संगम साहित्य में वर्णित राज्य-व्यवस्था
राज्य व्यवस्था
संगम काव्य दक्षिण भारत में पहली बार राज्य प्रणाली के विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। ये रचनाएँ ऐतिहासिक विकास की ऐसी प्रक्रिया के संकेत देती हैं जिसमें हम कबीलों की संख्या में ह्रास तो पाते हैं, किन्तु राजा के साथ सुगठित इकाइयों के रूप में उनका अस्तित्व भी बना रहता है। राज्य एक संगठित राजनीतिक संरचना के रूप में तो गया था किन्तु यह अभी भी स्थिर नहीं था। यद्यपि प्रजातांत्रिक अवधारणा अभी सुदृढ़ नहीं हो पाई थी, परंतु प्रशासन राजतंत्रीय होते हुए भी प्रजातांत्रिक सिद्धांतों पर चलता था।
राजत्व
संगम काल के तीन राजवंशों में से ‘चोल’ सिंचित और उर्वर कावेरी घाटी पर शासन करते थे। उनकी राजधानी ‘युरैयुर’ में थी। ‘पांडय’ पशुचारी और तटवर्ती भागों पर शासन करते थे और उनकी राजधानी ‘मदुरै’ में थी। ‘चेर’ का आधिपत्य पश्चिम में पहाड़ी क्षेत्र में था उनकी राजधानी ‘वंजि’ (कुरुर) में थी। संगम कृतियाँ इतने राजाओं के नाम की चर्चा करता है कि उनका वंशक्रम और कालक्रम निर्धारित करना कठिन हो जाता है।
फिर भी विद्वानों ने चोल राजाओं- उरुवाप्रेफर इलांजेत्चेन्नी, उसके पुत्र कारिकल और कारिकल के दो पुत्रों, नालन-किल्ली और नेदुं किल्ली की वंशावली की पुष्टि कर ली है। पांड्य राजवंश में मुथुकुदुमी पेरुवालुदी, अरयिपादाई कादंथ नेडुनजेलियन, वेर्रीवेर्चेलियन और तलयालंकानाथु चेरुवेनरा नेडुल जेलियन नामक राजाओं की पुष्टि हो गई है। इसी प्रकार चेर राजवंश के राजाओं में ईमायारारांबन नेडुमकेरालतन, चेरन सेंगुत्तुवन और मांतारम चेरल ईरुंपोराई की पुष्टि की जा चुकी है।
संगम काल में शासन राजतंत्रात्मक था। राजा को वेंतन कहा जाता था। वह समाज और शासन दोनों का प्रधान होता था। समाज के प्रधान के रूप में वह इन्द्रोत्सव तथा नृत्य-समारोहों के उद्घाटन करता था। राज्याभिषेक के समय वह महत्त्वपूर्ण उपाधियां ग्रहण करता था। उसे देवताओं के समकक्ष माना जाता था। प्राचीन तमिलवासी तीन वस्तुओं- मृदंग, राजदण्ड, और श्वेत छत्र को राजा के प्रधान चिह्न मानते थे।
संगम साहित्य के अनुसार राजपद वंशानुगत रूप में पिता से पुत्र को प्राप्त होता था। राजा का दायित्व राज्य में राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने का था। वह प्रजा के कल्याण की देख-रेख करता था तथा उसकी भलाई के लिए कार्य करता था। राजा अपने राज्य का दौरा करता था एवं शासन के मामलों में मंत्रियों से परामर्श लेता था जिन्हें संगम साहित्य में ‘सुर्रम’ कहा गया है। सुर्रम का तात्पर्य ऐसे लोगों से है जो राजा को आवश्यकता पड़ने पर सलाह देने के लिए उसके निकट रहते थे।
सामन्त
संगम कालीन शासन व्यवस्था में राजा के अधीन दो प्रकार के ‘सामंत’ होते थे- (1.) वेलिर और (2.) अ-वेलिर। उनमें से कुछ सामंत साहित्य के महान संरक्षक सिद्ध हुए। इन सरदारों में कुछ प्रमुख थे- मोहुर का पालयन मारन (आधुनिक मदुरै के निकट), नानन वेनमान और विल्लवान कोथाई (दोनों प्रायद्वीप के पशिचमी तट के निकट), ओइमानाडु (आधुनिक दक्षिणी आकेटि) के नलिलया कोडन, टिथियन (तिन्ने वैल्ली क्षेत्र) तथा वेलिर सरदारों का समूह, जैसे- पारमबुनाद कापारी, पाल्नी क्षेत्र का वेलपेगन, पुडुकोटटाई क्षेत्र का वेलइव्वी, कोदुंबालुर के वेल आवी और ईरुक्कुवेल, तथा अन्य।
उत्तर-संगम-काल में राजतंत्रीय सत्ता अधिक सुदृढ़ हो गई और परंपरागत सरदारों की स्थिति घटकर राजकीय अधिकारियों के समान हो गई। संगमोत्तर काल में इन सामंतों ने एवं राजकीय अधिकारियों ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली और राजा कमजोर हो गया।
शासन
राजा की नीतियाँ को नियंत्रित करने के लिए विभिनन परिषदें बनी हुई थीं। सिलप्पादिकरम दो प्रकार की परिषदों की चर्चा करता है- (1.) पेरुंकुलु और (2.) एंपेरायम। पेरुंकुलुम पांच सदस्यों की मंत्रि-परिषद थी, जबकि एंपेरायम अथवा महासभा में 8 सदस्य होते थे। दोनों परिषदें प्रशासकीय निकाय थीं, यद्यपि उनका कार्य सामान्यतः परामर्शी स्वरूप का था तथापि राजा उनके परामर्श को अस्वीकार नहीं करता था। इन परिषदों का मुख्य कार्य न्यायिक था,। मदुरैक्कांजी के अनुसार इन संस्थाओं के प्रमुख को ऐंपेकुल कहते थे।
प्राचीन राजा चाहे जितना प्रतापी रहे हों, शासन का स्वरूप ‘स्वभावतः-सीमित’ अथवा ‘लोकप्रिय-राजतंत्र’ का रहा है। उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में यह व्यवस्था अधिक सुदृढ़ रही है। प्रत्येक स्थानीय इकाई, चाहे वह कितनी भी छोटी और किसी भी कोने में क्यों न स्थित हो, स्थानीय सभा द्वारा शासित होती थी। संगम साहित्य में अवाई और मरनाम नामक संस्थाओं के भी उल्लेख आए हैं। ऐसी सभाओं को आमतौर पर ‘आरांकुरावैयम’ कहा जाता है जो अपने सही निर्णाय के लिए विख्यात थीं। इन्हें हमारी आधुनिक पंचायत प्रणाली का पूर्वज कहा जा सकता है।
प्रतिरक्षा
बड़े राजा और सामंत विशाल एवं स्थायी सेनाएं रखते थे। दो राज्यों के बीच प्रायः युद्ध होते रहते थे। इनका उद्देश्य न केवल अपने राज्य की रक्षा करना एवं पड़ौसी राज्य के क्षेत्र पर अधिकार करके अपने क्षेत्राधिकार को बढ़ाना होता था अपितु पड़ोसी राज्यों की अत्याचार या कुशासन झेल रही जनता को त्राण दिलाने का भी होता था। कभी-कभी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने हेतु भी युद्ध होते थे। राज्य का प्रत्येक पुरुष स्वयं को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करता था। राजाओं द्वारा संपोषित स्थायी सेना के अतिरिक्त पूरे राज्य में ऐसे प्रशिक्षित सैनिक होते थे जो आवश्यकता पड़ने पर वेतनभोगी सैनिक के रूप में राजा की सेना में सम्मिलित हो सकते थे।
संगम साहित्य के अनुसार राजा के पास चतुरंगिणी सेना अर्थात् रथ सेना, गज सेना, अश्व सेना और पैदल सेना होती थी। चेर राजाओं के पास नौ-सेना भी थी जो सामुद्रकि पत्तन की रखवाली करती थी। दूसरे राजाओं के जहाज चेर राज्य की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकते थे। संगम ग्रंथों में युद्ध क्षेत्रों में सैनिक छावनी का भी उल्लेख मिलता है। राजा की छावनी भव्य होती थी और छावनी में भी वह अपने श्वेत छत्र के नीचे सोता था। राजा को हर समय उसके सैनिक घेरे रहते थे।
राजा को घेर कर सोने वाले सैनिक बिना तलवार के होते थे। सामान्य सैनिकों की छावनियाँ अलग-बगल में ईख की पत्तियों से बनी होती थीं और उनके शिखर पर धान की पत्तियाँ लगाई जाती थीं जिनसे धान लटकता रहता था। सेनापतियों और ऊंची श्रेणी के पदाधिकारियों के साथ उनकी पत्नियाँ भी युद्ध-अभियान पर जाती थीं और वे उनके पतियों के लिए विशेष रूप से बनी छावनियों में ठहरती थीं। राजा सैनिकों और पदाधिकारियों की छावनियों में जाकर उनकी कुशल-क्षेम पूछता था। वह रात्रि के समय और यहाँ तक कि बरसात में भी ऐसा करता था।
तमिल प्रजा में योद्धा के प्रति तथा युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले सैनिक के प्रति भारी सम्मान का भाव था किन्तु पीठ पर लगे घाव के प्रति गहरे तिरस्कार का भाव होता था। जिस राजा या सेनापति की पीठ पर घाव लग जाता था, वह राजा या सेनापति उपवास करके प्राण छोड़ता था। जो योद्धा युद्ध में शहीद हो जाते थे उनकी याद में स्मारक खड़े किए जाते थे। राजकीय कारावासों में बंदियों को पीड़ा दी जाती थी।
संगम शासन व्यवस्था अनेक मामलों में उत्तर-भारत के राजनीतिक विचारों और संस्थाओं से प्रभावित थी। संगम काल के अनेक राजा अपने कुल को शिव एवं विष्णु आदि देवताओं और प्राचीन ऋषियों से उत्पन्न मानते थे। अनेक राजाओं के पूर्वजों ने महाभारत के युद्ध में भाग लिया था। संगम युग के शासक कला, साहित्य एवं संस्कृति के रक्षक थे और विशाल यज्ञों का आयोजन किया करते थे।
संगमकालीन साहित्य में वर्णित अर्थव्यवस्था
कृषि
संगम युग की जनता की समृद्धि भूमि की उर्वरता और व्यापार के विस्तार में निहित थी। मदुरैक्कांजी कृषि और व्यापार को आर्थिक विकास की मुख्य शक्ति मानता है। सिलप्पादिकरम भी प्रजा की सुख-समृद्धि को कृषि से जोड़ता है। कृषि राज्य के राजस्व का मुख्य स्रोत थी। प्रजा कृषि एवं पशुपालन में विशेष रुचि लेती थी।
संगम काव्यों में प्रायः दूध और दूध के उत्पादों- दही, मक्खन, घी, छाछ आदि का उल्लेख हुआ है। संगम साहित्य की अनेक रचनाओं में पशुधन के महत्त्व का उल्लेख हुआ है। पड़ौसी राज्य प्रायः पशुधन लूटने के लिए आक्रमण कर दिया करते थे। राजा के प्रधान कर्त्तव्यों में अपने राज्य के पशुधन की रक्षा करना भी था। संगम काल में बड़ै पैमाने पर उपजाई जाने वाली फसलों में धान और ईख का प्रमुख स्थान था।
अन्य फसलों में विभिन्न प्रकार के फल, चना, सेम, वलिल (शकरकंद), कटहल, आम, केला, नारियल, सुपारी, केसर, गोल-मिर्च, हल्दी, इत्यादि सम्मिलित थे। संगम युग के राजाओं ने कृषि के विकास के लिए अनेक उपाय किए। कारिकाल चोल ने सिंचाई के लिए तालाब खुदवाया। उसका कावेरी तटबंध कृषि के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।
तालाब से सिंचाई के कारण कृषि में लाभ की चर्चा अनेक कविताओं में मिलती है। मदुरैक्कांजी उन नदियों की चर्चा करता है जो पूर्वी-सागर की ओर के तालाबों को भर देती है।
उद्योग
संगम युग में विभिन्न प्रकार की उद्योग सम्बन्धी गतिविधियाँ बड़े स्तर पर होती थीं। काव्यों में अनेक प्रकार के कारीगरों- लौहकार, ताम्रकार, स्वर्णकार, कुंभकार, मूर्त्तिकार, चित्रकार और बुनकर आदि का उल्लेख हुआ है। मनिमेकलाई महाराष्ट्र से वास्तुकारों, मालवा से लौहकारों, ग्रीस और रोम से काष्ठकारों तथा मगध से जौहरियों के अपने तमिल प्रतिरूपों के साथ सहयोग की चर्चा करता है।
व्यवसाय आमतौर पर आनुवंशिक था अर्थात पिता का काम ही पुत्र अपना लेता था। सिलप्पादिकरम के अनुसार अलग-अलग व्यवसाय के लोग अलग-अलग गलियों में रहते थे। इससे विभिन्न व्यापारों और उद्योगों में उन्नति तो हुई ही, साथ ही व्यवसाय से जुड़े लोगों ने भी अपने-अपने क्षेत्र में महारत हासिल की।
इस युग में निर्माण-कला ने भी ऊँचाइयां प्राप्त कीं। सिलप्पादिकरम में ऐसी नौकाओं का उल्लेख हुआ है जिनके आग्रभाग अश्व, गज और सिंह की आकृति वाले थे। भूमध्यसागरीय जगत और अन्य दूर-देशों के साथ बढ़ते व्यापारिक सम्बन्ध तभी संभव हो सकते थे जब मजबूत और दूरस्थ यात्रा योग्य पोत बनाए गए हों। अन्य निर्माण कार्यों में पुल, नालियाँ, प्रकाशगृह, नगर परिघाएं इत्यादि सम्मिलित थे
संगम युग में चित्रकला भी काफी लोक प्रिय थी। पारिपादाल ‘मदुरा’ (मदुरै) में चित्रांकनों के एक संग्रहालय की चर्चा करता है और सिलप्पादिकरम में चित्रों की बिक्री का उल्लेख हुआ है। घरों की दीवारें छतें, वस्त्र, पलंगपोश, पर्दे और नित्य उपयोग की जाने वाली अन्य चीज़ें भी चित्रांकित की जाती थीं। उस काल में तमिलों में बुनाई कला अत्यंत लोकप्रिय थी।
संगम साहित्य में, बुने हुए पुष्प के ‘अभिकल्प’ की बार-बार चर्चा हुई है। कपास, रेशम, ऊन और चूहे के बाल से भी कपड़े बुने जाते थे। सूत को रंगने का भी रिवाज था। भारतीय रेशम अपनी बारीकी के कारण रोमन सौदागरों द्वारा भारी मांग में था। ‘बुनाई’ एक घरेलू उद्योग था जिसमें परिवार के सारे सदस्य, विशेषकर महिलाएँ भाग लेती थीं।
चर्मकारों, कुंभकारों और अन्य कारीगरों ने भी औधोगिक विकास में योगदान किया। इस युग में ग्रीक मूर्ति-कला और अन्य विदेशी शिल्पों का भी दक्षिण भारत में प्रवेश हुआ। ‘नेदुनालवादाई’ और ‘पादिरुप्पत्तु’ आदि साहित्यिक कृतियाँ विदेशियों द्वारा बनाए गए सुंदर चिरागों, रोमन पात्रों और मद्य-चषकों का उल्लेख करती हैं। उस अवधि में अमरावती (आंध्र प्रदेश) और श्रीलंका की मूर्तिकलाओं में ग्रीक-रोमन प्रभाव देखे जा सकते हैं।
व्यापार
संगम युग में तमिल व्यापारियों के भूमध्यसागरीय देशों, ग्रीस, रोम, मिस्र, चीन, दक्षिण-पूर्वी एशिया और श्रीलंका के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे। सिलप्पादिकरम, मनिमेकलाई और पटिटनप्पालाई आदि साहित्यिक कृतियाँ ग्रीक और रोमन व्यापारियों के साथ सम्बन्धों की बार-बार चर्चा करती हैं।
इस अवधि में भारत-रोम व्यापार अपने उत्कर्ष पर था। प्लिनी, टॉलेमी, स्ट्राबो और पेट्रोनियस आदि विदेशियों के पेरिप्लस आफ ऐरिथ्रिअन और अन्य वृत्तांत उस अवधि के अनेक पत्तनों और व्यापारिक सामग्रियों का उल्लेख करते हैं। अनेक स्थलों पर हुई पुरातात्त्विक खुदाइयों से भी तमिल व्यापारियों एवं अन्य देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्धों की पुष्टि होती है। तमिलनाडु में अनेक स्थानों से उन देशों के सिक्के बड़ी संख्या में मिले हैं।
संगम ग्रंथ मुसिरी, पुहार यकावेरी पट्टिनम और कोड़काई के पत्तनों की चर्चा करते हैं। ये पत्तन उस काल के तीन महान शासकों के हैं। इनके अतिरिक्त पेरिप्लस तोंडी, मुसिरी और कोमारी (कन्याकुमारी), कोल्ची (कोड़की), पोडुके (अरिकामेडु) और सोपात्मा के पत्तनों का उल्लेख करता है।
पेरिप्लस के अनुसार दक्षिण भारत में तीन प्रकार के जलयानों का उपयोग होता था- लघु तटीय जलयान, वृहद तटीय जलयान और समुद्र-यात्रीय जलयान। कोलांडिया नामक वृहद जलयानों की चर्चा मिलती है जो तमिलनाडु के समुद्रतट से चलकर गंगा नदी तक पहुंचते थे।
रोम को निर्यात किए गए पण्यों से अच्छा लाभ होता था। बाघ, तेंदुए, बंदर और मोर आदि जीवित पशु-पक्षी रोम भेजे जाते थे। निर्यात के मुख्य पशु-उत्पादों में हाथीदाँत और मोती शामिल थे। वानस्पतिक उत्पादों में सुगंधित पदार्थ और मसाले गोलकी, अदरख, इलायची, लौंग, काष्ठपफल, इत्यादि, नारियल केला, गुड़, सागौन, चंदन, आर्गरु उरैयार के नाम से ज्ञात विशेष प्रकार के सूती वस्त्र, इत्यादि मुख्य निर्यात-सामग्रियाँ थीं। हीरा, वैदूर्य, इस्पात, अल्पमूल्य रत्न, इत्यादि खनिज भी निर्यात किए जाते थे।
रोम से आयात की जाने वाली वस्तुओं में सिक्के, मूंगा, मध, शीशा, टिन और जेवर शामिल थे। उस अवधि में दक्षिण भारत के अनेक स्थलों पर बनी मालाएँ दक्षिण-पूर्वी एशिया के अनेक स्थलों पर पाई गई हैं। इससे इन प्रदेशों के बीच समुद्रवर्ती सम्बन्धों की पुष्टि होती है। संगम काल में तमिल प्रदेश के अनेक शहरों में विदेशी व्यापारियों की बस्तियां थीं।
तमिलों की समृद्धि में र्सिफ विदेशी-व्यापार का ही योगदान नहीं था अपितु विभिन्न नगरीय केंद्रों के जुड़ने से स्थानीय व्यापारिक नेटवर्क ने आंतरिक व्यापार को फूलने-फलने के पर्याप्त अवसर प्रदान किए। ‘सिलप्पादिकरम’ में पुहार के बाजार की गालियों का उल्लेख हुआ है। मदुराइकांजी पांडयों की राजधानी मदुराई के बाजार का उल्लेख करता है।
तटीय पत्तनों और शहरों के अतिरिक्त तमिल प्रदेश के भीतरी इलाकों में भी नगर-केंद्रों का विकास हुआ। इनमें मदुरै, करुर, पेरुर, कोडुमानाल, उरैयुर, कांचीपुरम, इत्यादि प्रसिद्ध हैं। एक और पूर्वीतट पर कोरकोई ‘मोती’ निकालने के लिए प्रसिद्ध था तो दूसरी ओर भीतरी इलाके में कोडुमानाल ‘वैदूर्य’ के लिए। दूर-दराज के गाँव भी व्यापारिक नेटवर्क से जुड़े थे।
भीतरी प्रदेश के व्यापारिक परिवहन के लिए पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले छकड़े प्रमुख साधन थे। व्यापार अधिकांशतः अदला-बदली के आधार पर चलता था। तमिल प्रदेश की भौगोलिक विविधता के कारण विभिन्न क्षेत्रों के बीच उत्पादों का विनिमय आवश्यक था। साथ ही मुद्रा का उपयोग भी होता था।
व्यापार राजकीय राजस्व का महत्त्वपूर्ण स्रोत था। व्यापारियों से ‘पारगमन-कर’ लिया जाता था। युद्ध में लूटा गया माल भी राजकीय कोष में वृद्धि करता था किंतु कृषि से होने वाली आय ही युद्ध और राजनीतिक संगठन का मुख्य आधार थी। संगम साहित्य में किसानों से लिए जाने वाले करों की जानकारी नहीं मिलती।
संगम साहित्य का महत्त्व
संगम साहित्य प्राचीन तमिल समाज की सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक जानकारियों के लिए अत्यंत उपयोगी है। संगम साहित्य ने अपनी पश्चवर्ती साहित्यिक परम्पराओं को अत्यंत प्रभावित किया। दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास के लेखन के लिये संगम साहित्य की उपयोगिता अंदिग्ध है। इस साहित्य में उस समय के चोल, चेर और पाण्ड्य नामक तीन राजवंशों का उल्लेख हुआ है।
संगम साहित्य ही एकमात्र ऐसा साहित्यिक स्रोत है जो सुदूर दक्षिण के जनजीवन पर सर्वप्रथम विस्तृत और स्पष्ट प्रकाश डालता है। संगम साहित्य से दक्षिण भारत के राजनीतिक इतिहास की तिथियां नहीं मिलतीं किंतु संगम साहित्य वहाँ के सामजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करता है। इसी साहित्य से पता चलता है कि दक्षिण के तीन प्रमुख राज्य- पांड्य, चोल और चेर परस्पर संघर्षरत रहे। संगम साहित्य से दक्षिण और उत्तर भारत की संस्कृतियों के सफल समन्वय का स्पष्ट चित्र प्राप्त होता है।
यह साहित्य बताता है कि दक्षिण के तीनों राज्यों ने प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उठाते हुए किस प्रकार विदेशी व्यापार का प्रसार किया। उनके व्यापारिक सम्बन्ध कैसे थे, इस बारे में भी हमें यथेष्ट जानकारी देता है। संगम कविताएँ तमिल भाषा की पहली सशक्त रचनाएँ मानी जाती हैं। इन कविताओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्दों के तमिल भाषा में आत्मसात करने के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।
यह साहित्य इस बात का ज्वलंत प्रमाण देता है कि दक्षिण की द्रविड़ और उत्तर की आर्य संस्कृति ने परस्पर बहुत कुछ आदान-प्रदान किया और देश की एक समन्वित संस्कृति प्रदान की जिसे सामान्यतः हिन्दू संस्कृति भी कहा जाता है।