इतिहास के समुद्र में भारत की आजादी की नाव हिचकोले खाती हुई तट पर आ लगी थी किंतु यहाँ उसे भारत के 565 देशी राजाओं की लहरों ने घेर लिया। रियासती विभाग का मंत्री होने के कारण सरदार पटेल पर इन राजाओं से आजादी की नाव की रक्षा करने की जिम्मेदारी आ पड़ी। ये वे राजा थे जो अपने राज्य को भारत में मिलाने की बजाय स्वतंत्र रखने का प्रयास कर रहे थे। इन्हीं में वे मुस्लिम शासक भी थे जो अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाने के लिए अपने राज्य की जनता के विरुद्ध षड़यंत्र कर रहे थे।
ब्रिटिश क्राउन के शासन में भारत, दो भागों में बंट गया था। पहला भाग ब्रिटिश भारत कहलाता था जिसमें 11 ब्रिटिश प्रांत तथा 6 कमिश्नरी प्रांत थे। इस भाग पर ब्रिटेन से नियुक्त होकर आया सर्वोच्च अधिकारी, गवर्नर जनरल की हैसियत से शासन करता था। दूसरा भाग रियासती भारत कहलाता था जिसमें 566 देशी रियासतें थीं।
इस भाग पर ब्रिटेन से नियुक्त होकर आया गवर्नर जनरल ही वायसराय के पदनाम से शासन करता था। इस भाग पर शासन करने के लिये अंग्रेजों ने देशी राज्यों से अधीनस्थ संधियां कर रखी थीं। इन संधियों के माध्यम से अंग्रेजों ने देशी राज्यों पर अपनी परमोच्चता थोप रखी थी।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के प्रावधानों के अनुसार 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश भारतीय क्षेत्रों को भारत तथा पाकिस्तान नामक दो देशों में बांट दिया जाना था। इसी अधिनियम की धारा 8 के अनुसार भारत के 566 देशी राज्यों पर से ब्रिटिश क्राउन की परमोच्चता समाप्त करके उन्हें स्वतंत्र कर दिया जाना था। इसके बाद देशी राज्य अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने, कोई तीसरा संघ बनाने अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रखने के लिये स्वतंत्र थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय ब्रिटिश भारत में बहुसंख्यक हिन्दू जनसंख्या निवास करती थी। इसी प्रकार रियासती भारत में अधिकांश देशी राज्य, हिंदू राज्य थे। अतः नृवंशीय एवं सांस्कृतिक आधार पर ब्रिटिश भारत एवं रियासती भारत की जनता एक ही थी। भारतीय नेताओं का मानना था कि जब ब्रिटिश सरकार सत्ता का हस्तांतरण भारत सरकार को कर रही है तब देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता स्वतः ही भारत सरकार को स्थानांतरित हो जायेगी जबकि भारतीय रियासतों के शासक विगत लगभग डेढ़ सदी से स्वतंत्र होने का स्वप्न देख रहे थे।
जब अंग्रेजों ने देशी राज्यों को मुक्त कर दिया तो त्रावणकोर, हैदराबाद, जम्मू एवं कश्मीर, मैसूर, इन्दौर, भोपाल, नवानगर यहाँ तक कि बिलासपुर की बौनी रियासत ने भी पूर्णतः स्वतंत्र रहने का स्वप्न देखा। 3 अप्रेल 1947 को बम्बई में नरेंद्र मंडल की बैठक आयोजित हुई जिसमें कई राजाओं ने कहा कि देशी राज्यों के अधिपतियों को हिंदी संघ राज्य में नहीं मिलना चाहिये।
5 जून 1947 को भोपाल तथा त्रावणकोर ने स्वतंत्र रहने की घोषणा की। हैदराबाद को भी यही उचित जान पड़ा। भारतीय नेताओं को जम्मू एवं कश्मीर, इन्दौर, जोधपुर, धौलपुर, भरतपुर तथा कुछ अन्य राज्यों के समूहों द्वारा भी ऐसी ही घोषणा किये जाने की आशंका थी। इस प्रकार देशी रियासतों के शासकों की महत्वाकांक्षाएं देश की अखण्डता के लिये खतरा बन गयीं।
तेजबहादुर सप्रू का कहना था कि मुझे उन राज्यों पर, चाहे वह छोटे हों अथवा बड़े, आश्चर्य होता है कि वे इतने मूर्ख हैं कि वे समझते हैं कि वे इस तरह से स्वतंत्र हो जायेंगे और फिर अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेंगे। दुर्दिन के मसीहाओं ने भविष्यवाणी की थी कि हिंदुस्तान की आजादी की नाव रजवाड़ों की चट्टान से टकरायेगी। सरदार पटेल पर जिम्मदारी आने वाली थी कि आजादी की नाव इस चट्टान टकराकर चूर-चूर न हो जाये।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता