यद्यपि सरदार पटेल अजमेर दंगे पर आयंग की यात्रा के लिए आयंगर के माध्यम से नेहरू को फटकार चुके थे किंतु इससे पटेल को संतोष नहीं हुआ। उन्होनें सीधे ही नेहरू को पत्र लिखने का निश्चय किया।
23 दिसम्बर 1947 को सरदार पटेल ने नेहरू को पत्र लिखकर कहा कि आयंगर की अजमेर यात्रा आश्चर्य में डालने वाली एवं धक्का पहुँचाने वाली थी। इस यात्रा के दो ही अर्थ निकलते हैं। पहला यह कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री द्वारा अजमेर को लेकर दिये गये वक्तव्य से असंतुष्ट थे।
दूसरा यह कि वे अजमेर के स्थानीय प्रशासन द्वारा की गई कार्यवाही से असंतुष्ट थे। इसलिये प्रधानमंत्री ने स्वतंत्र अभिमत जानने के लिये अपने प्रमुख निजी सचिव को अजमेर यात्रा पर भेजा। चीफ कमिश्नर या तो मंत्री के अधीन होता है या फिर सम्बन्धित विभाग के सचिव के अधीन होता है।
पटेल ने चीफ कमिश्नर शंकर प्रसाद की प्रशंसा करते हुए लिखा कि वह यू. पी. का सबसे योग्यतम अधिकारी है जिसकी दक्षता, ईमानदारी एवं निष्पक्षता को चुनौती नहीं दी जा सकती। आयंगर की इस यात्रा ने शंकर प्रसाद को दुःखी किया है तथा उसकी छवि को कमजोर किया है। कौल तथा भार्गव द्वारा चीफ कमिश्नर के विरुद्ध एक अभियान चलाया गया था। इस यात्रा से आयंगर को कौल तथा भार्गव के बारे में सही जानकारी हो गई होगी। अतः आशा की जानी चाहिये कि अजमेर की यह यात्रा, इस प्रकार की अंतिम यात्रा होगी।
सरदार पटेल का पत्र निश्चित रूप से जवाहरलाल नेहरू पर अपने काम में हस्तक्षेप करने का आक्षेप था और खुली चुनौती भी कि भविष्य में इसे दोहराया न जाये। इस आक्षेप तथा चुनौती को सहन करना जवाहरलाल के लिये सहज नहीं था। जवाहरलाल ने उसी दिन पटेल को जवाब भिजवाया जिसमें उन्होंने लिखा कि यह यात्रा इन परिस्थितियों में व्यक्तिगत प्रकार की थी। इस यात्रा का उद्देश्य किसी अधिकारी अथवा उसके द्वारा किये गये कार्य पर कोई निर्णय देना नहीं था। यह जनता से सम्पर्क करने के लिये, विशेषतः पीड़ितों से सम्पर्क करने के लिये की गई ताकि उनका विश्वास जीता जा सके तथा उनके हृदय से भय को निकाला जा सके।
नेहरू ने सहमति व्यक्त की कि शंकर प्रसाद एक अच्छे और निष्पक्ष अधिकारी हैं किंतु यह समझ से परे है कि प्रधानमंत्री द्वारा किसी व्यक्ति को अजमेर भेज देने से उसकी प्रतिष्ठा अथवा छवि को धक्का कैसे पहुँच गया!
किसी भी परिस्थिति में जनता पर पड़ने वाला प्रभाव महत्वपूर्ण है न कि एक अधिकारी की प्रतिक्रिया। नेहरू ने लिखा कि जब लोगों के दिलों में घबराहट हो तथा मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हों, तब केवल विशुद्ध प्रशासन कैसे काम कर सकता है! इससे तो कोई बड़ा हादसा घटित हो सकता है।
किसी अधिकारी की प्रतिष्ठा अथवा हमारी स्वयं की प्रतिष्ठा एक द्वितीय मुद्दा है यदि अन्य बड़े मुद्दे दांव पर लगे हुए हों। यदि हम प्रजा के साथ सही आचरण करेंगे तो हमारी प्रतिष्ठा स्वयं ही बन जायेगी। अधिकारियों के मामले में भी ऐसा ही है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता