सैलफोन चार्जर का टण्टा
सुबह उठकर जब मैंने अपना सैलफोन चार्ज करने के लिए ‘इलैक्ट्रिक प्लग’ में लगाना चाहा तो ‘चार्जर’ की ‘पिन’ ने हाथ खड़े कर दिए। वह भारतीय मानक के हिसाब से बनी थी और इटली के ‘इलैक्ट्रिक सॉकेट’ में नहीं घुस सकती थी। इसके लिए हमें ऐसा ‘कनैक्टर’ चाहिए जो एक ओर से भारतीय मानक के उपकरण को स्वीकार करे और दूसरी ओर से इटली के मानक से बने ‘पिन’ को स्वीकार करे। मैंने और विजय ने निर्णय लिया कि तैयार होकर निकटवर्ती बाजार से ‘इलैक्ट्रिक कनैक्टर’ तथा सिम खरीदने का प्रयास किया जाए।
तब तक दूसरे सदस्य भी तैयार हो जाएंगे। अतः विजय और मैं प्रातः 9 बजे बिल्डिंग से बाहर निकलकर निकट की दुकानों में गए। इस समय तक कुछ ही दुकानें खुली थीं। एक दुकान पर एक स्त्री झाड़ू लगा रही थी। एक अपटूडेट फिरंगी औरत को झाड़ू लगाते हुए देखकर हमें आश्चर्य हुआ। हमने उसे अपनी समस्या बताई। वह अंग्रेजी भाषा नहीं जानती थी फिर भी उसने अनुमान लगा लिया कि हम क्या चाहते हैं?
उसने हमें तीन यूरो में एक इलैक्ट्रिक कनैक्टर तो दे दिया किंतु सिम खरीदने के लिए उसने हमें अगली गली पार करके एक चौराहे पर जाने के लिए कहा। मैंने और विजय ने आसपास की गलियों में चक्कर लगाए किंतु हमें ‘सैलफोन सिम’ की कोई दुकान नहीं मिली। हम वापस ‘सर्विस अपार्टमेंट’ लौट आए। तब तक भानु और मधु ने सुबह का नाश्ता और दोपहरा का ‘लंच’ बना लिया था।
हम बस चूक गए
विजय ने आज के दिन के लिए सिस्टीन चैपल म्यूजियम के टिकट ‘ऑनलाइन बुक’ करवा रखे थे। पाँच टिकट लगभग 10 हजार भारतीय रुपए में आए थे। हम इन टिकटों पर दोपहर बारह बजे से तीन बजे तक ही म्यूजियम देख सकते थे। हमें अधिकतम दोपहर साढ़े बारह बजे तक म्यूजियम में प्रवेश करना आवश्यक था, उसके बाद हमारे लिए प्रवेश बंद हो जाना था।
‘गूगल सर्च’ से मिली सूचना के अनुसार हमारे सर्विस अपार्टमेंट से सिस्टीन चैपल का एक घण्टे का रास्ता था। अतः हमने एक घण्टे का अतिरिक्त मार्जिन लेकर प्रातः 10 बजे वाली बस से चलने का निर्णय लिया। गूगल के अनुसार ठीक 10 बजे एक बस हमें अपने घर के सामने की सड़क पार करके मिलनी थी। हम ठीक 10 बजे घर से निकले। हमें घर का ताला लगाने और बिल्डिंग से बाहर आने में लगभग 5 मिनट लग गए। तब तक बस जा चुकी थी।
रोमन बस में पहली यात्रा
अगली बस साढ़े दस बजे थी। हम उसकी प्रतीक्षा में खड़े हो गए। उसी समय बरसात आरम्भ हो गई। न तो बस स्टॉप पर कोई शेल्टर या शेड था और न आसपास। हम सड़क के किनारे खड़े-खड़े भीगते रहे। ठीक साढ़े दस बजे दूसरी बस आई और हम उसमें चढ़े। बस में कोई कण्डक्टर नहीं था।
मैंने दस यूरो का एक नोट ड्राइवर की तरफ बढ़ाया और उससे टिकट मांगा। बस ड्राइवर बड़ी कठिनाई से समझ पाया कि मैं क्या चाहता हूँ। उसने कहा-‘नो टिकट।’ हमें सुखद आश्चर्य हुआ कि यहाँ की बसें कितनी अच्छी हैं जो विदेशी पर्यटकों को निःशुल्क यात्रा करवाती हैं। मन में यह भी विचार आया कि आज शनिवार है, संभवतः शनिवार और रविवार के वीकएण्ड्स पर बसों में टिकट नहीं लगता हो!
यहाँ अंग्रेजी समझने वाला कोई नहीं था किंतु बस में इलैक्ट्रोनिक पैनल पर बस-स्टॉप के नाम लिखे हुए आ रहे थे। उनकी भाषा भले ही इटैलियन रही होगी किंतु रोमन लैटर्स में लिखे होने के कारण हम उन्हें आसानी से पढ़ पा रहे थे। हमने उसी पैनल पर दृष्टि गड़ा दी। मैंने विजय से तीन-चार बार पूछा कि हमें कहा उतरना है, वह धैर्य-पूर्वक जवाब देता रहा-‘ओटावियानो।’
मुझे यह शब्द याद रख पाना कठिन हो रहा था। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इलैक्ट्रोनिक पैनल पर पीसा और वैनेजिया जैसे स्थान भी डिस्प्ले हो रहे थे। ये इटली के बड़े शहर तो हैं ही, साथ ही रोम के मुहल्लों के नाम भी हैं। बहुत से स्थानों के नाम ‘विया’ और ‘पिज्जा’ शब्द से आरम्भ होते थे और बहुत से स्थानों के नामों के बीच में ‘डेल्ला’ शब्द लिखा आ रहा था। हमने अनुमान लगाया कि इनमें से ‘विया’ का अर्थ ‘गली’ है, ‘पिज्जा’ का अर्थ ‘चौक’ है तथा ‘डेल्ला’ का अर्थ ‘मुहल्ला’ है।
बाद में ज्ञात हुआ कि विया और पिज्जा के सम्बन्ध में हमारे अनुमान सही थे किंतु ‘डेल्ला’ का अर्थ ‘ऑफ दी’ अर्थात् ‘का’ था। इसे यूं समझा जा सकता है- ‘विया डेल्ला पिज्जा’ का अर्थ होगा ‘चौक की गली।’
लम्बी कतारें
हम लगभग आधे घण्टे में ओटावियानो नामक बस स्टॉप पर पहुँच गए थे जहाँ से उतरकर हमें पैदल ही सिस्टीन चैपल तक जाना था। इस क्षेत्र में अधिक लोग थे। जहाँ हम ठहरे हुए थे, उस क्षेत्र में बहुत कम लोग दिखाई देते थे। हम आसपास के लोगों से पूछते हुए चैपल की तरफ बढ़े। कुछ ही देर में हमने सड़क के एक छोर पर, देश-विदेश से आए हुए स्त्री-पुरुषों की एक लम्बी कतार देखी। हम समझ गए कि हमारा गंतव्य भी यही है। उस कतार के निकट जाने पर ज्ञात हुआ कि यह एक नहीं तीन कतारें हैं तथा ये कम से कम 700 मीटर लम्बी हैं।
बांग्लादेशी गाइड
वहाँ बहुत सारे ‘टूरिस्ट-गाइड’ भी घूम रहे थे जो पैसा लेकर लोगों को म्यूजियम और चैपल दिखाते थे। उनके हाथों में छतरियां, नक्शे, पर्यटक गाइड बुक, टिकट, टॉर्च आदि लगे हुए थे। वे गाइड पर्यटकों को डराते फिर रहे थे कि यदि उन्होंने गाइड से टिकट नहीं खरीदा तो आपका पूरा दिन यहीं खड़े-खड़े बीत जाएगा और आप म्यूजियम नहीं देख पाएंगे।
इन गाइडों में पचास प्रतिशत इटली के तथा पचास प्रतिशत भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के थे। हमने उन्हें शक्लों से ही पहचाना लिया था। भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गाइड, हमसे हिन्दी में बात करते थे। एक गाइड ने कहा कि यदि आपने पहले ही टिकट ले लिया है तो उसे हमसे अपग्रेड करवा लो अन्यथा आप केवल आधा म्यूजियम ही देख पाएंगे। उसके बाद आपको वापस यहीं आना पड़ेगा और लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर दूसरी तरफ जाना पड़ेगा।
हम आपको भीतर से ही दूसरी तरफ ले जाएंगे। हमने गाइड लोगों की कोई बात नहीं मानी किंतु कुछ देर बाद पर्यटकों की लम्बी लाइनें देखकर हमें भी लगने लगा कि हम भी सारे दिन लाइन में ही खड़े रह जाएंगे। ठीक उसी समय एक गाइड ने हमसे हिन्दी में पूछा कि-‘क्या आप गाइड लेंगे? आपको इस लाइन में नहीं लगना पड़ेगा।’
मैंने भी हिन्दी में पूछा- ‘कहाँ से हो?’
उसने कहा- ‘बांग्लादेश से।’
हमने उसे अपने टिकट दिखाए तो वह बोला कि- ‘आपको लाइन में लगने की जरूरत नहीं है, न गाइड की जरूरत है, आप तो सीधे आगे चले जाइए, आपको तुरंत एण्ट्री मिल जाएगी। आप जल्दी कीजिए नहीं तो आप को घुसने नहीं देंगे, आपका टाइम हो गया है।’
पाकिस्तानियों के मन में भारतीयों का भय!
बाद में विजय ने बताया कि हो सकता है कि इनमें से कुछ लोग पाकिस्तान के भी हों किंतु वे हमें यह बताएंगे कि वे बांग्लादेशी हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कोई भी भारतीय पर्यटक किसी पाकिस्तानी गाइड की सेवाएं लेना पसंद नहीं करेगा। मुझे विजय की बात में दम लगा क्योंकि स्वयं को बांग्लादेशी बताने वाले गाइड की हिन्दी में बांग्ला भाषा का पुट न होकर उर्दू मिश्रित पंजाबी का पुट था।
एण्ट्री पास
हम तेजी से आगे की तरफ बढ़ गए। हम लोगों ने जब तक मुख्य दरवाजा पार किया तब तक 12.20 हो गए। यहाँ खड़े होकर मैंने परिवार के सभी सदस्यों से कहा कि यदि वे भीतर की भीड़ में अलग हो जाएं तो हम इसी मुख्य दरवाजे पर आकर मिलेंगे। इस जगह को ध्यान से देख लें। हम मेन गेट से घुस कर थोड़ा आगे चले कि 12.25 हो गए। अब इलेक्ट्रोनिक वेंडिंग मशीन से एण्ट्री पास निकालने में केवल 5 मिनट बचे थे। विजय ने हमें मुख्य द्वार के भीतर बने हॉल में छोड़ दिया और वह सीढ़ियां चढ़कर ऊपर चला गया।
तरह-तरह की कतारें
जिस हॉल में विजय हमें छोड़कर वेंडिंग मशीन की खोज में गया था, उस हॉल में कई कमरों के दरवाजे खुलते थे जिनके सामने लोग कतारें बनाकर खड़े थे। हम समझ नहीं पाए कि ये कतारें किसलिए हैं। हो सकता है कि ये कतारें उन लोगों की हों जो ऑनलाइन बुकिंग कराए बिना ही यहाँ आए हों और अब यहाँ से टिकट खरीद रहे हों।
हम भी उसी दिशा में आगे बढ़ते रहे जिस दिशा में सीढ़ियां चढ़कर विजय गया था। ऊपर पहुँचते ही हमें विजय दिख गया। उसने अपने ‘बुकिंग लैटर’ पर बने ‘बारकोड’ की सहायता से ‘वेंडिंग मशीन’ के ‘स्कैनर’ को ‘बारकोड’ दिखाकर ‘एण्ट्री-पास’ निकाल लिए थे।
मुझे यह सब देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि विजय को कैसे पता चल गया कि वेंडिंग मशीन कहाँ लगी होगी तथा उसमें बारकोड कहाँ दिखाना पड़ेगा। उसे यह भी कैसे पता चलता है कि जो कागज उसके हाथ में है, वह ‘एण्ट्री-पास’ नहीं है, केवल ‘बुकिंग स्टेटस’ के बारे में जानकारी देता है तथा इसमें एक ‘बारकोड’ है जिसकी सहायता से ‘एण्ट्री-पास’ निकलेगा! मेरी पीढ़ी के अधिकांश लोगों के लिए यह सब समझ पाना बहुत उलझन भरा है।
म्यूजियम में
अब हम आराम से अगले ढाई घण्टे तक म्यूजियम देख सकते थे। यह एक बहुमंजिला विशाल भवन था जिसमें दो म्यूजियम एक साथ बने हुए हैं तथा प्रत्येक म्यूजियम कई-कई मंजिलों में बना हुआ है। प्रत्येक मंजिल में भी कई-कई हॉल हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा म्यूजियम कहलाता है।
यहाँ सैंकड़ों देशों से आए हजारों लोग झुण्ड बनाकर घूम रहे थे। बहुत से पर्यटक झुण्डों के आगे-आगे कोई लेडी या जेंट्स गाइड अपने कंधे पर एक विशेष रंग के कपड़े की झण्डी बनाकर चल रहा था। ताकि उस समूह के सदस्य उस झण्डे को देखकर उसके पीछे-पीछे चलते रहें। यदि वह ऐसा नहीं करता, तो निश्चित रूप से पूरा समूह केवल दो से तीन मिनट में उस भीड़ में घुल-मिल कर एक दूसरे से बिछड़ जाता। यह ठीक वैसा ही था जैसे भारत में लोग बाबा रामदेव के मंदिर की पैदल यात्रा जाते समय करते हैं या फिर ध्यानू भगत के वंशज नगर कोट वाली देवी के मंदिर जाते समय मोरपंख अपने कंधों पर रख लेते हैं।
थोड़ा आगे चलते ही हमें भारी भीड़ का सामना करना पड़ा। हजारों लोग, बड़े-बड़े समूह, दुनिया के अलग-अलग देशों से आए लोग। कोई बाईं ओर चलने वाले तो कोई सड़क के दाईं ओर चलने वाले। सबकी अलग-अलग भाषाएं, अलग-अलग वेशभूषा, अलग-अलग आदतें। अलग-अलग चेहरे।
हमने पहला कक्ष देखा। यहाँ मिस्र देश के शिलालेख, मूर्तियां आदि रखी थीं। हमने यहाँ कुछ फोटो लिए और वीडियो बनाए तथा दूसरे कक्ष की ओर बढ़ गए। इस कक्ष में बहुत कम उजाला था। कमरे में कांच के रैक ररखे हुए थे जिनमें लाइटिंग की गई थी ताकि दर्शक, प्रदर्शित की गई सामग्री को अच्छी तरह से देख सकें।
इस कक्ष के एक रैक में मिस्र से लाई गई ममियाँ भी रखी थीं। कुछ ममियाँ कॉफीन में थीं और कुछ के कॉफीन उनके पास रखे हुए थे। अभी हमें यह कक्ष देखते हुए पाँच मिनट ही हुए थे कि मैंने अपने पास खड़ी मधु से पूछा- ‘पिताजी कहाँ हैं?’
मधु ने कहा- ‘पीछे वाले कमरे में।’
मैंने उसी समय पीछे वाले कमरे में जाकर देखा, पिताजी वहाँ नहीं थे। मैंने उस कमरे के दूसरी तरफ निकल कर देखा, पिताजी वहाँ भी नहीं थे। मैं वापस उस कमरे में लौटा, जहाँ मैं खड़ा हुआ मिस्र की ममियों को देख रहा था, पिताजी उस कक्ष में भी नहीं थे। हम चारों (मैं, मधु, विजय एवं भानु) तत्काल ही पिताजी को ढूंढने के काम में जुट गए। पिताजी कहीं भी नहीं मिले।
लगभग डेड़ वर्ष पहले ‘ऑप्टिकल नर्व का हैमरेज’ हो जाने से उनकी दाहिनी आंख में रक्त के थक्के जम गए थे, जिसके कारण उन्हें दाहिनी आंख से दिखना बंद हो गया है, बाईं आंख में भी कैटरैक्ट उभर आने से, उससे भी साफ नहीं दिख रहा। यही कारण रहा होगा कि वे कमरे में अंधेरा होने से हमें देख नहीं पाए होंगे और सीधे आगे निकल गए होंगे। हमने सभी संभावित स्थानों पर जाकर पिताजी को तलाशा किंतु वे जाने किस कक्ष या गलियारे में पहुँच गए थे। ऊपर की एक और मंजिल में भी जाकर देखा, पिताजी वहाँ भी नहीं थे और इतने कम समय में इससे अधिक ऊपर वे जा नहीं सकते थे।
अतः मैं नीचे की मंजिल में आ गया और म्यूजियम के मुख्य भवन से एकदम बाहर निकल आया। मेरे सामने एक और हॉल था तथा बाईं ओर एक लॉन के लिए रास्ता जा रहा था। मैंने अनुमान लगाया कि हो सकता है कि पिताजी सामने वाले हॉल में न जाकर लॉन की तरफ गए होंगे।
लॉन में भी सैंकड़ों लोग थे जो कुछ खा-पी रहे थे। मैंने पिताजी को यहाँ भी खूब ढूंढने का प्रयास किया। आगे का रास्ता सिस्टीन चैपल की तरफ जा रहा था। मैं सिस्टीन चैपल के भीतर घुस गया तथा काफी भीतर तक जाकर देख आया। पिताजी कहीं नहीं थे। निराश होकर मैं लौट पड़ा तथा उसी लॉन को पार करके म्यूजियम के मुख्य भवन से बाहर आ गया। यहाँ विजय, भानु और मधु चिंतित मुद्रा में खड़े दिखाई दिए। पिताजी कहीं नहीं थे!
हमने म्यूजियम में स्थान-स्थान पर नियुक्त सुरक्षा कर्मचारियों से सहायता लेने का विचार किया किंतु कोई भी व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता था। हम चाहते थे कि संग्रहालय के कर्मचारी एक घोषणा कर दें तो संभवतः पिताजी उसे सुनकर घोषणा-कक्ष तक पहुँच जाएं और हम उनसे वहाँ सम्पर्क कर लें किंतु यह संभव नहीं था। अंत में हमने म्यूजियम परिसर से एकदम बाहर निकलने का निर्णय लिया जहाँ हजारों लोगों की भीड़, म्यूजियम परिसर में प्रवेश पाने के लिए कतारों में खड़ी थी और जहाँ हमने तय किया था कि हम यहाँ मिलेंगे।
मैंने विजय और भानु से निकास-द्वार पर बने प्रतीक्षालय में रुकने के लिए कहा ताकि यदि पिताजी यहाँ से होकर बाहर निकलें तो वे उन्हें वहीं रोक लें। मैं और मधु संग्रहालय-परिसर से बाहर आए, हजारों लोगों की भीड़ अब भी कतारों में खड़ी थी। मैंने वहाँ खड़े एक कर्मचारी से पिताजी की कमीज के रंग तथा चेहरे-मोहरे के बारे में बताकर पूछा कि क्या किसी इण्डियन ने यहाँ आकर कुछ पूछताछ की थी?
सौभाग्य से वह अंग्रेजी जानता था किंतु उसने बताया कि उसका ऐसे किसी इण्डियन से सम्पर्क नहीं हुआ है।
वहाँ से भी निराश होकर मैं और मधु फिर से निकास गेट पर बने प्रतीक्षालय में पहुँचे जहाँ विजय और भानु बैठे हुए थे। तब तक विजय ने प्रतीक्षालय में बने सिक्योरिटी ऑफिस में उनके मुख्य अधिकारी से बात करके म्यूजियम के सभी भागों में और सभी मंजिलों में तैनात सुरक्षाकर्मियों को संदेश करवा दिया था कि यदि कोई इण्डियन टूरिस्ट कुछ पूछताछ करे तो उसे निकास-द्वार पर पहुँचा दें।
सिक्योरिटी वालों के पास ‘पब्लिक एड्रेस सिस्टम’ नहीं था। वे केवल ‘वॉकी-टॉकी’ से बात कर सकते थे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, यदि कभी इस म्यूजियम में आग लग जाए या भूकम्प आ जाए तो म्यूजियम का प्रबंधन, पर्यटकों को सीधे संदेश नहीं दे पाएगा न उन्हें निकास-द्वारों की तरफ जाने के लिए गाइड कर सकेगा। वे अपने कर्मचारियों को वॉकी-टॉकी पर संदेश देंगे और वे कर्मचारी उन पर्यटकों को बाहर की तरफ जाने के लिए उनका मार्गदर्शन करेंगे!
जिस स्थान पर हर समय देश-विदेश के हजारों पर्यटक रहते हों, वहाँ की सुरक्षा व्यवस्था में इतनी भारी कमी! क्या किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया! जबकि पर्यटकों के बिछड़ जाने की समस्या तो लगभग प्रतिदिन ही उत्पन्न होती होगी।
अब हमने विजय और भानु को तो उसी सिक्योरिटी ऑफिस के निकट बैठे रहने के लिए कहा और मैंने तथा मधु ने एक बार फिर से उसी स्थान पर जाने का निर्णय लिया जहाँ से पिताजी अलग हुए थे तथा उसके बाद सिस्टीन चैपल के दूसरी तरफ निकल कर वहाँ बने निकास-द्वार तक जाने का निर्णय लिया, संभव है कि पिताजी वहाँ तक पहुँच गए हों। इस समय तक दीपा को अनुमान हो चुका था कि कुछ गंभीर बात हो गई है। उसने मुझसे पूछा- ‘बड़े बाबा कहाँ गए?’
मैंने उसे बताया- ‘बड़े बाबा भीड़ में हमसे अलग हो गए हैं, हम सब मिलकर उन्हें ढूंढ रहे हैं।’
इस समय तक मेरी चिंता चरम पर पहुँच चुकी थी। मुझे अपने आप पर हैरानी हो रही थी कि मैंने एक साथ कितनी सारी गलतियां कर डाली थीं! न तो पिताजी की जेब में इस समय कोई यूरो या डॉलर था, भारतीय मुद्रा वे लेकर नहीं आए थे। न कोई डेबिट या क्रेडिट कार्ड था जो इटली में कार्य कर सके। न उनके पास उस सर्विस अपार्टमेंट का पता था, जहाँ हम ठहरे हुए थे।
न उस स्थान का नाम उन्हें याद होगा, जिस इलाके में हम ठहरे हुए थे। न उनके पास कोई टेलिफोन नम्बर था जिसके माध्यम से वे हमसे सम्पर्क कर सकें। न पिताजी के पास मकान मालकिन का कोई टेलिफोन नम्बर था जिससे वे सम्पर्क कर सकें। न पीने का पानी था, न उनके पास खाने के लिए कोई बिस्किट आदि थे।
न उनके पास कोई दवाई थी, जबकि उन्हें डायबिटीज है। कुछ ही समय में उन्हें कुछ खाने की आवश्यकता होगी और यदि खाने को नहीं मिला तो पैसे के अभाव में वे खरीद कर भी कुछ नहीं खा पाएंगे। तब क्या होगा!
यह सोच-सोचकर मेरे पैरों के नीचे से धरती सरकी जा रही थी। इस समय पिताजी के पास केवल उनका पासपोर्ट था।
मैं जानता था कि इस परिसर के कर्मचारी पिताजी को नहीं ढूंढ पाएंगे। हजारों लोगों की चलती हुई भीड़ और सैंकड़ों कक्षों तथा गलियारों में बंटी हुई भीड़ में से एक इण्डियन टूरिस्ट को ढूंढ निकालना उनके वश की बात नहीं थी। विशाल गलियारों, आहतों, छतों, जीनों को पार करते हुए हम एक बार फिर उसी लॉन में पहुँच गए जहाँ हम पहले भी कई बार पिताजी को ढूंढ चुके थे। अचानक मधु बोली- ‘ये रहे पिताजी!’ मधु के स्वर में हर्ष-मिश्रित उत्तेजना थी!
पिताजी लॉन के एक किनारे पर बैठे हुए, अपने पास से निकल रही भीड़ में से हमारे चेहरे ही तलाश रहे थे। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने आंखें फाड़-फाड़कर देखा, पिताजी सचमुच वहीं बैठे थे। इस स्थान पर मैं पहले भी कितनी ही बार उन्हें देख गया था। मेरा पूरा विश्वास है कि मैं अकेला होता तो इस समय भी पिताजी को नहीं देख पाता। इस विषय में मधु की दृष्टि अधिक स्थिर एवं तीक्ष्ण है।
मैंने उनसे कहा कि- ‘आपको यहाँ नहीं बैठना चाहिए था, अपितु उस एण्ट्री गेट पर पहुँचना चाहिए था जो स्थान हमने मिलने के लिए तय किया था।’
पिताजी ने कहा कि- ‘यही तो वह स्थान है, तुमने यहीं मिलने का तो तय किया था, इसलिए मैं यहाँ बैठा हुआ हूँ।’
पिताजी हजारों लोगों की भीड़, लम्बे गलियारों और एक के बाद एक करके आने वाले विशालाकाय द्वारों के कारण कन्फ्यूज हो गए थे और सही स्थान का स्मरण नहीं रख पाए थे। बाद में ज्ञात हुआ कि जिस समय मैंने एक हॉल में जाकर देखने की बजाय लॉन में जाकर देखने का निर्णय लिया था, मैं वहीं चूक गया, पिताजी उस समय उसी हॉल में थे जो मैंने यह सोचकर छोड़ दिया था कि पिताजी लॉन में गए होंगे न कि हॉल में! यदि मैं उस समय इस हॉल में चला गया होता तो पिताजी केवल पाँच मिनट में मिल गए होते, हमें दो घण्टे नहीं लगते!
हमने पिताजी को पीने का पानी दिया, खाने के लिए बिस्किट दिए और पिताजी को अपने साथ लेकर उस म्यूजियम के निकासद्वार की तरफ बढ़े जहाँ हमने विजय एवं भानु को छोड़ा था। म्यूजियम के विशाल गलियारे, छतें, बारामदे और जीने पीछे छूटते जा रहे थे, मैं उनकी ओर ललचाई हुई दृष्टि से देख रहा था, हम तुम्हें देखने के लिए आए थे किंतु बिना देखे ही जा रहे हैं।
जो कुछ भी हमने देखा था, उसे देखा हुआ नहीं माना जा सकता था! इस समय तक हम इतने थक चुके थे कि हम दुबारा म्यूजियम में जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकते थे। वैसे भी हमारी मानसिकता इस समय उस इंसान के जैसी हो रही थी जिसका खोया हुआ खजाना लाख प्रयास के बाद वापस मिल गया हो और अब वह उसे दुबारा नहीं गंवाना चाहता हो! वैसे भी टिकट पर अंकित समय अब तक समाप्त हो गया था। हम परमात्मा का धन्यवाद देकर, विया ग्रिगोरिया की तरफ जाने वाली बस पकड़ने के लिए बस स्टैण्ड की तरफ बढ़ गए।
भारतीयों का भाषा ज्ञान
हम भारत में रहते हुए यह सोचते हैं कि भारतीयों के अतिरिक्त पूरी दुनिया अंग्रेजी जानती है किंतु इटली में आकर अनुभव हुआ कि भारतीय जितनी अंग्रेजी जानते हैं, इटली के लोग तो उनके सामने अनपढ़ जैसे हैं। वे केवल एक ही भाषा जानते हैं, जो उनकी माँ बोलती है, केवल इटैलियन। मेरा अनुमान था कि अधिकतर यूरोपियन अपने देश की भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी और आसपास के अन्य यूरोपीय देश की भाषा भी जानते होंगे, किंतु शायद यह स्थिति बहुत कम लोगों के साथ है।
भारत के देहाती कम से कम दो और भारतीय शहरी कम से कम तीन भाषाएं जानते हैं जिनमें से एक वहाँ की क्षेत्रीय भाषा, दूसरी हिन्दी और तीसरी अंग्रेजी होती ही है। करोड़ों भारतीय अपना प्रांत छोड़कर किसी दूसरे प्रांत में जा बसते हैं, इस कारण वे दूसरे प्रांतों की भाषा भी सीख ही जाते हैं। भाषा की समस्या हमें इण्डोनेशिया में भी आई थी, अधिकतर लोग केवल जावाई भाषा बोल पाते थे, वहाँ के शहरी क्षेत्रों में भी बहुत कम लोग अंग्रेजी समझ सकते थे।
खरीददारी
हम बस पकड़कर सर्विस अपार्टमेंट में लौट आए। थोड़ी देर विश्राम करके मैं और विजय बाजार गए ताकि शाम के लिए सब्जी, दूध, सैलफोन की सिम आदि खरीद कर ला सकें तथा करंसी एक्सचेंज करवाई जा सके। मैंने और विजय ने बाजार में सबसे पहले सैलफोन में सिम डलवाईं। बाजार में हमें 500 डॉलर के बदले में 410 यूरो मिले, जबकि पिछली रात को एयरपोर्ट पर हमें केवल 358 डॉलर मिले थे। एयरपोर्ट पर दो सिम के लिए 5000 रुपए मांगे जा रहे थे जबकि बाजार में हमें वही सिम लगभग 3000 रुपए में मिल गईं।
सबकी जेब में 100-100 यूरो
बाजार से लौटकर मैंने सबको 100-100 यूरो दिए। भारत में हर समय इतना रुपया (8000 रुपए) लेकर कौन चलता है किंतु यहाँ इन रुपयों में अधिक कुछ नहीं आने वाला था। फिर भी यह एक समय के नाश्ते, पानी की बोतल तथा घर लौटने तक के लिए टैक्सी किराए के लिए पर्याप्त थे। विजय ने सर्विस अपार्टमेंट का पता, मकान मालकिन का नाम, उसके टेलिफोन नम्बर और हमारे सैलफोन नम्बर पर्चियों पर लिखकर दिए ताकि सभी सदस्य अपने-अपने बैग में रखें।
यहाँ हमने एक गलती और की जिसका अनुमान हमें भारत लौटने के बाद ही हुआ। हमें दीपा के कोट की जेब में भी सर्विस अपार्टमेंट का पता और हमारे सैलफोन नम्बर लिखकर रखने थे किंतु यह बात हमारे मस्तिष्क में तब आई ही नहीं। हालांकि यह एक तसल्ली-दायक बात थी कि दीपा स्वयं ही भीड़ देखकर अपनी माँ की गोद में चढ़ जाती थी या विजय के कंधों पर लद लेती थी।
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