Thursday, November 21, 2024
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20. बाली द्वीप में दूसरा दिन

15 अप्रेल 2017 को दूसरे दिन प्रातः पांच बजे ही आंख खुल गई। इस समय भारत में तो रात के ढाई ही बजे होंगे किंतु हमारे शरीर में लगी जैविक घड़ी ने स्थानीय समय से पूरी तरह से तालमेल बैठा लिया था। चावल के खेतों के बीच बने उस लॉन में पूरे परिवार के साथ बैठकर सुबह की चाय पीना, अपने आप में एक अलग ही अनुभव था। इसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।

मैं और विजय जल्दी ही तैयार होकर, पुतु का स्कूटर लेकर प्रातः आठ बजे फिर से उसी सब्जी मण्डी की ओर चल पड़े ताकि दूध और तरकारी खरीदी जा सकें। इस शांत प्रातः बेला में चावल के खेतों के बीच से निकलना एक सुखद अनुभव था। सड़क के दोनों किनारों पर फलों से लदे हुए केले, पपीते, खजूर और नारियल के वृक्ष सहज ही ध्यान आकर्षित करते थे।

नृत्यलीन बारोंग

अभी हम कुछ दूर ही चले थे कि मार्ग में हमें एक जुलूस आता हुआ दिखाई दिया। हमने स्कूटर सड़क के किनारे खड़ा कर दिया तथा उसकी तस्वीरें उतारने लगे। जुलूस के बीच कपड़े का एक विशालाकाय जानवर नृत्य कर रहा था जिसके मुंह पर वाराह (शूकर) का मुखौटा लगा हुआ था। कपड़े के भीतर दो आदमी थे जो अपने हाथों और पैरों से इस प्रकार की भंगिमाएं बना रहे थे जिनसे वह विशालाकाय वाराह नृत्य करता हुआ दिखाई देता था और उसके गले में पड़ी पीतल की बड़ी सी घण्टी से सुमधुर ध्वनि निकल रही थी। उसके चारों ओर चल रहे कुछ श्रद्धालु अपने हाथों में ढोल, मंजीरे तथा स्थानीय वाद्य बजा रहे थे जिससे चारों ओर का वातावरण धार्मिक श्रद्धा से आप्लावित हो रहा था। एक महिला बांस की खपच्चियों पर कपड़े से बनी छतरी उठाए हुए एब शूकर के साथ चल रही थी।

हमें बताया गया कि यह बारोंग है जो धरती पर बुरी आत्माओं के सफाए के लिए आया है और घर-घर जाकर वहाँ से बुराइयों का सफाया कर रहा है। एक अन्य कथा के अनुसार बारोंग एक बुरी ”रांग्डा” अर्थात् विधवा स्त्री से युद्ध कर रहा है जो समस्त बुराइयों की जड़ है। यह कथा जावा की राजकुमारी महेन्द्रदत्ता से भी जुड़ी हुई है जो बाली द्वीप की महारानी थी तथा उसी ने बाली द्वीप के आदिवासियों में हिन्दू धर्म का प्रचलन किया था।

एक क्षेपक के अनुसार रानी महेन्द्रदत्ता तंत्र-मंत्र करती थी इसलिए बाली के राजा धर्मोदयाना ने उसे अपने महल से निकाल दिया। वह जंगल में जाकर रहने लगी। राजा धर्मोदयाना के मरने पर रानी विधवा हो गई। इसे बाली में ”रांग्डा” कहा जाता है। यह शब्द उत्तर भारत में विधवा स्त्री के लिए मध्यकाल में प्रचलित ”रांड” शब्द से काफी मिलता जुलता है। हमने देखा कि वह जुलूस बारी-बारी से प्रत्येक घर के सामने जाकर रुकता था, बारोंग का नृत्य और भी तेज हो जाता था तथा गृहस्थ लोग घर से बाहर आकर, जुलूस के साथ चल रहे पुजारी को रुपए देते थे। शूकर के नृत्य की भाव-भंगिमा तथा जुलूस के द्वारा बजाया जा रहा संगीत, दोनों ही अपने आप में विशिष्ट थे। हमें याद आया कि पुतु ने बताया था कि आज हिन्दुओं का बड़ा त्यौहार है जिसे गुलंगान कहते हैं। हमें स्वतः स्पष्ट हो गया कि यह जुलूस गुलंगान का हिस्सा है। हमें ज्ञात हुआ कि वाराह के चेहरे वाले बारोंग की तरह बाघ तथा शेर के मिले जुले रूप वाला बारोंग भी आता है। वह शिव की शक्ति का प्रतीक माना जाता है। वह भी धरती पर से बुरी आत्माओं को नष्ट करने वाला माना जाता है।

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स्वर्ग से आती हैं आत्माएं

बालीवासी गुलंगान का त्यौहार अधर्म पर धर्म की विजय के उत्सव के रूप में मनाते हैं। मान्यता है कि इस दिन स्वर्ग से पूर्वजों की आत्माएं भी उत्सव मनाने धरती पर आती हैं। इस त्यौहार की तुलना विश्व भर के हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाली दीपावली त्यौहार से की जा सकती है। हमें बताया गया कि यह उत्सव, मुख्य दिवस के तीन दिन पहले आरम्भ होकर मुख्य उत्सव के ग्यारह दिन बाद तक चलता है। मुख्य दिवस के तीन दिन पहले पेन्येकेबान मनाया जाता है। इस दिन हर हिन्दू के घर में केले का प्रसाद बनाकर देवता को अर्पित किया जाता है। अगले दिन अर्थात् मुख्य दिवस के दो दिन पहले पेन्याजान का आयोजन किया जाता है। इस दिन तले हुए चावलों का केक बनाकर देवताओं को अर्पित किया जाता है जिसे जाजा कहते हैं।

इसके अगले दिन अर्थात् मुख्य त्यौहार से एक दिन पहले पेनाम्पाहान का आयोजन किया जाता है। इस दिन दावत का आयोजन किया जाता है जिसमें सूअर तथा मुर्गे काटे जाते हैं। मुख्य दिवस के अगले दिन परिवार के पुरुष सदस्य, बारोंग के साथ नाचते-गाते हुए जुलूस के रूप में घर-घर जाते हैं। गृहस्थ जन अपने घरों के आगे सजावट करते हैं तथा एक दूसरे के घर जाकर त्यौहार की बधाई देते हैं और मिठाई खाते हैं। त्यौहार के आयोजन के दस दिन बाद विशेष रूप से सामूहिक प्रार्थनाओं का आयोजन किया जाता है तथा स्वर्ग से धरती पर आई पूर्वजों की आत्माओं को विदाई दी जाती है। पूर्वज आत्माओं के जाने के एक दिन बाद लोग मौज-मस्ती करते हैं। हंसी-ठट्ठा होता है, आनंद मनाया जाता है। चूंकि बाली का परम्परागत कलैण्डर 210 दिन का होता है इसलिए यह त्यौहार हर दस माह बाद मनाया जाता है।

बांस ही बांस

हम थोड़ी दूर और गए तो हमारा ध्यान घरों के आगे लगे हुए लम्बे से बांस की ओर गया जो लगभग 15-20 फुट की ऊँचाई पर जाकर फिर से धरती की तरफ मुड़ता था। इन्हें पेंजोर कहा जाता है। प्रत्येक बांस रंगीन कपड़ों, कागजों और फूलों से ढंका हुआ था। बांस के साथ ही धरती से लगभग पांच-छः फुट की ऊंचाई पर बांस की खपच्चियों से बना हुआ लघु देवालय लटका हुआ था। इसके भीतर देवता के प्रतीक के रूप में कोई प्रतिमा थी जिसके समक्ष कई रंगों के पुष्प, फल और अण्डे आदि रखे हुए थे। कुछ बांसों को तो इतनी अच्छी तरह से और इतने भव्य प्रकार से सजाया गया था कि दर्शक बांसों की कलाकृतियों को देखकर दांतों तले अंगुलियां दबा लें। हम समझ गए कि हर घर के आगे की गई यह सजावट भी आज के गुलंगान त्यौहार की अभिन्न आयोजना है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि भारत में दीपावली के अवसर पर घरों के बाहर कण्डीलों की सजावट की जाती है तथा रात्रि में दीप जलाकर देवी लक्ष्मी का आह्वान किया जाता है। पेंजोर पर लगे इन्द्रब्लाका में भी रात्रि के समय दीप जलाकर प्रकाश किया जाता है।

सब्जी मण्डी में फिर से निराशा

हम लगभग 9.30 बजे सब्जीमण्डी पहुंचे किंतु तब तक सब्जीमण्डी खुली नहीं थी। एकाध दुकानें ही खुली थीं जिन पर फल रखे थे। हमने बाली द्वीप पर उत्पन्न होने वाले दो स्थानीय फल खरीदे जिनके नाम हम याद नहीं रख सकते थे। इनमें से पहला फल बाहर से लगभग भारतीय लीची की तरह दिखाई देता था किंतु इसके भीतर एक बड़ा सा बीज था जिसके चारों ओर पीले रंग का सुगंधित और मीठा गूदा था। इसमें से पके हुए कटहल के बीज की सी सुगंध आ रही थी। दूसरा फल बाहर से तो चीकू की तरह दिखाई देता था किंतु उसके भीतर छोटे-छोटे बीजों वाला रसीला गूदा भरा हुआ था जो स्वादिष्ट तथा हल्का खट्टा था। चूंकि सब्जियां प्राप्त करना संभव नहीं था, इसलिए हम वे फल खरीद कर ही वापस लौट लिए। हमने कुछ जनरल स्टोर्स पर दूध का डिब्बा खरीदने का प्रयास किया किंतु वह किसी भी स्टोर पर उपलब्ध नहीं हुआ।

कौए की आकृति वाली पगड़ी

ठीक साढ़े दस बजे पुतु अपनी गाड़ी लेकर आ गया। आज वह कल वाली पोषाक में नहीं था। उसने स्थानीय परम्परागत वस्त्र धारण किये थे जो गुलंगान त्यौहार पर विशेष रूप से पहने जाते थे। उसने सफेद कोट नुमा एक शर्ट धारण कर रखी थी। कमर के नीचे विशेष शैली में बांधी हुई तहमद थी और सिर पर एक टोपी थी जिसमें आगे की ओर कुछ गांठें लगाकर ऐसी आकृति बनाई गई थी कि वहाँ किसी पक्षी के बैठे होने का आभास होता था। मैंने अनुमान लगाया कि इस पक्षी की आकृति भारतीय कौए से मिलती है।

दुर्गा पूजा

पुतु के साथ एक और दम्पत्ति आया था। महिला के हाथ में बांस की खपच्चियों से बनी हुई बड़ी सी टोकरी थी जिसमें बांस से बनी हुई छोटी-छोटी गोल थालियां रखी हुई थीं। इन थालियों में केला तथा सेब आदि फल, चावल से बनाई हुई दलिया जैसी कोई डिश और कई तरह के फूल रखे हुए थे। महिला ने बहुत ही आकर्षक कपड़े पहने हुए थे। वह एक मंझले कद की गौर-वर्ण महिला थी जिसकी आयु कठिनाई से 25 साल रही होगी। उसने अपनी टोकरी में से एक गोल थाली निकाली और उसे लॉन के एक कौने में काले रंग के पत्थरों से बने एक मंदिरनुमा स्तम्भ के सबसे ऊपरी आले में रख दिया। फिर उसी आले के समक्ष दो अगरबत्तियां जलाईं तथा मंदिर के समक्ष हाथ जोड़कर अपना मस्तक झुकाया।

हमने देवालय के भीतर रखी पूजा की थाली में झांककर देखा तो हमें फूलों के बीच मुर्गी का भूरे रंग का एक अण्डा भी दिखाई दिया। हमने पुतु को बताया कि भारत में देवताओं की पूजा में अण्डा काम में नहीं लिया जाता। केवल पुष्प, फल एवं मिठाइयां अर्पित की जाती हैं। नेपाल के हिन्दू भी, बाली के हिन्दुओं की तरह मुर्गी का अण्डा, भगवान की पूजा में चढ़ाते हैं। हमने उस महिला से जानने का प्रयास किया कि इस आले को क्या कहते हैं! किंतु वह अंग्रेजी का एक भी शब्द नहीं समझती थी। उसका पति भी अंग्रेजी नहीं जानता था। पुतु ने हमें बताया कि इस स्तम्भनुमा लघु देवालय को टुडुकरंग कहते हैं। यह प्रत्येक घर के भीतर, सामने वाले हिस्से में बना हुआ होता है। यह देवी दुर्गा की पूजा के निमित्त है। देवी दुर्गा प्रत्येक घर की रक्षा करती हैं। यह पूजा उन्हीं के निमित्त हो रही है।

धरती माता की पूजा

टुडुकरंग की पूजा करने के बाद उस महिला ने पूजा की एक थाली, लॉन के एक कौने में नीचे धरती पर रखी तथा वहाँ भी दो अगरबत्तियां जलाईं। इस गोल थाली में भी पहले वाली थाली के समान ही पूजन सामग्री रखी हुई थी। पुतु ने बताया कि पूजा की जो थाली धरती पर रखी गई है वह धरती माता की पूजा के लिए है, जो हर समय हमारी रक्षा करती है।

काल पूजन

अब बारी थी काल पूजन की। जिस प्रकार गृह परिसर में देवी दुर्गा की पूजा के निमित्त टुडुकरंग बना हुआ होता है, ठीक उसी प्रकार बाली द्वीप पर प्रत्येक घर के बाहर, मुख्य द्वार के निकट कालराऊ बना हुआ होता है। यह भी काले पत्थर से निर्मित एक स्तम्भ देवालय होता है जिसमें काल की पूजा होती है। बाली में इसे मृत्यु का देवता माना जाता है। यह घर के मुख्य द्वार के साथ-साथ पूरी गली की रक्षा करता है।

मैंने अनुमान लगाया कि घर के भीतर दुर्गा का तथा घर के बाहर शिव का मंदिर है। भारत में भी शिव को महाकाल कहते हैं, वही महाकाल यहाँ आकर कालराऊ बन गया है। भारत में राऊ, राजा को कहते हैं। यहाँ भी पूजा करने वाली उस युवती ने कालराऊ के समक्ष बांस की एक थाली अर्पित की तथा दो अगरबत्तियां जलाईं। इस थाली में भी फल-फूल तथा चावलों से बनी हुई कोई डिश थी। कालराऊ के देवालय के बाद उसने पहले की ही तरह फल-फूलों से युक्त एक थाली धरती पर रखी तथा यहाँ भी दो अगरबत्तियां जलाईं।

इन्द्राब्लाका

कालराऊ के बाद महिला ने पास ही लगे लम्बे बांस के साथ लटके लघु देवालय में पूजा की एक थाली अर्पित की। पुतु ने बताया कि इसे इन्द्राब्लाका कहते हैं। यह इन्द्र भगवान की पूजा के निमित्त बनाया गया है। भगवान इन्द्र पूरे मौहल्ले की रक्षा करते हैं। गुलंगान के त्यौहार पर लगने वाले बांस पर तो इन्द्राब्लाका बनाया ही जाता है, यह प्रत्येक मौहल्ले भी स्थाई रूप से रहता है। 

सातू को पहचाना पुतु ने

हमने सर्विस अपार्टमेंट परिसर में बने मंदिरों में पूजा करने आई उस महिला, उसके पति एवं पुतु को लड्डू खाने के लिए दिए जो हम भारत से अपने साथ बनाकर ले गए थे। वे तीनों, इस भारतीय मिठाई को खाकर बड़े प्रसन्न हुए। हमने उनके चेहरों की प्रसन्नता से अनुमान लगाया कि उनके लिए यह क्षण किसी उत्सव से कम नहीं था। लड्डू खाने के बाद पुतु ने हमें बताया कि इण्डोनेशिया में इस डिश को सातू कहा जाता है। मुझे स्मरण हुआ कि राजस्थान में तीज के अवसर पर जो सातू बनाया जाता है, उसे लड्डू की तरह ही बांधा जाता है। पुतु ने इसे वही सातू समझा था।

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