रजिया सुल्तान का इतिहास उसके पिता इल्तुतमिश से शुरु होता है। इल्तुतमिश मध्य एशिया में रहने वाले तुर्कों के अल्बारी अथवा इल्बरी कबीले के एक प्रमुख एवं प्रभावशाली व्यक्ति आलम खाँ का प्रतिभाशाली तथा रूपवान पुत्र था। इस कारण उसे अपने पिता की विशेष कृपा तथा वात्सल्य प्राप्त था। इससे इल्तुतमिश के भाइयों तथा सम्बन्धियों को इल्तुतमिश से ईर्ष्या हो गई और वे उसे नष्ट करने पर तुल गये। उन दिनों मध्य एशिया में बच्चों को चुराकर उन्हें गुलाम बना लेने का कुत्सित व्यापार जोरों पर था। बच्चों को चुराकर उन्हें तस्करों के हाथों बेच दिया जाता था। ये तस्कर उन बच्चों को गुलाम के रूप में बल्ख, बुखारा, मकरान, गोर, गजनी तथा दिल्ली आदि शहरों में धनी लोगों, अमीरों तथा सुल्तानों के महलों में बेच देते थे।
इल्तुतमिश के रिश्तेदार इल्तुतमिश को घर से बहकाकर ले गये और बुखारा जाने वाले घोड़ों के सौदागर के हाथों बेच दिया। घोड़ों के सौदागर ने उसे बुखारा के मुख्य काजी के एक सम्बन्धी को बेच दिया। इसके बाद इल्तुतमिश दो बार और बेचा गया। अन्त में जमालुद्दीन नाम का एक सौदागर इल्तुतमिश को गजनी ले गया। गजनी के सुल्तान मुहम्मद गौरी के एक नौकर की दृष्टि इल्तुतमिश पर पड़ी। उसने सुल्तान से इल्तुतमिश की प्रशंसा की परन्तु मूल्य का निर्णय न होने से इल्तुतमिश खरीदा नहीं जा सका। कुछ दिनों के उपरान्त इल्तुमिश को भारत लाया गया जहाँ मुहम्मद गौरी के पूर्व गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने इल्तुतमिश को दिल्ली में खरीद लिया।
मुहम्मद गौरी ने भारत जीत लेने के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का गवर्नर नियुक्त किया। ई.1205 में जब मुहम्मद गौरी ने पंजाब में खोखरों के विरुद्ध अभियान किया तो उसमें इल्तुतमिश ने असाधारण पराक्रम का परिचय दिया। यहाँ से इल्तुतमिश के भाग्य का उदय होना आरम्भ हुआ। उसकी वीरता से प्रसन्न होकर मुहम्मद गौरी ने कुतुबुद्दीन को आदेश दिया कि वह इल्तुतमिश को गुलामी से मुक्त कर दे तथा उसके साथ अच्छा व्यवहार करे। ऐबक ने ऐसा ही किया तथा इल्तुतमिश को गुलामी से मुक्त करके उसे अपनी नौकरी में रख लिया और उसके साथ सौम्य व्यवहार करने लगा।
इल्तुतिमश के गुणों से प्रभावित होकर ऐबक ने उसे ‘सर जानदार’ के पद पर नियुक्त किया तथा बाद में ‘अमीरे शिकार’ बना दिया। वह इल्तुतमिश को सदैव अपने साथ रखने लगा। जब ग्वालियर पर कुतुबुद्दीन का अधिकार स्थापित हो गया तब इल्तुतमिश वहाँ का अमीर नियुक्त किया गया। इल्तुतमिश ने पूरी निष्ठा के साथ अपने मालिक कुतुबुद्दीन ऐबक की सेवा की जिसके कारण ऐबक उससे पूरी तरह से प्रसन्न हो गया और उसने अपनी पुत्री कुतुब बेगम का विवाह इल्तुतमिश के साथ कर दिया। इस दाम्पत्य से इल्तुतमिश को एक पुत्री प्राप्त हुई जिसका नाम रजिया रखा गया। कुछ दिन बाद इल्तुतमिश को बदायूँ का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया।
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के समय इल्तुतमिश बदायूं का गवर्नर था। जिस समय लाहौर के अमीरों ने आरामशाह को ऐबक का उत्तराधिकारी घोषित किया, उस समय दिल्ली का सेनापति अली इस्माइल, दिल्ली के मुख्य काजी के पद पर भी कार्य कर रहा था। उसे लाहौर के अमीरों का यह काम पसंद नहीं आया। इसलिये उसने कुछ अमीरों को अपने साथ मिलाकर, आरामशाह के विरुद्ध षड़यंत्र किया तथा इल्तुतमिश को सुल्तान बनने के लिये आमंत्रित किया। इससे इल्तुतमिश को दिल्ली की सेना एवं अमीरों का विश्वास प्राप्त हो गया। इल्तुतमिश ने पहले भी कई अवसरों पर अपने रण-कौशल का परिचय दिया था इसलिये सेना तथा अमीर उसकी नेतृत्व प्रतिभा से परिचित थे। सेना का प्रिय तथा विश्वासपात्र बन जाने से इल्तुतमिश की स्थिति सुदृढ़़ हो गई। जब आरामशाह को ज्ञात हुआ कि इल्तुतमिश, सल्तनत पर अधिकार करने के इरादे से दिल्ली आ रहा है तो वह सेना लेकर दिल्ली से बाहर आ गया तथा इल्तुतमिश का रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। इल्तुतमिश ने दिल्ली के बाहर ही आरामशाह से मुकाबला किया तथा उसे परास्त करके दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। इस प्रकार अपनी योग्यता एवं भाग्य के बल पर इल्तुतमिश गुलाम से सुल्तान बन गया।
ई.1211 में जिस समय इल्तुतमिश दिल्ली के तख्त पर बैठा, दिल्ली सल्तनत अपने शैशवकाल में थी तथा दिल्ली सल्तनत की नींव पड़े हुए केवल 5 साल का समय ही हुआ था। इसलिये केन्द्रीय सत्ता, अपने अमीरों और सूबेदारों पर अपना नियंत्रण पूरी तरह से नहीं जमा पाई थी। जब इल्तुतमिश दिल्ली के तख्त पर बैठ गया तो पीछे से उसके ही एक अमीर ने बदायूँ पर कब्जा कर लिया। कन्नौज तथा बहराइच के अमीर भी विद्रोह पर उतर आये। इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत का नये सिरे से निर्माण करने का निर्णय किया। उसने बदायूँ, कन्नौज तथा बहराइच पर आक्रमण करके वहाँ के अक्तादारों (सूबेदारों) का दमन किया। उसने कछार, अवध, तिरहुत, बनारस तथा तराई क्षेत्र के तुर्क-सरदारों एवं हिन्दू-राजाओं को परास्त करके अपने अधीन किया। उसने राजपूत राजाओं का नये सिरे से दमन किया तथा सिंधु नदी के उस पार से लेकर बंगाल की खाड़ी तक अपना राज्य स्थपित कर लिया। उसने पूरे 25 साल तक उत्तर भारत पर शासन किया।
इल्तुतमिश ने जिस दिल्ली सल्तनत का निर्माण किया, वह दीर्घ काल तक बनी रहने वाली सिद्ध हुई। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद इस सल्तनत पर लगभग 300 वर्षों तक तुर्कों के विभिन्न वंशों द्वारा शासन किया गया।
इल्तुतमिश का हरम
उन दिनों सुल्तान के दरबार में तुर्की अमीरों में परस्पर ईर्ष्या, षड़यन्त्र, दगा, फरेब तथा हत्याओं का बोलबाला था। प्रत्येक अमीर चाहता था कि वह अधिक से अधिक सत्ता हासिल करके सुल्तान का खास आदमी बना रहे और अपना घर सोने-चांदी के सिक्कों से भरता रहे। कई बार स्वयं सुल्तान भी कुछ अमीरों के साथ मिलकर दूसरे अमीरों के विरुद्ध षड़यंत्र रचता था और उनकी हत्याएं करवाकर उनका समस्त धन, सम्पत्ति तथा जागीर हड़प लेता था।
सुल्तान के दरबार जैसा दूषित वातावरण लगभग पूरी सल्तनत में बना रहता था और ऐसा ही दुराभिसंधियों से भरा हुआ वातावरण स्वयं सुल्तान के हरम में भी मौजूद रहता था। हरम की स्थिति तो और ज्यादा खराब थी। एक-एक सुल्तान की कई-कई बेगमें होती थीं जो दुनिया के विभिन्न देशों की अमीरजादियां, शहजादियां और रूपवती लौण्डियाएं हुआ करती थीं। वे सुल्तान की निगाह में स्वयं को सुल्तान की वफादार सिद्ध करने के लिये दूसरी बेगमों के विरुद्ध खूनी षड़यंत्र रचा करती थीं। हालांकि हरम में गैर पुरुषों के आने पर पाबंदी हुआ करती थी तथा हरम में गूंगे, बहरे, कुबड़े तथा हिंजड़े नौकर रखे जाते थे तथापि हरम की बहुत सी औरतों में चरित्र का अभाव रहता था और वे किसी अन्य पुरुष से भी सम्बन्ध बना लेती थीं। जब इस बात का पता हरम की दूसरी औरतों को लग जाता था तो वे उस सम्बन्ध को बढ़ा-चढ़ाकर उसका भाण्डा फोड़ करने में लग जाती थीं।
जब तक इल्तुतमिश एक गुलाम की हैसियत से जीवन यापन करता रहा, उसका कोई हरम नहीं था। जब वह गुलामी से मुक्ति पाकर गवर्नर बन गया, तब उसका हरम बनना आरम्भ हुआ किंतु उसके हरम में साधारण समझी जाने वाली गुलाम लड़कियां ही अधिक थीं। बात में जब वह स्वयं सुल्तान बन गया तो उसका भी एक बहुत बड़ा हरम तैयार हो गया जिसमें ईरान, तूरान, मकरान, बल्ख तथा बुखारा आदि देशों से लाई गई अभिजात्य वर्गीय सुंदर तुर्क और तातार अमीरजादियां भरी हुई थीं। वे आपस में एक दूसरे को ईर्ष्या की निगाह से देखती थीं और एक दूसरे के खून की प्यासी थीं। उन में से हर कोई चाहती थी कि सुल्तान केवल उसका होकर रहे। इसलिये इल्तुतमिश का हरम हर समय षड़यंत्रों से भरा रहता था। एक बार इल्तुमिश की निगाह तुर्कान नामक एक खूबसूरत लौण्डी पर पड़ी। वह बला की खूबसूरत थी किंतु स्वभाव की बड़ी क्रूर थी। कहा जा सकता है कि वह खूबसूरत बला थी। इल्तुतमिश ने तुर्कान को भी अपने हरम में डाल लिया।
तुर्कान के आते ही हरम में नये सिरे से तूफान मच गया। ईरान, तूरान, मकरान, बल्ख तथा बुखारा की परीजात अमीरजादियों के बीच एक अदनी सी लौण्डी रूप के बल पर सुल्तान की चहेती बनकर सुल्तान के हरम में आ बैठी थी। परीजात अमीरजादियों को हल्के खानदान की लौण्डी अपने बीच किसी भी कीमत पर नहीं सुहाती थी किंतु कोई भी बेगम न तो खुलकर, न दबी जबान से सुल्तान के इस निर्णय का विरोध कर सकती थी। इसलिये तुर्कान, सुल्तान के महल में जम गई। परीजात अमीरजादियां बात-बात पर तुर्कान से बेअदबी करतीं तथा उसके नीचे खानदान को लेकर फिकरे कसतीं। तुर्कान भी दिल की कोई अच्छी औरत नहीं थी किंतु सुल्तान के महल में बने रहने के लिये यह आवश्यक था कि वह हरम की तमाम परीजात अमीरजादियों को एक साथ अपनी दुश्मन न बनाये। इसलिये मन मार कर रह जाती।
शहजादी रजिया का जन्म
रजिया का जन्म सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की शहजादी कुतुब बेगम के गर्भ से हुआ था। चूंकि रजिया का जन्म एक शहजादी के पेट से हुआ था, इसलिये न केवल इल्तुतमिश के हरम में अपितु कुतुबुद्दीन के हरम में भी शहजादी रजिया की विशेष स्थिति थी। उसे न केवल हरम में बहुत लाड़-प्यार, नजाकत और शाही सम्मान से पाला गया अपितु सुल्तान के दरबार में भी निर्भय होकर जाने का अधिकार मिला। रजिया की इस गरिमामय स्थिति के विपरीत, रजिया के सभी भाइयों का जन्म साधारण समझी जाने वाली गुलाम औरतों के पेट से हुआ था। वे सुल्तान कुतुबुद्दीन के हरम अथवा दरबार में नहीं जा सकते थे। इस कारण उनका लालन-पालन राजकीय परम्पराओं और शानो-शौकत से बहुत दूर साधारण लड़कों की तरह हुआ। जब रजिया पांच साल की हुई तब उसके नाना अर्थात् सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गई तथा रजिया के पिता इल्तुतमिश को दिल्ली के तख्त पर बैठने का अवसर मिला।