मद्रास प्रेसीडेंसी में राजनीतिक संस्थाओं का उदय
मद्रास नेटिव एसोसिएशन
26 फरवरी 1852 को मद्रास के व्यापारियों ने कलकत्ता की ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन की एक शाखा मद्रास में स्थापित की। 13 जुलाई 1852 को इसने अपना नाम बदलकर मद्रास नेटिव एसोसिएशन रख लिया। इस संस्था ने भी चार्टर के सम्बन्ध में एक स्मृति पत्र ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जिसमें वही माँगें उठाई गईं जो ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन ने उठाई थीं। संगठन के स्मृति-पत्र में मालगुजारी वसूली में सरकारी अधिकारियों पर उत्पीड़न और शोषण का आरोप लगाया गया। इस पर सरकार ने उत्पीड़न की जाँच के लिये टार्चर कमीशन (यंत्रणा आयोग) नियुक्त किया। एसोसिएशन ने अपने आरोप को सही सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया। इस कारण स्थानीय अधिकारी उससे नाराज हो गये। इस कारण एसोसिएशन के बहुत से समर्थक डर कर एसोसिएशन से अलग हो गये। सरकार को प्रसन्न करने के लिये इस संस्था ने 1857 के विप्लव की निन्दा की किंतु अँग्रेजों पर इस प्रशंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 1862 ई. तक एसोसिएशन काफी कमजोर पड़ गया और 1868 ई. में भंग हो गया। 1872 ई. में संस्था को फिर से जीवित करने का प्रयास किया गया परन्तु सफलता नहीं मिली।
मद्रास महाजन सभा
1880 ई. के बाद मद्रास प्रेसीडेन्सी में चिंगिलपुट काण्ड के कारण राजनीतिक हलचल तेज हो गई। इस काण्ड में अनेक काश्तकारों की जमीन-जायदाद कुर्क कर ली गई थीं और सलेम दंगा मुकदमे में सलेम के अगस्त 1882 के हिन्दू-मुस्लिम दंगों के अनेक निर्दोष लोगों को सजा दी गई थी। इन दोनों घटनाओं के परिणामस्वरूप मद्रास प्रेसीडेन्सी में कर्मठ कार्यकर्ताओें का एक दल तैयार हो गया जिनमें जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, पी. रंगैया नायडू, आर. बालाजी राव, सी. विजयराघवाचारी, पी. आनन्द चार्लू और रामस्वामी मुदालियर जैसे प्रभावशाली व्यक्ति सम्मिलित थे। इनमें से कुछ सदस्य मद्रास नेटिव एसोसिएशन से भी जुड़े हुए थे परन्तु उन्हें एसोसिएशन की सरकार परस्ती पसन्द नहीं थी। 1882 ई. के अन्त में एक घटना ने नवोदित युवा वर्ग को पुराने नेताओं से टकराव की स्थिति में ला खड़ा किया। पुराना नेतृत्व गवर्नर की कौंसिल के अवकाश प्राप्त सदस्य डी. एफ. कारमाइकेल को सत्कार के साथ विदाई देना चाहता था किंतु नया नेतृत्व इसका विरोधी था। नये नेतृत्व ने 16 मई 1884 को मद्रास महाजनसभा की स्थापना की। पी. रंगैया नायडू को इसका अध्यक्ष और बी. राघवाचारी तथा आनन्द चार्लू को सचिव चुना गया। सभा के उद्घाटन समारोह में नायडू ने घोषित किया कि सभा की सदस्यता केवल गैर-सरकारी लोगों को दी जायेगी ताकि वे निडर होकर जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व कर सकें। यह बात भी स्पष्ट कर दी गई कि सभा का मुख्य उद्देश्य जनता के हितों को आगे बढ़ाना होगा।
मद्रास महाजन सभा ने आरम्भ से ही शानदार प्रगति की। इसका कारण मद्रास नेटिव एसोसिएशन के बहुत से नेताओं का महाजन सभा में सम्मिलित हो जाना था। दूसरा कारण छोटे-छोटे संगठनों को अपने साथ सम्बद्ध करना था। परिणाम स्वरूप महाजन सभा, मद्रास प्रेसीडेन्सी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्था बन गई। लॉर्ड रिपन की विदाई के उपलक्ष्य में महाजन सभा ने स्थान-स्थान पर सभाएँ आयोजित करवा कर अभिनन्दन-पत्र पारित कराये। मद्रास महाजन सभा ने बम्बई के नेताओं के साथ निरन्तर सम्पर्क रखा। 29 दिसम्बर 1884 को मद्रास महाजन सभा ने मद्रास प्रेसीडेन्सी के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 70 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में विधान परिषद् के सुधार, कार्य पालिका से न्यायपालिका के पृथक्कीरण, भारत सरकार के ढाँचे में परिवर्तन, खेतीहर वर्गों की स्थिति आदि विषयों पर विचार किया गया। बम्बई के नेताओं की भाँति महाजन सभा के नेता भी चाहते थे कि साल में एक बार देश के प्रतिनिधियों का सम्मेलन हो परन्तु अपनी सीमित क्षमता के कारण महाजन सभा स्वयं यह दायित्व उठाने में असमर्थ थी।
इण्डियन नेशनल कान्फ्रेंस
बंगाल, बम्बई और मद्रास, इन तीनों प्रेसीडेन्सियों के नेताओं की इच्छा थी कि देश में एक केन्द्रीय राजनीतिक संगठन बने। 1870 ई. के बाद राजनीतिक चेतना में वृद्धि के साथ-साथ यह इच्छा भी प्रबल होती चली गई। बंगाली नेता अपने इण्डियन एसोसिएशन को अखिल भारतीय आन्दोलन का केन्द्र बनाना चाहते थे। उन्होंने इसके लिये भरसक प्रयास भी किया परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली और इण्डियन एसोसिएशन बंगाल तक ही सीमित रह गया। इसी प्रकार पूना सार्वजनिक सभा महाराष्ट्र तक और मद्रास महाजन सभा मद्रास तक सीमित रही।
1880 ई. के पूर्व, कर-विरोधी आन्दोलन, सिविल सर्विस आन्दोलन, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट विरोधी आन्दोलन, आर्म्स एक्ट विरोधी आन्दोलन भारत के समस्त राजनीतिक संगठनों को एक-दूसरे के निकट लाने में सहायक हुए। 1880 ई. के बाद इल्बर्ट बिल आन्दोलन, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की गिरफ्तारी आदि ने भी इन राजनीतिक संगठनों को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया। इल्बर्ट बिल आन्दोलन ने भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना और एकता बढ़ाई। साथ ही यह भी भान करवाया कि भारतीयों के लिये एक शक्तिशाली अखिल भारतीय संगठन का होना आवश्यक है। इल्बर्ट बिल आन्दोलन के दौरान ही सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को कलकत्ता हाईकोर्ट के एक बदनाम जज के विरुद्ध एक लेख लिखने के आरोप में 5 मई 1883 को दो महीने की कैद की सजा सुनाई गई। इस निर्णय से समूचे देश में आन्दोलन भड़क उठा। कई स्थानों पर आन्दोलन ने हिंसक रूप भी ले लिया। इस आन्दोलन में हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, जैन आदि विभिन्न धर्मों के लोग सम्मिलित हुए। स्पष्ट है कि सुरेन्द्रनाथ की कैद ने भारतीय एकता को बढ़ाने में बहुत सहायता की।
इण्डियन एसोसिएशन ने मई 1882 ई. में आगामी किसी समय एक राष्ट्रीय कांग्रेस बुलाने का निर्णय लिया। 4 दिसम्बर 1883 को कलकत्ता में बहुत बड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी आरम्भ होने वाली थी। कई समाचार पत्रों ने इस अवसर पर राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की आवश्यकता पर जोर दिया। फलस्वरूप 15 दिसम्बर 1883 को इण्डियन एसोसिएशन के सचिव आनन्द मोहन बसु की तरफ से देश की विभिन्न एसोसिएशनों और प्रमुख व्यक्तियों को राष्ट्रीय सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिये निमंत्रण भेजे गये। सम्मेलन की तिथि 29 और 30 दिसम्बर 1883 निश्चित की गई।
निश्चित तिथि पर रामतनु लाहिड़ी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सम्मेलन आरम्भ हुआ। इसमें भारत के विभिन्न भागों से आये लगभग 100 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये-
(1.) सिविल सर्विस परीक्षा का आयोजन इंग्लैण्ड और भारत में एक साथ किया जाये और इसमें बैठने की उम्र पहले की भांति 22 साल की जाये।
(2.) एक राष्ट्रीय कोष की स्थापना की जाये।
(3.) भारत में प्रतिनिधि विधान सभाओं की स्थापना की जाये।
(4.) इल्बर्ट बिल पर हुए समझौते पर खेद प्रकट किया गया।
इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि सब राष्ट्रीय नेताओं को एक मंच पर लाना था। इसके साथ ही एक संयुक्त अखिल भारतीय संगठन (इण्डियन नेशनल कान्फ्रेंस) की स्थापना में सार्थक कदम था।
1884 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने सारे भारत का दौरा किया और नवम्बर 1885 में उन्होंने इण्डियन एसोसिएशनों के सचिव की हैसियत से दूसरी नेशनल कान्फ्रेंस का निमन्त्रण-पत्र देश की विभिन्न एसोसिएशनों और प्रमुख व्यक्तियों के पास भेजा। सम्मेलन की तारीख 25-27 दिसम्बर तय की गई। इसी समय ह्यूम और उनके मित्रों ने इण्डियन नेशनल यूनियन की तरफ से बम्बई में इण्डियन नेशनल कांफ्रेन्स बुला रखी थी परन्तु उन्होंने इस बात की चर्चा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी से नहीं की। जब कलकत्ता की नेशनल कान्फ्रेंस की तैयारियाँ लगभग पूरी हो गईं तब उन्हें अपनी कान्फ्रेंस को स्थगित कर बम्बई में होने वाली कान्फ्रेंस में सम्मिलित होने को कहा गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को उस समय उनका प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था। अतः निश्चित समय पर कलकत्ता की नेशनल कान्फ्रेस का दूसरा अधिवेशन आरम्भ हुआ। इस बार सम्मेलन में सम्मिलित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या कम रही। सम्मेलन में स्पष्ट किया गया कि इसका उद्देश्य राष्ट्रीय शक्तियों को एक केन्द्र बिन्दु पर लाना और उनके सार्वजनिक हित को बढ़ाने वाले किसी सर्वमान्य उद्देश्य पर केन्द्रित करना है।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि 1828 ई. में स्थापित अकादमिक एसोसिएशन, 1830 ई. में स्थापित कलकत्ता ट्रेड ऐसोसिएशन, 1834 ई. में स्थापित बंगाल चेम्बर ऑफ कॉमर्स आदि अराजनीतिक संस्थाओं का यद्यपि राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। फिर भी इन संगठनों ने शिक्षाविदों तथा व्यापारियों आदि प्रमुख सामाजिक वर्गों को संगठित होने का रास्ता दिखाया। 1836 ई. में स्थापित बंगभाषा प्रकाशक सभा को भारत की पहली राजनीतिक संस्था कहा जा सकता है।
इसके बाद कलकत्ता प्रेसीडेंसी में 1838 ई. में लैंड होल्डर्स सोसायटी, 1839 ई. में पेट्रियाटिक एसोसिएशन, 1841 ई. में देश-हितैषिणी सभा, 1843 ई. में बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी, 1851 ई. में ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन, 1875 ई. में इण्डियन लीग, 1876 ई. में इण्डियन एसोसिएशन आदि राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना हुई। बम्बई प्रेसिडेंसी में 1852 ई. में बॉम्बे एसोसिएशन, 1871 ई. में टाउन एसोसिएशन, 1870 ई. में रेंट पेयर्स एसोसिएशन, 1876 ई. में पूना एसोसिएशन, 1870 ई. में पूना सार्वजनिक सभा की स्थापना हुई।
मद्रास प्रसिडेन्सी में 1852 ई. में मद्रास नेटिव एसोसिएशन, 1884 ई. में मद्रास महाजनसभा की स्थापना हुई। कांग्रेस के उद्भव से पूर्व इन संस्थाओं ने जन साधारण की मांगों को सरकार के समक्ष उठाया तथा कानूनों में संशोधन करवाकर तथा उनमें अपनी मांगों को जुड़वाकर अनेक महत्त्वपूर्ण सफलताएं अर्जित कीं। इन संस्थाओं ने राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त करने के भी प्रयास किये किंतु जन साधारण की भागीदारी नहीं होने से ये संस्थायें कुछ वर्ष तक चलकर समाप्त हो गईं।
दिसम्बर 1883 में इण्डियन नेशनल कान्फ्रेस की स्थापना हुई किंतु ए. ओ. ह्यूम द्वारा अलग पार्टी बनाने का निर्णय कर लेने से इस संस्था के दो राष्ट्रीय सम्मेलन ही हुए किंतु इण्डियन नेशनल कान्फ्रेस, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था।