1835 से 1853 ई. तक मैकाले द्वारा निर्धारित नीति पर भारत में पाश्चात्य शिक्षा का विकास हुआ। 18 वर्ष के इस काल में मैकाले की नीति में कई कमियां अनुभव की गईं जिन्हें दूर करना आवश्यक था। इसलिये 1853 ई. में ब्रिटिश संसद ने भारतीय शिक्षा की प्रगति की जांच के लिए एक समिति नियुक्त की। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर कम्पनी ने 1854 ई. में शिक्षा घोषणा पत्र जारी किया। इसे कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड के नेतृत्व में तैयार किया गया था, इसलिए इसे वुड का घोषणा पत्र कहा जाता है। इसमें भारतीय शिक्षा के विविध पक्षों पर विस्तार से चर्चा की गई थी। भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणा-पत्र का अत्यधिक महत्त्व है।
वुड का घोषणा पत्र
वुड घोषणा-पत्र में शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न बिंदुओं के विषय में अनेक नई योजनाओं की अनुशंसा की गई-
(1.) शिक्षा का उत्तरदायित्च: वुड के घोषणा-पत्र में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय शिक्षा के प्रसार का पूर्ण उत्तरदायित्व स्वीकार करते हुए कहा कि भारतीयों का नैतिक, बौद्धिक एवं आर्थिक स्तर ऊँचा करने के लिए उपयोगी ज्ञान के प्रसार की आवश्यकता है।
(2.) भाषाओं का प्रश्न: भारतीयों को अँग्रेजी साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ संस्कृत और अरबी के ज्ञान का भी महत्त्व है। अँग्रेजी माध्यम केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए होगा जो इस भाषा को भली-भाँति पढ़ सकते हों तथा इसके माध्यम से साधारण ज्ञान प्राप्त कर सकते हों। अन्य समस्त भारतीयों के लिए भारतीय भाषाएँ ही अधिक उपयुक्त होंगी। उच्च विद्यालयों में अँग्रेजी तथा देशी दोनों ही भाषाओं में अध्यापन की व्यवस्था होगी।
(3.) शिक्षा विभाग: शिक्षा के कार्य को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए कम्पनी के अधीन पाँच प्रान्तों में शिक्षा विभाग की स्थापना की जाये जिसका सर्वोच्च अधिकारी लोक शिक्षा निदेशक हो और उसके अधीन शिक्षा निरीक्षक हों।
(4.) विश्वविद्यालय: भारतीयों को उच्च शिक्षा देने के लिए लन्दन विश्वविद्यालय के नमूने पर कलकत्ता और बम्बई में एक-एक विश्वविद्यालय की स्थापना की जाये। आवश्यकता होने पर मद्रास या किसी अन्य स्थान पर ऐसा ही एक और विश्वविद्यालय स्थापित किया जाये। इन विश्वविद्यालयों का मुख्य काम परीक्षा लेकर डिग्री देना होगा।
(5.) श्रेणीबद्ध विद्यालयों की स्थापना: शिक्षा को व्यापक रूप देने के लिए सम्पूर्ण भारत में श्रेणीबद्ध विद्यालयों की स्थापना की जाए। विश्वविद्यालयों तथा उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों की स्थापना के बाद हाई स्कूलों तथा देशी स्कूलों को भी उनसे जोड़ा जाये। इस प्रकार शिक्षा के उच्चतम शिखर पर विश्वविद्यालय हों तथा निम्नतम स्तर पर देशी पाठशालाएँ हों। उनमें तारतम्य एवं सामंजस्य स्थापित करने के लिये हाई स्कूलों तथा मिडिल स्कूलों की शृंखला हो।
(6.) निजी शिक्षण संस्थाओं को प्रोत्साहन: उपरोक्त योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए काफी धन की आवश्यकता थी जिसे व्यय करना कम्पनी की नीति में नहीं था। इसलिये वुड के घोषणा-पत्र में सुझाव दिया गया कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी शिक्षण-संस्थाओं का स्वागत किया जाये तथा निजी शिक्षण संस्थाओं के प्रयासों को प्रोत्साहन देने के लिए शिक्षा-सहायता की पद्धति चालू की जाए।
(7.) शिक्षक प्रशिक्षण: घोषणा-पत्र में कहा गया कि भारत के हर प्रान्त में शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना की जाये और प्रशिक्षण की अवधि में छात्राध्यापकों को छात्रवृत्तियाँ दी जायें। शिक्षा-कार्य की ओर योग्य व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए अध्यापकों के वेतन में वृद्धि की जाए।
(8.) शिक्षा और नौकरियाँ: घोषणा-पत्र में कहा गया कि शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी प्राप्त करना नहीं है अपितु शिक्षा प्राप्त करना अपने-आप में एक उपलब्धि है जो जीवन को लाभदायक तथा योग्य बनाने के लिए आवश्यक है। शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता देने की अनुशंसा की गई।
(9.) स्त्री-शिक्षा: घोषणा-पत्र में स्त्री-शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया तथा कन्या पाठशालाओं को विभिन्न प्रकार से प्रोत्साहन देने का सुझाव दिया गया। उन्हें सरकारी वित्तीय सहायता देकर सरकार के मैत्री एवं सहानुभूति-पूर्ण रवैये से परिचित कराने की बात भी कही गई।
(10.) जन शिक्षा: वुड्स घोषणा-पत्र में जन-शिक्षा पर जोर दिया गया जबकि अब तक समाज के उच्च वर्ग की शिक्षा पर ही जोर दिया जाता था
वुड घोषणा पत्र के बाद हुई प्रगति
(1.) विश्वविद्यालयी शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र के अनुसार 1857 ई. में तीनों ब्रिटिश प्रेसीडेन्सी नगरों- कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में लन्दन विश्वविद्यालय के अनुकरण पर एक-एक विश्वविद्यालय स्थापित किया गया जिनका मुख्य कार्य परीक्षा लेना और डिग्रीयाँ देना था। प्रत्येक विश्वविद्यालय का प्रबन्ध विश्वविद्यालय की सीनेट को सौंपा गया जिसके अधिकांश सदस्य या तो पदेन अधिकारी थे या सरकार द्वारा मनोनीत सरकारी अधिकारी। कुछ अध्यापकों को भी इसका सदस्य मनोनीत किया गया। दुर्भाग्य से अधिकांश सरकारी अधिकारी ऐसे व्यक्ति थे जिनकी शिक्षा के क्षेत्र में कोई रुचि एवं योग्यता नहीं थी। विश्वविद्यालयों में प्राच्य तथा देशी भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था भी नहीं की गई।
(2.) महाविद्यालयी शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र के अनुसार देश की विभिन्न भागों में सरकारी तथा निजी क्षेत्र में महाविद्यालय स्थापित हुए। कलकत्ता और मद्रास में प्रेसीडेन्सी कॉलेज, लाहौर का यूनिवर्सिटी कॉलेज, इलाहाबाद का सैन्ट्रल कॉलेज और अजमेर का गवर्नमेन्ट कॉलेज सरकार द्वारा स्थापित मुख्य कॉलेज थे। निजी क्षेत्रों में कलकत्ता के विद्यासागर और सिटी कॉलेज, मद्रास प्रान्त के पच्चैयप्या, विशाखापट्टम और टिन्नेवल्ली कॉलेज, आगरा के आगरा और सेन्ट जॉन्स कॉलेज, लखनऊ का केनिंग कॉलेज, अलीगढ़ का मोहम्मडन एंग्लो-ओरियन्टल कॉलेज, दिल्ली का स्टीफेन्स कॉलेज और लाहौर का फोरमैन कॉलेज प्रमुख थे। 1873 ई. में जयपुर का महाराजा कॉलेज हाई स्कूल स्तर से कॉलेज में क्रमोन्नत किया गया। इसी अवधि में राजकुमारों की शिक्षा के लिए सरकार द्वारा राजकोट (राजकोट कॉलेज), अजमेर (मेयो कॉलेज), इन्दौर (डेली कॉलेज) और कुछ समय बाद लाहौर में (एचिसन कॉलेज) खोले गये।
(3.) माध्यमिक शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र के बाद नव-स्थापित शिक्षा विभागों ने अपने अपने प्रान्तों में माध्यमिक स्कूलों की स्थापना पर बल दिया तथा वित्तीय अनुदान देकर उनकी आर्थिक सहायता की। अनेक भारतीयों और विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधि भी इस क्षेत्र में काम करने के लिए आगे आये। उनके प्रयत्नों से बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र में हाई स्कूल खोले गये। कुछ समय बाद प्रायः समस्त स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी कर दिया गया।
(4.) प्राथमिक शिक्षा: 1854 ई. में जितने सरकारी प्राथमिक स्कूल थे, उनसे दो-गुने मिशनरी स्कूल थे। अतः प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सरकार का एकाधिकार सम्भव नहीं था। घोषणा-पत्र मे अनुदान द्वारा निजी क्षेत्र की स्कूलों को प्रोत्साहन देने की बात कही गई थी तथा पहले से चले आ रहे देशी स्कूलों में सरकारी निरीक्षण द्वारा सुधार करने का सुझाव दिया गया था किन्तु दुर्भाग्य से यह सुझाव कार्यान्वित नहीं हो सका क्योंकि अनुदान की धनराशि का अधिकांश भाग उच्च शिक्षा पर खर्च कर दिया गया। इसलिए प्राथमिक स्कूल खोलने के लिए नया शिक्षा-कर लगाने तथा इसके लिए जनता से धन एकत्रित करने के प्रस्तावों से जनता में असन्तोष बढ़ गया। 1858 ई. में भारत सचिव लॉर्ड स्टेनले ने प्राथमिक स्कूलों को दिये जाने वाले अनुदान को समाप्त कर स्थानीय शिक्षा-कर वसूल करने का आदेश दिया। इससे जनता में अत्यधिक रोष उत्पन्न हुआ। अतः प्रान्तों में प्राथमिक शिक्षा की अलग-अलग योजनाएँ बनाई गईं। 1871 ई. से 1882 ई. की अवधि में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति हुई। 1870-71 ई. में ब्रिटिश भारत में 16,473 प्राथमिक स्कूल थे, 1881-82 ई. में इनकी संख्या 82,916 हो गई। फिर भी भारत प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ था। 1881-82 ई. में ब्रिटिश भारत में स्कूल जाने वाले बालक-बालिकाओं की कुल संख्या लगभग साढ़े 19 करोड़ में से केवल ढाई करोड़ थी।
(5.) स्त्री-शिक्षा: वुड के घोषणा-पत्र में स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन देने की बात कही गई थी किन्तु सरकार को स्त्री-शिक्षा का दायित्व ग्रहण करने का आदेश नहीं दिया गया था। इसलिए स्त्री-शिक्षा की प्रगति बहुत धीमी रही। पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, कन्या-शिक्षा के प्रति अभिभावकों की लापरवाही, पश्चिमी शिक्षा के प्रति लोगों में अविश्वास, मध्यम वर्ग की कमजोर आर्थिक स्थिति, स्त्री-शिक्षकों का सर्वथा अभाव, स्त्री-शिक्षा के लिए उचित पाठ्यक्रम का अभाव आदि कई कारण थे जिन्होंने स्त्री-शिक्षा की प्रगति को धीमा रखा। फिर भी बंगाल, बम्बई, मद्रास और उत्तर-पश्चिम प्रान्त में स्त्री-शिक्षा के लिए कई स्कूल खुल गये। इस दिशा में ईसाई मिशनरियों का योगदान उल्लेखनीय रहा। बंगाल में ब्रह्म समाज और बम्बई में पारसी अन्जूमन स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बंगाल में स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। पूना में महाराष्ट्र स्त्री-शिक्षा सोसायटी ने भी इस दिशा में सराहनीय कार्य किया। इन सबके उपरांत, स्त्रियों के लिए विश्वविद्यालयी शिक्षा के द्वार बिल्कुल बन्द थे।
(6.) मुसलमानों की शिक्षा: ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में मुसलमानों में यह भावना तीव्र थी कि अँग्रेजी पढ़ने से उनका धर्म नष्ट हो जायेगा। मुल्ला और मौलवियों ने मुसलमानों को यह कहकर उकसाया कि परम्परागत मुस्लिम मकतब और मदरसों की शिक्षा ही लाभदायक है। 1857 ई. के विप्लव के बाद मुसलमानों ने यह अनुभव किया कि अँग्रेजी शिक्षा के अभाव में वे सरकारी नौकरियाँ प्राप्त करने में हिन्दू तथा अन्य जातियों से पिछड़ जायेंगे। अतः सर सैयद अहमदखाँ ने मुसलमानों को अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने मुसलमानों को समझाया कि मुस्लिम समाज को उन्नत करने के लिए पाश्चात्य साहित्य तथा विज्ञान का अध्ययन करना आवश्यक है। 1871-72 ई. में गवर्नर जनरल के आदेश पर भारत सरकार ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें मुसलमानों में अँग्रेजी शिक्षा के प्रसार के तरीकों पर प्रकाश डाला गया। इस दिशा में सबसे ठोस कार्य सर सैयद अहमदखाँ ने 1875 ई. में अलीगढ़ में मोडम्मडन एंग्लो-ओरियन्टल कॉलेज की स्थापना करके किया। यही कॉलेज आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में परिवर्तित हो गया। इस संस्था ने मुसलमानों का शैक्षिक विकास किया तथा उनमें संगठन की भावना उत्पन्न की। इस कॉलेज की शिक्षा ने ही मुसलमानों में मुस्लिम राष्ट्रवाद को जन्म दिया।
(7.) विधि शिक्षा: 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में विधि शिक्षा के बहुत कम प्रयास किये गये। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय न्यायालयों में इंग्लैण्ड की न्याय-पद्धति का ही प्रयोग होता था, जिसके अनुसार मुकदमों की पैरवी वकीलों द्वारा की जाती थी। इसके लिए कानून की शिक्षा अनिवार्य थी। इसलिए बम्बई और मद्रास विश्वविद्यालयों में विधि-शिक्षा के लिए विधि के प्रोफेसर नियुक्त किये गये।
(8.) चिकित्सा शिक्षा: कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति की शिक्षा देने के लिए मेडिकल कॉलेजों की स्थापना की गई थी। इसी प्रकार 1860 ई. में पंजाब में भी एक मेडिकल कॉलेज स्थापित किया गया। जिन प्रान्तों में मेडिकल कॉलेज नहीं थे वहाँ के छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देकर पड़ौस के प्रान्तों में मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने के लिए भेजा जाता था। अन्य बहुत से प्रान्तों में मेडिकल स्कूल थे जहाँ चिकित्सा शास्त्र की साधारण शिक्षा दी जाती थी। राजपूताने में भी 1861 ई. में जयपुर नरेश सवाई रामसिंह ने अपनी राजधानी में एक मेडिकल कॉलेज खोला किन्तु अँग्रेज अधिकारियों के पारस्परिक वैमनस्य तथा साधारण जनता में चीर-फाड़ के प्रति गहरी अरुचि के कारण 1868 ई. में उसे बन्द कर देना पड़ा।
(9.) इन्जीनियरिंग शिक्षा: 1847 ई. में रुड़की में थॉमसन इन्जीनियरिंग कॉलेज स्थापित किया गया। तत्पश्चात् बंगाल में शिवपुर में तथा पूना व मद्रास में भी इन्जीनियरिंग कॉलेजों की स्थापना की गई। कुछ स्थानों पर इन्जीनियरिंग स्कूल भी खोले गये जिनमें शिक्षा प्राप्त कर भारतीय नवयुवक, सार्वजनिक निर्माण विभाग तथा नगरपालिकाओं की सेवाओं में प्रवेश पाने लगे।
(10.) कृषि शिक्षा: भारत में कृषि शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। मद्रास के सैदापेट में 1864 ई. में एक कृषि फार्म खोला गया जो आगे चलकर कॉलेज बन गया। इसी प्रकार पूना के कॉलेजों में कृषि-विभाग खोला गया।
(11.) पशु-चिकित्सा: भारत में अँग्रेजों के पास जो घुड़सवार सेना थी, उसके घोड़ों की चिकित्सा इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त वेटरिनरी-सर्जन करते थे। 1882 ई. तक भारत में पशु चिकित्सा शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई। केवल परम्परागत नाल-साज ही पशुओं की थोड़ी-बहुत चिकित्सा करते थे।
(12.) वानिकी शिक्षा: हिमालय की तलहटी, अरावली एवं सतपुड़ा की पहाड़ियों, पूर्वी तथा पश्चिमी घाट आदि स्थानों में सघन वन थे। 1878 ई. में देहरादून में एक फोरेस्ट स्कूल खोला गया जो कालान्तर में एशिया के सर्वश्रेष्ठ वन-स्कूलों में गिना जाने लगा। इसी प्रकार पूना में भी वानिकी शिक्षा की व्यवस्था की गई।
(13.) कला-शिक्षा: कलकत्ता का आर्ट स्कूल, कला शिक्षा का एक प्रमुख विद्यालय था। इसी नमूने पर बाद में बम्बई, मद्रास और लाहौर में भी आर्ट स्कूल खोले गये, जिनमें चित्रकला की शिक्षा दी जाती थी। जयपुुर में भी महाराजा सवाई रामसिंह के शासन काल में 1861 ई. में एक आर्ट स्कूल खोला गया जो उस समय भारत के आर्ट स्कूलों में प्रमुख माना जाता था।
(14.) लोक शिक्षा विभागों की स्थापना: वुड के घोषणा-पत्र की अनुशंसा के अनुसार प्रत्येक प्रान्त में एक-एक शिक्षा विभाग की स्थापना की गई जिसका सर्वोच्च अधिकारी लोक निदेशक होता था। उसके अधीन निरीक्षक, उप-निरीक्षक आदि अधिकारी रखे गये। इस विभाग का मुख्य काम प्रान्तीय सरकार को शिक्षा सम्बन्धी मामलों पर परामर्श देना, प्रान्तीय तथा केन्द्रीय सरकारों द्वारा शिक्षा के लिए प्रदत्त धनराशि का प्रबन्ध करना, शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करना, निजी शिक्षण संस्थाआंें का निरीक्षण करना और शिक्षा की प्रगति पर सरकार को वार्षिक रिपोर्ट भेजना था। इन विभागों की स्थापना के काफी समय बाद तक इनमें उच्च पदों पर अँग्रेज अधिकारी ही नियुक्त किये जाते रहे। सेवा नियम तथा वेतन आदि अधिक लाभदायक न होने के कारण इंग्लैण्ड से बहुत ही कम शिक्षाविद् इन सेवाओं की ओर आकर्षित होते थे। स्कूलों की बढ़ती हुई संख्या के अनुपात में अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की जाती थी। इससे शिक्षा विभाग की कार्य कुशलता पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। फिर भी इन विभागों ने शिक्षा के प्रसार में उल्लेखनीय काम किया।
(14.) निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुदान: सरकार द्वारा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देने की प्रथा से निजी शिक्षण संस्थाओं की वृद्धि हुई।
वुड घोषणा पत्र का महत्त्व
भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणा पत्र का विशेष महत्त्व है। इसके द्वारा ब्रिटिश संसद ने भारतीयों की शिक्षा का उत्तरदायित्व पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया तथा उसे वैधानिक स्वरूप प्रदान किया। यह प्रथम अवसर था जब भारतीय शिक्षा के विभिन्न पहलुआंे पर इतने विस्तार से विचार किया गया। इसी घोषणा-पत्र के अनुसार कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में विश्वविद्यालय स्थापित किये गये तथा प्रत्येक प्रान्त में अलग शिक्षा विभाग की स्थापना की गई। शिक्षा विभाग ने माध्यमिक और प्राथमिक शिक्षा को प्रोत्साहन दिया तथा निजी शिक्षण संस्थाओं को वित्तीय अनुदान देना प्रारम्भ किया। शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए विद्यालय स्थापित कर शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास किया गया।
इस घोषणा-पत्र की बहुत-सी बातों को कार्यान्वित नहीं किया जा सका। भारतीय भाषाओं के विकास का सुझाव केवल कागजों तक ही सीमित रहा तथा इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। निजी शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देने से शिक्षा के निजी प्रयासों को प्रोत्साहन मिलने तथा सरकार के शिक्षा क्षेत्र से हट जाने की आशा थी किंतु ऐसा नहीं हुआ। सर्व-साधारण की शिक्षा योजना भी फाइलों में दबकर रह गई।
फिर भी भारतीय शिक्षा के इतिहास में वुड के घोषणा-पत्र का बड़ा महत्त्व है। इस घोषणा-पत्र से शिक्षा के क्षेत्र में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। ब्रिटिश विद्वानों ने इसे भारतीय शिक्षा का मेग्नाकार्टा कहा है किन्तु उनका यह कथन उचित नहीं है क्योंकि हिन्दू शासक कभी भी, समाज की शिक्षा प्राप्ति में अवरोधक नहीं थे। मुसलमानों के शासनकाल में अवश्य ही हिन्दुओं को धार्मिक शिक्षा प्राप्त करना कठिन हो गया था।
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