पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि सुमेरु पर्वत के दर्शनों के बाद महारानी द्रौपदी, सहदेव, नकुल तथा अर्जुन हिमालय की उपत्यकाओं में गिर पड़े। अब केवल भीमसेन एवं महाराज युधिष्ठिर ही बचे थे तथा महाराज युधिष्ठिर के साथ एक कुत्ता चल रहा था।
थोड़ा ही आगे बढ़ने पर कुंती नंदन भीमसेन भी गिर पड़े। धर्मराज युधिष्ठिर ने उन्हें मुड़कर भी नहीं देखा और पूर्ववत् आगे बढ़ते रहे। भीमसेन ने धर्मराज युधिष्ठिर को पुकारकर कहा- ‘राजन्! जरा मेरी ओर देखिए! मैं आपका प्रिय भीमसेन हूँ और यहाँ गिरा हुआ हूँ। यदि आप जानते हों तो बताइए कि मेरे गिरने का क्या कारण है?’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘भीम! तुम बहुत खाते थे और दूसरों को कुछ भी न समझकर अपने बल की डींग हांका करते थे। इसी से तुम्हें भूमि पर गिरना पड़ा है।’
यह कहकर महाबाहु युधिष्ठिर भीमसेन की ओर देखे बिना ही आगे चल दिए। केवल एक कुत्ता बराबर उनका अनुसरण करता रहा। इतने में ही आकाश और धरती को प्रतिध्वनित करता हुआ एक दिव्य रथ प्रकट हुआ। उसमें देवराज इन्द्र बैठे हुए थे।
इन्द्र ने महाराज युधिष्ठिर से कहा- ‘कुंती नंदन! तुम इस रथ पर सवार हो जाओ और मेरे साथ स्वर्ग में चलो!’
पूरे आलेख के लिए देखें, यह वी-ब्लाॅग-
इस पर महाराज युधिष्ठिर ने धरती पर गिरे हुए अपने भाइयों पर दृष्टि डाली तथा कहा- ‘नहीं देवेश्वर! अपने भाइयों के बिना मैं स्वर्ग में नहीं जाउंगा। राजकुमारी द्रौपदी अत्यंत सुकुमारी है। उसे भी हम लोगों के साथ चलने की अनुमति दीजिए। तब मैं आपके साथ चल सकता हूँ।’
इन्द्र ने कहा- ‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे सभी भाई तुमसे पहले ही स्वर्ग में पहुंच चुके हैं। उनके साथ द्रौपदी भी है। वहाँ चलने पर वे सब तुम्हें मिलेंगे। अतः उनके लिए शोक न करो। वे मनुष्य शरीर का परित्याग करके स्वर्ग में गए हैं किंतु तुम इसी शरीर से वहाँ तक जा सकते हो।’
युधिष्ठिर बोले- ‘भगवन्! यह कुत्ता मेरा बड़ा भक्त है। इसने सदा ही मेरा साथ दिया है। अतः इसे भी मेरे साथ चलने की आज्ञा दीजिए।’
इन्द्र ने कहा- ‘राजन् तुम्हें मेरे समान अमरता, मेरे समान ऐश्वर्य, पूर्ण लक्ष्मी और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई है। साथ ही तुम्हें स्वर्गीय सुख भी सुलभ हुए हैं। अतः इस कुत्ते को छोड़कर मेरे साथ चलो। ऐसा करने में कोई कठोरता नहीं है।’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘भगवन्! आर्य पुरुष के द्वारा निम्न श्रेणी का कार्य होना कठिन है। मुझे ऐसी लक्ष्मी की प्राप्ति कभी न हो जिसके लिए मुझे अपने भक्त का त्याग करना पड़े।’
इन्द्र ने कहा- ‘धर्मराज! कुत्ते रखने वालों के लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं है। किसी मनुष्य द्वारा यज्ञ करने, कुंआ खुदवाने और बावली बनवाने से जो पुण्य प्राप्त होते हैं, कुत्ता रखने पर वे समस्त पुण्य क्रोधवश नामक राक्षस द्वारा हर लिए जाते हैं। अतः आप इस कुत्ते को छोड़ दें, ऐसा करने में कोई निर्दयता नहीं है।’
युििधष्ठिर ने कहा- ‘महेन्द्र! भक्त का त्याग कर देने से जो पाप होता है, उसका कभी अंत नहीं होता। संसार में वह ब्रह्महत्या के समान माना गया है। अतः मैं अपने सुख के लिए कभी भी इस कुत्ते का त्याग नहीं करूंगा। जो डरा हुआ हो, भक्त हो, मेरा-दूसरा कोई नहीं है, ऐसा कहते हुए आर्तभाव से शरण में आया हो, अपनी रक्षा करने में असमर्थ एवं दुर्बल हो तथा अपने प्राण बचाना चाहता हो, ऐसे शरणागत को मैं नहीं छोड़ सकता।’
इन्द्र ने कहा- ‘मुनष्य जो कुछ भी दान, स्वाध्याय अथवा हवन आदि पुण्य कर्म करता है, उस पर यदि कुत्ते की दृष्टि भी पड़ जाए तो पुण्य के फल को क्रोधवश नामक राक्षस हर लेते हैं। अतः तुम इस कुत्ते का त्याग कर दो। इससे तुम्हें देवलोक की प्राप्ति होगी। तुमने भाइयों एवं प्रिय पत्नी का त्याग करके अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप देवलोक को प्राप्त किया है। फिर तुम इस कुत्ते को क्यों नहीं छोड़ देते? सब-कुछ छोड़कर अब कुत्ते के मोह में कैसे पड़ गए?’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘भगवन्! संसार में यह निश्चित है कि मरे हुए मनुष्यों के साथ न किसी का मेल होता है और न विरोध। द्रौपदी और अपने भाइयों को जीवित करना मेरे वश की बात नहीं है। अतः मर जाने पर उनका मैंने त्याग किया, जीवित अवस्था में नहीं। शरण में आए हुए को भय देना, स्त्री का वध करना, ब्राह्मण का धन लूटना और मित्रों के साथ द्रोह करना, ये चार अधर्म एक ओर तथा भक्त का त्याग दूसरी ओर हो तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है।’
युधिष्ठिर के ऐसा कहते ही उनके साथ चल रहा कुत्ता अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गया। वह वस्तुतः धर्मराज था जो युधिष्ठिर के धैर्य एवं सत्यनिष्ठा की परीक्षा लेने आया था।
धर्मराज ने युधिष्ठिर से कहा- ‘हे पुत्र! तुम अपनी निर्मल बुद्धि और धर्माचरण के कारण सदैव ही अपने पिता का नाम उज्जवल करते रहे हो। मैंने पहले भी एक बार तुम्हारी परीक्षा ली थी जब तुम्हारे चारों भाई पानी लेने के लिए सरोवर पर गए थे और मृत्यु को प्राप्त हुए थे। उस समय भी तुमने अपनी विमाता माद्री के पुत्र नकुल को जीवित देखने की इच्छा बताकर अपने समस्त स्वार्थों का त्याग किया था। आज भी तुमने केवल एक कुत्ते के प्राण बचाने के लिए देवराज इन्द्र के रथ का त्याग कर दिया। अतः स्वर्गलोक में तुम्हारी समता करने वाला कोई नहीं है। इसलिए तुम्हें अपने इसी शरीर से अक्षय लोकों की प्राप्ति हुई है। तुम परम उत्तम एवं दिव्य गति को पा गए हो।’
धर्मराज के ऐसा कहते ही मरुद्गण, अश्विनी कुमार, देवगण, देवर्षिगण एवं सिद्धजन आकाश से धरती पर उतर गए और उन्होंने अपने हाथों से पाण्डुनंदन को इंद्र के रथ पर चढ़ाया। समस्त देवता भी अपने-अपने दिव्य रथ लेकर इन्द्र के रथ के पीछे-पीछे स्वर्ग के लिए चले।
उसी समय देवर्षि नारद ने आकाश में स्थित होकर उच्च स्वर में कहा- ‘जितने राजर्षि स्वर्ग में आए हैं महाराज युधिष्ठिर उन सबकी कीर्ति को आच्छादित करके विराजमान हो रहे हैं। ऐसा यश किसी और राजर्षि को भी प्राप्त हुआ है, मैंने नहीं सुना है।’
इस प्रकार चंद्रवंशी राजाओं में युधिष्ठिर अंतिम राजा थे जिन्हें सशरीर ही स्वर्गलोक में प्रवेश करने का अधिकार मिला।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता