वायसराय के राजनैतिक सलाहकार कोनार्ड कोरफील्ड के कहने पर कुछ राजाओं ने भारत में सम्मिलन करने से मना कर दिया तथा अपने स्वतंत्र रहने की घोषणा की। इन राजाओं में बड़ौदा नरेश प्रतापसिंह गायकवाड़ भी सम्मिलित था।
वायसराय के राजनैतिक सलाहकार कोनार्ड कोरफील्ड को इस प्रकार कार्यमुक्त करके इंग्लैण्ड के लिये डिस्पैच करवाने से उन देशी राजाओं में हताशा फैल गई जिन्हें लगता था कि कोरफील्ड ही संकट की घड़ी में उनका सबसे बड़ा सहायक सिद्ध होगा तथा देशी राज्यों को भारत में मिलने से बचा लेगा।
जब कोरफील्ड भारत से इंग्लैण्ड के लिये जाने लगा तो उसे विदाई देने के लिये भारत के कई छोटे बड़े राजा एयरपोर्ट पर एकत्रित हुए किंतु कोरफील्ड अब राजाओं के लिये कुछ नहीं कर सकता था। पटेल के इस दृढ़ रुख के बाद भी कुछ हठी राजाओं ने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी। वे प्रकट रूप से पटेल के आदेशों की अवहेलना करने पर उतारू हो गये। बड़ौदा के महाराजा प्रतापसिंह गायकवाड़ ने अपने हाथ से सरदार पटेल को लिखा कि जब तक उनको भारत का राजा नहीं बनाया जाता और भारत सरकार उनकी समस्त मांगें नहीं मान लेती, तब तक वे कोई सहयोग नहीं देंगे और न ही जूनागढ़ के नवाब की बगावत दबाने में सहयोग देंगे।
इस पर भारत सरकार ने बड़ौदा नरेश प्रतापसिंह गायकवाड़ की मान्यता समाप्त करके उनके पुत्र फतहसिंह को महाराजा बड़ौदा स्वीकार किया। यह राजाओं के लिये बड़ा झटका था, सच्चाई उनकी समझ में आने लगी थी। इस घटना के बाद अधिकांश राजा विनम्र देश सेवकों जैसा व्यवहार करने लगे। उन्होंने रियासतों का विलय न होने देने के लिये जो राज्य संघ बनाया था, उसे भंग कर दिया गया।
वे समझ गये कि अब भारत सरकार से मिल जाने और उसका संरक्षण प्राप्त करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। वे यह भी सोचने लगे कि शासक बने रह कर विद्रोही प्रजा की इच्छा पर जीने के बजाय भारत सरकार की छत्रछाया में रहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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