बेटी जाना की तसल्ली के लिये खानखाना ने मुकर्रब खाँ के साथ ही आगरा जाने का विचार किया। वह चाहता था कि चाहे जैसे भी हो, जाना के बेटों को लौटा लाये।
खानखाना पूरी तैयारी के साथ जहाँगीर के सामने उपस्थित हुआ। वह इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था। उसने मोतियों के दो हार, ढेर सारे माणिक, तलवारें तथा तीन लाख रुपये जहाँगीर के पैरों में रख दिये और स्वयं भी जहाँगीर के पैरों में गिर पड़ा। जहाँगीर ने अपने गुरु को अपने पैरों में से उठा कर अपनी छाती से लगाकर, कृपा पूर्वक उसका माथा चूमते हुए कहा-
– ‘खानखाना! आप बादशाह के अतालीक होने के सम्मान से विभूषित हैं। इसलिये अब आपकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।’
– ‘मैं बादशाह सलामत की हर ख्वाहिश पूरी करने के लिये स्वयं को आपकी सेवा में समर्पित करता हूँ ।’
– ‘हमारी हसरत है कि दो साल में पूरा दक्खिन हमारी सल्तनत में शुमार हो।’
– ‘मैं जान देकर भी बादशाह सलामत की ख्वाहिश पूरी करूंगा।’
– ‘तुम्हें हमसे क्या मदद चाहिये?’
– ‘बारह हजार घुड़सवार और उनके खर्चे के लिये दस लाख रुपये मिल जायें तो मैं दो साल में यह कार्य पूरा कर दूं। यदि ऐसा न करूं तो मुझे बादशाह का गुनहगार माना जाये।’
– ‘यह सहायता मंजूर की जाती है। और क्या चाहते हैं?’
– ‘यदि बादशाह सलामत प्रसन्न हों तो मैं अपनी बेटी जाना बेगम के पुत्रों को अपने साथ ले जाना चाहता हूँ।’
– ‘क्यों, क्या तुम्हें हम पर भरोसा नहीं?’
– ‘भरोसे की न कहें, आप सिर मांग लें तो हाजिर है। इन बच्चों के सहारे जाना अपनी जिंदगी के दिन काट लेगी।’
– ‘ठीक है तुम उन्हें अपने साथ ले जा सकते हो।’
जहाँगीर जैसा मक्कार जमाने में न था। वह कतई नहीं चाहता था कि दानियाल के बेटे खानखाना के पास रहें क्योंकि उसकी निगाह में खानखाना किसी भी तरह विश्वास करने योग्य न था। वह कभी भी सलीम के विरुद्ध विद्रोह करके शहजादे दानियाल के पुत्रों को मुगलिया तख्त पर बैठाने का षड़यंत्र रच सकता था किंतु इस समय जहाँगीर को खानखाना की जरूरत थी। वह खानखाना को प्रसन्न देखना चाहता था, इसलिये उसने खानखाना को दानियाल के पुत्र अपने साथ ले जाने की अनुमति दे दी।
जहाँगीर ने खानखाना को ईरान के शाह से प्राप्त समन्द नामक घोड़ा, फतूह नाम का हाथी तथा बीस अन्य हाथी भी उसकी विदाई में उपहार के तौर पर दिये। समंद और फतूह आगरा की सेना में सर्वश्रेष्ठ घोड़ा और सर्वश्रेष्ठ हाथी माने जाते थे। इस उपहार के माध्यम से जहाँगीर खानखाना को जता देना चाहता था कि यदि खानखाना जहाँगीर के अनुकूल रहा तो उस पर बादशाही कृपा हर तरह से बनी रहेगी। जिस समय खानखाना ने पुनः दक्षिण के लिये कूच किया तो बादशाह ने खासा हाथी, सिरोपाव, जड़ाऊ तलवार और पेटी प्रदान किये।
इतना सब हो जाने पर भी जहाँगीर को संतोष नहीं हुआ। खानखाना के चले जाने के बाद जहाँगीर ने शहजादा परवेज को भी दक्षिण की ओर रवाना किया तथा स्वयं आगरा से चलकर अजमेर में आकर बैठ गया। जहाँगीर ने शहजादे को पच्चीस लाख रुपये दिये और मुगलिया सल्तनत के लगभग तमाम विश्वस्त सेनापति भी उसके अधीन करके उसके साथ भेजे। लगभग दो सौ मनसबदार, एक हजार अहदी और कई हजार सैनिकों की विशाल कुमुक लेकर परवेज दक्षिण में पहुँचा। उसने खानखाना को प्रसन्न करने के लिये बादशाह की ओर से हाथी, घोड़े, जड़ाऊ हथियार और अन्य उपहार प्रदान किये। खानखाना ने एक लाल और दो मोती बादशाह को भिजवाये। बादशाह ने इन रत्नों की कीमत बीस हजार रुपये लगायी।
जब यह सारी सेना दक्षिण में पहुँची तो दक्षिण में बड़ी भारी बेचैनी फैली। अब तक तो खानखाना लगभग सभी राज्यों से किसी न किसी प्रकार की संधि करके दक्षिण में शांति बनाये हुए था किंतु विशाल मुगल कुमुक को देखकर दक्खिनियों को इन संधियों पर विश्वास न रहा और वे इकठ्ठे होकर संघर्ष की तैयारी करने लगे।
खानखाना अपनी बात से गिरना नहीं चाहता था इसलिये उसने बादशाह को लिखा कि और कुमुक न भेजी जाये किंतु दूसरी ओर शहजादा परवेज और अन्य सेनापतियों ने ज्यादा से ज्यादा कुमुक की मांग रखी। बादशाह ने और कुमुक भिजवा दी।
सैंकड़ों सेनापतियों और हजारों सेनानायकों के एक ही स्थान पर एकत्रित हो जाने से उनमें मतभेद होने लगा। प्रत्येक मामले पर वे अलग-अलग राय बनाकर बैठ जाते। कोई भी किसी से सहमत नहीं होता था। सबकी राय भिन्न होती थी और सब के सब अपनी ही बात को सही मानते थे। स्थितियाँ खानखाना के हाथ से निकल गयीं। परवेज ने उनके किसी भी सुझाव को स्वीकार नहीं किया। इस सब का परिणाम यह रहा कि जब परवेज ने बालाघाट पर चढ़ाई की तो दक्खिनियों ने मुगलों की रसद रोक दी जिससे बड़ी संख्या में हाथी, घोड़े और ऊंट मारे गये। अपनी सेना का जीवन बचाने के लिये परवेज को अपमान जनक शर्तों पर संधि करनी पड़ी। अहमदनगर का किला भी मुगलों के हाथ से निकल गया।
शहजादा परवेज, खानेजहाँ लोदी तथा अन्य समस्त सेनापतियों ने इस पराजय का ठीकरा खानखाना के माथे पर फोड़ दिया। उन्होंने बादशाह को लिखा कि यह पराजय और बदनामी खानखाना की कुटिलता से हुई है। बादशाह खानखाना पर बहुत बिगड़ा। इस पर खानखाना ने बादशाह को लिखा कि मुझे दक्षिण से हटाकर दरबार में बुला लिया जाये। जहाँगीर ने ऐसा ही किया और खानेजहाँ को दक्षिण का सारा जिम्मा सौंप दिया।