Monday, December 23, 2024
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67. प्रजापालन

अतिथियों के भोजन के बाद चारों व्यक्ति तसल्ली से बैठे। किसी को किसी तरह की शीघ्रता न थी।

– ‘हमने सुना है कि राजाजी ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध बड़ी वीरता दिखायी।’ गुसांईंजी ने मानसिंह की ओर देखते हुए कहा।

गुसांईंजी के कथन से मानसिंह के मुख की आभा जाती रही, उसका कण्ठ सूख गया। वह कुछ नहीं बोल सका।

– ‘कहिये! क्या राणा ने अधीनता स्वीकार कर ली?’ गुसाईंजी ने फिर प्रश्न किया।

– ‘नहीं! वे स्वाभिमानी हैं, वे जान दे देंगे किंतु पराधीनता स्वीकार नहीं करेंगे।’ राजा मानसिंह ने किसी तरह प्रत्युत्तर दिया।

– ‘सुना है महाराणा ने आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया!’ गुसांईंजी ने फिर प्रश्न किया।

– ‘महाराणा ने वीरोचित व्यवहार ही किया है गुसांईंजी! दुर्भाग्य मेरा है, मैं ही उचित सत्कार के योग्य नहीं हूँ।’ 

– ‘अपने आप को उचित सत्कार के योग्य बनाओ राजाजी।’

– ‘मैं प्रयास करता हूँ किंतु यह मेरे बूते से बाहर की बात है।’

– ‘बूता तो रघुवीरजी देंगे। आप उनसे बूता मांग कर तो देखिये किंतु बूता मांगने से पहले बंधु के साथ विग्रह का भाव त्यागना होगा।’

– ‘मेरा उनसे कोई विग्रह नहीं। मैं तो कर्त्तव्य पालन के लिये ही उनके सामने हथियार उठाता हूँ।’

– ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अकर्त्तव्य को ही कर्त्तव्य समझ बैठे हैं?’

– ‘मेरी तुच्छ बुद्धि मुझे कोई निर्णय नहीं करने देती।’

– ‘जो सहजता से उपलब्ध है, उसे स्वीकार कर लेने की लालसा हमें बुद्धि से काम ही नहीं करने देती।’

– ‘मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ गुसाईंजी।’

– ‘बंधु द्रोह भयानक पाप है राजन्। मनुष्य को इस पातक से बचने के लिये प्राण देकर भी प्रयास करना चाहिये। जो अबंधु है, जो रिपु है, जो हरिविमुख है, उस पर कोप करने की सामर्थ्य और इच्छा पैदा करो। अन्यथा जीवन में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगेगा।’

मानसिंह ने धरती पर माथा टिका दिया। उसके नेत्रों से जलधार बह निकली। गुसाईंजी ने बड़े स्नेह से उसके माथे पर हाथ फिराया।

– ‘कहिये राजा टोडरमल! आपके राज्य में जनता सुख से तो है?’ गुसाईंजी ने प्रौढ़ वयस स्थूलाकाय अतिथि को सम्बोधित करके पूछा।

– ‘राज्य शहंशाह अकब्बर का है महात्मन्। मैं तो उनका अकिंचन सेवक हूँ।’ राजा टोडरमल ने सिर झुका कर उत्तर दिया।

– ‘राजा के मंत्री ही राजा की ओर से प्रजा का अनुशासन और उसकी सार-संभाल करते हैं। जिस राजा के सचिव, सहायक और सेवक प्रजा को दुख देते हैं, उस राजा का नाश हो जाता है और प्रजा पीड़ित होती है। आप राज्य के वित्त और अर्थ सचिव हैं। आपका उत्तरदायित्व तो सर्वाधिक है।’

– ‘सचिव के अधिकार की सीमा और अपनी सामर्थ्य भर तक तो मैं प्रजा पालन का प्रयास करता ही हूँ महात्मन्।’

– ‘इस समय भारत वर्ष की जनसंख्या कितनी है?’

– ‘सिंधु नदी से बंगाल के समुद्र तक तथा हिमालय से सेतुबंध रामेश्वरम् तक लगभग बारह करोड़ जन निवास करता है।’

– ‘उसमें से कितनी प्रजा मुगल साम्राज्य के अधीन है?’

– ‘लगभग दस करोड़ महात्मन्।’

– ‘मुगल साम्राज्य में मंत्रियों, सचिवों तथा उच्चाधिकारियों की संख्या कितनी है?’

– ‘कुल मिलाकर यही कोई आठ हजार मनसबदार होंगे।’

– ‘राजकीय कोश का कितना हिस्सा इन मनसबदारों में बँटता है?’

– ‘साम्राज्य की कुल आय का इकरानवे प्रतिशत इन मनसबदारों में बँट जाता है।

– ‘इन आठ हजार मनसबदारों में से सम्राट, राजपुत्रों तथा सचिवों आदि उच्च अधिकारियों की संख्या कितनी है?’

– ‘एक हजारी जात और उनसे ऊपर के मनसबदारों की संख्या चार सौ पैंतालीस है।’

– ‘उन पर राजकीय आय का कितना प्रतिशत व्यय होता है?’

– ‘यही कोई इकसठ प्रतिशत।’

– ‘सम्राट और राजपुत्रों की संख्या कितनी है?’

– ‘बादशाह तथा उसके शहजादों सहित प्रथम श्रेणी के कजलबाश, चगताई, ईरानी और तूरानी अमीरों तथा रईसों की संख्या अड़सठ है।’

– ‘इनके ऊपर कितना खर्च होता है?’

– ‘लगभग सैंतीस प्रतिशत।’

– ‘शेष आय का क्या होता है?’

– ‘इसमें से अधिकांश राशि काजियों, उलेमाओं, खतीबों, मुहतसिबों, मुफ्तियों, सद्रों तथा तथा फकीरों में बँट जाती है।’

– ‘यह सारा धन आता कहाँ से है?’

– ‘प्रजा से विभिन्न प्रकार के करों के रूप में प्राप्त होता है।’

– ‘क्या इसके अतिरिक्त और किसी उपाय से सम्राट अथवा उसके अधिकारियों के पास धन नहीं आता?’

– ‘युद्ध में लूटा गया धन बादशाह तथा उनके सैनिकों को प्राप्त होता है। उसे राजकीय कोष में जमा नहीं करवाया जाता। इसलिये उसका कोई हिसाब नहीं है।’

– ‘भारतवर्ष की जिस प्रजा से विपुल कर लेकर आप इतना धन एकत्र करते हैं, उसका कितना प्रतिशत प्रजा के हितार्थ व्यय किया जाता है?’

– ‘बादशाह, शहजादों तथा मनसबदारों को जो धन दिया जाता है, वह समस्त धन प्रजा के रक्षण हेतु सैन्य जुटाने में व्यय होता है।’

– ‘सम्राज्य विस्तार हेतु किया गया सैन्य व्यय प्रजा के रक्षण के लिये कैसे माना जा सकता है?’

– ‘प्रजा रक्षण एवं साम्राज्य विस्तार साथ-साथ ही चलते हैं प्रभु।’

– ‘जो सैन्य स्वयं ही प्रजा को लूटता फिरता हो, उनकी सम्पत्ति, गौ तथा स्त्रियों का हरण करता हो। उससे किस प्रकार के प्रजा रक्षण की अपेक्षा है आपको?’ गुसाईंजी ने किंचित् रुष्ट होकर पूछा।

राजा टोडर मल गुसाईंजी की खिन्नता देखकर सहम गया। उसके मुँह से कोई शब्द तक न निकल सका।

– ‘सत्य तो यह है राजाजी कि सम्राट, राजपुत्रों तथा सामंतों के भोग से बचा हुआ अधिशेष सैनिकों के सामने फैंका जाता है। इस उच्छिष्ट से सैनिकों का उदर नहीं भरता। उन्हें विवश होकर प्रजा में लूट मार करनी पड़ती है। इसमें आपका दोष नही है क्योंकि म्लेच्छ सम्राट के राज्य की अर्थव्यवस्था का आधार यही है।’

गुसाईंजी क्षण भर के लिये मौन रहे और फिर एक लम्बी साँस लेकर बोले-

”किसबी किसान कुल, बनिक भिखारी भाट,

चाकर  चपल  नट,  चोर,  चार,  चेटकी।

पेट को  पढ़त,  गुन  गढ़त,  चढ़त  गिरि,

अरत   गहन-गन,   अहन   अखेट  की।

ऊँचे  नीचे  करम  धरम   अधरम   करि,

पेट  को  ही  पचत,  बेचत  बेटा  बेटकी।

तुलसी  बुझाई  एक  राम  घनश्याम ही तें,

आग  बड़वागि  ते  बड़ी है  आग पेट की।

दारिद  दसानन  दबाई,   दुनी  दीन  बंधु।

दुरित  दहन   देखि   तुलसी  हहा  करी।”

कुटिया में निस्तब्धता छा गयी। कुछ समय पश्चात् गुसांईजी ने ही मौन तोड़ा- ‘आप लोग राज पुरुष हैं किंतु क्या इस सत्य से परिचित हैं कि आज प्रजा के मन में सत्ता के सत्य का अनुभव जितना गहरा है, उससे भी अधिक गहरा अनुभव सत्ता की व्यर्थता का है। किसान कारीगर, और सामान्य प्रजा भुखमरी अनिश्चय और सैन्य शोषण से त्रस्त है। सम्राट के पापों का दण्ड प्राकृतिक आपदाओं के रूप में फलित होता है। प्रजा दिन रात हाड़ तोड़ परिश्रम करके किसी तरह अपने आप को जीवित रखे हुए है। बहुत से लोग घर बार छोड़कर योगियों, मुनियों, साधुओं, संतों, सिद्धों, तांत्रिकों तथा उदासीन तापसों के वेश धारण करके भिखारी बने हुए घूमते हैं। इनकी लूट पाट से त्रस्त प्रजा का विश्वास धर्म में से उठता जा रहा है। बड़ी संख्या में उत्पन्न पण्डों, पुरोहितों, पुजारियों और ज्योतिषियों ने भी प्रजा से धन ऐंठने के ना-ना उपाय ढूंढ निकाले हैं। लोगों की आस्था धर्माचारण से उठती जा रही है।

कुटिया के बाहर रात गहराती जा रही थी और भीतर मौन।

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