Thursday, November 21, 2024
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8. पुरोडाश

संध्याकाल में परुष्णि के पावन तट पर आर्यों की सभा पुनः जुड़ी। प्रातः अचानक ही गविष्टि आयोजित हो जाने से बहुत से विमर्श अपूर्ण रह गये थे। ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा चाहते थे कि जो ऋचायें अधूरी रह गयी थीं उन्हें पूरा कर लिया जाये तथा आज प्रकट हुई ऋचाओं को भलिभांति समझ लिया जाये किंतु विमर्श के सूत्र पुनः जुड़ ही नहीं सके। गविष्टि में जाने से पीछे रह गये आर्य, विशेषकर आर्य ललनायें और बालक जानना चाहते थे कि गविष्टि में क्या-कुछ हुआ! आर्य वीरों ने गोप सुरथ के नेतृत्व में दुष्ट असुरों का दमन किस प्रकार किया!

ऐसे अवसरों पर आर्य अतिरथ किसी को बोलने का अवसर नहीं देते। शौर्य प्रदर्शन के अवसरों के साथ-साथ शौर्य प्रदर्शन के सविस्तार वर्णन के अवसर भी कोई उनसे छीन नहीं सकता। अतः आर्य अतिरथ ने ही आर्यवीरों के असुरों के दल तक पहुँचने और गोप सुरथ के नेतृत्व में असुरों से गौओं को मुक्त करवाने तक का समस्त विवरण सविस्तार कह सुनाया। आर्य अतिरथ के कहने का ढंग इतना निराला और रुचिकर है कि सदैव गंभीर रहने वाले ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा को भी हँसी आ जाती है।

  – ‘इस प्रकार आर्य वीरों ने असुरों के शृंग तोड़ डाले, कपाल फोड़ डाले और उनकी पूंछें पकड़ कर उन्हें फिर से मकरालय[1] की ओर धकेल दिया।’ आर्य अतिरथ ने गविष्टि का विवरण पूरा किया। आर्य वीरों के पराक्रम का वर्णन करते समय उनकी शिराओं का रक्त पूरी गति से दौड़ने लगता है।

  – ‘अग्नि से उत्पन्न होकर भी वरुण असुर क्यों हो गया ऋषिश्रेष्ठ!’ आर्या पूषा ने प्रश्न किया।

  – ‘असुरों का संग देवों की प्रवृत्ति को भी दूषित कर डालता है और दूषित प्रवृत्ति देवों को भी असुर बना देती है पुत्री। असुरों के संग रहने के कारण देव होने पर भी वरुण में आसुरि प्रवृत्तियों ने जन्म ले लिया। बाद में जब वरुण ने असुरों के प्रभाव से मुक्त होना चाहा तो असुर वृत्र ने वरुण को बंदी बना लिया । इस पर देवताओं ने वरुण को असुरों के प्रभाव से मुक्त करके पुनः देवत्व प्रदान किया और वरुण अपनी आसुरि शक्तियों का उपयोग ऋत संचालन में करने लगे।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने आर्या पूषा की शंका का समाधान किया।

  – ‘त्वष्टा [2] और इन्द्र में क्या विवाद उत्पन्न हो गया था ऋषिवर कि इन्द्र ने उसके दोनों पुत्रों विश्वरूप और वृत्र का वध कर दिया! आर्या सुषोमा ने जिज्ञासा व्यक्त की।

  – ‘देवशिल्पी त्वष्टा  के दोनों पुत्र विश्वरूप और वृत्र असुर हो गये थे। इसी कारण  इन्द्र को उनका वध करना पड़ा।’ ऋषिश्रेष्ठ ने उत्त्तर दिया।

  – ‘मैंने सुना है ऋषिवर कि इन्द्र को विश्वरूप तथा वृत्र से दीर्घ काल तक संघर्ष करना पड़ा।’ आर्या सुषोमा ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की।

आर्या सुषोमा की जिज्ञासा सुनकर ऋषिश्रेष्ठ मुस्कुराकर बोले- ‘मैं जानता हूँ पुत्री कि आर्या पूषा और तुम्हारी रुचि प्राचीन आख्यानों को जानने में अधिक रहती है। इसीसे तुम दोनों बार-बार प्रश्न करती हो। मैं तुम दोनों की इस प्रवृत्ति की प्रशंसा करता हूँ। सद्भाव पूर्वक प्रकट की गयी जिज्ञासा न केवल अपना अपितु अन्य श्रोताओं का भी उपकार करती है।’ इतना कहकर ऋषिश्रेष्ठ ने नेत्र बंद कर लिये। ऐसा लगता था मानो वे किसी गहन चिंतन में डूब गये हों। कुछ क्षण पश्चात् नेत्र खोलकर बोले-

  – ‘यह बहुत प्राचीन आख्यायिका है। [3] जलप्लावन से सहस्रों वर्ष पूर्व। तब तक देव जाति अपने पराक्रम के चरम पर नहीं पहुँची थी। देवों में तब अनेक नयी व्यवस्थायें बन रही थीं। फिर भी प्रकृति की अधिकतर शक्तियाँ इन्द्र के पास ही थीं। इस कारण कई देवता इन्द्र से वैमनस्य मानते थे। उनमें से त्वष्टा भी एक था। उसके पुत्र विश्वरूप के तीन सिर और तीन मुख थे। विश्वरूप एक मुख से सोमपान करता था तो दूसरे मुख से सुरा पीता था। तीसरे मुख से वह अन्न का भक्षण करता था। प्रजापति ने सोम देवों के लिये, सुरा असुरों के लिये तथा अन्न मनुष्यों के लिये बनाया था किंतु तीनों ही पदार्थों का भक्षण करके विश्वरूप असीमित शक्तिशाली और स्वेच्छाचारी हो गया। जिससे प्रजापति की बनाई व्यवस्था नष्ट होने लगी। इसलिये इन्द्र ने उस गर्वित विश्वरूप के तीनों सिर काट डाले।

विश्वरूप का सोमपायी मुख कटते ही कपिंजल [4] बन गया। इसलिये कपिंजल सोम के समान ही भूरा होता है। सुरा पीने वाला मुख कलविंक [5] बन गया। वह मद्यमत्त की ही तरह कहता रहता है-कः इव ? [6] विश्वरूप का तीसरा अन्नभक्षी मुख तीतर बन गया। उसमें घृत और मधु की बूंदें अंकित रहती हैं।

विश्वरूप के तीनों मुख कट जाने से त्वष्टा कुपित हुआ। कैसे मेरे पुत्र को मार डाला इन्द्र ने ? कुपित त्वष्टा ने इन्द्र का आह्वान किये बिना ही सोम का आहरण किया। सोम जैसे चुवाया हुआ था वैसे ही बिना इन्द्र के भी रहा। अर्थात् बिना इन्द्र की सहायता के भी सोम अपने सात्त्विक रूप में बना रहा। यह देखकर इन्द्र ने सोचा कि इससे तो मुझे सोम से वंचित कर दिया जायेगा। अतः इन्द्र ने द्रोणकलश में रखे सोम का बलपूर्वक भक्षण कर लिया। त्वष्टा द्वारा इन्द्र का आह्वान किये बिना ही इन्द्र द्वारा बलपूर्वक पिये जाने से सोम कुपित हो गया और उसने इन्द्र को आहत किया। मुख को छोड़कर इन्द्र के जितने भी प्राण छिद्र थे, उन सबमें से सोम बाहर आने लगा। इन्द्र की नाक से बाहर निकला हुआ सोम सिंह बन गया। जो सोम कानों से बहा, वह भेड़िया बन गया। जो सोम वाक् और प्राण से बहा, वह शार्दूल प्रधान श्वापद बन गया। इन्द्र ने तीन बार थूका उससे कुवल,[7] कर्कन्धु[8]  तथा बदर [9] बना। शरीर से सोम के बह जाने के उपरांत इन्द्र सर्वथा क्षीण हो गया तथा लड़खड़ाता हुआ अपने घर गया तब अश्विनों ने उसकी चिकित्सा की।

जब त्वष्टा को ज्ञात हुआ कि इन्द्र ने सोम पान कर लिया तो वह और भी कुपित हो गया। कैसे बिना बुलाये इन्द्र ने सोम को ग्रहण कर लिया ? त्वष्टा ने द्रोण कलश में बचे हुए सोम को यह कह कर यज्ञ में प्रवाहित किया कि इन्द्र शत्रु तुम बढ़ो। बहता हुआ सोम अग्नि में पहुँच कर वृत्र के रूप में प्रकट हुआ। उसे सब विद्यायें, यश, अन्न एवं वैभव प्राप्त हुए। वह लुढ़कता हुआ उत्पन्न हुआ इससे वृत्र कहलाया। वह बिना पैरों के हुआ इसलिये अहि कहलाया। दनु और दनायु उसके माता पिता हुए इसलिये वह दनुज कहलाया। क्रोध से भरे हुए त्वष्टा के कोप से इन्द्र को बचाने के लिये ऋषियों ने मंत्रजाप में त्रुटि कर दी जिससे मंत्र का अर्थ ‘इंद्र के शत्रु तुम बढ़ो’ के स्थान पर ‘शत्रु इन्द्र तुम बढ़ो’ हो गया। इससे इन्द्र का बल बढ़ गया।

अपने पिता के आदेश पर ‘वृत्र’ द्युलोक और पृथ्वी के बीच में जो कुछ भी है, उस सब को आच्छादित करके सो गया। वृत्र ने पूर्व और पश्चिम में समुद्रों को समेट लिया और उतना ही अन्न खाने लगा। उसे पूर्वाह्न में देवता अन्न देते थे, मध्याह्न में मनुष्य और अपराह्ण में पितर। वृत्र द्वारा वरुण को बंदी बना लिये जाने से चारों ओर हा-हा कार मच गया। वनस्पतियाँ सूख गयीं। नदियों ने प्रवाहित होना बंद कर दिया। पशु-पक्षी, देव, मानव सब कष्ट पाने लगे।

इस पर इन्द्र ने अग्नि और सोम का आह्वान करके कहा कि तुम तो मेरे हो और मैं तुम्हारा हूँ। तुम क्यों इस दस्यु को बढ़ावा देते हो। इन्द्र ने अग्नि और सोम को प्रसन्न करने के लिये ‘एकादशकपाल पुरोडाश’ का निर्वपन किया। [10] इस यज्ञ से ही इन्द्र ने इन्द्रत्व प्राप्त किया। जिससे अग्नि और सोम इन्द्र की ओर हो गये। उनके साथ अन्य देवता भी इन्द्र की ओर आ गये।

इन्द्र ने विष्णु से प्रार्थना की- ‘मैं वृत्र पर वज्र का प्रहार करूंगा, आप मेरे निकट खड़े रहना।’ विष्णु ने कहा- ‘अच्छी बात है। मैं तुम्हारे पास रहूँगा, तुम प्रहार करो।’ इससे पहले कि इन्द्र वृत्र पर प्रहार कर पाता, वृत्र ने विशाल आकार धारण करके इन्द्र को निगल लिया। इस पर बृहस्पति की प्रेरणा से देवताओं ने इन्द्र को वृत्र के पेट से बाहर निकाला। इन्द्र की प्रार्थना पर विष्णु ने वज्र में प्रवेश किया। इस बार जब इन्द्र ने वज्र उठाया तो वृत्र डर गया। वृत्र ने कहा- ‘मुझे मारो मत, मैं तुम्हें अपना पराक्रम देता हूँ।’ इन्द्र रुक गया और वृत्र ने ‘यजुष्’ [11] इन्द्र को प्रदान कर दिया।

इन्द्र ने दुबारा वज्र उठाया तो वृत्र ने कहा- ‘मुझे मारो मत, मैं अपना ऋक् [12] तुमको देता हूँ।’ जब इन्द्र ने तीसरी बार वज्र उठाया तो उसने अपना ‘साम’ [13] भी इन्द्र को दे दिया।

इस प्रकार इन्द्र को समस्त विद्या, यश, अन्न और समस्त वैभव की प्राप्ति हो गयी और वृत्र खाली घड़े के समान रह गया। पुत्र को निर्बल हुआ देखकर वृत्र की माता तिरछी होकर उसके ऊपर छा गयी तथा अनेक कालेय वृत्र की सहायता को आ गये।

इस पर देवों ने साकमेध [14] का आयोजन किया। अग्नि तीक्ष्ण बाणों के रूप में प्रकट हुआ। सोम और सविता ने वृत्र को मारने के लिये इंद्र को तीक्ष्ण प्रेरणा प्रदान की। सरस्वती ने कहा-‘मारो-मारो।’ पुष्टि के देवता पूषा ने वृत्र को कसकर पकड़ लिया। विष्णु ने बताया कि वृत्र को लौह, काष्ठ तथा बांस से निर्मित तथा किसी भी ऐसे पदार्थ से निर्मित अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता जो सूखी अथवा गीली हो। इसे न दिन में मारा जा सकता है न रात्रि में। इस पर जब दिवस और रात्रि के मध्य संध्या काल उपस्थित हुआ तो इन्द्र ने अग्नि की ब्रह्मशक्ति और अपनी क्षम शक्ति से वज्र को समुद्र के फेन में लपेट कर व्रत्र पर प्रहार किया जिससे वृत्र तथा उसकी माता के दो टुकडे़ हो गये। कालेय भाग कर समुद्र में छिप गये।

इन्द्र के प्रहार से आहत वृत्र सड़ांध के साथ सब दिशाओं से समुद्र की ओर बहने लगा। इससे समुद्रों में जल का स्तर फिर से बढ़ गया। [15] वृत्र के सौम्य भाग से चन्द्रमा बन गया और आसुरि भाग से समस्त प्राणियों का उदर। इसी कारण प्रत्येक प्राणी उदर रूपी वृत्र के लिये बलिहरण करता है और अन्न भक्षण करना चाहता है। 

वृत्र के मरने पर मरूतों ने संगीत का आयोजन किया किंतु वज्र के फेन में लिपटे हुए होने से इन्द्र को वृत्र की मृत्यु का पता नहीं चला और इन्द्र डर कर अनुष्टप में छिप गया। अग्नि, हिरण्यस्तूप तथा बहती उसे ढूंढने निकले। अग्नि ने इन्द्र को ढूंढ लिया। देवताओं ने बारह पात्रों में आहरण किया हुआ पुरोडाश इन्द्र को समर्पित किया। इन्द्र ने कहा कि वृत्र पर वज्र के प्रहार से मेरे समस्त अंग शिथिल हो गये हैं, इसलिये इस पुरोडाश से मेरी तृप्ति नहीं होती। जिस वस्तु से मेरी तृप्ति हो वही वस्तु मुझे दो। देवताओं ने विचार किया कि सोम के बिना इन्द्र तृप्त नहीं होगा। देवताओं के आह्वान पर सोम रात्रि में चन्द्रमा के साथ आया और जल तथा वनस्पतियों में समा गया। गायों ने उन वनस्पतियों का भक्षण करके तथा सोमयुक्त जलपान करके सोम का सम्भरण किया। देवताओं ने गौओं से सोम प्राप्त करके उसे इन्द्र को प्रदान किया। इन्द्र ने कहा मुझे इससे भी तृप्ति नहीं होती, मुझे उबाला हुआ दो। अंत में अमावस्या को दही और उबले हुए दूध को मिलाकर सान्नय्य याग किया गया जिससे इन्द्र तृप्त हुआ और नवीन बल धारण करके प्रकट हो गया।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने आख्यायिका पूरी की।

ऋषिश्रेष्ठ के इस वक्तव्य के साथ ही समस्त आर्य आख्यायिका के काल से निकल कर वर्तमान में लौटे। यद्यपि बहुत सारे प्रश्न अब भी शेष थे जिनका समाधान होना चाहिये था किंतु अत्यधिक समय व्यतीत हो जाने के भय से किसी ने कोई प्रश्न पूछना उचित नहीं समझा। फिर भी गोप सुरथ ने अपनी जिज्ञासा प्रकट कर ही दी- ‘ऋषिश्रेष्ठ! क्या इसी घटना के बाद से मित्र को सोम से वंचित किया गया ?’

  – ‘हाँ! सदैव वरुण के साथ रहने वाले ‘मित्र’ ने वृत्र के साथ हुए युद्ध में यह कहकर देवताओं की कोई सहायता नहीं की कि मैं तो सबका मित्र हूँ । अतः वृत्र और त्वष्टा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करूंगा। इसी कारण देवताओं ने मित्र को सोम से वंचित कर दिया।’ [16]

सोम वर्षण करता हुआ चन्द्रमा आकाश के ठीक मध्य में आ गया था। अतः आर्यों ने सभा का समापन किया।


[1] समुद्र।

[2] विश्वकर्मा का एक नाम त्वष्टा भी है।

[3] यह आख्यायिका ऋग्वगेद, चतुर्थ ब्राह्मण तथा अन्य गं्रथों में कुछ अंतर के साथ प्राप्त होती है।

[4] बटेर।

[5] गौरैया

[6] कौन है, कौन है ?

[7] गूलर।

[8] घुमची, घुँघची अथवा गुंजा।

[9] बेर।

[10] चतुर्थ ब्राह्मण (1. 6.)

[11] यज्ञ।

[12] पूजा, स्तवन।

[13] वाक्चातुर्य से आकर्षित करने की क्षमता।

[14] साकमेध का अर्थ होता है साथ-साथ मिलकर बढ़ना या संगति करना।

[15] ऋग्वेद में लिखा है कि वृत्र रंभाती हुई गायों के समान समुद्र की ओर बढ़ चला। (ऋ. 1. 84. 3)

[16] तृतीय बा्रह्मणः (पवित्रच्छेदन-1. 1. 3) ऋग्वेद तथा अन्य संहिताओं में मित्र और वरुण का उल्लेख एक साथ हुआ है। ऐसा माना जाता है कि मित्र का अर्थ है दिन और वरुण का अर्थ है रात्रि। इसी से मित्रावरुण को ऋत् अर्थात् प्रकृति की व्यवस्था का देवता कहा जाता है। मित्र का एक अर्थ सूर्य भी होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सोम एक शीतल पेय है इस कारण उसका सम्बंध चन्द्रमा से है और सूर्य को उससे वंचित किया गया है।

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