विवाह करने के बाद रजिया और अल्तूनिया एक सेना लेकर दिल्ली के तख्त पर अधिकार करने के लिए दिल्ली की ओर चल दिए। रजिया के विश्वस्त अमीर मलिक इज्जुद्दीन सालारी तथा मलिक कराकश आदि कुछ अमीर भी रजिया एवं अल्तूनिया से आ मिले। अक्टूबर 1240 में दिल्ली के बाहर रजिया तथा नए सुल्तान बहरामशाह की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ किंतु बहरामशाह की सेना ने रजिया तथा अल्तूनिया को परास्त कर दिया।
रजिया और अल्तूनिया युद्ध में परास्त होने के बाद युद्ध के मैदान से भाग निकले किंतु कैथल (अब हरियाणा में) के निकट कुछ स्थानीय लुटेरों ने अल्तूनिया तथा रजिया को पकड़ लिया तथा धन प्राप्ति के लालच में उनकी हत्या कर दी।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि 14 अक्टूबर 1240 को कैथल के निकट जाटों ने अल्तूनिया तथा रजिया को पकड़ लिया और उनका माल-असबाब लूटकर उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार रजिया सुल्तान का सदा के लिये अंत हो गया। एक अन्य मत के अनुसार रजिया तथा अल्तूनिया को पकड़कर दिल्ली लाया गया तथा बहरामशाह के आदेश से उन्हें दिल्ली में मार डाला गया।
दिल्ली में तुर्कमान गेट पर रजिया का मकबरा बताया जाता है। इस मकबरे को राजी एवं साजी का मकबरा कहा जाता है। लोकमान्यता है कि साजी, रजिया की बहिन थी किंतु इतिहास की किसी भी पुस्तक में साजी का उल्लेख नहीं मिलता।
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रजिया की हत्या कैथल में हुई किंतु उसकी कब्रगाह तीन भिन्न स्थानों- कैथल, दिल्ली तथा टोंक में स्थित होने का दावा किया जाता है। उसकी वास्तविक कब्रगाह के बारे में कोई पुरातात्विक अथवा ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलते हैं। दिल्ली की कब्रगाह तुर्कमान गेट के पास शाहजहांबाद में बुलबुलेखाना में स्थित है। कैथल में एक मस्जिद के निकट रजिया तथा अल्तूनिया की कब्रगाहें बताई जाती हैं। ई.1938 में भारत के वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो कैथल आये। उन्होंने कैथल में रजिया की कब्रगाह का जीर्णोद्धार करने के लिये कुछ आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराई। उनके निर्देश पर भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक भी कैथल आये किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण इस कब्र का जीर्णोद्धार नहीं करवाया जा सका।
यद्यपि रजिया इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों में सर्वाधिक योग्य तथा राजपद के सर्वाधिक उपयुक्त थी परन्तु तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के तुर्की-भारत के दूषित राजनीतिक वातावरण में वह पद पर बने रहने में असफल रही तथा लगभग साढ़े तीन साल बाद ही उसका राज्य समाप्त हो गया।
मध्यकालीन इतिहासकारों ने रजिया की विफलता का प्रधान कारण उसका स्त्री होना बताया है। इन इतिहासकारों के अनुसार इस्लाम में मान्यता है कि पैगम्बर मुहम्मद ने कहा था कि स्त्री संसार में सबसे अमूल्य एवं पवित्र वस्तु है किंतु जो लोग स्त्री को अपना शासक बनायेंगे, उन्हें कभी मानसिक शांति प्राप्त नहीं होगी। इस मान्यता ने रजिया को मुसलमान-प्रजा का आदर का पात्र नहीं बनने दिया।
तुर्की अमीर किसी भी कीमत पर रजिया को सुल्तान के पद पर बने नहीं रहने देना चाहते थे। इसलिए जब तक रजिया जीवित रहती, उसके विरुद्ध यही सब होते रहना था और एक दिन रजिया को इसी तरह मार दिया जाना था।
रजिया द्वारा पर्दे तथा औरतों के कपड़ों का परित्याग करके पुरुषों के कपड़े धारण कर लेने से न केवल तुर्की अमीरों के अपितु मुल्ला-मौलवियों और उलेमाओं के अहंकार को भी गहरी चोट पहुँची थी। यदि रजिया पुरुष रही होती तो इस बात की संभावना अधिक थी कि छल, फरेब और हिंसा के उस युग में वह भी अपने पिता की तरह अपने विरोधियों का दमन करने में अधिक सफल हुई होती तथा दीर्घकाल तक राज्य भोगती। क्योंकि तब न तो याकूत के प्रेम का अपवाद फैला होता, न अल्तूनिया ने उससे विवाह के लालच में उसका सर्वनाश किया होता और न जुनैदी आदि तुर्की अमीरों ने रजिया का विरोध करने का दुस्साहस किया होता!
रजिया की असफलता का दूसरा कारण चालीसा मण्डल के तुर्की अमीरों का स्वार्थी तथा शक्तिशाली होना बताया जाता है जिन्हें इल्तुतमिश ने शासन कार्य चलाने के लिए नियुक्त किया था। दिल्ली सल्तनत में इन तुर्की अमीरों का प्रभाव इतना अधिक था कि वे सुल्तान को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर रखना चाहते थे जबकि रजिया ने उनका अंकुश स्वीकार नहीं किया तथा स्वयं अपने विवेक से काम किया।
रजिया ने इन तुर्की अमीरों की शक्ति को एक सीमा तक घटा दिया तथा बड़ी सतर्कता के साथ अमीरों के प्रतिद्वन्द्वी दलों को संगठित करने का प्रयास किया परन्तु इस कार्य में सफल होने के लिए समय की आवश्यकता थी जो दुर्भाग्यवश रजिया को नहीं मिल सका। इससे पहले कि रजिया तुर्की अमीरों पर पूरी तरह शिकंजा कस पाती, तुर्की अमीरों ने रजिया को मार दिया।
रजिया की विफलता का एक कारण यह भी था कि जिस मुस्लिम प्रजा के सहयोग से वह सुल्तान बनी थी, जब उलेमाओं ने मुस्लिम प्रजा को यह समझाया कि इस्लाम में औरत को सुल्तान बनाना वर्जित है तो वही प्रजा रजिया की विरोधी हो गई। हिन्दू प्रजा का सहयोग तथा समर्थन प्राप्त करना वैसे भी असम्भव था क्योंकि तुर्की शासक, विधर्मी तथा विदेशी थे।
इल्तुतमिश के अन्य पुत्रों का जीवित रहना भी रजिया के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। इल्तुतमिश के इन पुत्रों से षड्यन्त्रकारी अमीरों को समर्थन तथा प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। षड्यन्त्रकारी अमीर इन शहजादों की आड़ में रजिया पर प्रहार करने लगे। अंत में इन्हीं शहजादों में से एक बहरामशाह ने सल्तनत पर अधिकार कर लिया।
इतिहासकारों द्वारा रजिया की विफलता का एक कारण यह भी बताया जाता है कि अभी तक भारत में तुर्की साम्राज्य का शैशव काल था। इस कारण केन्द्रीय सरकार स्थानीय हाकिमों को अपने पूर्ण नियंत्रण में नहीं कर पाई थी। स्थानीय हिन्दू सरदारों के निरन्तर विद्रोह होते रहने के कारण सुल्तानों को अपने स्थानीय हाकिमों को पर्याप्त मात्रा में सैनिक एवं प्रशासकीय अधिकार देने पड़ते थे। प्रांतीय गवर्नरों द्वारा इन स्थानीय हिन्दू हाकिमों से सांठ-गांठ कर लेने पर केन्द्रीय सरकार उन्हें ध्वस्त नहीं कर पाती थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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