) अलीगौहर को बादशाह के रूप में मान्यता: 1761 ई. के प्रारम्भ में अली गौहर (शाहआलम द्वितीय) ने अँग्रेजों से बातचीत आरम्भ की और स्वयं को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाने में उनकी सहायता माँगी। अँग्रेजों ने उसे पटना में आमन्त्रित करके शाही सम्मान के साथ स्वागत किया। उन्होंने मीर कासिम को विवश किया कि वह शाहआलम को बादशाह माने। अँग्रेजों ने मीर कासिम से शाहआलम को 12 लाख रुपये नजराने के भी दिलवाये। अँग्रेजों ने शाहआलम के नाम से सिक्के भी ढलवाये। अँग्रेजों की इस नीति के कारण मीर कासिम की स्थिति और भी कमजोर हो गई। उसे भय हुआ कि कहीं उससे नवाबी न छीन ली जाये। इस घटना से मीर कासिम और अँग्रेजों के सम्बन्धों में तनाव आ गया।

(2.) कम्पनी के अधिकारियों एवं गोमाश्तों की बदमाशी: प्लासी के युद्ध के बाद से बंगाल में कम्पनी के कर्मचारियों को व्यापार करने की और अधिक स्वतंत्रता मिल गई थी। वे लोग बिना सीमा-शुल्क चुकाये धड़ल्ले-से व्यापार करते थे। प्रान्त के भीतरी भागों में भी अँग्रेज अधिकारियों ने सैकड़ों कारखाने स्थापित कर लिये थे। इन कारखानों में नमक, सुपारी, घी, चावल, माँस, मछली, चीनी, तम्बाकू, अफीम आदि विविध वस्तुओं को खरीदा और बेचा जाता था। कारखानों की देखभाल के लिए प्रायः भारतीयों को गोमाश्ता (प्रतिनिधि) नियुक्त किया जाता था। अँग्रेज मालिकों की देखा-देखी इन गोमाश्ताओं ने भी बिना शुल्क चुकाये व्यापार करना आरम्भ कर दिया। इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। एक तरफ तो नवाब की आय घट गई और दूसरी तरफ भारतीय व्यापारियों के लिए कारोबार चलाना कठिन हो गया। क्योंकि उन्हें सीमा-शुल्क चुकाना पड़ता था, वे अँग्रेज गोमाश्ताओं की तुलना में सस्ती दर पर सामान बेचने में असमर्थ थे। इस कारण अँग्रेजों तथा उनके गोमाश्ताओं का व्यापार बढ़ता चला गया और भारतीय व्यापारियों का व्यापार घटता चला गया।

(3.) नवाब द्वारा भारतीय व्यापारियों से चुंगी हटाने का निर्णय: मीर कासिम ने कम्पनी और उसके अधिकारियों तथा गोमाश्ताओं के व्यापार पर अंकुश लगाने का प्रयास किया। उसने फोर्ट विलियम के गवर्नर वेन्सीटार्ट से शिकायत की। वेन्सीटार्ट स्वयं मुंगेर गया और उसने मीर कासिम से व्यक्तिगत विचार-विमर्श किया। वह इस बात पर सहमत हो गया कि अब से कम्पनी अपने सामान पर 9 प्रतिशत शुल्क अदा करेगी और भारतीय व्यापारी 25 से 30 प्रतिशत शुल्क देंगे परन्तु कलकत्ता कौंसिल ने वेन्सीटार्ट के प्रस्ताव को रद्द कर दिया। इससे निराश होकर मीर कासिम ने भारतीय व्यापारियों को भी निःशुल्क व्यापार करने की अनुमति दे दी। मीर कासिम के इस कदम से अँग्रेज अधिकारी अत्यधिक नाराज हुए, क्योंकि इससे उनका विशेषाधिकार समाप्त हो गया। अब उन्हें भारतीय व्यापारियों से बराबरी के स्तर पर स्पर्द्धा करनी पड़ी जिसमें वे बुरी तरह से पिटने लगे। उन्हें लाभ के स्थान पर हानि होने लगी। उन्होंने नवाब से अपना आदेश वापिस लेने के लिये कहा परन्तु नवाब ने उनकी बात को ठुकरा दिया। इस व्यापारिक संघर्ष से पुनः यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि बंगाल का वास्तविक शासक कौन है, ईस्ट इण्डिया कम्पनी अथवा मीर कासिम?

(4.) नवाब के खर्चे पर रखी गई सेना का नवाब के विरुद्ध प्रयोग: मीर कासिम ने कम्पनी पर आरोप लगाया कि 1760 ई. की सन्धि के अनुसार नवाब की सहायता के लिए जिस अँग्रेजी सेना को रखने तथा उसके व्यय के लिए तीन जिले प्रदान किये गये थे, वह सेना उसी के विरुद्ध काम में लाई जा रही है। अतः कम्पनी उन जिलों को वापिस लौटा दे और उन जिलों से जो राजस्व वसूल किया है, वह भी लौटा दे। इस आदेश से दोनों पक्षों में और अधिक तनाव उत्पन्न हो गया। ऐसी स्थिति में कलकत्ता कौंसिल ने अपने दो सदस्यों- हे और अमायत को नवाब से वार्त्ता करने के लिये भेजा। नवाब ने कलकत्ता कौंसिल के प्रस्ताव को ठुकरा कर हे को बन्दी बना लिया। इस पर एलिस ने पटना पर आक्रमण करके बाजार को लूट लिया तथा कई लोगों को मार दिया। नवाब के आदमियों के साथ हुई हाथापाई में अमायत मारा गया। मीर कासिम ने सेना भेजकर पटना पर पुनः अधिकार कर लिया तथा एलिस और उसके साथियों को बन्दी बना लिया।

बक्सर का युद्ध (1764 ई.)

ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा नवाब मीर कासिम दोनों ही एक दूसरे के विरुद्ध आक्रामक कार्यवाहियाँ कर रहे थे इस कारण दोनों के बीच निर्णायक युद्ध की परिस्थितियां तैयार हो गईं। ऐसा संभव नहीं था कि अँग्रेज बिना खून चूसे रह जायें। उन्हें धन की इतनी अधिक भूख थी कि उसे पाने के लिये वे किसी भी हद तक गिर सकते थे। नवाब उनकी इस अभिलिप्सा में बाधा उत्पन्न कर रहा था इसलिये कलकत्ता कौंसिल ने उसे नवाब के पद से हटाने का निर्णय किया।

मीर कासिम की पराजय

जून 1763 में मेजर एडम्स के नेतृत्व में अँग्रेज सेना मुंगेर की तरफ बढ़ी। 19 जुलाई 1763 को कटवा के निकट मीर कासिम और ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना में युद्ध हुआ जिसमें नवाब की सेना परास्त हो गई। इसके बाद तीन और युद्ध लड़े गये। उन समस्त युद्धों में मीर कासिम परास्त हुआ। अंत में नवाब पटना की तरफ भाग गया। पटना में उसने अँग्रेज बन्दियों और भारतीयों बन्दियों जिनमें राजा रामनारायण, सेठ बन्धु आदि प्रमुख थे, को मौत के घाट उतार दिया और स्वयं अवध चला गया।

मीर जाफर को पुनः नवाबी

मीर कासिम के भाग जाने से जुलाई 1763 में बंगाल के नवाब की गद्दी पुनः खाली हो गई। कलकत्ता कौंसिल ने मीर जाफर के साथ नया समझौता करके उसे दूसरी बार नवाब बनाया। मीर जाफर ने अँग्रेजों की समस्त अनुचित मांगें स्वीकार कर लीं। कम्पनी को जो कुछ हानि हुई थी, उसे भी पूरा करने का वचन दिया।

बंगाल में अराजकता

मीर जाफर पहली बार अपने श्वसुर सिराजुद्दौला से गद्दारी करके नवाब बना था उस समय भी उसने बंगाल का खजाना अँग्रेज अधिकारियों पर लुटा दिया था। दूसरी बार वह अपने जामाता को अपदस्थ किये जाने के बाद नवाब बना। इस बार भी कम्पनी के अधिकारियों ने उसे चूसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इससे बंगाल में अराजकता मच गई। इस अराजकता को देखकर स्वयं क्लाइव ने लिखा है- ‘मैं केवल यही कहूंगा कि अराजकता, अस्तव्यस्त्ता, घूसखोरी, भ्रष्टाचार और लूट-खसोट का ऐसा दृश्य बंगाल के अतिरिक्त किसी अन्य देश में कभी देखा या सुना नहीं गया। न ही इस प्रकार की और इतनी बड़ी राशि, इतने अन्यायपूर्ण और लूट खसोट के तरीके से कभी प्राप्त की गई। जब से मीर जाफर को फिर से सूबेदारी दी गई है तब से तीनों प्रांत- बंगाल, बिहार और उड़ीसा जिनसे 30 लाख पौण्ड का निबल राजस्व प्राप्त होता है, कम्पनी के कर्मचारियों के पूर्ण प्रबंध में हैं और असैनिक तथा सैनिक दोनों प्रकार के कर्मचारियों ने हर प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, नवाब से लेकर सबसे छोटे जमींदार तक से पैसे ऐंठे हैं।’

क्लाइव का अनुमान था कि कम्पनी और उसके कर्मचारियों ने मीर जाफर से तीन करोड़ रुपये से अधिक की रकम ऐंठी थी।  क्लाइव द्वारा की गई यह अभिव्यक्ति, ग्लानि-युक्त स्वीकरोक्ति समझी जानी चाहिये क्योंकि बंगाल में नवाब से रुपये ऐंठने का खेल उसी ने आरम्भ किया था।

शुजाउद्दौला की गद्दारी

मीर कासिम ने बंगाल से भाग आने के बाद, अवध के नवाब वजीर शुजाउद्दौला की सहायता प्राप्त करने का निश्चय किया। इन दिनों शुजाउद्दौला मुगल बादशाह शाहआलम के साथ इलाहाबाद में था। शुजाउद्दौला और मीर कासिम के मध्य लम्बे समय से अच्छे सम्बन्घ नहीं थे। शुजाउद्दौला ने अगस्त 1763 में भगोड़े मीर कासिम के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये अँग्रेजों को सहायता देने का प्रस्ताव भी रखा था परन्तु जब मीर कासिम इलाहाबाद पहँुचा तो शुजाउद्दौला का विचार बदल गया। क्योंकि इस समय मीर कासिम के पास दस करोड़ रुपये मूल्य के जवाहरात थे। शुजाउद्दौला इस सम्पत्ति को हड़पना चाहता था। इसके अलावा मीर कासिम की ओट में वह बंगाल तथा बिहार में अपना प्रभाव बढ़ाने की योजना बनाने लगा। शुजाउद्दौला ने एक ओर तो मीर कासिम का स्वागत किया और दूसरी ओर अँग्रेजों से भी बातचीत जारी रखी। लगभग 6 माह का समय निकल गया। जब अँग्रेजों ने शुजाउद्दौला का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया, तब उसने अँग्रेजों से युद्ध करने का निर्णय लिया। मुगल बादशाह शाहआलम भी उसके साथ हो गया। बादशाह शाहआलम ने भी दोहरी चाल चली। एक ओर तो वह शुजाउद्दौला के साथ अँग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने के लिये चल पड़ा और दूसरी ओर उसने गुप्त रूप से अँग्रेजों को लिख भेजा कि वह विवशता में नवाब शुजाउद्दौला का साथ दे रहा है।

शुजाउद्दौला तथा मीर कासिम की पराजय

अँग्रेजों ने बनारस के पूर्व में स्थित बक्सर में शुजाउद्दौला की सेना से लड़ने का निर्णय लिया। सेनापति मुनरो लगभग 8,000 सैनिकों के साथ बक्सर पहुँच गया। शुजाउद्दौला की सेना भी वहाँ पहुँच गई। अँग्रेजों ने युद्ध आरम्भ होने से पहले शुजाउद्दौला के कुछ अधिकारियों- असदखाँ, जैनउल अबीदीन, गुलाम हुसैनखाँ, रोहतास के गवर्नर साहूमल आदि को घूस देकर अपनी तरफ मिला लिया। 23 अक्टूबर 1764 को बक्सर में दोनों पक्षों के मध्य संघर्ष हुआ। तीन घण्टे के युद्ध में अवध की सेना बुरी तरह से परास्त होकर मैदान से भाग खड़ी हुई। युद्ध में अँग्रेजी सेना के 825 सैनिक मारे गये जबकि शुजाउद्दौला के लगभग दो हजार सैनिक मारे गये। शुजाउद्दौला भी भाग निकला। अँग्रेजों ने उसका पीछा किया। जनवरी 1765 में बनारस के निकट शुजाउद्दौला पुनः परास्त हुआ। अँग्रेजों ने चुनार तथा इलाहाबाद के दुर्गों पर अधिकार कर लिया। शुजाउद्दौला ने मराठा सेनापति मल्हारराव होलकर से सहायता प्राप्त की परन्तु अपै्रल 1765 में कड़ा के युद्ध में अँग्रेजों ने उन दोनों को परास्त किया। अन्त में शुजाउद्दौला ने समर्पण कर दिया। मीर कासिम भागकर दिल्ली पहुँचा जहाँ वह 12 वर्ष तक जीवित रहा। 1777 ई. में उसकी मृत्यु हुई।

बक्सर युद्ध का महत्त्व

बक्सर का युद्ध मध्यकालीन भारतीय इतिहास का निर्णायक युद्ध था। इसमें अँग्रेजों की निर्णायक विजय हुई। इस युद्ध का महत्त्व प्लासी के युद्ध से भी अधिक है। इससे अँग्रेजों की शक्ति में अत्यंत वृद्धि हुई। मुगल बादशाह शाहआलम और उसका वजीर नवाब शुजाउद्दौला, दोनों परास्त होकर अँग्रेजों की दया पर निर्भर हो गये। प्लासी के युद्ध में क्लाइव के षड्यन्त्र के कारण, बिना लड़े ही अँग्रेजों को विजय प्राप्त हुई थी परन्तु बक्सर के मैदान में अनुभवी सेनापति शुजाउद्दौला जिसके पास अँग्रेजों की तुलना में पाँच गुना सेना और एक श्रेष्ठ तोपखाना थे, को परास्त होना पड़ा। इससे अँग्रेजों की सैनिक श्रेष्ठता प्रमाणित हो गई और भारतीय शासकों की सैनिक शक्ति का खोखलापन स्पष्ट हो गया। प्लासी के युद्ध में केवल बंगाल के नवाब के भाग्य का फैसला हुआ था और विजय के परिणामस्वरूप केवल बंगाल के लाभकारी स्रोतों पर कम्पनी का अधिकार हुआ था परन्तु बक्सर के युद्ध में भारत की तीन प्रमुख शक्तियों- मुगल बादशाह शाहआलम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के नवाब मीर कासिम के भाग्य का फैसला हुआ। यहां तक कि मल्हारराव होलकर भी अँग्रेजों से परास्त हुआ।

बक्सर विजय के परिणाम स्वरूप, सम्पूर्ण अवध सूबे पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का नियंत्रण हो गया। इससे अँग्रेजों के लिए उत्तरी भारत में साम्राज्य की स्थापना का कार्य सरल हो गया। इस पराजय के बाद अवध के किसी नवाब ने अँग्रेजों का सामना करने का साहस नहीं किया। इस युद्ध का सम्पूर्ण भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। अब ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक अखिल भारतीय शक्ति बन गई।

प्लासी के युद्ध में कम्पनी ने बंगाल की सेना को परास्त किया था परन्तु बक्सर के युद्ध में उसने उत्तरी भारत की सबसे बड़ी सेना को परास्त किया और बाद में अवध तथा मराठों की संयुक्त सेना को परास्त किया। कम्पनी की शानदार सैनिक सफलताओं से भारतीय राजनीति में उसका दबदबा बढ़ गया। अब उसका प्रभाव क्षेत्र बंगाल से दिल्ली तक विस्तृत हो गया। इसीलिए यह कहा जाता है कि बक्सर के युद्ध ने प्लासी के अधूरे कार्य को पूरा किया। ब्रूम ने लिखा है- ‘इस प्रकार बक्सर का प्रसिद्ध युद्ध समाप्त हुआ, जिस पर भारत का भाग्य निर्भर था और जितनी बहादुरी से लड़ा गया, परिणामों की दृष्टि से भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था।’

अब बंगाल का नवाब कम्पनी के हाथों की कठपुतली था। अवध का नवाब कम्पनी पर निर्भर रहने वाला समर्थक मित्र और मुगल बादशाह उसका पेन्शनर था। जी. बी. मालेसन ने लिखा है- ‘चाहे आप इसे देशी और विदेशियों के बीच द्वंद्व युद्ध समझें या ऐसी एक सारगर्भित घटना जिसका परिणाम स्थाई और विशाल हुआ। बक्सर को सर्वाधिक निर्णायक युद्धों में से माना जाता है।’

क्लाइव की दूसरी गवर्नरी (जून 1765 से जनवरी 1767 तक)

बक्सर विजय के बाद भारत में बदली हुई परिस्थितियों का अधिकतम लाभ उठाने के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने राबर्ट क्लाइव को जून 1765 में दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनाकर भारत भेजा। वह एक अनुभवी अधिकारी था तथा बंगाल की परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझता था।

क्लाइव की समस्याएँ

क्लाइव को अपने दूसरे कार्यकाल में अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनमें से कुछ इस प्रकार थीं-

(1.) मुगल बादशाह और अवध के नवाब के सम्बन्ध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भावी नीति का निर्णय करना शेष था।

(2.) कम्पनी के आन्तरिक मामलों में बड़े सुधारों की आवश्यकता थी।

(3.) कम्पनी के अधिकारी, कर्मचारी एवं भारतीय गुमाश्तों के निजी व्यापार के कारण कम्पनी के लाभ में कमी आने लगी थी। इस समस्या को सख्ती से सुलझाने की आवश्यकता थी।

(4.) क्लाइव के कलकत्ता पहुँचने के पूर्व ही मीर जाफर की मृत्यु हो गई। उसका पुत्र नज्मुद्दौला अल्पवयस्क था। क्लाइव को इस समस्या का समाधान भी करना था।

समस्याओं का समाधान

(1.) इलाहाबाद की सन्धि (1765 ई.): 1765 ई. में जब क्लाइव कलकत्ता पहुँचा, उस समय दिल्ली, अवध तथा बंगाल के ताज कम्पनी के चरणों में पड़े थे। उन्हें भावी राजनीतिक शिकंजों में कसने के लिये ठोस नीति का निर्माण आवश्यक था ताकि ये शक्तियां समय पाकर फिर से सिर न उठाने लगें। बक्सर विजय के बाद वेन्सीटार्ट ने शाहआलम को अवध का सूबा देने का आश्वासन दिया था। उसने सोचा था कि यदि कम्पनी की सीमाओं के पास ही मुगल सल्तनत की सेनाएँ रहेंगी तो कम्पनी के हित अधिक सुरक्षित रहेंगे परन्तु क्लाइव का मानना था कि यदि अवध का सूबा कमजोर मुगल बादशाह को सौंपा गया तो मराठे अवध पर निरन्तर धावा मारते रहेंगे और कम्पनी को मराठोें से उलझना पड़ेगा। कौंसिल के कुछ सदस्यों की राय थी कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी को स्वयं दिल्ली तथा अवध पर प्रत्यक्ष अधिकार कर लेना चाहिए। क्लाव की राय इन सदस्यों से अलग थी।

उसके अनुसार इस समय ऐसा करना लाभदायक नहीं था। कम्पनी के पास इतने साधन नहीं थे कि वह इतने बड़े भू-भाग की व्यवस्था कर सके। यदि कम्पनी का मराठों से झगड़ा उठ खड़ा हुआ तो बंगाल, बिहार और उड़ीसा भी उसके हाथ से निकल सकते थे। एक सुझाव यह भी था कि कम्पनी मुगल बादशाह को उसके भाग्य पर छोड़ दे तथा दिल्ली को उसके अधिकार में बने रहने दे। क्लाइव इस सुझाव से सहमत नहीं था क्योंकि इससे मराठे मुगल सल्तनत पर नियंत्रण कर सकते थे। क्लाइव ने मध्यम मार्ग का अनुसरण किया। 12 अगस्त 1765 को उसने मुगल बादशाह से एक संधि की जिसे इलाहाबाद की सन्धि कहते हैं। इसकी प्रमुख शर्तें इस प्रकार से थीं-

1. अवध के नवाब से कड़ा और इलाहाबाद के जिले छीनकर मुगल बादशाह शाहआलम को सौंप दिये गये।

2. मुगल बादशाह ने एक विशेष फरमान के द्वारा बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अँग्रेजों को दे दी। एक अन्य फरमान द्वारा मुगल बादशाह ने मीर जाफर के पुत्र नज्मुद्दौला को इन प्रान्तों का नवाब स्वीकार कर लिया।

3. ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुगल बादशाह को 26 लाख रुपया प्रतिवर्ष देना स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार, इलाहाबाद की सन्धि से कम्पनी को वैधानिक रूप से बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मुगल बादशाह के प्रतिनिधि की हैसियत से शासन करने का अधिकार मिल गया। अब वह इन सूबों में अपनी सत्ता मजबूत बनाने का प्रयास करने लगी।

(2.) अवध के नवाब से संधि: क्लाइव ने अवध के नवाब वजीर शुजाउद्दौला के साथ एक पृथक सन्धि की जिसकी प्रमुख शर्तें इस प्रकार से थीं-

1. अवध सूबे के कड़ा और इलाहाबाद जिले मुगल बादशाह को दे दिये गये।

2. चुनार का दुर्ग ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया गया।

3. शेष जिले फिर से अवध के नवाब को सौंप दिये गये।

4. नवाब वजीर ने कम्पनी को युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में 50 लाख रुपये देने का वचन दिया।

5. नवाब वजीर ने भविष्य में मीर कासिम तथा उसके समर्थकों को सरंक्षण अथवा नौकरी नहीं देने का आश्वासन दिया।

6. बनारस और गाजीपुर, राजा बलवन्तसिंह को पैतृक जागीर के रूप में दिये गये। अँग्रेजों को उसका संरक्षक बनाया गया।

7. नवाब ने अवध सूबे में कम्पनी को निःशुल्क व्यापार करने की सुविधा दी।

8. क्लाइव ने अवध में कुछ फैक्ट्रियाँ स्थापित करने की इच्छा प्रकट की परन्तु शुजाउद्दौला ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस शर्त पर क्लाइव ने जोर नहीं दिया।

9. एक पृथक् सन्धि द्वारा कम्पनी ने अवध की सुरक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया। अवध के नवाब ने कम्पनी की सैनिक सहायता का व्यय देना स्वीकार कर लिया।

(3.) बंगाल के नवाब से नई संधि: बंगाल, उड़ीसा और बिहार की दीवानी प्राप्त करने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिये यह आवश्यक हो गया कि वह बंगाल के नवाब से नये सिरे से संधि करे। इलाहाबाद की सन्धि से कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा से लगान वसूल करने और असैनिक न्याय प्रदान करने के अधिकार मिल गये किंतु निजामत अर्थात् शान्ति-व्यवस्था और फौजदारी न्याय नवाब के अधिकार में रहे। नये समझौते के अनुसार निजामत के कार्य के व्यय के लिए कम्पनी ने नवाब को 53 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया। इस प्रकार, बंगाल में दोहरे शासन की शुरुआत हुई।

इलाहाबाद की सन्धि का मूल्यांकन

इलाहाबाद की सन्धि के सम्बन्ध में विद्वानों ने परस्पर-विरोधी मत व्यक्त किये हैं। सर आयरकूट का मत है कि इस संधि के द्वारा क्लाइव ने दिल्ली, अवध, बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के विशाल क्षेत्र में विशाल साम्राज्य स्थापित करने का एक शानदार अवसर खो दिया। मृत अथवा निष्क्रिय शासकों को पुनः जीवनदान देना उचित नहीं था। शुजाउद्दौला को पुनः तख्त पर बैठाने की बजाय, उसे स्वयं अवध पर अधिकार कर लेना चाहिए था और मुगल बादशाह के नाम पर दिल्ली की तरफ बढ़ जाना था, जहाँ वह अपनी सत्ता स्थापित कर सकता था। एक अन्य मत यह है कि क्लाइव ने शाहआलम के साथ बहुत ही कठोर व्यवहार किया। वेन्सीटार्ट ने उसे अवध का प्रान्त देने का वायदा किया था परन्तु क्लाइव ने वचन का पालन नहीं किया। इन आरोपों के विरुद्ध क्लाइव की दलील यह थी कि वेन्सीटार्ट ने मुगल बादशाह के साथ कोई लिखित समझौता नहीं किया था। इसके अलावा मुगल बादशाह पर ऐसा बोझ डालना अनुचित था, जिसका भार वहन करने की उसमें क्षमता नहीं थी।

वस्तुतः इलाहाबाद की सन्धि क्लाइव की गहरी सूझबूझ का प्रमाण है। बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर कम्पनी ने हाल ही में वैधानिक अधिकार प्राप्त किया था। कम्पनी को अपने राज्य का विस्तार करने के स्थान पर अपने द्वारा शासित क्षेत्र में अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाना आवश्यक था। कम्पनी के वित्तीय एवं सैनिक संसाधनों पर पहले से ही भारी दबाव था। कम्पनी मुख्यतः एक व्यापारिक संस्था थी, अतः उसके लिए स्वतंत्र रूप से राज्य का निर्माण करना उचित नहीं था। बंगाल की सुरक्षा की समस्या अभी भी बनी हुई थी।

ऐसी स्थिति में नये सैनिक अभियानों से कम्पनी के व्यापार को भारी हानि पहुँच सकती थी। यदि अवध को कम्पनी के अधिकार में ले लिया जाता तो भारत के देशी शासकों में असंतोष उत्पन्न होने की सम्भावना थी। कम्पनी के पास इतने बड़े राज्य का शासन चलाने के लिए योग्य अधिकारियों और कर्मचारियों का भी अभाव था। इन समस्त तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद की सन्धि को क्लाइव की महत्त्वपूर्ण सफलता माना जा सकता है।

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