संगम साहित्य से तात्पर्य पांड्य-शासकों द्वारा संरक्षित विद्वत्-परिषद् के साहित्यकारों द्वारा तीन अलग-अलग सम्मेलनों में तमिल भाषा में रचे गए साहित्य से है। इतिहासविद् संगम साहित्य की तुलना ग्रीस और रोम के गौरव-ग्रंथों तथा यूरोपीय पुनर्जागरण काल के साहित्य से करते हैं। कुछ विद्वान संगम युग को तमिलों का स्वर्ण-युग मानते हैं। निश्चय ही तमिलों के इतिहास में संगम युग अनूठा है। दक्षिण भारत के अनेक स्थलों से प्राप्त पुरातात्त्विक स्रोत संगम युग के लोगों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पक्षों पर प्रकाश डालते हैं किंतु इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी उस युग के बहुमूल्य संगम-साहित्य से प्राप्त होती है।
संगम साहित्य का रचनाकाल
संगम साहित्य के रचना-काल के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार संगम साहित्य ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी से लेकर दूसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य तक लिखा गया। एम. अरोकिया स्वामी के अनुसार संगम साहित्य में सम्मिलित ग्रंथ ‘तोलक्कापियम’ के लेखक ‘तोल्कापिप्यर’ ईसा पूर्व चौथी अथवा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में हुए। अतः संगम साहित्य की रचना इसी काल में आरम्भ हुई होगी। संगम साहित्य की रचना के आधार पर के. ए. एन. शास्त्री संगम युग की अवधि ई.100 से ई.250 तक मानते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इस साहित्य का संकलन ई.300 से ई.600 के काल में हुआ किंतु यह निर्विवाद है कि इस साहित्य का अंतिम संकलन ई.600 अथवा उसके आसपास हुआ। इस साहित्य का सृजन एवं संग्रहण पांड्य शासकों द्वारा मदुरै में आयोजित तीन ‘सम्मेलनों’ के दौरान हुआ जिन्हें ‘संगम’ कहा जाता है।
संगम साहित्य की रचना
अलग-अलग पांड्य शासकों द्वारा अलग-अलग काल में बुलाए गए तीन साहित्य-सम्मेलनों में भाग लेने के लिए दक्षिण भारत के अनेक ख्यातिनाम लेखक, कवि एवं चारण दूर-दूर से मदुरै आए। इन सम्मेलनों को ‘संगम’ और इन सम्मेलनों में रचित साहित्य को ‘संगम साहित्य’ कहा गया। संगम साहित्य अनेक वीरों और वीरांगनाओं की प्रशंसा में रचित उच्चकोटि की अनेक छोटी-बड़ी कविताओं का संग्रह है। ये कविताएँ धर्मसम्बन्धी नहीं हैं।
साहित्य का विशाल भण्डार
संगम साहित्य अपने मूल रूप में साहित्य का विशाल भण्डार रहा होगा। जो संगम-साहित्य आज उपलब्ध है वह उसका एक हिस्सा भर ही है। संगम साहित्य निम्नलिखित संकलनों में उपलब्ध है- नरिनई, कुरुन्दोहई, ऐन्गुरुनुरु, पत्तुप्पत्त, पदिटुप्पतु, परिपाड़ल, कलित्तोहई, अहनानुरु और पुरनानुरू। संपूर्ण संगम साहित्य में 473 कवियों की 2,289 रचनाएं हैं। इन कवियों में से 102 अनाम कवि हैं तथा शेष तमिल के विख्यात साहित्यकार हैं। संगम साहित्य में 30,000 पंक्तियों की कविताएं हैं। इन्हें आठ संग्रहों में संकलित किया गया, जिन्हें ‘एट्टूतोकोई’ कहा गया। इनके दो मुख्य समूह हैं- पाटिनेनकिल कनाकू (18 निचले संग्रह) और पत्त ूपत्तू (10 गीत)। पहले समूह को दूसरे से अधिक पुराना और अधिक ऐतिहासिक माना जाता है। संगम साहित्य का सबसे प्राचीनतम ग्रंथ ‘तोलक्कापियम’ है। यह तमिल-व्याकरण और काव्य का ग्रंथ है।
तीन संगमों की परंपरा
पांड्य शासकों द्वारा कुल तीन संगम आयोजित किए गए थे किंतु पहले दो संगमों के बारे में कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है और उनमें जिस साहित्य का सृजन हुआ उसका भी कुछ पता नहीं। तीसरे संगम के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध है। यह संगम पांड्यों की राजधानी मदुरा में हुआ। इस सम्मलेन में तमिल कवियों ने पर्याप्त संख्या में हिस्सा लिया होगा। इरैयानार अहप्पोरुल के अनुसार ये संगम 9,990 वर्ष तक चलते रहे तथा इनमें 8,598 विद्वान सम्मिलित थे। अधिकांश विद्वान् संगमों की इस अवधि को सही नहीं मानते। उनके विचारानुसार इतनी लम्बी अवधि संभवतः संगम साहित्य को प्राचीनता की गरिमा और महत्ता प्रदान करने के लिए ही बताई गई होगी। संत अगस्व्यार संगम परम्परा के प्रवर्तक थे। अहप्पोरुल की टीका से तीनों संगमों की अनुक्रमिक व्यवस्था और उनके अंतरालों के बीच के जल-प्लावनों की भी जानकारी मिलती है। ये संगम अथवा विद्वत्परिषदें 197 पांडय राजाओं द्वारा संरक्षित थीं। परंपरागत मतानुसार तीन अनुक्रमिक संगमों में प्रथम दो प्रागैतिहासिक काल के हैं। सभी तीनों संगम पांडयों की राजधानी में आयोजित किए गए। चूंकि राजधानी समय-समय पर बदलती रहती थी अतः प्रथम संगम का मुख्यालय पुराना मदुरै था और दूसरा संगम कपाटपुरम् में आयोजित किया गया। अनुक्रमिक जल-प्लावनों में ये दोनों केन्द्र समुद्र द्वारा नष्ट कर दिए गए। तीसरा संगम आधुनिक मदुरै में आयोजित हुआ था। तृतीय संगम की तिथि अन्य संगमों की तिथियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक प्रतीत होती है। यह तिथि ईसा की प्रथम दो शताब्दी और संभवतः ईस्वी सन् के प्रारंभ के तत्काल पूर्व की सदी मानी जाती है। तोल्कापिप्यर का काल द्वितीय संगम युग में माना जाता है। तीसरा संगम युग भारत-रोम के तत्कालीन शाही रोम के साथ व्यापार के काल से मेल खाता है। यह काल-निधार्रण उस समय के ग्रीक लेखकों के विवरण में उपलब्ध साक्ष्यों पर आधारित है। भूमध्य सागरीय प्रदेशों और तमिल क्षेत्र के बीच समुद्रपारीय व्यापारिक गतिविधियों के अनेक उल्लेख मिलते हैं। यह संगम साहित्य से भी प्रमाणित होता है। संगमों की तुलना आधुनिक युग के यूरोप में फ्रेंच अकादमी से की जा सकती है जिसका लक्ष्य भाषा की शुद्धता और साहित्यिक स्तर को बनाए रखना था। आरंभ में संगम में नामांकन सहयोजन से होता था, किंतु आगे चलकर यह भगवान शिव, जो इस महान संस्था के स्थायी अध्यक्ष थे, की चमत्कारी युक्ति से होने लगा।
संगम साहित्य की भाषा
दक्षिण भारत की सर्वाधिक प्राचीन भाषा संभवतः तमिल थी। बाद में स्थानीय बोलियों के मिश्रण से तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ भाषाएँ भी अस्तित्व में आईं। वैदिक संस्कृति से सम्पर्क के बाद दक्षिण की भाषाओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्द अपनाए गए और ई.पू. तीसरी शताब्दी में 44 वर्णों पर आधारित एक लिपि का विकास किया गया। संगमकालीन साहित्य इसी लिपि में लिखा गया। पुरातत्वविदों को 75 से भी अधिक ब्राह्मी लिपि (जो बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है) में लिखे अभिलेख मदुरा और उसके आस-पास की गुफाओं में प्राप्त हुए हैं। इनमें तमिल के साथ-साथ प्राकृत भाषा के भी कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया है। सुदूर दक्षिण के जन जीवन पर पहले-पहल संगम साहित्य से ही स्पष्ट प्रकाश पड़ता है।
संगम साहित्य के प्रमुख महाकाव्य
संगम साहित्य में तिरूवल्लूवर जैसे तमिल संतों की कृति ‘कुराल’ उल्लेखनीय है जिसका बाद में अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। ‘कुराल’ को तीन भागों में बांटा गया है। पहला भाग महाकाव्य, दूसरा भाग राजनीति और शासन तथा तीसरा भाग प्रेम विषयक है। ‘शिलाप्पदीकारम’ तथा ‘मणिमेकलई’ नामक दो महाकाव्य भी हैं। जिनकी रचना लगभग छठी शताब्दी ईस्वी में की गई। पहला महाकाव्य तमिल साहित्य का सर्वाेत्तम रत्न माना जाता है। यह एक प्रेमगाथा पर आधारित है। दूसरा महाकाव्य मदुरै के अनाज व्यापारी ने लिखा। दोनों महाकाव्यों में दूसरी से छठी शताबदी ईस्वी तक के तमिल समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक वर्णन हुआ है। ईसा की प्रारंभिक सदियों में तमिलनाडु के लोगो के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के अध्ययन के लिए संगम साहित्य ही एकमात्र प्रमुख स्रोत है। इस साहित्य में व्यापार और वाणिज्य के बारे में प्राप्त तथ्यों की पुष्टि उसकी विदेशी विवरणों तथा पुरातात्विक प्रमाणों से भी होती है।
संगम साहित्य-निकाय
आधुनिक विद्वान ‘संगम साहित्य पद का प्रयोग केवल उन्हीं रचनाओं के लिए करते हैं जो छंदबद्ध हैं, गद्य का जन्म बहुत बाद में हुआ। ‘एत्तुतोगाई’ (अष्टसंग्रह), ‘पत्तुपात्रु’ (दस गीत) और ‘पतिने किल्कनक्कु’ (अष्टादश लघु कृतियाँ), आदि काव्य इसी क्रम में ई.150-250 की अवधि में रचे गए हैं। पंचमहाकाव्य- जीवकचिंतामणि, सिलप्पादिकरम, मनिमे कलाई, वलयपाथी और कुंडल केशी बहुत बाद में रचे गए। इनमें से अंतिम दो महाकाव्य अब उपलब्ध नहीं हैं। शेष तीन महाकाव्यों में सिलप्पादि करम तथा मनिमे कलाई जुड़वाँ महाकाव्य कहे जाते हैं, क्योंकि वे एकल परिवार- कोवलान (पुहार का धनी सौदागर), कन्नगी (कोवलान की साध्वी पत्नी), माधवी (नर्तकी) जिसके साथ कोवलान विवाहित बनकर रहता था, और इस विवाह से उत्पन्न संतान, मनिमेकलाई की कहानी को ही आगे बढ़ाते हैं। सिलप्पदिकरम का लेखक ईलांगो आदिगल था जिसे महाकाव्य में तत्कालीन चेर राजा सेंगुत्तुवन का भाई कहा गया है। मनिमेकलाई की रचना सथनार ने मुख्य रूप से तमिलों के बीच बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए की थी। ये काव्य-रचनाएँ तमिलों की सामाजिक, आर्थिक और आर्थिक परिस्थितियों का वर्णन करती हैं और इनके प्रतिपाद्य विषय के केंद्र मदुरै, पुहार (पूंपुहारकावेरी), पटिटनम, वंजि (करुर) और कांची आदि नगर हैं।
उपर्युक्त तीन समूहों के काव्य ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों के भीतर लिखे माने जा सकते हैं किन्तु वर्तमान समय में वे जिस क्रम में संगृहीत और व्यवस्थित हैं वह बहुत बाद का प्रतीत होता है। काव्य की लंबाई उसे बड़े वर्गों में विभाजित करने का मुख्य आधार थी। ‘अष्टसंग्रह’ की कविताएँ तीन से तैंतीस पंक्तियों की हैं, जबकि ‘दशगीत’ की सबसे छोटी कविता 103 पंक्तियों तथा सबसे लंबी कविता 782 पंक्तियों की है। अधिकांश कविताओं के अंत में टिप्पणी भी दी गई है जिनमें कवियों के नाम और उस कविता-रचना की परिस्थितियों का भी उल्लेख है।
‘अष्टादश लघुकृतियों’ में नैतिक और उपदेशात्मक साहित्य है। संगम साहित्य के उपदेशात्मक साहित्य में विश्व-प्रसिद्ध ‘तिरुक्कुरल’ का छंदबद्ध साहित्य भी सम्मिलित है जिसके प्रत्येक छंद में दो से तीन पंक्तियाँ हैं।
वर्तमान में संगम साहित्य में 3 पंक्तियों से लेकर 800 पंक्तियों तक की विभिन्न लंबाई वाले काव्य हैं। इनमें से कुछ रचनाएँ एक ही कवि की मानी गई हैं, जबकि नालादियार जैसी कुछ अन्य रचनाएँ अनेक कवियों द्वारा लिखित मानी जाती हैं। वर्तमान में उपलब्ध संगम काव्य 30,000 से अधिक पंक्तियों में है। ये कुल 473 कवियों द्वारा लिखी गई हैं जिनमें लगभग 50 महिला कवि भी हैं। 102 कविताएँ अज्ञात कवियों की हैं।
इन रचनाओं से प्रकट होता है कि उस समय की संस्कृति बहुत उन्नत थी तथा संगम युग आते-आते तमिल भाषा अत्यंत प्रौढ़ हो चुकी थी। संगम साहित्य की भाषा अवश्य ही अत्यंत प्राचीन है किंतु आधुनिक तमिल भाषियों को उसे समझने में अधिक कठिनाई नहीं होती। विद्वानों ने संगम काव्य को विषय-वस्तु के आधार पर अनेक श्रेणियों में बांटा है किंतु आकार के आधार पर उन्हें दो श्रेणियों में विभक्त किया जाता है- (1.) लघु संबोध-गीति और (2.) लंबी कविताएँ। इतिहासकारों के लिए छोटी कविताएँ, लंबे गीतिकाव्य से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
संबोध-गीति वचनिकाओं में संगृहीत हैं। ये वचनिकाएँ हैं- अहनानुरु, पुरानानुरु, कुरुंतोगाई, नार्रिनाई, कालितोगाई, परिपादाल, ऐंगुरुनुरु और पतिरुर्पत्तु। इनका संकलन ‘एत्तुतोगाई’ कहलाता है। दस लंबे गीति-काव्य अथवा विवरणात्मक काव्य, जिसे ‘पत्तु पत्तु’ कहते हैं, नौवां समूह माना जाता है। इस संकलन में निम्नलिखित काव्य शामिल हैं- तिरुमुरुगारुर्प्पादाई, सिरुपानारुर्प्पादाई, पोरुनारुर्पादाई, पेरुंबनारुर्पादाई, नेदुनालवादाई, कुरिंजिप्पात्रु, मदुराईक्कांजी, पत्तिनाप्पालाई, मुमुल्लाइप्पत्तु और मलाईपादुकादम। इनमें तिरुमुरुगारुर्पादाई भगवान मुरुगन पर भक्ति-काव्य है। सिरु पनारुर्प्पादाई नलिलयाक्कोडन की उदार प्रकृति का वर्णन करता है जिसने चोल राज्य के एक हिस्से पर शासन किया। पेरुं बाना रुज्पदाई तोंदा ईमान इलांतिरैयान और उसकी राजधानी कांचीपुरम का वर्णन करता है। पोरुनारुर्प्पादाई और पत्तिनाप्पालाई महान चोल राजा कारिकाल का स्तुतिगान करता है। नेदुनालवादाई और मदुराई कांजी के महान पांड्य राजा लालैया लांग नत्रु नेडुन जेलियान का वर्णन करता है। कुरिजिप्पत्रु पहाड़ी और पर्वतीय जीवन का चित्रण करता है, और मलाई पादुकादम नायक नान्नान के साथ-साथ युद्ध में राजा की विजय का उत्सव मनाने और सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए गीत-संगीत की रचना करता है। ये सारी कृतियाँ संगम युग में कवियों की महत्ता को भी दर्शाती हैं।
संगम कालीन साहित्य में वर्णित समाज
तोल्कापिपयम के वर्णन से पता चलता है कि संगम समाज का आरंभिक दौर भूमि के पंचविध वर्गीकरण- पहाड़ी, पशुचारी, कृषीय, मरुस्थल और तटीय पर आधारित था। इन वर्गीकृत भूमियों पर विभिन्न किस्म के लोग रहते थे और सबने अपने अलग-अलग परिवेश में विशेष प्रकार के तौर-तरीके और जीवन-शैलियाँ विकसित कीं।
पारिस्थितिकीय विविधताओं ने उनके विभिन्न व्यवसायों- आखेट, कृषि, पशुचारण, लूट-पाट, माही गिरी, गोताखोरी, नौचालन, इत्यादि का स्वरूप निर्धारित किया।
आद्य मानव समूह
मानवशास्त्री अध्ययनों से पता चलता है कि संगम कालीन आद्य सामाजिक घटक नेग्रोआयड और आस्ट्रेलायड समूहों का था जिनका मिश्रण आद्य भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से आए एक अन्य प्रजातीय कुल से हुआ था। आरंभिक दौर में इन समाजों की जनसंख्या कम थी और सामाजिक वर्गों का निर्माण नहीं हुआ था। इस कारण प्रत्येक क्षेत्र के लोगों में एकता थी।
वे अपने शासकों के पास स्वतंत्रता पूर्वक आ-जा सकते थे। उस समय का तमिल समाज व्यावसायिक वर्गीकरण से परिचित था जिसमें सैनिकों, आखेटकों, गड़ेरियों, हलवाहों, मछुआरों, इत्यादि व्यवसायों का अस्तित्व प्रमुखता से था।
सामाजिक वर्गीकरण
संगम युग के उत्तरार्द्ध में अनेक कबीलों और सरदारों का अस्तित्व मिलता है। चार वैदिक वर्ण स्पष्टतः बाद की अवधि के थे। अप्रवासी ब्राह्मणों द्वारा ईसा की पहली सदी के लगभग वर्ण-व्यवस्था लाई गई, किन्तु इसमें उत्तर भारत की तरह क्षत्रिय शामिल नहीं थे। सिर्पफ ब्राह्मण ही द्विज थे जो यज्ञोपवीत धारण कर सकते थे। संगम साहित्य में दासों का उल्लेख भी मिलता है और उन्हें ‘आदिमाई’ कहा जाता था जिसका अर्थ होता है- वह व्यक्ति जो दूसरों के चरणों पर आश्रित होता है।
संगम कालीन समाज में स्त्री की दशा
कालित्तोगाई आदि संगम-काव्यों से ज्ञात होता है कि संगम कालीन तमिल समाज में नारियों को पुरुषों की भांति स्वतंत्रता प्राप्त थी। वे स्वतंत्रता पूर्वक घरों से बाहर जाती थीं। समुद्रतट और नदी-किनारे खेल सकती थीं और मंदिरों के उत्सव में शामिल होती थीं। फिर भी नारी को पुरुषों के संरक्षण में रहना होता था। ‘कुरुंतोगाई’ से पता चलता है कि पत्नी को पति के गुणों के मूल्यांकन के आधार पर नहीं, अपितु इसलिए प्यार करना चाहिए क्योंकि वह उसका पति है।
दूसरे शब्दों में, पत्नी के लिए पति का आकलन करना संभव नहीं था। यद्यपि ऐसे प्रसंग भी मिलते हैं जहाँ नारियाँ शिक्षित थीं और काव्य-रचना भी करती थीं किन्तु साधारणतः नारियों की स्थिति ऐसी नहीं थी। उन्हें संपत्ति का अधिकार नहीं था, किन्तु उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाता था।
वे विधवा का जीवन बिताती थीं अथवा सती हो जाती थीं और इसे दैवी-विधान माना जाता था। विवाह एक संस्कार था, संविदा नहीं। ‘तोलकापिपयम’ में आठ प्रकार के विवाहों की चर्चा की गई है जिनमें ब्रह्म विवाह का आम प्रचलन था। प्रणय-निवेदन और बिना विवाह के साथ में रहने का भी उल्लेख है जो बाद में पारंपरिक विवाह के रूप ले लेता था।
वेश्यावृत्ति एक स्वीकृत संस्था थी। किन्तु गणिकाएँ शांत पारिवारिक जीवन में बाधक मानी जाती थीं। इसके बावजूद, काव्यों में जिस रूप में इनका चित्रण हुआ है और वे जैसी सामाजिक हैसियत रखती थीं उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि संगम युग की गणिकाएं हेय-दृष्टि से नहीं देखी जाती थीं। यद्यपि कुरुतोगाई आदि ग्रंथों में ऐसी गणिकाओं की चर्चा हुई है जो पत्नियों और उनके रिश्तेदारों को चुनौती देती हैं, पुरुषों को लुभाती हैं तथापि गणिकाएँ अपने साथियों को मुख्यतः नृत्य-गायन आदि से ही प्रसन्न करती थीं।
वस्त्राभूषण एवं अलंकार
धनी लोग बारीक मलमल और रेशम से बने वस्त्र पहनते थे। कुलीनों और राजाओं को छोड़कर शेष लोग कपड़े के दो टुकड़ों- एक कमर के नीचे और दूसरा पगड़ी के रूप में शिरोवस्त्र से ही संतुष्ट रहते थे। स्त्रियाँ कपड़ों का उपयोग कमर से नीचे के भाग को ढंकने के लिए ही करती थीं। कबीले तो उतना भी नहीं कर सकते थे। कबीलाई स्त्रियाँ शरीर को ढंकने के लिए पत्तों और छालों का उपयोग करती थीं।
संगम युग के स्त्री-पुरुष तेल, सुगंधित द्रव्य, रंगीन पाउडर और प्रलेप के शौकीन थे तथा अपनी छातियों पर चंदन का गहरा लेप लगाते थे। सिलप्पादिकरम के अनुसार सित्रयां अपने शरीर पर तस्वीरें बनवाती थीं और पलकों पर श्याम-रंजक लगाती थीं। स्त्री और पुरुष दोनों गर्दन के घेरे में, बाहों और पैरों में आभूषण धारण करते थे। कुलीन स्त्रियां भारी बाजूबंद और पाजेब पहनती थीं, जबकि सामान्य गृहस्थ-स्त्रियाँ सामान्य प्रकार के जेवर धारण करती थीं। धनी वर्ग के स्त्री-पुरुष स्वर्ण और कीमती रत्नों से शृंगार करते थे, निर्धन स्त्रियां शंख एवं कौड़ी से बने कंगनों और रंगीन मनकों से बने कंठहार पहनती थीं।
‘शिलप्पादिकरम’ एक ऐसे आनुष्ठानिक गर्मस्नान का उल्लेख करता है जिसका जल पाँच प्रकार के बीजों, दस प्रकार के स्ंतभों और बत्तीस प्रकार के सुगंधित पौधों से गरम किया जाता था, बालों को ‘अखिल के धुएं’ से सुखाया जाता था और सजने-संवरने के लिए बालों को पाँच हिस्सों में बांटा जाता था।
पुरुष भी लंबे बाल रखते थे और उनके गुच्छे को गांठ बनाकर बांधते थे। इन गांठों को कभी-कभार मनकों की माला से घेरा जाता था। कुरुंतोगाई के अनुसार तमिल लोग फूलों के शौकीन थे। स्त्रियां जूड़े में कुमुदिनी के फूल लगाती थीं।
आवास
संगम काल के लोग कई प्रकार के घर बनाते थे। सामान्य लोगों के घर कच्ची मिट्टी की ईटों एवं गारे से बनाये जाते थे। धनी लोगों के घर ‘सुडुमान’ अर्थात् पकाई गई मिट्टी की ईंटों से बने होते थे। निर्धन लोेग ऐसी छाजन वाले घरों में रहते थे जो घास अथवा नारियल या पंखिया खजूर अथवा ताड़ से छाई जाती थी।
साहित्यिक रचनाएँ धनी लोगों के कई मंजिलों वाले घरों का उल्लेख करती हैं जिनके प्रवेश-द्वार पर लोहे के फाटक होते थे और उन फाटकों को जंग से बचाने के लिए उन पर रंग किया जाता था। ‘सिलप्पादिकरम’ के अनुसार ये घर सुंदर कलात्मक दीपकों से प्रकाशित किए जाते थे। ऐसे दीपक ग्रीस और रोम से आते थे। इनमें मछली से निकाला गया तेल डाला जाता था।
भोजन और पेय
संगम काल के तमिल लोग प्रायः सामिष भोजन करते थे किंतु ब्राह्मण एवं संन्यासी निरामिष आहार ही ग्रहण करते थे। भोजन में चावल, दूध, मक्खन, घी और शहद प्रधान थे। मांस और मद्य का खुलकर उपयोग होता था। दही लोकप्रिय भोज्य था। कुरुंतोगाई दही, गुड़, मुरमुरा, दूध और घी से बने अनेक प्रकार के मिष्ठानों की चर्चा करता है। संगम ग्रंथों में कढ़ी और चावल का भी उल्लेख हुआ है।
उच्च वर्ग के लोग उत्तम कोटि के चावल, मन पसंद मांस, आयातित मद्य इत्यादि ग्रहण करते थे। ब्राह्मण मद्य और मांस से परहेज करते थे। नगरीय क्षेत्रों में विभिन्न संस्थाओं द्वारा निर्धनों को निःशुल्क भोजन का वितरण किया जाता था।
धनी गृहस्थों द्वारा दावतों का आयोजन भी किया जाता था। अतिथियों को भोजन करवाना सामान्य प्रथा थी और बिना अतिथि को खिलाए भोजन अधूरा माना जाता था। कवि और विद्वान सम्मानित अतिथि माने जाते थे और घी में पकाया गया चावल उन्हें प्रेम और आदर से खिलाया जाता था।
मनोरंजन
लोग अनेक प्रकार के खेलों और उत्सवों में भाग लेते थे। इनमें नृत्य, संगीत के आयोजन, धार्मिक उत्सव, बैलों की लड़ाई, मुर्गेबाजी, आखेट, पासा, कुश्ती, मुक्केबाजी, कलाबाजी, इत्यादि शामिल थे। औरतें धार्मिक उत्सवों, पासे और वारिप्पांथु या कपड़े की गेंद से खेलती थीं।
लड़कियां प्रायः ताड़ या खजूर की पंखियों के रेशे से बने हिंडोले में झूलती थीं। नरिन्नाई अलंकृत गुड़ियों से खेले जाने वाले खेल की चर्चा करता है। कुरुंतोगाई के अनुसार बच्चे खिलौना-गाड़ी से खेलकर और समुद्र-तट पर बालू के घर बनाकर अपना मनोरंजन करते थे।
नृत्य और संगीत मनोविनोद के लोकप्रिय साधन थे। संगम काव्य अनेक प्रकार के नृत्यों की चर्चा करता है। सिलप्पादिकरम सात समूहों में बंटे ग्यारह प्रकार के नृत्यों का उल्लेख करता है। यह संगीत की बारीकियों का भी विवरण देता है। मृदंग, बांसुरी और याल जैसे अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र पुहार और मदुराई की दुकानों में बेचे जाने का भी उल्लेख है। प्रदर्शन की कलाओं में नाटक भी शामिल था।
नाटकों का स्वरूप अधिकांशतः धार्मिक होता था, प्रायः महान व्यक्तियों अथवा महत्त्वपूर्ण घटनाओं के स्मरणोत्सव के रूप में भी नाटक खेले जाते थे। मागध और बंदी अपने वाद्य-यंत्रों के साथ जगह-जगह घूमकर किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति अथवा घटना की महिमा गाया करते थे और संगम युग में यह कार्य काफी लोकप्रिय था।
आरंभ में चारण (पोरुनार) युद्ध में संलग्न सैनिकों में वीरत्व जगाने और युद्ध में विजय मिलने पर उनकी विजय-गाथा गाते थे। वे युद्धरत योद्धाओं के संदेश उनके घरों तक पहुंचाते थे। समाज में उनका बहुत आदर था और राजा भी उन्हें सम्मानित करते थे। पोरुनार के साथ-साथ पनार भी जनसामान्य का मनोरंजन करते थे।
संगम कालीन समाज के धार्मिक विश्वास
साहित्यिक स्रोत संगम युग में धार्मिक कृत्यों का विशद उल्लेख करते हैं। संगम कालीन तमिल समाज में ब्राह्मण धर्म, जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म प्रचलित थे। बौद्ध धर्म और जैन धर्म ईसा की प्रथम शताब्दी में तमिल प्रदेश में आए। इस अवधि में शैव और वैष्णव जैसे ब्राह्मण-पंथ भी प्रचलित थे। संगम कृतियों में वैदिक लोगों के आगमन और तमिलों के धर्म के साथ उनके धर्म के पारस्परिक प्रभाव की चर्चा अनेक स्थलों पर हुई है।
सिलप्पादिकरम त्रिगुण पवित्र-अगिन, द्विज प्रकृति, छः कर्त्तव्य तथा अन्य ब्राह्मणवादी विचारों और अवधारणाओं की चर्चा करता है। तोल्कापिपयम में भी ब्राह्मण-विहित छः कर्त्तव्यों का उल्लेख है। ब्राह्मणवादी अनुष्ठान एवं संस्कार पूरी तरह प्रचलन में थे। अनेक संगम काव्यों में यज्ञीय भवनों वाले पांड्य नृपों की चर्चा हुई है।
तोल्कापिपयम में चार देवताओं की चर्चा हुई है- मुरुगन, तिरुमल, वेंदन (इंद्र) और वरुण। इन्द्र की पूजा वर्षा के देवता के रूप में होती थी और उसके सम्मान में वार्षिकोत्सव मनाया जाता था। पत्तिनप्पालाई में शिव के पुत्र मुरुगन की पूजा का उल्लेख है। लक्ष्मी (समृद्धि की देवी), वनों के संरक्षक के रूप में मायन (पश्चवर्ती विष्णु), बलदेव, कामन (प्रणय-देव), चन्द्रदेव, समुद्रदेव तथा अन्य देवताओं की भी पूजा होती थी।
संगम युग के लोग भूत-प्रेत में भी विश्वास करते थे। सिल्पादिकरन में भूत की चर्चा मिलती है। अनेक लोग पेड़ों, युद्ध क्षेत्रों और श्मशानों में निवास करने वाले ऐसी दुष्टात्माओं में विश्वास करते थे जो रक्तपान करते हैं और रक्त सने हाथों से बाल संवारते हैं। उसी ग्रंथ में छोटे देवताओं, जैसे- मदुरा और पुहार आदि अभिभावक देवताओं का उल्लेख हुआ है।
वे ग्राम-देवताओं को तुष्ट करने के लिए यज्ञ करते थे। वृक्षों, झरनों और पर्वत-शिखरों पर निवास करने वाले देवताओं में विश्वास और उनकी पूजा-अर्चना की परंपरा से स्पष्टतः जीववाद के प्रचलन का पता चलता है। मृतवीरों, सतियों और अन्य शहीदों को भी देवत्व प्रदान किया जाता था।
संगम युग में ईसा की प्रथम शताब्दी में बौद्ध और जैन धर्मों के प्रवेश से तमिलों के दार्शनिक विचार बहुत हद तक प्रभावित हुए। इन विचारधाराओं ने ज्ञान को पदार्थ पर प्राथमिकता दी। बौद्धों और जैनों ने लोगों का आह्वान किया कि वे पदार्थ से परे जगत के बारे में सोचें। अनेक विद्वानों का मत है कि उस काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्यों, सिलप्पादिकरम और मनिमेकलाई में से प्रथम जैन ग्रंथ था और दूसरा बौद्ध ग्रंथ।
शैववाद और वैष्णववाद भी महत्त्वपूर्ण धार्मिक मत थे। मनिमेकलाई में शैववाद का उल्लेख हुआ है। अन्य ग्रंथों में शिव को उनके सहज गुणों के साथ उल्लिखित किया गया है, जैसे- प्राचीन प्रथम ईश्वर, सुंदर नीले कंठ वाले भगवान और वटवृक्ष के नीचे स्थित भगवान। इससे प्रतीत होता है कि आरंभिक काल में शैववाद और वैष्णववाद दोनों तमिल प्रदेश में र्सिफ सिद्धांत में प्रचलित थे, नाम से नहीं। यद्यपि तोल्कापिपयम मुरुगदेव (शिव का पुत्र) और मायन (विष्णु का आरंभिक नाम) की चर्चा तो करता है, किन्तु शैववाद और वैष्णववाद का स्पष्ट उल्लेख नहीं करता। संभवतः इन दो पंथों का दो भिन्न संप्रदायों में संक्रमण संगम युग में हो रहा था।
संगम युग के लोग स्वप्नों और मानव-जीवन पर ग्रहों के प्रभाव में भी विश्वास करते थे। कुछ लक्षण तो आमतौर पर अनिष्टकर माने जाते थे। कौओं का कांव-कांव किसी अतिथि के आगमन का सूचक था। कुरुंतोगाई के अनुसार कौआ एक शुभ अग्रदूत था और उसे चावल एवं घी खिलाया जाता था।
मंदिरों में देवी-देवताओं की पूजा संगम कालीन सभ्यता का परिष्कृत पक्ष था। अनेक संगम ग्रंथों में शिव, मुरुगन, बलदेव, विष्णु, कामन और चन्द्रदेव के मंदिरों की चर्चा हुई है। मनिमेकलाई एक विशाल ईंट चक्रवाह कोट्टम का उल्लेख करता है। अनेक वृक्षों के नीचे देवताओं के चबूतरे बनाए जाते थे। पूजन-विधि में नृत्य, पुष्पार्पण, तंडुल आदि सम्मिलित थे। सिल्प्पादिकरम में देवताओं की प्रस्तर-प्रतिमाओं का उल्लेख है। यह ईसा पूर्व तीसरी सदी के लिंगम के रूप में टी. ए. गोपीनाथ राव द्वारा की गई पुरातात्तिवक खोज से भी प्रमाणित होता है।
संगम युग के तमिल जन्म और मृत्यु के अवसरों पर आनुष्ठानिक अस्वच्छता में भी विश्वास करते थे। मृतकों को दफनाया अथवा जलाया जाता था अथवा खुले में गृद्धों या शृगालों के भोजन के लिए छोड़ दिया जाता था। मनिमेकलाई में शमशानों का उल्लेख हुआ है जहाँ अनेक प्रकार के भूत-प्रेत रहते थे।