व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।
-ब्रह्मसूत्र भाष्य
भारतीय समाज में ‘संस्कार’ शब्द की अत्यधिक महत्ता है किंतु वेदों में इस शब्द का एक बार भी उल्लेख नहीं हुआ है। यह व्यवस्था संभवतः उपनिषद-काल में अस्तित्व में आई। ‘संस्कार’ शब्द की उत्पत्ति ‘कृ’ धातु में ‘सम्’ उपसर्ग लगाने से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ ‘भली प्रकार किया गया’ होता है।
उपनिषदों में ‘संस्कारोति’ शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ इस शब्द का आशय ‘चमकाना’ से है। जैमिनी के सूत्रों में इस शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है। जैमिनी सूत्र की शबर टीका में कहा गया है कि संस्कार वह है जिसके हो जाने पर पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है। कालांतर में शबर टीका का अर्थ ही ‘संस्कार’ शब्द का रूढ़ अर्थ हो गया।
संस्कार कर दिए जाने से दो प्रकार की योग्यता उत्पन्न होती थी- (1.) संस्कार किए जाने से व्यक्ति वेदाध्ययन या गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के योग्य हो जाता था। (2.) संस्कार करने से पुरुष में वीर्य तथा स्त्री में गर्भ आदि दोषों का परिहरण हो जाता था। स्मृतिकाल में संस्कारों की अनिवार्यता इतनी बढ़ी कि उपनयन संस्कार होने से ही द्विजत्व सिद्ध होने लगा- ‘संस्कारात् द्विज उच्चयते।’
वेदों में यद्यपि संस्कार शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है किंतु ऋग्वेद में गर्भाधान, विवाह तथा अन्त्येष्टि के मन्त्र प्राप्त होते हैं। अथर्ववेद में इन सूक्तों का विस्तार प्राप्त होता है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद के इन मन्त्रों ने ही आगे चलकर ‘संस्कार’ रूपी व्यवस्था को जन्म दिया होगा। वेदों की व्याख्या ब्राह्मण ग्रंथों में की गई है। इन ग्रंथों में संस्कार शब्द का विवेचन नहीं किया गया है किंतु ‘उपनयन’ से जुड़ी हुई विभिन्न विधियों का वर्णन किया गया है।
सूत्र साहित्य में न केवल संस्कार शब्द का अनेक बार उल्लेख हुआ है अपितु विभिन्न प्रकार के संस्कारों का विवेचन भी किया गया है। गृह्य सूत्रों में गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक किए जाने वाले विविध संस्कारों का विस्तृत वर्णन है। इन सूत्रों में संस्कारों का वर्णन प्रायः विवाह संस्कार से आरम्भ हुआ है। कुछ गृह्यसूत्रों में अन्त्येष्टि संस्कार का वर्णन संस्कारों के साथ न करके, परिशिष्ट में दिया गया है।
समस्त गृह्यसूत्रों में संस्कारों का स्वरूप मूलतः एक जैसा है किंतु इन सूत्रों का सम्बन्ध अलग-अलग वेदों से होने के कारण उनके स्वरूप में कुछ भेद किया गया है। धर्मसूत्रों में संस्कारों की विधि का अत्यल्प वर्णन किया गया है किंतु संस्कारों की सामाजिक उपयोगिता को विस्तार से लिखा गया है। स्मृतिग्रंथों में संस्कारों का वर्णन आचार के रूप में किया गया है।
स्मृतिकारों ने उपनयन एवं विवाह नामक संस्कारों का विस्तार से वर्णन किया है। क्योंकि इन्हीं दो संस्कारों के उपरांत व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में एवं गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। विभिन्न पुराणों में भी संस्कारों का महत्व भलीभांति प्रतिपादित किया गया है। रामायण एवं महाभारत में विभिन्न संस्कारों के बारे में यथा-स्थान लिखा गया है किंतु महाभारत में इनका विवेचन अधिक विस्तार से किया गया है।
संस्कारों का सम्बन्ध ऊपरी रूप से भले ही व्यक्ति के साथ संयुक्त दिखाई देता है किंतु वास्तव में इसका सम्बन्ध पूरे मानव समाज के हित से होता है। इन संस्कारों के माध्यम से मनुष्य को परिवार में, परिवार को समाज में तथा समाज को राष्ट्र रूपी व्यवस्था में बांधने का प्रयास किया गया था। इसलिए कहा गया कि ‘जो माता-पिता अपनी संतानों का संस्कार नहीं करते वे जनक तो हैं किंतु पशु के समान हैं।’ मनु के अनुसार संस्कार शरीर को शुद्ध करके उसे आत्मा के रहने का उपयुक्त स्थान बनाते हैं।
विविध ग्रंथों में संस्कारों के साथ उनका प्रयोजन भी स्पष्ट किया गया है। मानव के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास ही इन संस्कारों का प्रमुख प्रयोजन है। मनु के अनुसार गर्भाधान तथा अन्य संस्कारों से शरीर शुद्ध होता है तथा इहलोक एवं परलोक में भी मनुष्य को पाप से मुक्ति मिलती है। विशिष्ट संस्कारों के करने से मनुष्य के जन्मगत दोष नष्ट हो जाते हैं। शंकर ने भी वेदान्तसूत्र के भाष्य में यह मत प्रकट किया है।
जीवन के प्रगति मार्ग में ये संस्कार सुंदर सोपान हैं जो मनुष्य के विचारों तथा प्रवृत्तियों का शोधन करते हुए उसे निरंतर ऊंचा उठाते जाते हैं। बाल्यावस्था के संस्कारों का विशेष महत्व है। सूत्रग्रंथों के अनुसार विभिन्न संस्कार-क्रियाओं से शुद्ध हुआ व्यक्ति ही ब्रह्म-प्राप्ति के योग्य हो पाता है। मेधातिथि के अनुसार शुद्ध शरीर में ही शुद्ध आत्मा निवास करती है। वीरमित्रोदय संस्कार प्रकाश ने हारीत के वचनों को उद्धृत करते हुए लिखा है कि ब्राह्म संस्कार सम्पन्न व्यक्ति ऋषि-पद को प्राप्त कर लेता है तथा दैव- संस्कार सम्पन्न व्यक्ति देवत्व प्राप्त कर लेता है।
स्त्रियों के लिए भी संस्कारों का प्रतिपादन किया गया किंतु सूत्रकाल में यह भी व्यवस्था दी गई कि स्त्री के संस्कारों के समय वेदमंत्रों का उच्चारण नहीं करना चाहिए। केवल विवाह के समय पुरुष के साथ स्त्री का भी वैदिक मंत्रों से संस्कार किया जाता है।
संस्कारों की संख्या
गौतम धर्मसूत्र में चालीस संस्कारों का उल्लेख है जिनमें पाकयज्ञ, हविर्यज्ञ, सोमयज्ञ तथा देवव्रत आदि अनुष्ठान भी सम्मिलित हैं। मनुस्मृति तथा याज्ञवलक्य स्मृति में संस्कारों की संख्या का उल्लेख नहीं किया गया है किंतु गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक के संस्कारों का पूर्ण विधान लिखा गया है। परवर्ती काल में संस्कारों की संख्या घटकर 16 रह गई थी।
आधुनिक काल में ऋषि दयानंद ने भी 16 संस्कारों का समर्थन किया है किंतु वर्णन 17 संस्कारों का किया है- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समवर्तन, विवाह, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ, सन्यास तथा अन्त्येष्टि।
डॉ. राजबली पाण्डेय ने समस्त संस्कारों को पांच भागों में बांटा है- (1.) जन्म से पूर्व के संस्कार, (2.) शिशु के संस्कार, (3.) शिक्षा सम्बन्धी संस्कार, (4.) विवाह संस्कार तथा (5.) अन्त्येष्टि। इनके कर्त्ता भी अलग-अलग हैं। जन्म-पूर्व एवं शिशु अवस्था के संस्कार माता-पिता करते हैं, शिक्षा सम्बन्धी संस्कार आचार्य करते हैं, विवाह संस्कार परिवार एवं समाज करता है, वानप्रस्थ-ग्रहण तथा सन्यास-ग्रहण संस्कार मनुष्य स्वयं करता है जबकि अन्त्येष्टि संस्कार पुत्र-पौत्र आदि करते हैं।
सोलह संस्कार
सोलह संस्कारों का पालन करना प्रत्येक भारतीय परिवार का कर्त्तव्य माना गया है। मनुष्य का जीवन माँ के गर्भ में आने से आरम्भ होता है और यदि मोक्ष नहीं हो तो मृत्यु के उपरांत भी प्रेत रूप में विद्यमान रहता है। अतः मनुष्य शरीर को स्वस्थ तथा दीर्घायु बनाने और मन को शुद्ध एवं ज्ञानवान बनाने के लिए गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक तक सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गयी है।
संस्कारों का विधान स्त्री और पुरुष दोनों के लिए किया गया है। स्त्रियों के संस्कार (विवाह को छोड़कर) मन्त्रहीन होते हैं। संस्कार प्रमुखतः द्विज जातियों के लिए थे किंतु शूद्रों के लिए भी कुछ संस्कार निर्धारित किए गए। इनकी क्रियाएँ भी मंत्रहीन होती थीं। हिन्दू समाज में निम्नलिखित सोलह संस्कार अनिवार्य माने गए हैं-
(1.) गर्भाधान संस्कार: यह प्रथम संस्कार है। गौतम और बोधायन आदि व्यवस्थाकारों ने संतानोत्पत्ति के इच्छुक दम्पति के लिए गर्भाधान के पूर्व उचित काल में आवश्यक धार्मिक कर्मों को सम्पन्न करने का निर्देश किया है। इसे निषेक (गर्भाधान) तथा चतुर्थीकर्म भी कहा गया है किंतु वैशानख ने निषेक तथा गर्भाधान को भिन्न-भिन्न माना है।
इस संस्कार में माता के गर्भ में बीजरूप से शिशु स्थापित किया जाता है। विवाह के पश्चात् स्त्री के प्रथम ऋतुदर्शन के बाद चौथे दिन गर्भाधान संस्कार का समय कहा गया है। मनु के अनुसार संतान के इच्छुक दम्पत्ति को ऋतुदर्शन के चार दिन, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या एवं पूर्णमासी को छोड़कर यह संस्कार सम्पन्न कराना चाहिए।
(2.) पुसंवन संस्कार: पुसंवन संस्कार का उल्लेख समस्त गृह्यसूत्रों में है। गर्भ में स्थित शिशु को पुत्र का रूप देने के लिए यह संस्कार किया जाता है अर्थात् इस संस्कार का उद्देश्य पुत्र-प्राप्ति है। कुछ व्यवस्थाकारों के अनुसार यह संस्कार, गर्भाधान के दूसरे या तीसरे मास में करना चाहिए, जबकि कुछ व्यवस्थाकारों के अनुसार यह संस्कार, गर्भाधान के क्रमशः तीसरे, पाँचवे और छठवें मास में किया जाना चाहिए।
इस संस्कार में देवी की स्तुति की जाती थी एवं उनसे पुत्र-प्राप्ति की याचना की जाती थी। स्त्री की गोद में जल से भरा हुआ पात्र रखा जाता था तथा स्त्री उसे अपने उदर से स्पर्श कराती थी। पुत्रोत्पत्ति तथा गर्भ-रक्षा के लिए आयुर्वेदिक औषधियों का भी प्रयोग किया जाता था।
(3.) सीमन्तोन्नयन संस्कार: इस संस्कार का उद्देश्य गर्भवती स्त्री को अमंगलकारी शक्तियों से बचाना था। यह संस्कार गर्भाधान के तीसरे और आठवें मास के बीच किया जाता था। इस संस्कार-कर्म में पति पीछे से पत्नी के गले में उदुम्बर की टहनी बाँधता था और पहले दर्भ के अंकुर से और बाद में वीरतर की लकड़ी के टुकड़े से पत्नी के केश सँवारकर मांग (सीमान्त) निकालता था।
इसका उद्देश्य यह था कि पत्नी उर्वरा हो और उसके गर्भ से उत्पन्न होने वाला बालक वीर हो। सीमन्तोन्नयन के अवसर पर परिवार में उत्सव मनाया जाता था तथा नृत्य एवं गायन आदि का आयोजन होता था।
(4.) जातकर्म संस्कार: बृहदारण्यक उपनिषद् एवं गृह्यसूत्रों में इस संस्कार का विस्तृत वर्णन है। यह संस्कार पुत्र उत्पन्न होने के तुरन्त बाद एवं नाभिच्छेदन से पूर्व अथवा पुत्र-जन्म के दस दिन के भीतर किया जाता था। पुत्र जन्म पर देवताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए बारह अलग-अलग पात्रों में पकी हुई रोटी (पुरोडाश) अर्पित की जाती थी।
जमे हुए दूध (दही) और घी की हवि से हवन किया जाता था। इस अवसर पर पिता नान्दीपाठ एवं श्राद्ध आदि का विधान करते हुए अपने बालक पर तीन बार साँस छोड़ता था और सोने के बर्तन या चम्मच से मक्खन, शहद और दही उसकी जीभ पर लगाता था। इसके बाद बालक का नाभिच्छेदन किया जाता था और उसे नहला कर स्वच्छ किया जाता था। तदनन्तर पिता सरस्वती की प्रार्थना करते हुए, शिशु को उसकी माता के स्तनों के पास रखता था।
(5.) नामकरण संस्कार: जन्म के दसवें अथवा बारहवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। इस अवसर पर गृह-शुद्धि के लिए हवन एवं भोज आदि का आयोजन होता है। मनु ने व्यवस्था दी कि ब्राह्मण का नाम मांगल्य पूर्ण, क्षत्रिय का बलयुक्त, वैष्य का नाम धन वाचक तथा शूद्र का नाम जुगुप्सित होना चाहिए। कन्या का नाम सरलता पूर्वक उच्चारण करने योग्य, मंगलसूचक, दीर्घ स्वर से अंत होने वाला तथा आशीर्वादात्मक होना चाहिए।
(6.) निष्क्रमण संस्कार: जन्म के चौथे मास में बालक को पहली बार घर से बाहर निकालने की क्रिया को निष्क्रमण संस्कार कहते हैं। इसमें बालक को घर से बाहर लाकर दिन में सूर्य और रात्रि में चन्द्र के दर्शन कराए जाते हैं। सूर्य तथा चन्द्र के दर्शन से बालक के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
(7.) अन्नप्राशन संस्कार: यह संस्कार बालक के जन्म के छठे मास में किया जाता है। इस संस्कार में बालक को पहली बार दही, भात, मधु, घी आदि चखाया जाता है।
(8.) चूड़ाकर्म संस्कार: यह संस्कार शिशु के जन्म के पहले या तीसरे वर्ष में सम्पादित किया जाता है। इसे चौल अथवा केशोच्छेदन संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार मुण्डवाये जाते हैं और सिर पर केवल चूड़ा (चोटी) छोड़ी जाती है। शिखा (चोटी) रखने का प्रारम्भ इसी संस्कार से होता है।
(9.) कर्ण-छेदन संस्कार: यह संस्कार शिशु-जन्म के तीसरे या पाँचवें वर्ष में किया जाता है। इस संस्कार में शिशु का कर्ण-छेदन किया जाता है। शिशु को स्नान कराकर वस्त्र पहनाये जाते है और फिर वैद्य या कुशल व्यक्ति द्वारा पहले दाहिने कान का और फिर बाएं कान का छेदन होता है। शिशु को रोगों से बचाने तथा कानों में आभूषण पहनाने के लिए यह संस्कार किया जाता है।
(10.) विद्यारम्भ संस्कार: इस संस्कार द्वारा शिशु को अक्षर-ज्ञान कराया जाता है। बालक स्नानादि से निवृत होकर देवताओं की स्तुति के साथ गुरु के सामने बैठकर अक्षरों को पढ़ता है।
(11.) उपनयन संस्कार: ‘उप’ का अर्थ है ‘समीप’ तथा ‘नयन’ का अर्थ है ‘ले जाना’। अर्थात् उपनयन वह संस्कार है जिसके द्वारा बालक को शिक्षा के लिए गुरु के समीप ले जाया जाता है। आचार्य द्वारा शिष्य को ब्रह्म-विद्या देने के लिए स्वीकार किया जाता था। ब्रह्मचर्याश्रम इसी संस्कार से आरम्भ होता था।
इसे ‘यज्ञोपवीत’ संस्कार भी कहते थे क्योंकि इसी संस्कार से ब्रह्मचारी यज्ञोपवीत धारण करता था। शूद्रों को छोड़कर शेष तीनों वर्णों को उपनयन का अधिकार था। बालक को जाति के आनुसार आठवें, ग्यारहवें या बारहवें वर्ष में गुरु के पास भेजा जाता था। बालक धोती और उत्तरीय पहनकर, सिर का मुण्डन करवा कर, मेखला और दण्ड धारण करके आश्रम-जीवन का व्रत लेता था।
सूत्र साहित्य के अनुसार स्त्रियों को भी उपनयन एवं वेदाध्ययन का अधिकार था किन्तु बाद में जब कन्याओं के विवाह कम उम्र में होने लगे, तब उनकी शिक्षा बन्द हो गई और उपनयन केवल विवाह के समय धार्मिक विधान के रूप में होने लगे। मनु के अनुसार कन्याओं का उपनयन बिना पढे़ ही किया जाना चाहिए।
तीनों वर्णों के लिए उपनयन की आयु अलग-अलग है। मनु ब्राह्मण का पाँचवे वर्ष में, क्षत्रिय का छठे वर्ष में तथा वैश्य का आठवें वर्ष में उपनयन करने का निर्देश देते हैं। कुछ व्यवस्थाकारों के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य पुत्रों का क्रमशः सोलह, बाईस व चौबीस वर्ष की आयु तक यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य हो जाना चाहिए, अन्यथा वे घोर पाप के भागी होते हैं।
उपनयन संस्कार में विद्यार्थी जब गुरु के समीप जाकर बैठता था तब गुरु हवन करता था और फिर विद्यार्थी के वस्त्र एवं हाथों को अपने हाथ में लेकर उसे गायत्री मन्त्र की दीक्षा देता था। इसके बाद आचार्य उसे ब्रह्मचर्याश्रम की अन्य बातें बतलाता था। वह कहता था- ‘तुम ब्रह्मचारी हो, जल का पान करो, काम करो, दिन में शयन मत करो, आचार्य के नियंत्रण में वेदों का अध्ययन करो।’
इस संस्कार के सम्पन्न होने पर विद्यार्थी ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके गुरु से वेद तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ करता था। इस संस्कार के किए बिना किसी भी विद्यार्थी को वेद पढ़ने अथवा गायत्री मन्त्र के उच्चारण का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता था। उपनयन संस्कार के बाद आचार्य अपने शिष्य का आध्यात्मिक पिता और गायत्री उसकी माता बन जाती थी। इस संस्कार को दूसरा जन्म भी कहा जाता था, क्योंकि इस संस्कार के बाद उसका सम्पर्क विद्वानों तथा गुणीजन से होता था और वह ‘द्विज’ कहलाता था।
(12.) वेदारम्भ संस्कार: वैदिक युग के प्रारम्भिक काल में उपनयन संस्कार के साथ ही वेदों का अध्ययन आरम्भ होता था। अतः वेदारम्भ संस्कार की आवश्यकता नहीं थी किन्तु जब संस्कृत बोलचाल की भाषा न रही, तब उपनयन संस्कार के बाद लगभग एक वर्ष तक संस्कृत का अध्ययन कराया जाता था और उसके बाद वेदाध्ययन आरम्भ होता था। वेदों के पठन-पाठन का अधिकार मिलने के पूर्व विद्यार्थी को वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न करना पड़ता था।
(13.) केशान्त अथवा गोदान संस्कार: इस संस्कार के अन्तर्गत ब्रह्मचारी को अपने बाल कटवाने पड़ते थे। इस अवसर पर ब्रह्मचारी का परिवार आचार्य को गौ-दान देता था। इसलिए इस संस्कार को गोदान संस्कार भी कहते थे। सामान्यतः यह संस्कार सोलह वर्ष की आयु में सम्पन्न किया जाता था।
(14.) समावर्तन संस्कार: ब्रह्मचर्याश्रम का प्रारम्भ उपनयन संस्कार से और अंत समावर्तन संस्कार से होता था। सूत्रकारों के अनुसार अध्ययन समाप्ति के पश्चात् ब्रह्मचारी को अपने आचार्य को गुरु-दक्षिणा देकर उसका आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए तथा स्नान करना चाहिए। इस स्नान के कारण ही ब्रह्मचारी को ‘स्नातक’ कहा जाता था। इसके बाद विद्यार्थी अपने घर लौट आता था।
(15.) विवाह संस्कार: विवाह संस्कार के बाद ब्रह्मचारी, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। इस संस्कार में कन्या का पिता वस्त्र एवं आभूषणों से अलंकृत अपनी कन्या का, उसके योग्य गुणवान वर को, यज्ञ-की अग्नि के समक्ष दान करता है। इस संस्कार में ‘पाणिग्रहण’ (वर द्वारा वधू का हाथ थामना), ‘लाजाहोम’ (अग्नि में धान की खीलों की आहुति देना), ‘सप्तपदी’ (वर-वधू का अग्नि के चारों ओर सात परिक्रमा करना), ‘ध्रुव दर्शन’ (ध्रुव तारे को देखना) आदि विधान सम्पन्न किए जाते हैं। वर और वधू आजीवन एक दूसरे के साथ रहने की प्रतिज्ञा करते हैं। भारतीय परिवार में विवाह एक धार्मिक बन्धन माना जाता है। अविवाहित पुरुष को ‘यज्ञ’ करने का अधिकार नहीं होता।
(16) अंत्येष्टि संस्कार: यह मनुष्य जीवन का अन्तिम संस्कार है। इसमें मृतक के शरीर को स्नान आदि कराकर अर्थी पर लिटाकर श्मशान ने जाया जाता है और वहाँ चिता पर रखकर मन्त्रोच्चारण के साथ अग्नि को अर्पित कर दिया जाता है। तीसरे या दसवें दिन मृतक की अस्थियाँ चुनी जाती हैं जिन्हें फूल कहा जाता है।
इन अस्थियों को कलश में भरकर ऋग्वेद के मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है तथा किसी पवित्र नदी, सरोवर या जलाशय में मृतक की अस्थियां एवं भस्मी विसर्जित की जाती हैं। सपिण्डीकरण श्राद्ध द्वारा मृतक को पितरों में शामिल किया जाता है। मृत व्यक्ति के लिए समाधि या चबूतरा बनाया जाता था।
वर्तमान समय में बहुत से संस्कार विलुप्त हो गए हैं। केवल नामकरण संस्कार, विवाह संस्कार एवं अंतिम संस्कार ही प्रचलन में रह गए हैं।