Friday, November 22, 2024
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अध्याय – 21 : दिल्ली सल्तनत पर लोदी वंश का शासन

लोदी वंश

लोदी अफगान थे। अफगानों को पठान भी कहा जाता है। अफगान अथवा पठान उस पर्वतीय प्रदेश के निवासी थे जो पूर्व में मुल्तान तथा पेशावर से लेकर पश्चिम में सुलेमान पर्वत तथा गजनी तक फैला हुआ है। ये लोग लम्बे कद, गोरे रंग तथा बलिष्ठ शरीर के होेते थे। कठिन जीवन जीने के कारण ये लोग बड़े लड़ाका तथा दुःसाहसी प्रवृत्ति के होते थे तथा कई कबीलों में विभक्त थे। इन लोगों में किसी वंश विशेष की प्रमुखता नहीं थी। पशु पालन तथा घोड़ों का व्यापार इनका मुख्य व्यवसाय था। इनकी आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी इसलिये ये अपने धनी पड़ौसियों को लूटते थे। बहुत से अफगान जीवन यापन करने के लिये तुर्क सुल्तानों की सेना में भर्ती हो गये थे। भारत के तुर्क सुल्तान उन्हें अपनी सेना में तो भर्ती करते थे किंतु उन्हें हेय दृष्टि से देखे जाने के कारण उन्हें शासन में उच्च पद नहीं देते थे।

बहलोल लोदी (1451-1489 ई.)

बहलोल लोदी का प्रारम्भिक जीवन

भारत में प्रथम अफगान साम्राज्य की स्थापना बहलोल लोदी ने की थी। बहलोल के पिता का नाम मलिक काला था जो दौराबा का शासक था। जब बहलोल माता के गर्भ में था तब एक दिन घर की छत गिर पड़ी और उसकी माता छत के नीचे दबकर मर गई। मलिक काला ने तुरन्त अपने स्त्री का पेट चिरवा कर बच्चे को बाहर निकलवा लिया। बच्चे का नाम बहलोल रखा गया। कुछ समय बाद एक युद्ध में मलिक काला की भी मृत्यु हो गई। इस प्रकार बहलोल बचपन में ही माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो गया। उसका पालन-पोषण उसके चाचा सुल्तानशाह ने किया जो सरहिन्द का गर्वनर था। बहलोल की प्रतिभा से प्रभावित होकर सुल्तानशाह ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इस प्रकार सुल्तानशाह की मृत्यु के उपरान्त बहलोल सरहिन्द का गवर्नर बन गया। उसने स्वयं को दिल्ली साम्राज्य से स्वतन्त्र घोषित कर दिया।

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दिल्ली के तख्त की प्राप्ति

सैयद वंश के सुल्तानों के समय में बहलोल लोदी की शक्ति में बहुत वृद्धि हुई। अलाउद्दीन आलमशाह के शासन काल में सुल्तान के प्रधानमन्त्री हमीद खाँ ने बहलोल लोदी को दिल्ली का तख्त लेने के लिए आमन्त्रित किया। इस प्रकार 1451 ई. में वह निर्विरोध दिल्ली का सुल्तान बन गया।

बहलोल लोदी के कार्य

(1.) हमीद खाँ को कारागार में डालना: बहलोल लोदी वीर तथा साहसी व्यक्ति था। दिल्ली के तख्त पर बैठते ही उसने अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए उसने अपने मन्त्री हमीद खाँ को कारागार में डाल दिया।

(2.) महत्वपूर्ण पदों पर अफगानों की नियुक्ति करना: बहलोल ने शासन के प्रमुख पदों पर अपने विश्वस्त अफगान अधिकारियों को नियुक्त किया। दुर्गों की रक्षा के लिए भी उसने योग्य अफगान सेनापतियों को नियुक्त किया। दिल्ली के निकटस्थ प्रान्तों तथा जिलों में भी उसने अत्यन्त विश्वासपात्र अफगानों को नियुक्त किया। इस प्रकार शासन के प्रमुख पदों पर तुर्कों की जगह अफगान छा गये।

(3.) प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित करना: दिल्ली में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद बहलोल लोदी ने पंजाब को संगठित और सुव्यवस्थित किया। इसके बाद बहलोल ने जौनपुर के शर्की शासकों को अपने अधीन किया। बहलोल लोदी को जौनपुर के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा किंतु अंत में उसने जौनपुर पर अधिकार कर लिया और अपने पुत्र बारबकशाह को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। जौनपुर पर प्रभुत्व स्थापित कर लेने से बहलोल लोदी की शक्ति बहुत बढ़ गई। उसने कालपी, धौलपुर तथा अन्य स्थानों पर भी अधिकार कर लिया। बहलोल ने ग्वालियर के विद्रोही राजा पर आक्रमण कर दिया और उसे कर देने के लिए बाध्य किया। ग्वालियर से लौटने के बाद 1489 ई. में बहलोल लोदी ज्वर से पीड़ित हो गया तथा उसकी मृत्यु हो गई।

बहलोल के कार्यों का मूल्याकंन

बहलोल लोदी वीर तथा साहसी सेनानायक था। वह दिल्ली में लोदी वंश की सत्ता का संस्थापक था। उसका व्यक्तिगत जीवन बहुत अच्छा था। वह विश्वसनीय, स्वामिभक्त, उदार तथा दयालु व्यक्ति था। इस्लाम में उसकी बड़ी निष्ठा थी। वह दम्भ तथा आडम्बर से दूर रहता था। उसे सज-धज तथा ठाठ-बाट का शौक नहीं था। वह कभी किसी भिक्षुक को निराश नहीं करता था। यद्यपि बहलोल स्वयं विद्वान् नहीं था परन्तु विद्वानों का आदर करता था और उन्हें प्रश्रय देता था। वह न्याय प्रिय शासक था। उसने दिल्ली सल्तन के खोये हुए गौरव को एक बार फिर बढ़ाया तथा प्रांतीय शासकों को अपने अधीन करके उत्तरी भारत में राजनीतिक एकता स्थापित की।

सिकन्दर लोदी (1489-1517 ई.)

सिकन्दर लोदी का प्रारम्भिक जीवन

सिकन्दर लोदी के बचपन का नाम निजाम खाँ था। वह बहलोल लोदी का पुत्र था और एक सुनार स्त्री के पेट से उत्पन्न हुआ था। वह प्रायः दिल्ली में ही अपने पिता के साथ रहता था। वह रूपवान् तथा साहसी युवक था। अपने पिता के जीवन काल में वह अनेक उच्च पदों पर काम कर चुका था। वह सरहिन्द के शासक के रूप में प्रांतीय शासन का, अपने पिता की अनुपस्थिति में राजधानी में रहकर केन्द्रीय शासन का तथा युद्ध के मैदान में रहकर सैन्य नेतृत्व का अनुभव प्राप्त कर चुका था। 1489 ई. में बहलोल लोदी की मृत्यु के बाद अमीरों तथा सरदारों ने निजाम खाँ को सिकन्दर खाँ के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया।

सिकन्दर लोदी की समस्याएँ तथा उनका निवारण

(1.) बारबकशाह का दमन: बारबकशाह सिकंदर लोदी का भाई था। उसने स्वयं को जौनपुर का स्वतन्त्र शासन घोषित कर दिया। सिकन्दर ने जौनपुर पर आक्रमण कर बारबकशाह को बन्दी बना लिया। जौनपुर फिर से दिल्ली के अधीन हो गया।

(2.) हुसैनशाह शर्की का दमन: जौनपुर के जमींदारों ने जौनपुर के पुराने प्रांतपति हुसैनशाह को अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। फलतः वह एक विशाल सेना लेकर जौनपुर की तरफ बढ़ा। दिल्ली की सेना भी उसका मार्ग रोकने के लिये आगे बढ़ी। बनारस के निकट दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में हुसैनशाह की पराजय हो गई और वह जान बचाकर लखनौती की ओर भाग गया और वहीं पर गुप्त रूप से अपना जीवन बिताने लगा। सिकन्दर लोदी ने जौनपुर में अपना अधिकारी नियुक्त कर दिया।

(3.) विद्रोही जमींदारों का दमन: बहलोल लोदी जमींदारी प्रथा का पोषक था। उसने अपने जमींदारों को सदैव प्रसन्न रखने का प्रयत्न किया परन्तु सिकन्दर लोदी जमींदारी प्रथा का घोर विरोधी था। उसने जमींदारों से राजस्व कर का हिसाब देने के लिए कहा। इससे जमींदारों में बड़ा असन्तोष फैला और वे षड्यन्त्र रचने लगे। सुल्तान को इस षड्यन्त्र का पता लग गया। उसने जमींदारों को बड़ी क्रूरता के साथ दण्डित किया।

(4.) विद्रोही राजपूतों का दमन: सिकन्दर के अन्तिम दिन राजपूतों के विद्रोह का दमन करने में व्यतीत हुए। उसने विद्रोही राजपूतों का सामना किया और धौलपुर, ग्वालियर, नरवर तथा चन्देरी को अपने अधीन किया। सिकन्दर का अन्तिम संघर्ष रणथम्भौर के शासक से हुआ। इस संघर्ष में सिकन्दर लोदी को सफलता प्राप्त हुई। कुछ समय पश्चात् ग्वालियर के राजा ने पुनः विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया।

सिकंदर लोदी की मृत्यु

ई.1517 में सिकंदर लोदी बीमार पड़ा। 1 दिसम्बर 1517 ई. को उसकी मृत्यु हो गई।

सिकन्दर लोदी के चरित्र एवं कार्यों का मूल्यांकन

(1.) प्रतिभाशाली शासक: सिकन्दर लोदी प्रतिभावान् तथा रूपवान् सुल्तान था। वह लोदी वंश के शासकों में सर्वाधिक योग्य था। वह साहसी सेनानायक एवं सफल शासक था। उसने शासन में कई नई व्यवस्थायें कीं। उसने अपने भाइयों को राज्याधिकारियों के साथ काम पर लगाया। वह राजकीय नौकरियों पर नियुक्ति देने में वंश का ध्यान रखता था। उसकी स्मरण-शक्ति विलक्षण थी और ज्ञानकोष वृहत् था। वह स्वयं अच्छा कवि था और इस्लामी विद्वानों का आदर करता था।

(2.) अफगान सरदारों एवं अमीरों पर नियंत्रण: सिकन्दर लोदी ने अफगान सरदारों एवं अमीरों को नियन्त्रण में रखने का हर संभव प्रयास किया और उनके स्वतन्त्र होने के समस्त प्रयासों को विफल किया। सुल्तान अमीरों से सदैव शंकित रहता था इसलिये अमीरों तथा उनके सेवकों की नियुक्त स्वयं करता था।

(3.) विद्रोही हिन्दू सरदारों का दमन: सिकन्दर लोदी के समय में विद्रोह करने वाले हिन्दू जमींदारों को बलपूर्वक दबाया गया और उन पर कड़ा नियन्त्रण रखा गया।

(4.) राज्य की आय पर नियंत्रण: सिकन्दर लोदी ने राज्य की आय पर सल्तनत का नियन्त्रण स्थापित किया। सरकारी धन हड़पने का प्रयास करने वाले प्रांतपतियों तथा अधिकारियों को कठोर दण्ड दिया जाता था।

(5.) अपराधों पर नियंत्रण: सिकंदर लोदी के शासनकाल में सड़कें सुरक्षित थीं। लोगों को चोरों तथा डाकुओं का भय नहीं था।

(6.) गुप्तचर विभाग की स्थापना: सिकन्दर लोदी ने गुप्तचर विभाग की भी व्यवस्था की। इससे उसे अमीरों एवं अधिकारियों की गुप्त कार्यवाहियों की सूचना मिल जाती थी।

(7.) समुचित न्याय व्यवस्था: सिकंदर लोदी गरीबों के हितों का ध्यान रखता था। इसलिये उसने न्याय की समुचित व्यवस्था करने का प्रयत्न किया। सर्वोच्च न्यायाधीश का कार्य सुल्तान स्वयं करता था और आवश्यक परामर्श लेने के लिये उलेमाओं को अपने साथ रखता था। उसने मुस्लिम प्रजा के लिये निष्पक्ष तथा शीघ्र न्याय की व्यवस्था की। हिन्दुओं के प्रति उसका दण्ड-विधान बड़ा कठोर था।

(8.) कृषि की उन्नति का प्रयास: सिकंदर लोदी के शासन में कृषकों की दशा बड़ी असन्तोषजनक थी। इसलिये उसने कृषि की उन्नति का प्रयास किया। उसने भूमि की नाप करवाकर भूमि कर निर्धारित करवाया। इस कार्य के लिये उसने एक प्रामाणिक गज की व्यवस्था की जा 30 इंच का होता था और ‘गज-सिकन्दर’ के नाम से विख्यात हुआ। उत्तर भारत के बहुत से क्षेत्रों में इस गज का प्रयोग बहुत दिनों तक होता रहा।

(9.) व्यापार वृद्धि के प्रयास: सिकन्दर लोदी ने गल्ले पर से चुंगी हटा दी और व्यापारियों तथा सौदागरों की सुरक्षा की व्यवस्था की।

(10.) इस्लाम से प्रेम: सिकन्दर लोदी को इस्लाम के उन्नयन का बड़ा उत्साह था। उसमें धार्मिक कट्टरता कूट-कूट कर भरी हुई थी। वह मुल्ला-मौलवियों का बड़ा आदर करता था। न्याय कार्य में उलेमाओं की सलाह लेना आवश्यक समझता था। उसने अपने राज्य में सैंकड़ों मस्जिदों का निर्माण करवाया।

(11.)  हिन्दुओं से घृणा: सिकन्दर लोदी को हिन्दुओं से घोर घृणा थी। उसने बड़ी संख्या में हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया। उसने आदेश जारी किया कि कोई हिन्दू मथुरा के घाट पर स्नान न करे। उसने मथुरा सहित अन्य तीर्थों पर बहुत सी मस्जिदें बनवाईं जिससे वहाँ पर हिन्दुओं का प्रभाव घटे। उसने अपनी सल्तनत के भिन्न-भिन्न भागों में हिन्दू-मन्दिरों को नष्ट करने की आज्ञा दी। हिन्दुओं के साथ उसे लेश-मात्र सहानुभूति नहीं थी और उन्हें दण्ड देने में संकोच नहीं होता था। उसने मूर्ति-पूजा समाप्त करने का हर संभव प्रयास किया। वह मंदिरों से देव मूर्तियां तोड़कर कसाइयों को दे दिया करता था जो मांस तौलने के लिए उनका बाट बनाया करते थे। इस प्रकार सिकन्दर ने इस्लाम के उन्नयन एवं हिन्दू धर्म के विनाश के लिये फीरोजशाह तुगलक की नीति का अनुगमन किया।

निष्कर्ष

सिकन्दर लोदी प्रतिभावान, स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासक था। हिन्दुओं के साथ उसका व्यवहार बड़ा कठोर था। उसे भयंकर विद्रोहों का सामना करना पड़ा, जिनका दमन करने में वह सफल रहा। वह जौनपुर को दिल्ली सल्तनत का अविच्छिन अंग बनाने तथा सल्तनत में आन्तरिक शान्ति स्थापित करने में सफल रहा। उसने इस्लामी साहित्य तथा संस्कृति के सम्वर्द्धन में बड़ा योग दिया। वह दीन-दुुखियों पर दया दिखाता था। मुस्लिम प्रजा के प्रति उसमें उच्च-कोटि की न्यायप्रियता थी। दुष्टों को दण्ड देने में वह किंचित् भी संकोच नहीं करता था। उसने भूमिपतियों पर नियन्त्रण रखने का पूरा प्रयास किया। उसने प्रान्तीय गवर्नरों के हिसाब का निरीक्षण करवाकर सरकारी धन हड़पने वालों को कठोर दण्ड दिया। इस प्रकार सिकन्दर एक सफल शासक प्रतीत होता है परन्तु उसकी उदारता केवल मुस्लिम प्रजा के लिये थी तथा सफलता केवल व्यक्तिगत थी। उसने बहुसंख्यक हिंदू प्रजा के लिये और अपने अपने उत्तराधिकारियों के लिए अच्छी परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं कीं।

इब्राहीम लोदी (1517-1526 ई.)

दिल्ली के तख्त की प्राप्ति

सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद 1517 ई. में इब्राहीम लोदी निर्विरोध दिल्ली के तख्त पर बैठा। वह वीर तथा साहसी तो था परन्तु वह उद्दण्ड तथा सदैव सशंकित रहने वाला व्यक्ति था। इन दुर्बलताओं के कारण वह किसी अफगान सरदार अथवा अमीर का विश्वासपात्र नहीं बन सका और उसे भयानक विपत्तियों का सामना करना पड़ा।

इब्राहीम के युद्ध

इब्राहीम लोदी को अपने शासन काल में आद्योपरान्त भयानक आन्तरिक संघर्षों तथा बाह्य युद्धों का सामना करना पड़ा। उसे निम्नलिखित युद्ध करने पड़े-

(1.) चाचा जलाल से युद्ध: तख्त पर बैठते ही इब्राहीम को कुछ अमीरों ने समझाया कि वह अपने चाचा जलाल को, जो कालपी का गवर्नर था, जौनपुर का स्वतन्त्र शासक बना दे जिससे वह सन्तुष्ट रहे। सुल्तान ने इस परामर्श को स्वीकार कर लिया और जलाल को जौनपुर भेज दिया। इब्राहीम लोदी को शीघ्र ही अपनी भूल का अहसास हो गया कि उसने जौनपुर को स्वतन्त्र करके बहुत बड़ी भूल की है। उसने जलाल को वापस आगरा आने के आदेश दिये परन्तु जलाल ने आगरा आने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं जलाल ने अवध पर आक्रमण करके वहाँ के गवर्नर सईद खाँ को परास्त कर दिया। इब्राहीम ने अपनी सेना को जलाल का पीछा करने की आज्ञा दी। जलाल को इसकी सूचना मिली तो वह कालपी भाग गया। अब सुल्तान की सेना ने कालपी में घेरा डाला। जलाल आगरा की ओर भागा। वहाँ से वह ग्वालियर के राजा के पास गया। अन्त में वह गोंडवाना पहुँचा। वहाँ पर उसे गोंडों ने घेरकर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार इब्राहीम लोदी का जलाल से पीछा छूट गया।

(2.) ग्वालियर के विरुद्ध अभियान: इब्राहीम लोदी ने तख्त पर बैठते ही ग्वालियर पर सैनिक अभियान किया। उसने 1517 ई. में एक सेना ग्वालियर पर चढ़ाई करने के लिए भेजी। जलाल के विद्रोह के कारण ग्वालियर अभियान में बड़ी बाधा उत्पन्न हुई परन्तु अन्त में ग्वालियर का राजा विक्रमादित्य, ग्वालियर का दुर्ग इब्राहीम लोदी को देने के लिए तैयार हो गया। इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर के राजा को शम्साबाद का हाकिम नियुक्त करके अपनी सेवा में रख लिया।

(3.) राणा सांगा से युद्ध: मेवाड़ का राणा संग्रामसिंह उस काल में महत्वाकांक्षी एवं वीर हिन्दू शासक हुआ। उसे सांगा के नाम से भी जाना जाता है। उसका राज्य इब्राहीम लोदी के राज्य की सीमा से लगता था। राणा ने अपने राज्य के विस्तार के लिये इब्राहीम के राज्य की सीमा पर आक्रमण कर दिया। जब लोदी की सेनाएं राणा का सामना करने र्गईं तो राणा ने लोदी की सेनाओं को परास्त कर दिया। राणा को जीत तो मिली किंतु वह स्वयं बुरी तरह घायल हो गया। इस पर लोदी ने नई सेना को राणा संग्रामसिंह पर आक्रमण करने भेजा। इस बार फिर लोदी की सेना परास्त हुई और राणा ने उसे बयाना की ओर खदेड़ दिया। अब इब्राहीम स्वयं राणा का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। इस युद्ध में किसी भी पक्ष को सफलता नहीं मिली और दोनों ओर की सेनाएँ पीछे हट गईं। कुछ समय उपरान्त राणा ने चन्देरी पर अधिकार कर लिया और इब्राहीम लोदी उसे वापस लेने में असमर्थ रहा।

(4.) अफगान अमीरों से युद्ध: तुर्क अमीरों की तरह अफगान अमीरों में भी स्वतंत्रता का भाव अधिक था। चूंकि उनमें उत्तराधिकार का नियम निर्धारित नहीं था इसलिये वे सुल्तान को अमीरों में से ही एक मानते थे। इस कारण उन्हें यह सह्य नहीं था कि सुल्तान उनके अधिकारों को सीमित करे। अतः जब इब्राहीम लोदी ने अफगान अमीरों के पदों और अधिकारों को सीमित करने का प्रयास किया तो  अफगान अमीरों ने सुल्तान इब्राहीम लोदी का विरोध किया। इससे सुल्तान तथा अफगान सरदारों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अमीर खुल्लम-खुल्ला विद्रोह पर उतर आये। सुल्तान ने विद्रोहियों का नृशंसतापूर्वक दमन किया। विद्रोही अमीर आजम खाँ का कारागार में ही वध किया गया। इसके बाद सुल्तान ने विद्रोही प्रांतपतियों को उन्मूलित करना आरम्भ किया। दरिया खाँ नूहानी ने बिहार में स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। इब्राहीम ने इन विद्रोहों को दबाने का प्रयत्न किया परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। पंजाब में दौलत खाँ ने विद्रोह कर दिया और उसने काबुल के शासक बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया।

(5.) काबुल के शासक बाबर से युद्ध: काबुल के शासक बाबर की दृष्टि बहुत दिनों से भारत पर लगी हुई थी। पंजाब के गवर्नर दौलत खाँ का निमन्त्रण पाकर 1524 ई. में उसने पंजाब पर आक्रमण किया। बाबर ने लाहौर तथा दिपालपुर पर अधिकार कर लिया। इसी बीच बाबर को बल्ख की रक्षा के लिए काबुल लौटना पड़ा। 1525 ई. में उसने फिर पंजाब के लिए प्रस्थान किया। दिसम्बर के महीने में उसने पंजाब में प्रवेश किया। पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के उपरान्त बाबर ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया तथा पानीपत पहुँच कर डेरा डाला। इब्राहीम भी अपनी सेना लेकर आ गया। भीषण संग्राम के उपरान्त इब्राहीम की सेना परास्त हो गई। 20 अप्रेल 1526 को इब्राहीम लोदी युद्ध क्षेत्र में ही मारा गया।

इब्राहीम का चरित्र तथा उसके कार्यों का मूल्यांकन

इब्राहीम लोदी, दिल्ली सल्तनत का तीसरा और अन्तिम लोदी शासक था। यद्यपि वह दानशील, संगीत-प्रेमी तथा विद्वानों का आश्रयदाता था तथापि उसमें साहस, शौर्य तथा बुद्धि का अभाव था। उसमें कुशल शासक के गुणों का अभाव था। वह घमण्डी, जिद्दी तथा अनुदार था। जिससे अप्रसन्न हो जाता था, उसे कभी क्षमा नहीं करता था। उसने सुल्तान की शक्ति को प्रबल बनाने का प्रयास किया परन्तु इस प्रयास में उसने अफगान अमीरों को अपना शत्रु बना लिया। इससे सल्तनत की सैनिक शक्ति का आधार ही खिसक गया। वह राणा सांगा को नहीं दबा सका। इस कारण राणा सांगा ने चन्देरी पर अधिकार कर लिया और बयाना तथा आगरा पर शिकंजा कस लिया। इब्राहीम लोदी बिहार तथा पंजाब के प्रांतपतियों को भी नहीं दबा सका। बिहार में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना हो गई और पंजाब के प्रांतपति ने बाबर को देश पर आक्रमण करने के लिये बुला लिया। बाबर ने लोदी सल्तनत को ध्वस्त कर दिया। वस्तुतः इब्राहीम लोदी स्वयं तो अपनी असफलताओं के लिये दोषी था ही किंतु साथ ही वह पूरा युग और उसकी परिस्थितयाँ भी उसकी असफलताआंे के लिये जिम्मेदार थे। अफगान सरदारों में अपने सुल्तान के प्रति वफादार रहने तथा सल्तनत को मजबूत बनाने के लिये पर्याप्त विवेक नहीं था। वे अपने स्वार्थ में डूबे हुए थे और सल्तनत की जड़ों पर चोट कर रहे थे। राणा सांगा जैसे प्रतिद्वंद्वी का उदय और बाबर जैसे दुर्दान्त आक्रांता का आक्रमण भी युगीन परिस्थितियों की देन थे जिन पर इब्राहीम लोदी विजय प्राप्त नहीं कर सका।

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण

1206 ई. में दिल्ली सल्तनत का उदय हुआ था। गुलाम वंश का शासन काल दिल्ली सल्तनत की बाल्यावस्था का काल था, अलाउद्दीन खिलजी का शासन काल दिल्ली सल्तनत की प्रौढ़ावस्था का काल था, तुगलक वंश का उत्तरार्द्ध दिल्ली सल्तनत की वृद्धावस्था का काल था। सैयद वंश और लोदी वंश के शासन काल में दिल्ली सल्तनत का अस्थिपंजर ही शेष बचा था। इब्राहीम लोदी के काल में 1526 ई. में दिल्ली सल्तनत का अवसान हो गया। दिल्ली सल्तनत के पतन के कई कारण थे जिनमें से कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार से हैं-

(1.) भारत की उष्ण जलवायु: कुछ इतिहासकारों का कहना है कि तुर्क तथा अफगान लोग शीत कटिबन्ध से आये थे। भारत की जलवायु उष्ण होने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा जिससे वे निर्बल तथा आलसी हो गये; परन्तु ऐतिहासिक तथ्यों से इस मत की पुष्टि नहीं होती। प्रायः यही तर्क हिन्दुओं की पराजय के सम्बन्ध में भी दिया जाता है परन्तु हिन्दुओं ने कई बार मुस्लिम आक्रांताओं को परास्त करके अपने बल का परिचय दिया था। इसी प्रकार तुर्कों का साहस तथा बल भारत की उष्ण जलवायु के कारण कम नहीं हुआ था। अनेक बार दिल्ली की सेनाओं ने शीत-प्रधान देशों से आये आक्रांताओं का सफलतापूर्वक सामना किया था। अतः दिल्ली सल्तनत के पतन के कुछ और ही कारण थे।

(2.) निरंकुश शासन पद्धति: दिल्ली की सल्तनत स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश थी। जनता को शासन में भाग लेने से वंचित कर दिया गया। वास्तव में इस शासन का आधार सैनिक-बल था, प्रजा की सद्भावना नहीं। शक्ति के बल पर शासन कभी स्थायी नहीं हो पाता। केवल प्रतिभावान एवं बलशाली सुल्तान ही ऐसे शासन को चला सकते थे। अयोग्य तथा विलासी सुल्तानों के हाथों में सल्तनत का नष्ट-भ्रष्ट होना अवश्यम्भावी था। इसलिये कुतुबुद्दीन, बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी आदि प्रतिभावान सुल्तान सफलतापूर्वक शासन करते थे परन्तु अयोग्य सुल्तानों के समय में सल्तनत छिन्न-भिन्न होने लगती थी। लोदी वंश के समय में यह अपने विनाश को पहुँच गई।

(3.) साम्राज्य का अति विस्तार: मुहम्मद बिन तुगलक के काल में दिल्ली सल्तनत का विस्तार अपने चरम पर पहुँच गया। संचार तथा यातायात के सीमित साधनों के कारण इतनी विशाल सल्तनत का संचालन दिल्ली अथवा किसी भी एक केन्द्र से होना अत्यंत दुष्कर था। इससे दूरस्थ प्रान्तों में विद्रोह होने लगे और प्रान्तपति स्वतन्त्र होने लगे। अतः साम्राज्य का अति विस्तार उसके पतन का कारण सिद्ध हुआ।

(4.) मुहम्मद बिन तुगलक की नीति: मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाओं तथा नीतियों का भी साम्राज्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। राजकोष रिक्त हो गया और शासन का आर्थिक आधार कमजोर हो गया। योजनाओं के विफल हो जाने से प्रजा में बड़ा असन्तोष फैला और शासन के प्रति उसकी श्रद्धा तथा सहानुभूति कम हो गयी।

(5.) फीरोजशाह की दोषपूर्ण नीतियाँ: दिल्ली सल्तनत के लिये, फीरोजशाह तुगलक की नीतियां मुहम्मद बिन तुगलक से भी अधिक अहितकर सिद्ध हुईं। मुस्लिम प्रजा के प्रति फीरोज की उदारता तथा हिन्दू प्रजा के लिये फीरोज की धर्मान्धता मानवता की सीमा का उल्लघंन करती थी जो सल्तनत के लिए बड़ी अहितकर सिद्ध हुई। सेनापतियों को नगद वेतन के स्थान पर जागीर प्रथा को पुनः मजबूत बनाना, लोगों को नौकरी देने के लिये गुलाम प्रथा को बढ़ावा देना, राज्य में उलेमाओं के हस्तक्षेप को बढ़ावा देना तथा सैनिक की नौकरी को वंशानुगत बनाना आदि दोषपूर्ण नीतियां सल्तनत की भीतरी शक्ति को खोखला बनाने के लिये पर्याप्त थीं।

(6.) फीरोज के अयोग्य उत्तराधिकारी: फीरोज की मृत्यु के उपरान्त कोई ऐसा योग्य सुल्तान न हुआ जो दिल्ली सल्तनत को छिन्न-भिन्न होने से बचा सकता।

(7.) उत्तराधिकार के अनिश्चित नियम: मुसलमानों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। अतः प्रत्येक सुल्तान की मृत्यु के उपरान्त उत्तराधिकार के लिये अमीरों तथा शहजादों में संषर्ष आरम्भ हो जाता था। इन संघर्षों का सल्तनत के स्थायित्व पर बुरा प्रभाव पड़ता था।

(8.) दरबार में दलबन्दी: मुस्लिम राज्य व्यवस्था में अमीर तथा उलेमा ही प्रायः नये सुल्तान का निर्वाचन करते थे। इन अमीरों तथा उलेमाओं में दलबन्दी का जोर रहता था। सुल्तान तथा सल्तनत पर प्रभाव स्थापित करने के लिये प्रायः इन दलों में खूनी संघर्ष होते थे तथा हत्याओं का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला चलता रहता था जो अंततः सुल्तान तथा सल्तनत के लिये घातक सिद्ध होता था।

(9.) धार्मिक असहिष्णुता: दिल्ली सल्तनत के अधिकतर सुल्तानों में धार्मिक असहिष्णुता कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने हिन्दुओं पर घनघोर अत्याचार किये। उनके मन्दिरों को तोड़ा तथा उन पर असह्य कर लगाये। इससे हिन्दुओं में सुल्तान तथा सल्तनत के प्रति घृणा का स्थाायी भाव बना रहा। हिन्दुओं को जब कभी अवसर मिलता था, वे विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देते थे। शासन और प्रजा के बीच घृणा तथा विद्रोह की भावना का दिल्ली सल्तनत के स्थायित्व पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

(10.) अन्तर्जातीय विवाह: कुछ इतिहासकारों के विचार में अन्तर्जातीय विवाहों से मुसलमानों में वर्णसंकर प्रजा उत्पन्न हो गई। इससे मुसलमानों का भद्र समाज पतित हो गया। क्योंकि भारत की निम्न कोटि की जातियों ने ही अधिक संख्या में इस्लाम स्वीकार किया था जिनमें सामरिक प्रवृत्ति नहीं थी। इस कारण विदेशी मुसलमानों में भारतीय मुसलमानों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न नहीं हो सकी तथा मुसलमान भी दो वर्गों अर्थात् विदेशी मुसलमानों तथा भारतीय मुसलमानों में बंट गये। इस कारण सल्तनत की शक्ति क्षीण हो गई।

(11.) मंगोल आक्रमण: दिल्ली सल्तनत पर मंगोलों के आक्रमणों का घातक प्रभाव पड़ा। गुलाम वंश के शासन काल से ही दिल्ली सल्तनत पर मंगोलों के आक्रमण आरम्भ हो गये थे और वे निरन्तर चलते ही रहे।

तैमूर लंग का आक्रमण दिल्ली सल्तनत के लिए प्राणघातक सिद्ध हुआ। उसने सल्तनत की जड़ों को हिला दिया। बाबर ने दिल्ली सल्तन को जड़ से उखाड़ फेंका और नये शासन की स्थापना की।

(12.) लोदी सुल्तानों की नीति: लोदी वंश के सुल्तानों ने जिस सामन्तीय नीति का अनुसरण किया, वह सल्तनत के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई। धीरे-धीरे भूमिपतियों की शक्ति इतनी बढ़ गई कि उन पर नियंत्रण रखना कठिन हो गया। अमीरों तथा सरदारों ने अपने स्वार्थ के लिए सल्तनत के हितों की उपेक्षा की। प्रान्तीय गवर्नरों के विद्रोहों से सल्तनत में अशांति फैल जाती थी। इन परिस्थितियों के सम्मिलित प्रभाव से दिल्ली सल्तनत का मंगोलों के हाथों समूल विनाश हो गया।

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