Friday, November 22, 2024
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अध्याय – 25 (ब) : द्वितीय अफगान साम्राज्य

शेरशाह सूरी (1540-45 ई.)

शेरशाह के शासन की विशेषताएँ

शेरशाह के समय में भारत में दो प्रकार की शासन पद्धतियाँ प्रचलित थीं- एक अफगानों की और दूसरी मुगलों की। चूँकि मुगलों से शेरशाह को घोर घृणा थी और बाबर तथा हुमायूँ प्रशासकीय क्षेत्र में उसका पथ प्रदर्शन नहीं कर सकते थे इसलिये उसने मुगलों की शासन पद्धति को स्वीकार नहीं किया। वह अफगानों की शासन पद्धति को भी पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं कर सकता था क्योंकि वह भारतीय परिस्थितियों को अच्छी तरह समझता था। इसलिये शेरशाह ने अपने साम्राज्य के लिये अलग शासन-व्यवस्था का निर्माण किया। यद्यपि उसने प्रशासकीय क्षेत्र में बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी द्वारा ग्रहण किये गये मार्ग का अनुसरण किया परन्तु उसमें कई परिवर्तन भी किये। शेरशाह के शासन के सम्बन्ध में माउण्ट स्टुअर्ट एल्ंिफस्टन ने लिखा है- ‘यह एक ऐसा योग्य शासक प्रतीत होता है जिसकी शासन सम्बन्धी योजनाएँ क्रांतिकारी और तर्कपूर्ण होने के साथ-साथ अपने उद्देश्य में अत्यन्त उदार थीं।’ उसके शासन की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार से थीं-

(1.) लोक कल्याण की प्रधानता: शेरशाह स्वयं को अपनी प्रजा का रक्षक तथा पालक समझता था। अर्सकाइन ने लिखा है- ‘शेरशाह में विधान निर्माता तथा प्रजा के संरक्षक की जैसी भावना थी, वैसी अकबर के पूर्व किसी भी शासक में नहीं थी।’ वह प्रजा के कल्याण को राज्य का कल्याण समझता था। इसी से वह दिल्ली के सुल्तानों में सर्वाधिक लोकप्रिय बन गया था।

(2.) धर्म के हस्तक्षेप से परे: शेरशाह का शासन उलेमा लोगों के प्रभाव से सर्वथा मुक्त था। यद्यपि उसने हिन्दू शासकों का उल्मूलन करने में नैतिकता का पालन नहीं किया था तथापि वह अपनी हिन्दू प्रजा के प्रति जितना उदार, दयालु तथा न्यायशील था उतना उसके पूर्व कोई मुसलमान शासक नहीं था। वह किसी वर्ग, सम्प्रदाय अथवा धर्म के साथ पक्षपात नहीं करता था। समस्त नागरिकों को अपने रीति-रिवाज, त्यौहार, व्रत आदि का पालन करने की स्वतन्त्रता थी।

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(3.) स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन: शेरशाह का शासन स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था जिसमें समस्त शक्तियां सुल्तान में निहित थीं परन्तु उसकी स्वेच्छाचारिता जनता को भयभीत नहीं करती थी। क्योंकि शेरशाह ने दमनकारी नीति का अनुसरण नहीं किया था और न ही किसी प्रकार का अत्याचार ही किया। शेरशाह की उदार तथा धर्म-सहिष्णु नीति के कारण जनता उसकी आज्ञा का पालन करती थी।

(4.) केन्द्रीभूति शासन: शेरशाह का शासन अत्यंत केन्द्रीभूत था। ऐसा केन्द्रीभूत शासन, उस युग के अन्य शासकों के समय में देखने को नहीं मिलता। वह अफगानों तथा मुगलों दोनों की शासन व्यवस्थाओं में देख चुका था कि राज्य के मन्त्री एवं अधिकारी किस प्रकार कर्त्तव्यभ्रष्ट तथा विश्वासघाती होते हैं। इसलिये वह राज्य की सम्पूर्ण शक्ति को स्वयं में केन्द्रित रखता था। वह स्वयं अपना मार्गदर्शक एवं सलाहकार था और राज्य के सारे कार्य स्वविवेक से करता था। मन्त्रियोें के शासन में उसका विश्वास नहीं था। शेरशाह ने अपना कोई मन्त्री अथवा परामर्शदाता नहीं रखा। अपने विस्तृत अनुभव तथा परिश्रम के बल पर शेरशाह ने अपने साम्राज्य का प्रबंध किया।

शेरशाह का शासन प्रबन्ध

प्रशासकीय क्षेत्र में शेरशाह को केवल पाँच वर्ष के अल्पकाल में जो महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई, वह अन्य शासकों को दुर्लभ थी। शेरशाह की योग्यता तथा क्षमता की प्रशंसा करते हुए हेग ने लिखा है- ‘वास्तव में शेरशाह उन महानतम शासकों में था जो कभी भी, दिल्ली के तख्त पर बैठे थे। अकबर से लेकर औरंगजेब तक किसी भी अन्य शासक को, शासन का इतना अधिक ज्ञान नहीं था और न सार्वजनिक हित के कार्यों पर शेरशाह के अतिरिक्त और कोई शासक ऐसा नियन्त्रण रख सका था।’

(1.) शासन की इकाइयाँ

शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव होता था। कई गाँवों को मिलाकर एक परगना बनता था और कई परगनों को मिलाकर एक शिक या सरकार बनता था। कुछ प्रान्तों में जैसे पंजाब, मालवा तथा बंगाल में कई शिकों को मिलाकर एक अफसर के अनुशासन में रख दिया था जो सूबेदार की भाँति शासन करता था।

1. गाँव: प्रत्येक गाँव के प्रबन्ध के लिए एक मुखिया या मुकद्दम होता था जो सरकार तथा गाँव के बीच योजक कड़ी का काम करता था। उसी के माध्यम से सरकार गाँव के किसानांे से सम्पर्क स्थापित करती थी। मुकद्दम या मुखिया सरकारी कर्मचारी नहीं होता था वरन् वह गाँव का प्रतिष्ठित व्यक्ति होता था। वह अवैतनिक कार्य करता था। गाँव में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखना उसका प्रधान कर्त्तव्य होता था। गाँव का लगान वसूलने में भी वह सरकारी कारिंदों की सहायता करता था। प्रत्येक गाँव में एक पटवारी होता था जो गांव का पूरा हिसाब-किताब रखता था। पटवारी भी सरकारी कर्मचारी नहीं होता था। उसकी नियुक्त गाँव वाले ही करते थे।

2. परगना: कई गांवों को मिलाकर एक परगना बनता था। प्रत्येक परगने के प्रबन्ध के लिए एक शिकदार या आमिल नियुक्त होता था जो परगने का प्रधान होता था। शिकदार का प्रधान कार्य मालगुजारी वसूल करना होता था। शिकदार का पद बड़ी आमदनी का होता था। इसलिये शेरशाह ने हर एक या दो वर्ष बाद उसे बदलने की व्यवस्था की थी। परगने में शिकदार के अतिरिक्त एक मुन्सिफ या अमीन भी होता था जिसका प्रधान कार्य भूमि की नाप-जोख करना था ताकि भूमिकर निर्धारित किया जा सके। यदि भूमि के क्षेत्रफल अथवा आकार-प्रकार के विषय में कोई झगड़ा उत्पन्न हो जाता था तो उसका निर्णय भी वही करता था। मुन्सिफ या अमीन सरकारी कर्मचारी होता था। वह सरकार द्वारा नियुक्त, स्थानान्तरित तथा अपदस्थ किया जाता था। प्रत्येक परगने में एक कानूनगो भी होता था। जिसका पद प्रायः आनुवंशिक होता था। वह परगने का हिसाब-किताब रखता था। शिकदार की सहायता के लिए प्रत्येक परगने में दो कारकून होते थे जो परगने के कागज-पत्र संॅभालते थे। इनके अतिरिक्त एक खजानादार या पोतदार होता था जो नगद राशि को संभालता था। कारकून हिन्दी तथा फारसी दोनों भाषाओं में हिसाब रखते थे।

3. सरकार या जिला: कई परगनांे को मिलाकर सरकार या जिला बनता था। शेरशाह ने अपने साम्राज्य को इस प्रकार के 66 सरकारों अथवा जिलों में बाँटा। प्रत्येक सरकार के प्रबन्ध के लिए अलग अधिकारी नियुक्त किया गया जो शिकदार-ए-शिकदारान अर्थात् शिकदारों का शिकदार कहलाता था। उसका प्रधान कार्य अपने अधीन शिकदारों के कार्य का निरीक्षण करना तथा उन पर नियन्त्रण रखना था। सरकार अथवा जिले में एक मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान अर्थात् मुन्सिफों का मुन्सिफ नियुक्त किया गया था जो परगने के कार्यों की देखभाल करता था और उन पर नियन्त्रण रखता था। सरकार अथवा जिले में लगान-निर्धारण सम्बन्धी कार्य वही  करता था।

(2.) केन्द्रीभूत शासन व्यवस्था

शेरशाह का शासन अत्यन्त केन्द्रीभूत था। वह अपने राज्य के समस्त शासन पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण रखता था। बड़े-बड़े मंत्रियों एवं सलाहकारों में उसका विश्वास नहीं था। एक इतिहासकार ने लिखा है- ‘शेरशाह ने शासन की ऐसी व्यवस्था की कि सुदूरस्थ गाँव भी केन्द्रीय शक्ति के घनिष्ठ सम्पर्क में आ गया जिससे जब वह चाहता तब उसकी नाड़ी को समझ लेता।’ वह स्वयं अपना मार्गदर्शक तथा सलाहकार था। इसलिये उसका शासन पूर्णरूपेण एकतन्त्रात्मक था। शेरशाह को अपनी कार्य क्षमता में बड़ा विश्वास था। इसमें संदेह नहीं कि अपने प्रशासकीय अनुभव तथा परिश्रम के बल पर वह शासन को सुचारू रीति से संचालित कर सका होगा।

(3.) लगान का प्रबन्ध

शेरशाह के लगान सम्बन्धी सुधारों का बहुत बड़ा महत्त्व है। उसके लगान सम्बन्धी सुधारों की तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं-

1. भूमि का निर्धारण: शेरशाह ने अपने विश्वसनीय अधिकारी अहमद खाँ की देखरेख में राज्य की समस्त भूमि की नाप करवाई। इसके बाद उसने भूमि को बीघों में विभक्त करवाकर किसानों से कबूलियत लिखवाई। कबूलियत उस पत्र या इकरारनामे को कहते थे जिसमें किसान अपनी भूमि का पूरा विवरण लिखकर सरकारी अमीन के पास जमा करता था। इस कबूलियत के बदले सरकार की ओर से किसानों को पट्टा दिया जाता था जिसमें लगान की दर लिखी रहती थी। इसी दर के अनुसार किसान को लगान देना पड़ता था।

2. लगान का निर्धारण: लगान निश्चित करने के लिए शेरशाह ने भूमि को तीन वर्गों में विभक्त किया- उत्तम, मध्यम तथा निम्न कोटि। इसके बाद इन भूमियों की औसत उपज निकालकर प्रत्येक बीघा की औसत उपज निकाली गई और इस औसत उपज की एक-तिहाई सरकारी लगान निश्चित की गई। लगान का निर्धारण निकटतम बाजार भाव के अनुसार किया जाता था।

3. लगान की वसूली: शेरशाह लगान नकद रुपये में चाहता था। वह किसानों को यथा-सम्भव नकद रुपया देने के लिए प्रोत्साहित करता था परन्तु यदि किसान किसी विशेष कारण से नकद रुपये देने में असमर्थ हो जाते थे तो वे अनाज के रूप में भी लगान दे सकते थे। किसानों स्वयं जाकर सरकारी खजाने में रुपया जमा कर सकते थे। इसके लिए शेरशाह अपनी प्रजा को प्रोत्साहित भी करता था क्योंकि वह चाहता था कि प्रजा के साथ उसका सीधा सम्पर्क स्थापित हो जाये। शेरशाह लगान निश्चित करते समय किसानों के साथ बड़ी उदारता दिखाता था परन्तु लगान की वसूली कठोरता से करता था। शेरशाह का मानना था कि लगान बाकी रह जाने पर किसानों तथा सरकारी कर्मचारियों के सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। इसलिये वह सख्ती करके समस्त लगान वसूल कर लेता था। अकाल पड़ जाने पर किसानों को तकाबी दी जाती थी और रुपये तथा चीजों से किसानों को सहायता की जाती थी।

(4.) लगान प्रबंधन के दोष

यद्यपि शेरशाह की लगान व्यवस्था से राजा तथा प्रजा दोनों ही को लाभ हुआ परन्तु यह व्यवस्था बिल्कुल दोष रहित नहीं थी। मध्यम तथा निम्न कोटि की भूमि के किसानों को उत्तम कोटि की भूमि के किसानों की अपेक्षा अधिक कर देना पड़ता था। नकद लगान का मूल्यांकन करने में भी अन्याय हो सकता था। उसने सिंचाई की  समुचित व्यवस्था नहीं की। वह घूसखोरी का भी पूर्ण रूप से उन्मूलन नहीं कर सका था। जागीरदारी की प्रथा के दोषों को जानते हुए भी वह उसे हटा नहीं सका।

(5.) सेना का प्रबन्ध

सेना की सहायता से ही शेरशाह ने साम्राज्य की स्थापना की थी। सेना के बल पर ही उस साम्राज्य को सुरक्षित रखा जा सकता था। इसलिये शेरशाह ने सेना के संगठन एवं सुधार की ओर विशेष ध्यान दिया। अफगानों में कबाइली भावना बड़ी प्रबल थी और शेरशाह उनकी भावना को कुचलना नहीं चाहता था। इसलिये सेना का संगठन कबाइली ढंग पर ही बना रहा। प्रत्येक कबीले की अपनी अलग सेना होती थी और उस कबीले का प्रधान ही उसका संचालन करता था। शेरशाह ने इन कबीलों को अनुशासन तथा नियंत्रण में रखने की व्यवस्था की। उसने सेना को देश के विभिन्न भागों में वहाँ की आवश्यकता के अनुसार नियुक्त किया। ऐसी सोलह छावनियों का पता लगा है परन्तु सम्भवतः इनकी संख्या अधिक रही होगी। कबाइली सेना के अतिरिक्त शेरशाह के पास अपनी भी एक विशाल सेना थी जिसमें डेढ़ लाख  घुड़सवार, पच्चीस हजार पैदल, पाँच हजार हाथी तथा एक तोपखाना था। शाही सेना के अतिरिक्त जागीरदारों की भी सेनाएँ थीं। इस प्रकार शेरशाह की सम्पूर्ण सेना की संख्या लगभग चार लाख थी। शेरशाह अपने सैनिकों से सीधा सम्पर्क रखता था। वह उनकी भर्ती, वेतन, पदोन्नति की व्यवस्था करता था और उन्हें संतुष्ट रखने का प्रयत्न करता था। साधारण सैनिक भी सुल्तान से मिलकर अपनी समस्याएँ बता सकते थे। अलाउद्दीन खिलजी की भांति शेरशाह ने भी घोड़ों को दागने की प्रथा को जारी रखा।

(6.) सीमा की सुरक्षा की व्यवस्था

शेरशाह ने मुगलों को भारत से बाहर निकाल दिया था परन्तु उत्तर-पश्चिम की ओर से उनके पुनः भारत में घुस आने की आशंका थी। इसलिये शेरशाह ने उत्तर-पश्चिमी सीमा पर विशेष ध्यान दिया। उसने सिन्धु नदी तक अपनी सत्ता को सुदृढ़ रूप से स्थापित किया जो उसके राज्य की प्राकृतिक सीमा थी। सीमान्त प्रदेश में जाट, बलोच, घक्कर आदि विद्रोही प्रवृत्ति की जातियाँ निवास करती थीं। शेरशाह ने उनका दमन कर उन पर नियंत्रण स्थापित किया। पश्चिमी पंजाब में शान्ति बनाये रखने और सीमान्त प्रदेश की सुरक्षा करने के लिए शेरशाह ने रोहतास के सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण किया। उसने मुल्तान तथा रोहतास में मजबूत सेनाएँ नियुक्त कीं। इस प्रकार शेरशाह ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था की।

(7.) न्याय व्यवस्था

शेरशाह ने अपने राज्य में निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था की। शेरशाह की न्याय सम्बन्धी धारणा उच्च थी। वह न्याय को धार्मिक कर्त्तव्य समझता था। उसके विचार में न्याय का तात्पर्य केवल इतना ही नहीं था कि किसी के साथ अत्याचार नहीं किया जाये वरन् इसका यह भी तात्पर्य है कि सबसे साथ अच्छा तथा ईमानदारी का व्यवहार किया जाये। न्याय करने में शेरशाह ऊँच-नीच अथवा धनी-निर्धन में कोई भेद-भाव नहीं करता था। समस्त प्रजा को समान रूप से न्याय प्राप्त होता था। मुसलमानों के दीवानी मुकदमों का निर्णय इस्लाम के नियमों के अनुसार काजी करता था किन्तु फौजदारी के मुकदमों का निर्णय प्रधान शिकदार करता था। दीवानी मुकदमों का फैसला करने के लिये हिन्दुओं के लिये अलग कानून थे। पूरे राज्य में फौजदारी के नियम एक जैसे और कठोर थे। अपराधी को उसके द्वारा किये गये अपराध के अनुसार कारागार में डालना, आर्थिक जुर्माना लगाना, कोड़े लगाना, अंग-भंग करना तथा प्राण-दण्ड देना आदि दण्ड दिये जाते थे। कभी-कभी चोरी तथा डकैती के लिये भी प्राण-दण्ड दिया जाता था।

(8.) शान्ति तथा व्यवस्था

अपराधियों को दण्ड देने की समुचित व्यवस्था करने के साथ-साथ शेरशाह ने अपराधों को रोकने का भी उचित प्रबन्ध किया। शिकदार तथा प्रधान शिकदार अपने कार्यक्षेत्र में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिये जिम्मेदार थे। चौधरी तथा मुकद्दम को अपराधों का पता लगाना होता था। स्थानीय होने के कारण ये लोग प्रायः सरलता से अपराधी का पता लगा लेते थे। यदि किसी गाँव में अथवा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में चोरी, डकैती या हत्या जैसी घटना होती थी और उस गाँव का मुकद्दम अपराधी तथा चोरी के माल का पता लगाने में असमर्थ रहता था तो उसे दण्डित किया जाता था। कभी-कभी तो उसकी हत्या भी करवा दी जाती थी। इस प्रकार अपराधों का पता लगाने का उत्तरदायित्व ग्रामवासियांे तथा उनके प्रतिनिधियों का होता था। अपराध सिद्ध हो जाने पर अपराधियों को दण्ड देने का काम राज्य का होता था। बड़े नगरों में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधों को रोकने और उनका पता लगाने के लिए कोतवाल नियुक्त किये गये थे। शेरशाह की शासन व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए इलियट ने लिखा है- ‘शेरशाह के समय में एक वृद्धा भी अपने सिर पर आभूषणों की टोकरी रखकर यात्रा कर सकती थी और कोई भी चोर या डाकू शेरशाह के दण्ड के भय से उसके निकट आने का साहस नहीं कर सकता था।’

(9.) गुप्तचर विभाग

सुल्तान के विरुद्ध होने वाले षड़यंत्रों एवं कुचक्रों तथा सल्तनत पर होने वाले आक्रमणों का समय रहते ही पता लगाने के लिये शेरशाह ने मजबूत गुप्तचर विभाग का संगठन किया। उसके विश्वस्त गुप्तचर राज्य के विभिन्न भागों में भ्रमण करते रहते थे और सुल्तान को सरकारी कर्मचारियों के कार्यों, अमीरों की गतिविधियों तथा देश की स्थिति की सूचना देते रहते थे।

(10.) यातायात

शेरशाह ने अपने राज्य में यातायात को सुचारू बनाने के लिये कई उपाय किये। उसने कई सड़कों तथा सरायों का निर्माण करवाया। राज्य के समस्त प्रमुख स्थानों को सड़कों से जोड़ा। वर्तमान ग्राण्ड ट्रंक रोड का निर्माण शेरशाह ही ने करवाया था। यह सड़क ढाका में लाहौर तक जाती थी। दूसरी सड़क आगरा से बुरहानपुर तक, तीसरी आगरा से बियाना होती हुए मारवाड़ की सीमा तक, चौथी मुल्तान से लाहौर तक और पाँचवी आगरा से जोधपुर तथा चितौड़ तक जाती थी। अन्य कई सड़कें भी शेरशाह के समय में मौजूद थीं जो विभिन्न नगरों को जोड़ती थीं। सड़कों के किनारे छायादार पेड़ लगवाये गये और कुएँ खुदवाये गये। सड़कों के किनारे चार-चार मील की दूरी पर सरायें बनवाई गईं जिनमें हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था रहती थी। यात्रियों के लिए गर्म तथा ठण्डे जल, बिस्तर, भोजन आदि का प्रबन्ध रहता था। घोड़ों तथा पशुओं के लिए घास-दाने का प्रबन्ध रहता था। शेरशाह ने लगभग 1700 सरायों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार करवाया। इन सड़कों तथा सरायों से राज्य में व्यापार तथा वाणिज्य की वृद्धि में बड़ी सहायता मिली।

(11.) वाणिज्य तथा व्यापार

शेरशाह ने वाणिज्य तथा व्यापार की उन्नति के लिये कई व्यवस्थायें कीं। उसने शुद्ध सोने, चांदी तथा तांबे की मुद्राएँ चलाईं जो एक ही वजन तथा एक ही मूल्य की थीं। इससे मुद्रा की विश्वसनीयता में वृद्धि हुई तथा लोगों के साथ बेईमानी की संभावना कम हो गई। शेरशाह ने व्यापारियों तथा दूकानदारों के लिये अनिवार्य कर दिया कि वे एक ही वजन के बाट रखंे, एक ही मूल्य पर सामान बेचें, शुद्ध और अच्छी चीजें रखें तथा तौलने में बेईमानी न करें। सरकारी कर्मचारियोें को आदेश था कि बाजार से चीजें खरीदते समय वे कम दाम देने का प्रयास न करें। शेरशाह ने साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तों में एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त को चीजंे स्वतन्त्रतापूर्वक भेजने की अनुमति दे दी। केवल दो स्थानों पर चुंगी वसूल की जाती थी- साम्राज्य में प्रवेश करते समय तथा सामग्री विक्रय वाले स्थान पर। प्रवेश स्थान पर चुंगी वसूलने के लिये पूर्व में सिकरीगली और पश्चिम में रोहतास गढ़ नियत किये गये।

(12.) डाक व्यवस्था

सड़कों के किनारे पर स्थित सरायें डाक-चौकियों का काम देती थीं। इन सरायों में डाक ले जाने वाले हरकारे विद्यमान रहते थे। डाक पैदल तथा घुड़सवारों दोनों प्रकार के डाकियों द्वारा भेजी जाती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि निकटस्थ स्थानों की डाक पैदल हरकारों द्वारा और दूरस्थ स्थानों की डाक घुड़सवारों द्वारा भेजी जाती थी।

(13.) धार्मिक नीति

शेरशाह हिन्दुओं तथा शियाओं को घृणा की दृष्टि से देखता था। हिन्दू राज्यों को हड़पने के लिये उसने हर तरह के हथकण्डे अपनाये। वह दक्षिण के शिया राज्यों को जीतना चाहता था। उसके मन में फारस के शिया राज्य पर भी आक्रमण करने की इच्छा थी। शेरशाह ने मुसलमानों के लिये अलग इस्लाम सम्मत विधि से ही न्याय करने की व्यवस्था की। हिन्दुओं के लिये अलग कानून था। हिन्दुओं को अपने धर्म का पालन करने के लिये जजिया देना पड़ता था। हिन्दुओं को उच्च पदों पर नहीं रखा जाता था। सेना में भी प्रायः अफगान या अन्य मुसलमान ही रखे जाते थे।

(14.) दान व्यवस्था

शेरशाह धार्मिक तथा दानशील प्रवृत्ति का सुल्तान था। उसने कई मदरसे और मस्जिदें बनवाईं। उसने इन संस्थाओं की आर्थिक सहायता की भी व्यवस्था की। वह पुराने मदरसों तथा मस्जिदों को भी दान देता था। अन्धे, लूले, लँगडे़, असहाय तथा दीन-दुखी उससे सहायता पाते थे। विद्यार्थियों तथा साहित्यकारों को भी वह दान देता था। उसके राज्य में अनेक स्थानों पर दानशालाएँ खोली गईं और भोजनालय बनाये गये जहाँ निःशुल्क भोजन बँटता था।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि शेरशाह की शासन व्यवस्था उस युग के सुल्तानों की अपेक्षा बहुत उन्नत थी। भूमि की नपाई तथा वर्गीकरण करके लगान निर्धारण की अच्छी व्यवस्था की गई। न्याय एवं शांति व्यवस्था के लिये कई कदम उठाये गये। व्यापार की वृद्धि के लिये यातायात को सुगम बनाया गया। शेरशाह में धार्मिक कट्टरता मौजूद थी इसलिये हिन्दुओं पर जजिया लगाया गया। हिन्दुओं को शासन एवं सेना में उच्च पद नहीं दिये जाते थे। प्रो. कानूनगो के अनुसार- ‘यदि शेरशाह एक-दो दशाब्दी और जीवित रहता तो भूमिपति एक वर्ग के रूप में समाप्त हो गये होते और हिन्दुस्तान अथक किसानों के उत्साह पूर्ण संरक्षण में कष्ट विहीन, झाड़-झंखाड़ विहीन कृषि-योग्य देश बन गया होता।’

साहित्य तथा कला की उन्नति

शेरशाह को सुल्तान के रूप में पांच वर्ष ही कार्य करने का अवसर मिला फिर भी उसके शासनकाल में साहित्य तथा कला की उन्नति हुई। उस काल में हिन्दी भाषा एवं साहित्य की विशेष उन्नति हुई। मुसलमान लेखकों ने भी हिन्दी की बड़ी सेवा की। मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना इसी काल में की। वैष्णव धर्म के कई बड़े प्रचारक सूरवंश के शासनकाल में हुए। उनका प्रमुख केन्द्र मथुरा था। शेरशाह कला प्रेमी सुल्तान था। उसके काल में बने भवनों में हिन्दू-मुस्लिम एकता का सम्मिश्रण है। उसने रोहताास के दुर्ग का निर्माण करवाया तथा सहसराम में एक सुन्दर मस्जिद बनवाई जिसमें उसे मरने के बाद दफनाया गया।

शेरशाह के कार्यों का मूल्यांकन

(1.) साम्राज्य संस्थापक के रूप में: शेरशाह भारत के उन गिने-चुने शासकों में से है जिसने एक साधारण परिवार में जन्म लेकर विशाल साम्राज्य खड़ा किया। उसे भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य स्थापित करने का श्रेय है। उसने इस कार्य को उस समय सम्पन्न किया जब अफगानों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो चुकी थी तथा भारत में मुगलों की सत्ता पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थी। शेरशाह ने अपने पाँच वर्ष के अल्पकालीन शासन में जिस प्रशासकीय प्रतिभा का परिचय दिया वह न केवल भारत के इतिहास में वरन् विश्व के इतिहास में अद्वितीय है। उसने जिस साम्राज्य की स्थापना की उसे सुसंगठित तथा सुदृढ़ बनाने के उपाय किये। इस कारण शेरशाह की गणना मध्यकालीन भारत के सफल शासकों में होती है।

(2.) व्यक्ति के रूप में: शेरशाह एक साधारण जागीरदार का पुत्र था परन्तु उसने अपनी प्रतिभा के बल पर स्वयं को सदैव आगे बढ़ाने का प्रयास किया था। जौनपुर में अध्ययनरत रहकर उसने अपनी जीवन यात्रा की तैयारी की। उसका पिता भी उसकी प्रतिभा की उपेक्षा नहीं कर सका और उसे अपनी जागीर का प्रबन्ध सौंप दिया। जिस कुशलता के साथ उसने पिता की जागीर का प्रबन्ध किया उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। उसने जागीर में पूर्ण शांति स्थापित की और उसे सम्पन्न बना दिया। अपने पिता के मरने के बाद उसने भाइयों के कुचक्रों को निष्फल करके अपने पिता की जागीर पर अधिकार बनाये रखा। अनेक गुणों के होते हुए भी शेरशाह अत्यंत स्वार्थी था। स्वार्थ पूर्ति के लिये वह बार-बार नीचे गिर सकता था। उसने हुमायूँ के साथ किये गये वादे को कई बार तोड़ा। रोहतास के राजा चिन्तामणि से छल करके उसका दुर्ग हड़प लिया। शेरशाह ने रायसेन के राजा पूरनमल से संधि करके उसके परिवार को मार डाला तथा उसकी लड़की को नर्तकी बनाकर नचाया। शेरशाह ने बिहार के बादशाह जलालखाँ का संरक्षक बनकर उसका राज्य हड़प लिया।

(3.) अधिकारी के रूप में: शेरशाह ने बिहार के सुल्तान बहादुरखाँ की सेवा करके उसका विश्वासपात्र बन गया। बादशाह ने उसे शाहजादे जलालखाँ का शिक्षक बना दिया। बहादुरखाँ की मृत्यु के उपरान्त उसकी बेगम दूदू ने भी शेरशाह को राजकार्य सँभालने बुलाया। दूदू ने शेरशाह को अपना नायब बनाकर शासन का सारा कार्य उसी को सौंप दिया। शेरशाह ने अपनी प्रशासकीय प्रतिभा के बल पर शासन के कोने-कोने में अपना प्रभाव प्रस्थापित कर लिया। इस कारण वह बिहार के अफगान अमीरों की दृष्टि में खटकने लगा। शेरशााह ने उनके समस्त कुचक्रों को निष्फल करके स्वयं बिहार का सुल्तान बन गया।

(4.) सैनिक और सेनापति के रूप में: सैनिक और सेनापति के रूप में शेरशाह को बंगाल के शासकों के विरुद्ध तथा हुमायूँ के विरुद्ध जो सफलताएं प्राप्त र्हुईं, उनसे उसकी  सैनिक प्रतिभा का परिचय मिल जाता है। जब बंगाल के शासकों ने बिहार पर आक्रमण किया तब शेरशाह ने न केवल उनके आक्रमण को निष्फल कर दिया अपतिु उसने स्वयं ने बंगाल पर आक्रमण करके राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया और वहाँ के शासक से खिराज वसूल किया। चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में हुमायूँ के विरुद्ध उसे जो सफलता प्राप्त हुई, वे उसके कुशल सेनापतित्व का परिचायक हैं। युद्धों में लगातार मिली सफलताओं ने शेरशाह को हिन्दुस्तान का बादशाह बना दिया।

(5.) कूटनतिज्ञ के रूप में: जिस समय शेरशाह का हुमायूँ के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ हुआ उस समय हुमायूँ एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था और शेरशाह एक साधारण जागीरदार। इसलिये शेरशाह ने कूटनीति से काम लिया। वह एक तरफ तो हुमायूँ से अनुनय-विनय करके उसके प्रति स्वामिभक्ति दिखाता रहा तथा दूसरी तरफ अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा रहा। उसने हुमायूँ से तब तक युद्ध नहीं किया जब तक उसे यह विश्वास न हो गया कि वह हुमायूँ से सफलतापूर्वक लड़ सकता है।

(6.) सुल्तान के रूप में: शेरशाह ने सुल्तान बनने के उपरान्त प्रशासकीय क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की, वह अन्य सुल्तानों को दुर्लभ है। अपने पाँच वर्ष के अल्पकालीन शासन में उसने जो सुधार किये, उतने सुधार अन्य सुल्तान दो दशाब्दियों में भी नहीं कर सके। प्रशासकीय क्षेत्र में शेरशाह ने जो नवीन व्यवस्थायें कीं, आगे चलकर अकबर ने उनका अनुकरण किया। शेरशाह ने जिस उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का सूत्रपात किया, वह मुस्लिम राजनीति में नई बात थी। शेरशाह के शासन-सम्बन्धी आदर्श अत्यंत उच्च थे जिनका मूल आधार लोक कल्याण था। इस कारण उसके द्वारा किये गये सुधार स्थायी तथा अनुकरणीय सिद्ध हुए।

(7.) इतिहासकारों की दृष्टि में: लगभग समस्त भारतीय एवं यूरोपीय इतिहासकारों की दृष्टि में शेरशाह अदभुत साम्राज्य निर्माता तथा प्रतिभावान शासक था। स्मिथ ने लिखा है- ‘यदि शेरशाह और जीवित रहा होता तो महान् मुगल बादशाह इतिहास के मंच पर प्रकट नहीं हुए होते।’ कीन ने लिखा है- ‘किसी भी सरकार ने यहाँ तक कि ब्रिटिश सरकार ने भी ऐसी बुद्धिमता नहीं दिखाई है, जैसी कि इस पठान ने।’ डॉ. त्रिपाठी ने लिखा है-  ‘शेरशाह दिल्ली के महानतम शासकों में से था। वह भाग्य का राजकुमार था……भारतीय इतिहास में उसका व्यक्तित्व महान् था।’ प्रो. कानूनगो ने लिखा है- ‘शेरशाह सम्राट था परन्तु उसने साम्राटत्व नहीं दिखलाया। वह अपने तुच्छतम सैनिक की भाँति फावड़ा चलाने में संकोच नहीं करता था।’ डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी ने लिखा है- ‘यदि शेरशाह अधिक दिनों तक जीवित रहा होता तो वह अकबर के पाल से हवा निकाल दिये होता। वह निस्संदेह दिल्ली के महान् राजनीतिज्ञों में से था। उसने वास्तव में अकबर की अत्यन्त प्रबुद्धशील नीति के लिये मार्ग प्रशस्त कर दिया था और उसका सच्चा अग्रदूत था।’ एडवर्ड्स तथा गैरेट का कहना है- ‘जितना इस योग्य तथा कर्त्तव्यशील व्यक्ति ने पाँच वर्षो के अल्पकाल में कर दिया उतना बहुत कम लोग कर सकते हैं।’

क्या शेरशाह राष्ट्र निर्माता था ?

क्या शेरशाह अफगानों का राष्ट्र निर्माता था ?

शेरशाह की गणना भारत के राष्ट्र निर्माताओं में की जाती है। इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत में अफगानों के द्वितीय साम्राज्य का निर्माता था। जिस समय शेरशाह ने भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की, उस समय अफगानों की सत्ता नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी थी। ऐसे समय में शेरशाह ने बलपूर्वक अफगानों का नेतृत्व ग्रहण किया। उनकी खोई हुई सत्ता को फिर से स्थापित किया और अन्त में अफगान साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर दी। इस प्रकार वह अफगानों का राष्ट्र निर्माता बन गया जिसमें हिन्दू प्रजा के लिये भी पहले से कहीं अधिक आरामदायक स्थान था।

क्या शेरशाह हिन्दू राष्ट्र का भी निर्माता था ?

यह सही है कि शेरशाह अफगान राष्ट्र का निर्माता था किंतु क्या वह हिन्दुओं का भी राष्ट्र-निर्माता था? इतिहासकार इस तथ्य के पक्ष और विपक्ष में तर्क देते हैं।

(1.) शेरशाह हिन्दुओं का भी राष्ट्र निर्माता था: इस कथन के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कांे के अनुसार शेरशाह पहला मध्य युगीन सुल्तान था जिसने उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। उसने हिन्दुओं पर वैसे अत्याचार नहीं किये जैसे अत्याचार फीरोजशाह तुगलक के समय में किये गये थे। न ही हिन्दुओं पर करों का इतना बोझ लादा, जितना उसके पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों ने लादा था। उसने हिन्दुओं को भी न्याय देने का प्रयास किया। उसके सुधारों तथा उनके द्वारा बनवाई हुई सरायों से हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को लाभ हुआ। हिन्दुओं को अपने धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता थी। उसके शासन काल में हिन्दी साहित्य का विकास हुआ और उसके द्वारा निर्मित इमारतों में हिन्दू-मुस्लिम कला का सम्मिश्रण किया गया। कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से हिन्दुओं के शोषण, अत्याचार, हिंसा, लूट और सम्पत्ति हरण का जो सिलसिला आरम्भ हुआ था, उस सिलसिले में शेरशाह सूरी के समय में अभूतपूर्व कमी आई। शेरशाह के समय में हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान नहीं बनाया गया। न ही हिन्दू कन्याओं को बलपूर्वक मुसलमानों से ब्याहा गया। न ही हिन्दू बच्चों को गुलाम बनाया गया। न हिन्दुओं के मंदिर तोड़े गये, न देवमूर्तियां तोड़ी गईं। न उनके तीर्थ अपवित्र किये गये। हिन्दू जजिया चुका कर शांतिपूर्वक अपने धर्म एवं तीर्थों का सेवन कर सकते थे। इन तथ्यों के आलोक में शेरशाह की राष्ट्र निर्माण की नीति स्पष्ट हो जाती है।

(2.) शेरशाह हिन्दुओं का राष्ट्र निर्माता नहीं था: शेरशाह के विरोध में दिये जाने वाले मत के अनुसार शेरशाह को हिन्दुओं का राष्ट्र निर्माता स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि उसने हिन्दुओं पर जजिया पूर्ववत् जारी रखा। उसने हिन्दुओं के राज्यों का उन्मूल करने में साधारण नैतिकता का भी पालन नहीं किया। हिन्दुओं को शासन तथा सेना में उच्च पद नहीं दिये। हिन्दू अपने धर्म का पालन तभी कर सकते थे जब वे जजिया चुका दें। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के मुकदमों का निर्णय करने के लिये अलग-अलग कानून बनाये गये। ऐसी स्थिति में शेरशाह को हिन्दुओं के राष्ट्र का निर्माता नहीं माना जा सकता।

निष्कर्ष

यह सही है कि शेरशाह ने मुसलमान प्रजा को हिन्दू प्रजा की अपेक्षा अधिक सुविधायें दीं तथा अफगानों को हिन्दुओं की अपेक्षा आर्थिक एवं राजनीतिक उन्नति के अधिक अवसर उपलब्ध करवाये किंतु शेरशाह ने राष्ट्र निर्माण की जिस नीति का सूत्रपात किया उससे हिन्दुओं को बहुत राहत पहुंची। अकबर की उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति, राजपूतों के साथ सद्भावना रखने तथा उनका सहयोग प्राप्त करने की नीति और उसकी सुलह-कुल की नीति का बीजारोपण शेरशाह ने कर दिया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि शेरशाह मध्यकाल का राष्ट्र निर्माता था।

शेरशाह के उत्तराधिकारी

इस्लामशाह

शेरशाह ने अपने जीवन काल में ही अपने बड़े पुत्र आदिल खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया परन्तु शेरशाह की मृत्यु के उपरान्त अमीरों ने शेरशाह के छोटे पुत्र जलाल खाँ को सुल्तान बनाया जो 25 मई 1545 को इस्लामशाह के नाम से तख्त पर बैठा। उसने सबसे पहले अपने भाई आदिल खाँ से छुटकारा पाने के लिये उसे बंदी बनाने का प्रयत्न किया। आदिल खाँ भयभीत होकर अपने पिता के विश्वस्त सेनापति खवास खाँ के पास चला गया और आँखों में आँसू लेकर अपने भाई की नीचता का वर्णन किया। खवास खाँ को शहजादे पर दया आ गई और उसने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसकी देखा-देखी अन्य अमीरों ने भी विद्रोह किया परन्तु इस्लामशाह ने समस्त विद्रोहांें का दमन कर दिया। कुछ समय बाद पंजाब के शासक हैबत खाँ ने भी विद्रोह किया। इस विद्रोह को शान्त करने में इस्लामशाह को पाँच वर्ष लग गये। इसी समय हुमायूँ भी फारस से वापस लौट आया। इस्लामशाह ने हुमायूं की सेना को परास्त कर दिया किंतु इसी बीच इस्लामशाह बीमार पड़ा और सितम्बर 1553 में उसकी मृत्यु हो गई।

महमूदशाह आदिल

इस्लामशाह की मृत्यु के बाद अमीरों ने उसके बारह वर्ष के पुत्र फीरोजशाह को ग्वालियर के तख्त पर बिठाया परन्तु तीन दिन बाद उसके चाचा मुबारिजखाँ ने फीरोजशाह का वध कर दिया जो कि उसका मामा भी लगता था। मुबारिजखाँ महमूदशाह आदिल के नाम से तख्त पर बैठा। वह अत्यंत दुष्ट व्यक्ति था। उसने अफगान अमीरों को अप्रसन्न कर दिया जिससे सारे राज्य में विद्रोह की आग भड़क उठी। बिहार में ताज खाँ ने विद्रोह कर दिया।

इब्राहीम खाँ सूरी

जब मुहम्मदशाह ताजखाँ का दमन करने के लिए बिहार गया, तब अवसर पाकर उनका चचेरा भाई इब्राहीम खाँ दिल्ली के तख्त पर बैठ गया और आगरा की ओर बढ़ा। इसकी सूचना पाने पर महमूदशाह चुनार की ओर चला गया। इस प्रकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में महमूदशाह और पश्चिमी भाग में इब्राहीमखाँ शासन करने लगा।

सिकंदरशाह सूरी

इसी समय पंजाब में शेरशाह के भतीजे अहमद खाँ ने विद्रोह कर दिया। उसने सिकन्दरशाह की उपाधि धारण की और अपनी सेना के साथ आगरा के लिए प्रस्थान किया। इब्राहीम खाँ ने उसका सामना किया परन्तु परास्त होकर सम्भल की ओर भाग गया। सिकन्दरशाह ने दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों बाद हुमायूँ ने उसे सरहिन्द के मैदान में परास्त कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत में पुनः मुगल साम्राज्य की स्थापना हो गई और सूरी साम्राज्य का अवसान हो गया।

सूरी साम्राज्य के पतन के कारण

(1.) शेरशाह की अकाल मृत्यु

शेरशाह की अकाल-मृत्यु से सूरी साम्राज्य को बड़ा धक्का लगा। यदि वह अधिक दिनों तक जीवित रहा होता तो सूरी साम्राज्य इतनी जल्दी नहीं बिखरता। उसने ऐसी व्यवस्था कर दी होती जिससे भारत में मुगल साम्राज्य की पुनर्स्थापना असम्भव अथवा अत्यंत कठिन हो गई होती।

(2.) स्वेच्छाचारी तथा केन्द्रीभूत शासन व्यवस्था

शेरशाह ने जिस शासन की स्थापना की थी वह स्वेच्छाचारी तथा केन्द्रीभूत शासन व्यवस्था थी। राज्य की सारी शक्तियाँ सुल्तान के हाथ में थीं। इस प्रकार का शासन तभी तक चलता है जब तक शासन सूत्र योग्य तथा प्रतिभावान व्यक्ति के हाथ में रहे। जैसे ही शासन सूत्र अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी के हाथ में आता है, वैसे ही उसका विनाश हो जाता है। सूरी साम्राज्य के साथ भी यही हुआ।

(3.) निर्बल उत्तराधिकारी

शेरशाह की मृत्यु के उपरांत इस्लामशाह को छोड़कर और कोई शासक ऐसा नहीं था जो साम्राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचा सकता था। इसलिये इस्लामशाह की मृत्यु के उपरान्त सूरी साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।

(4.) उत्तराधिकारियों का आत्मघाती संघर्ष

इस्लामशाह की मृत्यु के उपरान्त महमूदशाह, इब्राहीम खाँ तथा सिकन्दरशाह में जो संघर्ष हुआ वह साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। सूर साम्राज्य को इन तीनों शासकों ने बाँट कर छिन्न-भिन्न कर दिया जिससे उसमें विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करने की क्षमता न रह गई।

(5.) अमीरों से संघर्ष

अफगानियों में कबीलाई भावना इतनी अधिक थी कि वे किसी दूसरे कबीले का उत्कर्ष होते हुए नहीं देख सकते थे। जैसे ही किसी एक कबीले का अफगान अमीर, अपने उत्कर्ष का प्रयास करता था, दूसरे कबीलों के अफगान अमीर उसके सर्वनाश पर तुल जाते थे। इस कारण शेरशाह के उत्तराधिकारियों से अमीर नाराज हो गये। उत्तराधिकारियों में इन अमीरों को दबाने तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार करके उन्हें अपने समर्थन में करने की शक्ति नहीं थी इसलिये शासन का आधार खिसक गया।

(6.) हुमायूँ का प्राबल्य

सूर-साम्राज्य के विनाश का अन्तिम कारण यह था कि फारस से लौटने के बाद हुमायूँ की शक्ति काफी प्रबल हो चुकी थी। वह अपने भाइयों पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा था। हुमायूँ के पास फिर से एक प्रबल सेना हो गई थी। अतः उसने सरलता से अफगानों को परास्त करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया।

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