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पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि सत्यवती के पिता ने निषाद होते हुए भी आर्य राजाओं के हस्तिनापुर जैसे प्रबल राज्य पर अपनी पुत्री सत्यवती के पुत्रों का अधिकार स्थापित करवा दिया। महर्षि अत्रि से आरम्भ हुए चंद्र वंश में अब तक जितनी भी कुल-वधुएं आई थीं वे स्वर्ग की देवियां, अप्सराएं एवं अप्सराओं से उत्पन्न कन्याएं थीं। यहाँ तक कि दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी भी इस कुल में ब्याहकर आई थी।
सत्यवती के रूप में पहली बार एक मत्स्य कन्या ने चंद्रवंशी राजकुल में राजरानी के रूप में प्रवेश किया। सत्यवती ने चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। जब राजकुमार चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य छोटे ही थे कि अचानक ही महाराज शांतनु का निधन हो गया। इस पर शांतनु के बड़े पुत्र भीष्म ने सत्यवती की सम्मति से सत्यवती के बड़े पुत्र चित्रांगद को हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठा दिया।
राजा चित्रांगद अपने पूर्वजों की भांति पराक्रमी राजा हुआ। उसने कई राजाओं को परास्त करके हस्तिनापुर राज्य का विस्तार किया। चित्रांगद अपने पराक्रम के कारण किसी भी मनुष्य अथवा असुर को अपने समकक्ष नहीं समझता था। इस कारण तीनों लोकों में चित्रांगद का भय छा गया। इस पर गंधर्वराज चित्रांगद ने शांतनुपुत्र चित्रांगद पर आक्रमण कर दिया।
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चित्रांगद नामक दोनों राजाओं में कुरुक्षेत्र के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ। सरस्वती के तट पर तीन वर्ष तक यह युद्ध चलता रहा। गंधर्वराज चित्रांगद बड़ा मायावी था, उसने शांतनुपुत्र चित्रांगद को सम्मुख युद्ध में मार डाला।
शांतनुपुत्र देवव्रत ने अपने भाई चित्रांगद का अंतिम संस्कार किया तथा विचित्रवीर्य का राजतिलक कर दिया। विचित्रवीर्य अभी बालक ही था, इस कारण वह अपने बड़े भाई देवव्रत के निर्देशन में राज्य करने लगा जो अब भीष्म कहा जाता था।
जब विचित्रवीर्य युवा हुआ, तब भीष्म ने उसका विवाह करने का निश्चय किया। उन्हीं दिनों भीष्म को सूचना मिली कि काशीराज की तीन पुत्रियों का स्वयंवर होने जा रहा है। इस पर भीष्म ने माता सत्यवती से अनुमति लेकर अकेले ही रथ पर बैठकर काशी की यात्रा की। जब स्वयंवर में राजाओं एवं राजकुमारों का परिचय दिया जा रहा था तब काशी नरेश की तीन कन्याएं भीष्म को बूढ़ा समझकर आगे बढ़ गईं।
इस पर भीष्म ने उन कन्याओं को रोककर बताया कि वे अपने विवाह के लिए नहीं अपितु अपने छोटे भाई हस्तिनापुर नरेश विचित्रवीर्य के विवाह के लिए यहाँ आए हैं। ऐसा कहकर भीष्म ने बलपूर्वक उन कन्याओं को अपने रथ पर बैठा लिया। इस पर स्वयंवर में उपस्थित राजाओं ने भीष्म पर आक्रमण कर दिया किंतु भीष्म ने उस सभी को पराजित कर दिया। विजयी भीष्म उन तीनों राजकन्याओं को लेकर हस्तिनापुर लौटे तथा उन्होंने वे तीनों राजकन्याएं राजा विचित्रवीर्य को समर्पित कर दीं।
तब काशी नरेश की बड़ी पुत्री अम्बा ने भीष्म से कहा कि मैं तो शाल्व नरेश को अपना पति मान चुकी हूँ, मैं विचित्रवीर्य से विवाह नहीं कर सकती। इस पर भीष्म ने उसे शाल्व नरेश के पास जाने की अनुमति दे दी तथा शेष दोनों राजकन्याओं अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया।
विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग-विलास में रत हो गया किन्तु दोनों ही रानियों से कोई सन्तान नहीं हुई और राजा क्षयरोग से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। इस प्रकार शांतनु के कुल में अब केवल राजकुमार भीष्म अकेले ही जीवित बचे।
कुलनाश के भय से माता सत्यवती ने भीष्म से कहा- ‘पुत्र! इस गौरवशाली चंद्रवंश को नष्ट होने से बचाने के लिए तुम इन दोनों पुत्र-कामिनी रानियों से पुत्र उत्पन्न करो तथा राजसिंहासन पर बैठकर राज्य का संचालन करो।’
माता सत्यवती की बात सुनकर भीष्म ने कहा- ‘मैंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने तथा हस्तिनापुर का राजा न बनने की की प्रतिज्ञा की है। मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।’
इस पर माता सत्यवती ने पराशर मुनि से उत्पन्न अपने पुत्र वेदव्यास को स्मरण किया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गए। सत्यवती ने उनसे कहा- ‘हे पुत्र! तुम्हारे दोनों भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गए। अतः मेरे वंश को नष्ट होने से बचाने के लिए मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी रानियों से सन्तान उत्पन्न करो।’
वेदव्यास ने माता की आज्ञा मान ली तथा माता सत्यवती से कहा- ‘हे माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम-व्रत का पालन करती रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा।’
एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास पुनः हस्तिनापुर आए। सबसे पहले वे बड़ी रानी अम्बिका के पास गए। अम्बिका अपने समक्ष इतने तेजस्वी ऋषि को देखकर भयभीत हो गई तथा उसने अपने नेत्र बन्द कर लिए। वेदव्यास ने नियोगविधि से रानी अम्बिका को गर्भवती किया तथा उसके महल से लौटकर माता सत्यवती से कहा- ‘माता! अम्बिका का पुत्र बड़ा तेजस्वी होगा किन्तु रानी द्वारा नेत्र बन्द कर लेने ने के दोष के कारण वह अंधा होगा।’
सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्होंने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका भी वेदव्यास को देख कर भयभीत हो गई तथा उसका शरीर पीला पड़ गया। महर्षि ने उसे भी नियोग से गर्भ प्रदान किया तथा उसके कक्ष से लौटकर सत्यवती से कहा- ‘माता! अम्बालिका भय से पीली पड़ गई इसलिए उसके गर्भ से पाण्डुरोग-ग्रस्त पुत्र उत्पन्न होगा।’
यह सुनकर माता सत्यवती को अत्यंत दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया।
इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा- ‘माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।’
इसके बाद वेदव्यास तपस्या करने पुनः वन में चले गए। समय आने पर दोनों रानियों एवं एक दासी के गर्भ से एक-एक बालक का जन्म हुआ। इस प्रकार वेदव्यास ने नियोग की सहायता से चंद्रवंशी राजाओं के कुल को समाप्त होने से बचाया। आधुनिक काल के अनेक लोगों ने नियोग की अलग-अलग व्याख्या की है किंतु किसी भी पुराण में यह नहीं लिखा है कि नियोग क्या था! कुछ लोगों का मानना है कि नियोग एक प्रथा थी जिसमें पति के निःसंतान अवस्था में मर जाने पर स्त्री को अपने ही कुल के किसी पुरुष से एक बार गर्भधारण करने की अनुमति दी जाती थी, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि नियोग आज के टेस्टट्यूब बेबी की तरह कृत्रिम गर्भाधान की एक वैज्ञानिक विधि थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता