सरदार पटेल नेहरू की चीन नीति से बुरी तरह नाराज थे। सरदार पटेल को पूर्वाभास था कि एक दिन चीन भारत पर आक्रमण करेगा तथा भारत को बड़ी मुसीबत में डाल देगा किंतु प्रत्यक्ष रूप से समाजवादी तथा परोक्ष रूप से कम्युनिस्ट नेहरू चीन के सम्मोहन में ऐसे बंधे थे कि वे सरदार पटेल की कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे। इसलिए पटेल ने नेहरू को एक कड़ा पत्र लिखकर अपनी नाराजगी व्यक्त की।
नई दिल्ली, 7 नवंबर 1950
मेरे प्रिय जवाहरलाल,
मेरे अहमदाबाद से लौटने और उसी दिन हुई समिति की बैठक के बाद से, जिसकी जानकारी मुझे उसके शुरू होने से केवल 15 मिनट पहले मिली थी और मुझे अफसोस है कि उस कारण में उससे संबंधित दस्तावेज भी नहीं पढ़ पाया, मैं तिब्बत के बारे में चिन्तित हूं, मैंने सोचा कि मुझे अपने विचार तुम्हारे साथ बांटने चाहिए।
मैंने अपने विदेश मंत्रालय और पीकिंग में हमारे राजदूत तथा उनके जरिए चीनी सरकार के बीच हुए सारे पत्रव्यवहार को पढ़ा है, मैंने इस पत्रव्यवहार को अपने राजदूत तथा चीनी सरकार को अनुकूल ढंग से पढ़कर पेश करने की कोशिश की, परंतु मुझे यह कहते हुए दुःख हो रहा है कि इस अध्ययन के बाद उनमें से कोई भी मेरी आंखों में खरा नहीं उतरा।
चीनी सरकार ने शांति के इरादों का प्रवचन करके हमें धोखा दिया है। मुझे लगता है कि उन्होंने मौका देखकर हमारे राजदूत को शांतिपूर्वक ढंग से तिब्बत की समस्या सुलझाने का झांसा देकर उनके मन में अपनी जगह बना ली थी। निस्संदेह जब यह पत्रव्यवहार चल रहा होगा तब चीनियों ने तिब्बत पर आक्रमण करने की सारी योजना तैयार कर ली होगी। ऐसा लगता है कि चीनी अंत में हमसे विश्वासघात करेंगे।
सबसे दुःख की बात यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया। उन्होंने अपने मार्गदर्शन के लिए हम पर भरोसा किया, हम उन्हें चीनी कूटनीतिक जंजाल या चीनी दुर्भाव से बचाने में असमर्थ रहे। हाल में जन्मी परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि हम दलाई लामा को नहीं बचा पाएंगे। हमारे राजदूत को चीनियों द्वारा अपनाई नीतियों और किए गए कर्मों के स्पष्टीकरण और उसकी सफाई ढूंढने में बहुत कष्ट झेलने पड़े हैं। जैसे कि विदेशी मामलों के मंत्रालय द्वारा भेजे गए एक तार में बताया गया था कि जब चीनी सरकार के समक्ष हमारे दूत ने हमारी ओर से एक या दो मुद्दों पर आपत्ति प्रकट की तो उन्हें उनकी ओर से ढीलापन और फिजूल की माफियां देखने को मिलीं।
क्या कोई भी समझदार व्यक्ति इस बात को मान सकता है कि चीन को तिब्बत में एंग्लो-अमेरीकन गुप्त योजनाओं से किसी तरह का कोई खतरा हो सकता है। इसलिए, यदि चीनी इस बात को सच मानते हैं तो जाहिर सी बात है कि, उन्हें हम पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं होगा और हमें एंग्लो अमेरिकी राजनीति या उनकी योजनाओं की कठपुतली समझते होंगे।
यदि आपके उनके साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क के बाद वे हमारे प्रति ऐसा सोचते हैं तो चाहे हम उन्हें अपना जितना गहरा मित्र समझें, वो बेशक हमें अपना दोस्त नहीं मानते। हमें उनकी इस साम्यवादी मनोवृत्ति ‘जो भी उनके साथ नहीं है, उनके खिलाफ है’ को विशेष रूप से ध्यान में रखना होगा।
पिछले कई महीनों से रूसी खेमे से बाहर केवल हम अकेले ही चीन के यूएनओ में दाखिले के लिए और अमेरीकियों से फोरमोसा के मामले में आश्वासन लेने के लिए लड़ रहे हैं। हमने चीनियों की भावनाओं को शांत करने की, उनकी आशंकाओं को कम करने की और अमरीका, ब्रिटेन एवं यूएनओ के साथ हमारी वार्ताओं में उनकी जायज मांगों का समर्थन करने की हर मुमकिन कोशिश की है।
इस सब के बावजूद चीन हमारी अरुचि से सहमत नहीं है, वह हमें शक की नजरों से लगातार देख रहा है और बाहर से देखो तो शक्की मानसिकता साफ दिखाई देती है जिसमें शायद थोड़ी शत्रुता भी मिली हुई है। मुझे नहीं लगता है कि हम चीन को अपने नेक इरादों, अपनी मित्रता और सद्भावना पर विश्वास दिलाने के लिए इससे ज्यादा और कुछ काम कर सकते हैं।
पीकिंग में बैठा हमारा राजदूत जो हमारे इस मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण को उन तक पहुंचाने का सामर्थ्य रखता है, शायद वो भी इस काम में असफल हो गया है। उनके द्वारा भेजा गया आखिरी तार, एक सम्पूर्णतः असभ्य कार्य है, न केवल इसलिए क्योंकि चीनी ताकतों का तिब्बत में प्रवेश हमारे विद्रोह को नकारता है, बल्कि यह संकेत भी देता है कि हमारा रवैया विदेशी दबाव से प्रभावित है। ये किसी मित्र की नहीं बल्कि हेाने वाले शत्रु की भाषा लगती है।
इसे पृष्ठभूमि में रखते हुए हमें अब, जैसा कि हम जानते थे, तिब्बत के विलुप्त हो जाने से और चीन का हमारे घर के दरवाजे तक विस्तार करने से, हमारे समक्ष खड़ी होने वाली नई परिस्थितियों के बारे में सोचना होगा। पूरे इतिहास में हमें कभी अपनी उत्तरपूर्वी सीमा के बारे में चिंता नहीं करनी पड़ी है; उत्तरी दिशा में स्थित हिमालय पर्वत को सदा अभेद्य माना जाता रहा है; हमारे मित्र ने हमें कभी कोई परेशानी नहीं दी।
चीनी विभाजित हैं। उनकी अपनी आंतरिक समस्याओं के कारण उन्होंने कभी हमें हमारी सीमाओं पर तंग नहीं किया। 1914 में हमने तिब्बत के साथ संधि स्थापित की जिसे चीन की मंजूरी हासिल नहीं थी। हमें लगा कि तिब्बत का स्वशासन इस स्वतंत्र संधि की मान्यता के लिए काफी है।
लेकिन हमें शायद उस पर चीन की मंजूरी भी हस्ताक्षरित करवा लेनी चाहिए थी। शायद चीन के लिए अधिराज्य के मायने कुछ और ही हैं। इसलिए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि बहुत जल्द चीनी, तिब्बत और हमारे बीच हुए अनुबन्धों से भी पल्ला झाड़ लेंगे। जिससे तिब्बत के साथ हुए सभी सीमांत और आर्थिक समझौते, जिन पर हम पिछली आधी सदी से काम करते आ रहे हैं, उबलते तेल की हांडी में जा गिरेंगे। चीन अब विभाजित नहीं रहा। वह संयुक्त और शक्तिशाली हो गया है।
उत्तर और उत्तरपूर्वी दिशा में हिमालय के साथ साथ सरहद के इस पार हमारी ऐसी आबादी है जो जातीय रूप से तिब्बतियों और मंगोलों से ज्यादा अलग नहीं है। अपरिभाषित सीमाओं और हमारी तरफ की आबादी की तिब्बतियों और चीनियों से समरूपता, आने वाले समय में चीन और हमारे बीच संकट पैदा कर सकती है।
अर्वाचीन और कड़वा इतिहास हमें यह सीख देता है कि साम्यवाद, साम्राज्यवाद से बचने की ढाल नहीं है और साम्यवादी भी साम्राज्यवादियों या अन्य किसी और की भी भांति उतने ही अच्छे या बुरे हैं। चीन केवल हिमालय पर्वत के इस पार के हिस्से में नहीं बल्कि असम के महत्वपूर्ण हिस्सों में भी दिलचस्पी रखता है।
चीनियों की तो बर्मा पर नजर है; बर्मा की मुश्किल यह है कि उसके पास तो मैक मोहन लाइन भी नहीं, जिसके इर्द गिर्द वह कोई समझौता तैयार कर सके। चीनियों की अधिग्रहण नीति और साम्यवादियों का साम्राज्यवाद पश्चिमी ताकतों के विस्तारवाद या साम्राज्यवाद से भिन्न है।
पहले के पास विचारधारा का वह चोगा है जो इसे दस गुना और खतरनाक बना देता है। विचारधारा के विस्तार के पीछे जातीय, राष्ट्रीय और ऐतिहासिक दावे छिपे हैं। इसलिए, उत्तर और उत्तरपूर्वी दिशाओं से आने वाला खतरा दोनों, साम्यवादी भी है और साम्राज्यवादी भी। जहां, हमारी सुरक्षा को पहले ही पश्चिम और उत्तरपश्चिमी दिशाएं ललकार रही थीं, अब उत्तर और उत्तरपूर्वी दिशाओं से हमारे लिए नया खतरा पैदा हो गया है।
इसलिए सदियों में पहली बार भारत को एक ही समय पर दो भिन्न दिशाओं में अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए खुद को एकत्रित करना होगा। अब तक हम पाकिस्तान को ध्यान में रखते हुए, जो हम से दुर्बल है, अपनी सुरक्षा योजनाएं तैयार करते आए हैं। अब हमें उत्तर और उत्तरपूर्वी दिशा में बसे साम्यवादी चीन को ध्यान में रखते हुए तैयारियां करनी होंगी, एक ऐसा साम्यवादी चीन जिसके निश्चित लक्ष्य और उद्देश्य हैं और जिसके मन में किसी भी हाल में हमारे प्रति मित्रता की भावना दिखाई नहीं देती।
इस सम्भावित तकलीफदेह सीमा की राजनैतिक परिस्थितियों पर भी हमें विचार कर लेना चाहिए। हमारी उत्तर और उत्तरपूर्वी सीमाओं में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र बसे हैं। संचारण के हिसाब से ये सभी इलाके बहुत कमजोर हैं। इनमें लगातार रक्षात्मक रेखाएं नहीं बनाई गई हैं।
यहां से घुसपैठ करना बहुत आसान काम है। बहुत कम गलियारों में पुलिस सुरक्षा मौजूद हैं। जो चौकियाँ हैं, उन सब में भी हमारे सैनिक तैनात नहीं हैं। इन क्षेत्रों के साथ अपने सम्पर्क को हम किसी भी हाल में नजदीकी नहीं कह सकते। यहां पर रहने वाले लोग भारत के प्रति कोई विशेष निष्ठा भाव नहीं रखते।
दार्जिलिंग तथा कैलिंगपौंग क्षेत्रों में भी मंगोली प्रभाव साफ देखा जा सकता है। पिछले तीन वर्षों में हम नागा या असम की किसी भी अन्य पहाड़ी आदिवासी जाति की ओर कोई विशेष प्रशंसनीयस कदम नहीं बढ़ा सके हैं। यूरोपीय धर्मप्रचारक एवं अन्य अतिथि इन जातियों के सम्पर्क में अवश्य रहे हैं लेकिन इनका प्रभाव भारत के अनुकूल हरगिज नहीं था। कुछ समय पहले सिक्किम में कुछ राजनैतिक उत्तेजना हुई थी। हो सकता है कि वहां असंतुष्टि की भावना अभी भी सुलग रही हो।
बाकियों की तुलना में भूटान थोड़ा शांत है लेकिन तिब्बती लोगों के साथ उसकी नजदीकियां हानिकारक हो सकती हैं। नेपाल में बल शक्ति पर आधारित, अल्पतंत्रीय शासन चल रहा है; यह वहां के उग्र नागरिकों तथा आधुनिक जमाने के प्रबुद्ध विचारों के बीच टकराव है। ऐसी परिस्थिति में लोगों को खतरे का अहसास दिलाना या उन्हें रक्षात्मक तौर पर दृढ़ बनाना एक बहुत मुश्किल कार्य है और इस
मुश्किल को आसान करने का एकमात्र रास्ता है प्रबुद्ध दृढ़ता, ताकत और स्पष्ट नीतियां। मुझे पूर्ण विश्वास है कि चीनी और उनकी प्रेरणा के स्रोत सोवियत रूस, इन कमजोर कड़ियों का फायदा उठाने में कभी नहीं चूकेंगे, कुछ हद तक उनकी विचारधाराओं के समर्थन में और कुछ हद तक उनके लक्ष्यों के समर्थन में।
मेरे विचार में ऐसी परिस्थिति में हम न तो नमनशील हो सकते हैं और न ही ढुलमुल सकते हैं। हमें न केवल अपने लक्ष्यों को स्पष्टतः साध लेना चाहिए परंतु उन तक पहुंचने के रास्तों को भी अच्छी तरह पहचान लेना चाहिए। हमारे द्वारा की गई छोटी सी गलती लक्ष्यों के चुनाव में या फिर उन्हें कार्यान्वित करने हेतु लिए जाने वाले निर्णयों में से किसी तरह की ढील, हमें कमजोर बना देगी और हमारे सामने खड़ी साफ दिखाई दे रही धमकियों को और विशाल कर देगी।
इन बाहरी खतरों के साथ साथ हमें अब आतंरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ेगा। मैंने पहले ही (एचवीआर) अयंगर को विदेश मंत्रालय को इन मामलों पर आसूचना विभाग की समीक्षा रिपोर्ट की एक नकल भिजवा देने के निर्देश दिए हैं। अब तक भारतीय साम्यवादी पार्टी को बाहरी देशों में साम्यवादियों से सम्पर्क साधने में या उनसे हथियार या कागज पत्री आदि की सप्लाई लेने में थोड़ी मुश्किल हो रही थी।
उन्हें इस काम के लिए पूर्व दिशा में स्थित कठिन बर्मी या पाकिस्तानी सीमाओं को प्रयोग में लाना पड़ रहा था या लंबे समुद्र तटों का सहारा लेना पड़ रहा था। अब इनके पास चीनी साम्यवादियों तक पहुंचने का एक आसान रास्ता उपलब्ध हो जाएगा, जिनके जरिए ये आराम से अन्य विदेशी साम्यवादियों तक भी पहुँच पाएंगे। गुप्तचरों, पांचवे स्तम्भ लेखकों एवं साम्यवादियों की घुसपैठ एक आम और आसान बात बन जाएगी। तेलंगाना और वारंगल में कहीं कहीं स्थित साम्यवादियों से निपटने की जगह हमें शायद अपनी
उत्तरी और उत्तरपूर्वी सीमा के साथ बसी साम्यवादी चुनौतियों से भी जूझना होगा, अपनी गोला बारूद की सप्लाई के लिए वे सुरक्षित रूप से चीन में साम्यवादी आयुधशालाओं पर निर्भर कर सकते हैं। इस तरह, ये सारी परिस्थितियां हमारे सामने ऐसी मुश्किलें लेकर आई हैं जिन पर हमें तुरंत कोई निर्णय लेना होगा ताकि, जैसा मैंने पहले भी कहा था, हम अपनी नीतियों के उद्देश्य तय करके उनकी उपलब्धि का रास्ता इख्तियार कर सकें।
यह भी स्पष्ट है कि हमारे द्वारा एक ऐसा व्यापक कदम उठाना चाहिए जिसमें न केवल हमारी रक्षात्मक नीति और तैयारी की स्थिति सम्मिलित हो बल्कि आतंरिक सुरक्षा की समस्या भी, जिससे हमें बिना एक क्षण बर्बाद किए निपटना चाहिए। हमें सीमा के कमजोर इलाकों में प्रशासनिक एवं राजनैतिक समस्याओं से भी निपटना होगा जिनका मैं पहले भी जिक्र कर चुका हूँ।
बेशक, मेरे लिए इन सभी समस्याओं का विस्तृत विवरण करना तो संभव नहीं होगा लेकिन फिर भी मैं नीचे कुछ ऐसी समस्याओं के बारे में बात करने जा रहा हूँ, मेरे विचार में जिनका समाधान बहुत जल्द हो जाना चाहिए और जिनके इर्द गिर्द ही हमें अपनी प्रशासनिक तथा सैनिक नीतियां तैयार करके इन्हें लागू करने की योजना बनानी चाहिए।
ए) भारतीय सीमाओं एवं आतंरिक सुरक्षा की चीनी चुनौतियों से होने वाले खतरे का आसूचना एवं सैन्य आकलन।
बी) अपने सैन्य दलों की स्थिति का निरीक्षण और उनकी आवश्यक पुनः तैनाती, विशेष तौर पर उन क्षेत्रों एवं रास्तों की सुरक्षा को लेकर जिन पर भविष्य में विवादों की सम्भावना है।
सी) अपने सुरक्षा दलों की ताकतों का मूल्यांकन और इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सेना की कटौती योजना पर पुनः विचार।
डी) हमारी रक्षात्मक आवश्यकताओं पर चिरस्थाई सोच विचार। मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम बंदूकों, गोलाबारूद तथा कवचित सप्लाई पर विशेष ध्यान नहीं देंगे तो हमारी रक्षात्मक स्थिति लगातार कमजोर पड़ती जाएगी और हम पश्चिम एवं उत्तरपश्चिम तथा उत्तर एवं उत्तरपूर्वी दिशाओं से आने वाली दोहरी चुनौतियों के खतरों से लड़ने के योग्य नहीं रहेंगे।
इ) जहां तक चीन के यूएनओ में प्रवेश का सवाल है, चीन से हमें मिले दो टूक जवाब और उनके तिब्बत की ओर रवैये को देखते हुए मुझे नहीं लगता कि हमें और देर तक उनके दावों का समर्थन करना चाहिए। चीन की कोरीयन युद्ध में सक्रिय हिस्सेदारी को देखते हुए यूएनओ में शायद उन्हें बहिष्कृत करने का अप्रत्यक्ष खतरा होगा। हमें इस समस्या पर भी अपना रुख निर्धारित कर लेना चाहिए।
एफ) अपनी उत्तरी एवं उत्तरपूर्वी सीमाओं को मजबूत करने के लिए हमारे द्वारा उठाए जाने वाले राजनैतिक एवं प्रशासनिक कदम। इसमें सम्पूर्ण सीमा सम्मिलित होगी यानि कि नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र।
जी) सीमा क्षेत्रों तथा उनके बगल में बसे क्षेत्रों जैसे कि यूपी, बिहार, बंगाल एवं असम की आंतरिक सुरक्षा के उपाय।
एच) इन क्षेत्रों तथा सेनाओं पर तैनात फौजी चौकियों के लिए सड़क, रेल, हवाई और बेतार संचारण विकास।
आई) सीमा चौकियों की सुरक्षा एवं उनकी आसूचना।
जे) ल्हासा तथा यांग्त्से और यतुंग की व्यापार चौकियों में हमारे मिशन का भविष्य और इन रास्तों की सुरक्षा के लिए तिब्बत में काम कर रहे हमारे रक्षा दल।
के) मैकमोहन रेखा के संबंध में हमारी नीति।
ये कुछ सवाल मेरे मन में उमड़कर मुझे परेशान करते हैं। हो सकता है कि इन मसलों पर सोचविचार हमें चीन, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन तथा बर्मा के साथ हमारे संबंधों के व्यापक प्रश्नों की ओर ले जाए। वैसे तो ये सब सवाल आम ही हैं लेकिन इनमें से कुछ एक प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण भी हो सकते हैं। जैसे कि हो सकता है हमें इस बात पर विचार करना पड़े कि क्या हमें बर्मा से हमारे संबंध घनिष्ठ करके उन्हें चीन से निपटने के लिए दृढ़ता मुहैया करवानी चाहिए।
मुझे लगता है कि हम पर दबाव डालने से पहले चीन, बर्मा पर दबाव डालने की कोशिश करेगा। चीन के साथ लगती सीमाएं पूरी तरह अपरिभाषित हैं, जिससे चीन, सीमा पर ठोस दावे कर सकता है। मौजूदा स्थिति में बर्मा चीन के लिए एक सरल मुश्किल पैदा करके हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।
मेरा सुझाव है कि हमें जल्दी मिलकर इन समस्याओं पर व्यापक सोच विचार कर लेना चाहिए और तुरंत उठाए जाने वाले आवश्यक कदमों पर भी निर्णय ले लेना चाहिए और इसके साथ ही अन्य समस्याओं पर भी फुर्तीली नजर दौड़ाते हुए उनसे निपटने के लिए आवश्यक कदमों पर फैसला ले लेना चाहिए।
आपका
वल्लभभाई
उपरोक्त पत्र से स्पष्ट है कि सरदार पटेल को नेहरू की चीन नीति बिल्कुल पसंद थी। पटेल की मृत्यु के लगभग 12 साल बाद पटेल की यह भविष्यवाणी सही हुई कि नेहरू की चीन नीति बिल्कुल गलत थी।