हिन्दू धर्म की कथाओं के अद्भुत संसार में एक बार पुनः आपका स्वागत है। यदि आपने इस चैनल को अब तक सब्सक्राइब नहीं किया है तो कृपया अब कर लें। धन्यवाद।
यह कथा चंद्रवंशी राजा पाण्डु पर केन्द्रित है। एक बार हस्तिनापुर के राजा पाण्डु अपनी दोनों रानियों कुन्ती तथा माद्री के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्होंने एक यूथपति मृग को एक मृगी के साथ संसर्ग करते हुए देखा। महाराज पाण्डु ने उसी समय लक्ष्य साधकर पांच बाण चलाए जिससे वे दोनों मृग घायल होकर धरती पर गिर गए।
एक धर्मशील राजा द्वारा किए गए इस अधर्मपूर्ण आचरण को देखकर नर-मृग ने कहा- ‘राजन्! अत्यंत कामी, क्रोधी और बुद्धिहीन मनुष्य भी ऐसा क्रूर कर्म नहीं करते! राजन् आपके लिए तो उचित यही है कि आप पापी और क्रूरकर्मा मनुष्यों को दण्ड दें। मुझ निरपराध को मारकर आपने क्या लाभ उठाया? मैं किन्दम नामक तापस हूँ तथा यह मेरी पत्नी है। मनुष्य रूप में रहकर स्त्री-संसर्ग करते हुए मुझे लज्जा आती है, इसलिए मैं मृग बनकर अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहा था। मुझे मारने से आपको ब्रह्महत्या तो नहीं लगेगी क्योंकि आप यह बात जानते नहीं थे कि मैं ब्राह्मण हूँ किंतु आपने मुझे जिस अवस्था में मारा है, वह सर्वथा अनुपयुक्त है। इसलिए जब कभी भी आप स्त्री-संसर्ग की स्थिति में होंगे, उसी अवस्था में आपकी मृत्यु हो जाएगी और वह स्त्री भी आपके साथ सती होकर मृत्यु को प्राप्त होगी।’ इतना कहकर उस मृग ने प्राण त्याग दिए।
जब महाराज पाण्डु को ज्ञात हुआ कि उनके हाथों से घनघोर अपराध हो गया है तो उन्हें तथा उनकी रानियों को बहुत पश्चाताप हुआ। महाराज पाण्डु ने अपनी रानियों से कहा- ‘मुझे ज्ञात है कि मनुष्य कितना भी कुलीन हो तथा उसका अंतःकरण कितना भी निर्मल हो, वह काम के फंदे में फंस ही जाता है। मेरे पिता विचित्रवीर्य भी काम-वासना के फंदे में फंसकर असमय मृत्यु को प्राप्त हुए थे। अतः अवश्य ही एक न एक दिन मैं भी काम-वासना के फंदे में फंस जाउंगा और असमय मृत्यु को प्राप्त होउंगा।’
पूरे आलेख के लिए देखें, यह वी-ब्लाॅग-
महाराज पाण्डु ने अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिए तथा भगवान श्री हरि विष्णु की तपस्या करने का निश्चय करके एक पेड़ के नीचे बैठ गए तथा अपना संकल्प व्यक्त करते हुए बोले- ‘मैं इसी समय से मौनी संन्यासी होकर जंगलों में स्थित आश्रमों में भिक्षा मांगकर अपना उदर भरूंगा और कभी भी अपनी राजधानी हस्तिनापुर नहीं लौटूंगा।’
महाराज पाण्डु ने अपनी रानियों से कहा- ‘अब तुम दोनों राजधानी हस्तिनापुर लौट जाओ। वहाँ मेरी माता अम्बालिका, दादी सत्यवती, मेरे कुल एवं परिवार के समस्त वरिष्ठ जन एवं पुर-वासियों से कहना कि पाण्डु ने संन्यास ले लिया।’
महारानी कुंती एवं माद्री को महाराज पाण्डु का निश्चय जानकर बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने महाराज पाण्डु से कहा- ‘संन्यास आश्रम में प्रवेश करने से अच्छा है कि आप समस्त वासनाओं का त्याग करके हमारे साथ ही वन में रहकर तपस्या करें। हम दोनों भी अपनी इंद्रियों को वश में करके आपके साथ महान् तपस्या करेंगी। हम लोग साथ-साथ ही स्वर्ग में चलेंगे और वहाँ भी पति-पत्नी के रूप में साथ-साथ रहेंगे। महाराज यदि आप हमें त्याग देंगे तो हम अवश्य ही अपने प्राण त्याग देंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। हम इस स्थिति में आपको छोड़कर हस्तिनापुर नहीं जाएंगी।’
महाराज पाण्डु ने कहा- ‘यदि तुम दोनों ने धर्म के अनुसार ऐसा ही करने का निश्चय किया है तो अच्छी बात है, मैं संन्यास आश्रम में नहीं रहकर वानप्रस्थ आश्रम में रहूँगा और घनघोर तपस्या करते हुए वन में विचरण करूंगा।’
इसके बाद महाराज पाण्डु तथा दोनों रानियों ने अपने राजसी वस्त्र-आभूषण त्याग दिए तथा वल्कल धारण कर लिए। महाराज पाण्डु ने अपने साथ आए हुए सेवकों से कहा- ‘आप ये वस्त्र-आभूषण हस्तिनापुर जाकर भ्राता धृतराष्ट्र को सौंप दें तथा हस्तिनापुरवासियों से कहें कि पाण्डु अपनी रानियों सहित वानप्रस्थी हो गया है।’ राजा के वचन सुनकर उनके साथ आए सेवक अश्रु बहाने लगे।
जब सेवक राजा पाण्डु के कपड़े और आभूषण लेकर हस्तिनापुर पहुंचे तो राजा के बड़े भाई धृतराष्ट्र को सेवकों की बात सुनकर बड़ा दुःख हुआ। धृतराष्ट्र भी भोजन आदि भूलकर अपने भाई की चिंता में डूब गए किंतु देवव्रत भीष्म ने माता सत्यवती से सलाह करके धृतराष्ट्र को महाराज पाण्डु के प्रतिनिधि के रूप में हस्तिनापुर का राजा बना दिया।
उधर महाराज पाण्डु अपनी रानियों के साथ एक पर्वत से दूसरे से पर्वत पर होते हुए गंधमादन पर्वत पर जा पहुंचे। वे केवल कन्द-मूल-फल खाकर रहते तथा संयम का पालन करते हुए ऊंची-नीची धरती पर सोते। उनकी तप-निष्ठा को देखकर वनों में रहने वाले तापस एवं सिद्ध उन तीनों का ध्यान रखते तथा उनके साथ प्रेम-पूर्ण व्यवहार करते।
कई दिनों तक गंधमादन पर्वत पर तपस्या करने के बाद महाराज पाण्डु अपनी पत्नियों को लेकर इन्द्रद्युम्न सरोवर को पार करके हंसकूट शिखर पर पहुंचे तथा उसे भी लांघकर शतशृंग नामक पर्वत पर पहुंचे। वहाँ बहुत से तापस, सिद्ध एवं चारण रहते थे। महात्मा पाण्डु उन सबकी सेवा करने लगे तथा अपनी इन्द्रियों को वश में करके ईश्वर का ध्यान करने लगे। वन में निवास करने वाले स्त्री-पुरुष राजा एवं उनकी रानियों को स्वजन मानकर उनसे स्नेह-व्यवहार करते थे जिसके कारण राजा एवं रानियों की तपस्या निर्विघ्न चलने लगी।
एक बार अमावस्या का दिन था। राजा पाण्डु पर्वत के शिखर पर बैठे हुए तपस्या कर रहे थे। उन्होंने बहुत से ऋषियों को ब्रह्मलोक जाते हुए देखा। पाण्डु ने उनसे पूछा- ‘आप कहाँ जा रहे हैं!’
ऋषियों ने उत्तर दिया- ‘हम लोग ब्रह्माजी के दर्शनों के लिए ब्रह्मलोक जा रहे हैं।’
इस पर महाराज पाण्डु भी अपनी पत्नियों के साथ ऋषियों के पीछे चल पड़े। ऋषियों ने राजा से कहा- ‘महाराज! ब्रह्मलोक जाने का मार्ग बड़ा दुर्गम है। उस मार्ग के कष्टों को हमारे जैसे ऋषि-मुनि एवं तापस ही सहन कर सकते हैं। मार्ग में अप्सराओं के विमानों की भीड़ से ठसाठस भरी हुई भूमि है। ऊंचे-नीचे उद्यान हैं। नदियों के कगार हैं, भयंकर पर्वत एवं गुफाएं हैं। वहाँ बर्फ ही बर्फ है, वृक्ष नहीं हैं। हरिण और पक्षी दिखाई नहीं देते। कुछ स्थानों पर तो केवल वायु ही उड़ सकता है। ऐसे मार्ग से केवल सिद्ध ऋषि ही निकल सकते हैं। ऐसे मार्ग से महारानी कुंती एवं माद्री कैसे निकल सकेंगी! अतः आप हमारे पीछे मत आइए।’
महाराज पाण्डु समझ गए कि सिद्ध-जन मुझे अपने साथ ब्रह्मलोक नहीं ले जाना चाहते! महाराज पाण्डु उसका कारण भी जान गए।
राजा ने कहा- ‘हे महात्मन्! मैं जानता हूँ कि मैंने अभी तक धरती पर चार ऋणों में से केवल तीन ऋण अर्थात् देव-ऋण, ऋषि-ऋण और मनुष्य ऋण ही चुकाए हैं, पितृ-ऋण का भार अब भी मुझ पर शेष है। उसे चुकाए बिना मैं ब्रह्मलोक में प्रवेश नहीं कर सकता। यज्ञ से देव-ऋण, स्वाध्याय और तपस्या से ऋषि-ऋण और दान एवं परोपकार से मनुष्य ऋण उतरता है किंतु पितृ-ऋण से उऋण होने के लिए पुत्र का होना आवश्यक है। मैं चाहता हूँ कि मेरी पत्नियों के पेट से पुत्रों का जन्म हो ताकि मैं पितृ-ऋण से मुक्त हो सकूँ।’
इस पर ऋषियों ने कहा- ‘हम देख रहे हैं कि आपकी रानियों के पेट से देवताओं के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होंगे। इसलिए आप बिल्कुल भी दुःखी न हों। आप इस देवदत्त अधिकार की प्राप्ति के लिए उद्योग कीजिए, आपका मनोरथ अवश्य ही पूर्ण होगा!’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता