बम्बई प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संस्थाओं का उदय
बॉम्बे एसोसिएशन
बम्बई प्रेसीडेन्सी में राजनीतिक गतिविधियाँ मराठी मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी के अस्तित्व में आने से हुई। 1841 ई. में ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए भास्कर पाण्डुरंग तरखदर ने कहा- ‘यदि मैं आपको (अँग्रेजों) को इस बात का श्रेय हूं कि आपने हमारी पिण्डारियों तथा रमोसियों से रक्षा की है तो यह भी सत्य है कि आपकी व्यापारिक प्रणाली ने अधिक सुचारू रूप से हमारी जेबें खाली कर दी हैं और जितना वे लोग पांच-छः सौ साल में भी न लूट सके उतना आपने थोड़े से वर्षों में ही लूट लिया है। आपके ज्ञान और बुद्धि के साथ-साथ आपकी धूर्तता और कपट भी बढ़ गई है।’
बॉम्बे एसोसिएशन, बम्बई की पहली राजनीतिक संस्था थी। इसकी स्थापना 26 अगस्त 1852 को हुई। इस संस्था में हिन्दू, मुसलमान, पारसी आदि विभिन्न धर्मों के लोग सदस्य थे। बड़े पूँजीपतियों, व्यापारियों और मध्यम वर्गीय लोगों ने इसकी सदस्यता ग्रहण की। सर जमदेशजी जीजी भाई इसके अधीष्ट अध्यक्ष, जगन्नाथ शंकर सेठ अध्यक्ष और भाऊदा तथा विनायक राव जगन्नाथ संयुक्त सचिव चुने गये। बम्बई की राजनीति में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।
बॉबे एसोसिएशन का उद्देश्य सरकार को जनता की कठिनाइयों से अवगत कराना था किंतु यह अँग्रेजों की पक्षधर संस्था थी। उसने 1857 ई. की क्रांति की निन्दा की। क्रांति के बाद जब सरकार ने व्यापारियों और मध्यम वर्ग पर नये टैक्स लगाये तो बम्बई में काफी हलचल हुई। लाइसेंस बिल के विरोध में भारी जनसभा भी हुई परन्तु बॉम्बे एसोसिएशन के शीर्ष नेता सरकार के भय से इस आन्दोलन से दूर रहे। कलकत्ता और मद्रास में लाइसेंस बिल के विरुद्ध जोरदार विरोध प्रदर्शन किया गया। जब बम्बई का जनमत इस बिल के विरुद्ध हुआ तब 8 अक्टूबर 1859 को जगन्नाथ शंकर सेठ के घर पर बॉम्बे एसोसिएशन की बैठक की गई और लाइसेंस बिल पर रिपोर्ट तैयार करने के लिये लगभग एक सौ लोगों की कमेटी बनाई गई। काफी समय बाद रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। इस पर विचार करने के लिये पुनः दूसरी बैठक बुलाई गई। इस पर एसोसिएशन के नौजवान और गरम विचारों वाले सदस्यों ने कड़ा विरोध प्रकट किया परंतु एसोसिएशन के शीर्ष नेतृत्व ने उनके विरोध पर ध्यान नहीं दिया। इस पर भाऊदाजी के नेतृत्व में गरम विचार वालों ने जनसभाएँ आयोजित करके लाइसेंस बिल वापस लेने के प्रस्ताव पारित किये। उन्होंने ब्रिटिश संसद को स्मृति-पत्र भेजकर मांग की कि आयकर का बोझ देश के औद्योगिक वर्गों पर लादा जा रहा है जबकि सम्पत्तिवान और अन्य वर्गों पर कोई शुल्क नहीं लगाया गया है। इसके बाद बॉम्बे एसोसिएशन सक्रिय हुआ और उसने लाइसेंस बिल के विरुद्ध विनम्र शब्दों में एक आवेदन पत्र भारत सरकार की लेजिस्लेटिव कौंसिल को दिया। इसमें बिल वापस लेने की बात नहीं कही गई थी अपितु बिल में नाममात्र के संशोधन सुझाये गये थे। इसके साथ ही बॉम्बे एसोसिएशन धीरे-धीरे निष्क्रिय होता चला गया और 1865 ई. में जगन्नाथ शंकर सेठ की मृत्यु के साथ ही मृत प्रायः हो गया।
1867 ई. के अन्त में बॉम्बे एसोसिएशन को पुनर्जीवित करने के लिये मंगलदास नाथू भाई के घर पर प्रमुख नागरिकों तथा बॉम्बे एसोसिएशन के पुराने सदस्यों एवं समर्थकों की एक बैठक बुलाई गई जिसमें एसोसिएशन को फिर से स्थापित करने का निर्णय लिया गया। तदनुसार मंगलदास नाथू भाई को इसका अध्यक्ष और नौरोजी फरदूनजी को उसका सचिव चुना गया। पुनर्स्थापना के बाद यह संस्था आगामी कुछ वर्षों तक काफी सक्रिय रही। उसने जन-साधारण से जुड़े विभिन्न विषयों पर सरकार के सामने आवेदन-पत्र प्रस्तुत किये। इनमें इंग्लैण्ड और भारत में सिविल सर्विस परीक्षा का एक साथ आयोजन, सरकारी पदों पर भारतीयों की ज्यादा नियुक्तियाँ, भारत का वित्तीय प्रशासन, भारत और इंग्लैण्ड के वित्तीय सम्बन्ध, अतिरिक्त कर, सेना पर किया जाने वाला व्यय, विधान परिषदों का पुनर्गठन, भारतीय प्रशासन की जाँच के लिये संसदीय समिति का गठन इत्यादि विषय सम्मिलित थे।
बॉम्बे एसोसिएशन के नौजवान और मध्यमवर्गीय सदस्य एसोसिएशन की गतिविधियों से सन्तुष्ट नहीं थे। क्योंकि इसके अधिकांश नेता शहरी जमींदार, धनी व्यापारी और नामी वकील होने से उनके पास सार्वजनिक कार्यों के लिये समय नहीं था। संगठन के लगभग सभी शीर्ष नेता नरम विचारों के थे। वे सरकार को नाराज नहीं करना चाहते थे। उनका मानना था कि सरकार को प्रसन्न रखकर ही संगठन कुछ हासिल कर सकता है। एसोसिएशन के एक प्रमुख सदस्य वकील शान्ताराम नारायण ने 1871 ई. में कहा- ‘भारतीय मामलों के प्रशासन में हमारे ऊपर बैठाये गये अधिकारियों के साथ सबसे अच्छे सम्बन्ध बनाये रखना हमारे एसोसिएशन के लिये बहुत ही मूल्यवान है।’
जबकि भारत के अन्य क्षेत्रों के राजनीतिक संगठन ब्रिटिश सरकार का विरोध करने लगे थे। इसलिये गर्म विचार वालों ने जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे, फीरोजशाह मेहता और काशीनाथ त्रियंबक तैलंग के नेतृत्व में बॉम्बे एसोसिएशन के नर्म विचार वाले नेताओं के विरुद्ध आवाज उठाई। जब उनकी बात नहीं सुनी गई तो अगस्त 1871 में उन्होंने टाउन एसोसिएशन की स्थापना की परन्तु टाउन एसोसिएशन कुछ समय में ही समाप्त हो गया।
उन दिनों म्युनिसिपल कमिश्नर आर्थर काफोर्ड की गलत नीतियों के कारण बम्बई नगरपालिका की आर्थिक हालत खराब थी। इस कारण बम्बई के नागरिकों में उसके प्रति असन्तोष था। वे नगरपालिका में सुधारों की मांग करने लगे। 6 नवम्बर 1870 को जी. ए. फारबेस के नेतृत्व में रेंट पेयर्स एसोसिएशन की स्थापना हुई। इस एसोसिएशन ने नगरपालिका सुधार आन्दोलन चलाया। एसोसिएशन की मांग थी कि नगरपालिका का प्रबन्ध कर-दाताओं के चुने गये प्रतिनिधियों को सौंपा जाये। सुधारों की मांग को लेकर आन्दोलन चलाने वालों को रिफॉर्म पार्टी का नाम दिया गया। इस सुधारवादी दल में कई अँग्रेज भी सम्मिलित थे।
रिफॉर्म पार्टी के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने के लिये सरकार के प्रयासों से शंकर सेठ पार्टी खड़ी की गई। इस पार्टी ने बम्बई प्रेसीडेन्सी की लेजिस्ट्लेटिव कौंसिल को स्मृति-पत्र देकर मांग की कि सम्पत्ति वालों पर ही नहीं अपितु समस्त लोगों पर आय के हिसाब से नगर पालिका कर लगना चाहिए। बॉम्बे एसोसिएशन के नेताओं ने इस सुझाव का विरोध किया। उनका मानना था कि इससे सरकार को आयकर स्थाई बना देने का रास्ता मिल जायेगा। जब बॉम्बे एसोसिएशन में शंकर सेठ पार्टी की नहीं चली तो यह गुट बॉम्बे एसोसिएशन से अलग हो गया और 19 अप्रैल 1873 को इस गुट ने वेस्टर्न इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की परन्तु अक्टूबर 1873 को शंकर सेठ की मृत्यु के साथ ही इस संगठन का अन्त हो गया।
वेस्टर्न इंडिया एसोसिएशन की समाप्ति के बाद भी बॉम्बे एसोसिएशन अपनी स्थिति को सुधारने में असफल रहा। नौरोजी फरदूनजी के इंग्लैण्ड चले जाने पर एच. दादाभाई को कार्यवाहक सचिव नियुक्त किया गया परन्तु जुलाई 1874 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनके स्थान पर वकील काशीनाथ त्रियंबक तैलंग को नियुक्त किया गया। वे एसोसिएशन को पर्याप्त समय नहीं दे पाये और एसोसिएशन निष्क्रिय होता चला गया। 1875 ई. में फरदूनजी के इंग्लैण्ड से वापस आने पर एसोसिएशन को पुनः सक्रिय बनाने की चेष्टा की गई परन्तु इस कार्य में सफलता नहीं मिली। अतः अक्टूबर 1875 में मंगलदास नाथू भाई और नौरोजी फरदूनजी ने एसोसिएशन से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद कुछ वर्षों तक एसोसिएशन बनी रही किंतु बम्बई की राजनीति में उसका महत्त्व नहीं रहा।
पूना एसोसिएशन
1876 ई. में पूना के कुछ जमींदारों, व्यापारियों और मध्यमवर्गीय लोगों ने पूना एसोसिएशन की स्थापना की। प्रभावशाली जमींदार रामचन्द्र नाटू को अध्यक्ष, वासुदेव रामचन्द्र धमधीरे को उपाध्यक्ष और बाबूराव कृष्ण गोखले को सचिव चुना गया। इस संस्था के सदस्यों में समस्त धर्मों, जातियों और व्यवसायों के लोग थे। इसके अधिकांश सदस्य पूना से थे। कुछ सदस्य बम्बई, कल्याण, करहद और नागपुर से भी थे। इस संस्था के प्रमुख उद्देश्य सरकारी कानूनों के बारे में जनता का पक्ष सरकार के सामने रखना, स्थानीय समस्याओं की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित करना, जनता के विभिन्न हितों का ध्यान रखना और सरकार एवं प्रजा के मध्य सद्भाव उत्पन्न करना था। यह संस्था 1869 ई. के मध्य तक समाप्त हो गई।
पूना सार्वजनिक सभा
बम्बई प्रेसीडेन्सी के राजनीतिक संगठनों में पूना सार्वजनिक सभा सबसे महत्त्वूपर्ण थी। इस संस्था की स्थापना गणेश वासुदेव जोशी ने 2 अप्रैल 1870 को की। वे कई वर्षों तक संस्था के सचिव रहे। 1871 ई. में इस संस्था को महादेव गोविन्द रानाडे का सहयोग भी मिल गया। जोशी और रानाडे ने मिलकर पूना सार्वजनिक सभा को पश्चिम भारत का प्रगतिशील एवं प्रमुख संगठन बना दिया। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य सरकार और जनता के बीच मध्यस्थता करना, जनता को सरकार के वास्तविक उद्देेश्यों की जानकारी देना और उसे अपने अधिकार प्राप्त करने का मार्ग सुझाना था। प्रारम्भिक दो वर्षों में संस्था ने स्थानीय प्रश्नों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया। साथ ही टैक्स वृद्धि, यूरोपीय और भारतीय सिपाहियों के बीच संघर्ष, भारतीय राजाओं और उनकी प्रजा के बीच सम्बन्ध तथा भारतीय राजाओं और ब्रिटिश सरकार के बीच सम्बन्ध आदि प्रश्नों को भी उठाया। इस संस्था का एक काम विधान परिषदों में हुई बहसों तथा सरकारी विधेयकों का देशी भाषाओं में प्रकाशन करना भी था।
पूना सार्वजनकि सभा ने हर सम्भव प्रश्न पर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिये पत्र लिखे। उसने दक्षिण में स्वदेशी आन्दोलन चलाने में भी पहल की। 1872 ई. और 1876 ई. के अकाल के समय उसने बड़ी लगन से अकाल पीड़ितों की सहायता की। उसने किसानों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिये एक उपसमिति बनाई और अपने कार्यकर्ताओं को विभिन्न गाँवों में भेजकर उनसे रिपोर्टें तैयार करवाईं। इन रिपोर्टों को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया गया। 1874 ई. में पूना सार्वजनिक सभा ने बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिये धन एकत्रित किया। उसके इन कार्यों की न केवल प्रजा ने अपितु सरकार ने भी प्रशंसा की। 1876 ई. में संस्था ने लगभग 22 हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षरों से युक्त एक आवेदन-पत्र ब्रिटिश संसद को भेजकर मांग की कि ब्रिटिश संसद में भारत के 16 प्रतिनिधि लिये जायें। सभा का तर्क था कि भारतीयों का प्रतिनिधित्व नहीं होने से ब्रिटिश संसद भारत की समस्याओं पर समुचित ध्यान नहीं दे पाती है।
जुलाई 1876 में सभा ने अपना त्रैमासिक पत्र निकाला जिसमें देश की विभिन्न समस्याओं पर लेख होते थे। रानाडे के लेख अत्यंत तर्क-संगत होते थे। पूना सार्वजनिक सभा ने स्वयं को दक्षिण भारत की जनता का प्रतिनिधि होने का दावा किया। 1876 ई. में सभा ने स्थान-स्थान पर न्याय सभाएँ स्थापित कीं और लोगों से अपील की कि वे अपने विवाद और झगड़े सरकारी अदालतों में ले जाने की बजाय इन न्याय सभाओं मे लायें। इससे ब्रिटिश सरकार सार्वजनिक सभा को सन्देह से देखने लगी। 1876 ई. में गायकवाड़ मुकदमे के सम्बन्ध में सभा ने आन्दोलन चलाया। इससे सरकार का सन्देह और बढ़ गया। अब सरकार ने सभा के कार्यों की जाँच करवाई परन्तु सरकार को सभा के सरकार-द्रोही कार्यों का कोई प्रमाण नहीं मिला। यद्यपि कुछ अधिकारियों ने अपनी गुप्त रिपोर्टों में सभा को राजद्रोही संघ बताया था।
सरकार इस तथ्य से परिचित थी कि जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे पूना सार्वजनिक सभा के मस्तिष्क थे, इसलिये बम्बई सरकार ने रानाडे को पूना से नासिक भेज दिया। 1878 ई. में महाराष्ट्र में वासुदेव बलवन्त फड़के के विद्रोह के समय सरकार को सभा की गतिविधियों पर पुनः सन्देह हुआ। उसे आंशका थी कि सभा और रानाडे इस विद्रोह को समर्थन दे रहे थे। अतः सरकार ने रानाडे को नासिक से धूलिया स्थानान्तरित कर दिया। 1880 में ई. में सरकार ने रानाडे को जज नहीं बनने दिया, यद्यपि वे इस पद के लिये समस्त प्रकार की योग्यताएँ रखते थे।
रानी विक्टोरिया द्वारा कैसरे हिन्द की उपाधि धारण किये जाने पर पूना सार्वजनिक सभा ने मई 1876 को अभिनन्दन-पत्र भेजने का निर्णय किया। इस अभिनन्दन-पत्र में ब्रिटिश शासन की प्रशंसा की गई थी और सरकारी उत्पीड़न तथा अत्याचार की बातों का उल्लेख नहीं किया। अभिनन्दन पत्र में विधान सभा या इसी तरह की किसी संस्था की माँग भी की गई थी। चूंकि पूना सार्वजनिक सभा नवोदित मध्यमवर्ग, जमींदारों और व्यापारियों के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करती थी। यही कारण है कि वह महाराष्ट्र के किसानों में प्रवेश नहीं पा सकी। हालांकि वह कभी-कभी उनसे सम्बन्धित प्रश्नों को भी उठाती थी। पूना सार्वजनिक सभा में ब्राह्मणों और बनियों की प्रधानता बनी रही। पूना सार्वजनिक सभा ने विभिन्न प्रदेशों के एसोसिएशनों के साथ सम्पर्क बनाये रखा और वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, आबकारी शुल्क, सैनिक व्यय, इंग्लैण्ड और भारत के बीच व्यापारिक सम्बन्ध, आर्म्स एक्ट, भारतीय संसद का निर्माण आदि प्रश्नों पर विचार-विमर्श जारी रखा। यह सभा निर्भय होकर काम करती रही और सारे देश का प्रतिनिधि संगठन बनने का प्रयास भी करती रही।
1873 ई. में ज्योति बा फूले ने सत्य शोधक समाज की स्थापना की। यह हिन्दू समाज के अन्दर सुधारवादी आन्दोलन था, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देता था और जात-पाँत के स्थान पर मनुष्य मात्र की समानता पर जोर देता था। महात्मा फूले ने शूद्रों और अति-शूद्रों को सार्वजनिक सभा से अलग रखने का सफल प्रयास किया।