– ‘महात्मन्! शंहशाह की इच्छा है कि आप उनके दरबार को पवित्र करें।’ शहंशाह अकबर के वकीले मुतलक और काशी के सूबेदार अब्दुर्रहीम खानखाना ने गुंसाईजी से हाथ जोड़कर निवेदन किया।
– ‘खानखानाजी, कैसी बात करते हैं आप? हम तो दास हैं। क्या आप राजपुरुष होकर इतना भी नहीं जानते कि दासों के आने से सम्राटों के दरबार पवित्र नहीं होते।’
– ‘आप दास नहीं, रामभक्त हैं और रामभक्त तो स्वयं रामजी के समान हैं। उनके आगमन से ही दरबार पवित्र होते हैं।’
गुसांईजी ने मुस्कुराकर जवाब दिया-
‘प्रभु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूंँ न राम से साहिब सील निधान।।’
– ‘शहंशाह के दरबार में जाने से किसी तरह का अमंगल नहीं होगा बाबा।’ अब्दुर्रहीम ने धरती पर सिर टिका कर कहा।
गुंसाईजी ने करुणा से अब्दुर्रहीम के सिर पर हाथ रख दिया-
‘राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल दुहुँ दिसि तुलसीदास।।’
अब्दुर्रहीम ने निराश होकर राजा टोडरमल की ओर देखा वकीले मुतलक को असफल होता देखकर राजा टोडरमल ने प्रयास किया- ‘शंहशाह अकबर गुणियों की कद्र करने वाले हैं। वहाँ आपका यथोचित आदर सत्कार होगा गुसांईजी। जैसा आप चाहेंगे, वैसा ही सब प्रबंध शासन की ओर से हो जायेगा।’
गुसांईजी ने राजा टोडरमल का अनुरोध अस्वीकार करते हुए उत्तर दिया-
‘राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल मांगत तुलसीदास।।’
– ‘आपने जीवन भर निर्धनता के कष्ट सहे हैं। आपने स्वयं ने भी कहा है- नहीं दरिद्र सम दुख जग माहीं………..।’
– ‘दरिद्र कौन है राजन्?’ गुसांईजी ने टोका तो राजा टोडरमल सहम गये, ‘रामजी के चाकर दरिद्र नहीं होते। दरिद्रता तो तन की अवस्था है, मन की नहीं। क्या मन, तन का दास मात्र है? क्या यह आवश्यक है कि यदि तन दरिद्र हो तो मन भी दरिद्र हो जाये? यदि ऐसा नहीं है तो क्या व्यक्ति केवल तन मात्र है? क्या तन के दरिद्र होने से ही व्यक्ति दरिद्र हो जाता है?’
– ‘क्षमा करें देव! चूक हो गयी। मेरा आशय यह नहीं था। मेरे पास ऐसे शब्द कहाँ हैं जो मैं आपकी मर्यादा के अनुकूल संभाषण कर सकूं।’
– ‘दोष तुम्हारा नहीं है राजन्। दोष तुम्हारे परिवेश का है जिसमें तुम्हें दिन रात रहना पड़ता है। उसी विकृत परिवेश का परिणाम है कि राजपुरुषों की दृष्टि केवल व्यक्तियों के बाहरी स्वरूप में उलझ कर रह जाती है और वे बहुत सी भ्रामक परिभाषाएं गढ़ लेते हैं।’
– ‘गुसांईजी! यदि आप जैसे विवेकी पुरुष शासन में हों तो प्रजा को कई मुश्किलों से छुटकारा मिल सकता है।’
– ‘नहीं! यह सत्य नहीं है। प्रत्येक मनुष्य का अपना धर्म होता है और मनुष्य को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये। भगवान कृष्ण ने कहा है ‘स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मौ भयावहः ।’ शासन चलाना मेरा धर्म नहीं है।’
– ‘शंहशाह चाहते हैं कि आप जैसी विभूती का शेष जीवन आराम से कटे।’ राजा टोडरमल ने हाथ जोड़ दिये।
गुसाईंजी ने नेत्र मूंद कर कहा-
‘करिहौं कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस।
जहाँ तहाँ दुख पाइहौ तबहीं तुलसीदास।।’
– ‘महात्मन्! सम्राट ने आपको यथोचित मनसब देने का भी निश्चय किया है।’ इस बार राजा मानसिंह ने साहस किया।
गुसांईजी राजा मानसिंह की ओर देखकर मुस्कुराये-
‘हम चाकर रघुबीर के पटौ लिखौ दरबार।
तुलसी हम का होंइगे नर के मनसबदार।’
संध्या वंदन का समय होता देखकर गुसांईजी उठ खड़े हुए। उन्हीं के साथ तीनों राजपुरुष भी गुसांईजी को प्रणाम करके उठ कर खड़े हो गये। वे तीनों आज ही बादशाह अकबर के आदेश से गुसांईजी की सेवामें काशीजी में उपस्थित हुए थे किंतु दिन भर के प्रयास के बाद भी अपने उद्देश्य में असफल रहे थे।