Thursday, November 21, 2024
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121. शहीदी तरबूज

खुर्रम का नौकर अब्दुल्लाहखाँ एक नम्बर का हरामी था। वह कई सालों से अब्दुर्रहीम से अदावत रखता था। जब अब्दुर्रहीम का पोता उसके शिकंजे में आ गया तो उसने अब्दुर्रहीम से बदला लेने को यही उचित अवसर समझा।

जब खुर्रम काफी दूर पहुँच गया तो अब्दुल्लाहखाँ ने एक रात को दाराबखाँ के बेटे की हत्या कर दी। अब तो दाराबखाँ के पास परवेज के पास लौट जाने के अतिरिक्त कोई चारा न रहा।

उधर जब महावतखाँ ने बंगाल को लूटना आरंभ किया तो बंगाल के जमींदारों ने दाराबखाँ को अपना प्रतिनिधि बनाकर परवेज के पास भेजने का विचार किया। दाराबखाँ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

जब दाराबखाँ परवेज के पास पहुँचा तब तक परवेज दक्षिण के लिये कूच कर चुका था। इस पर दाराबखाँ महावतखाँ के पास हाजिर हुआ। महावतखाँ ने दाराबखाँ को तो कैद कर लिया और जहाँगीर को समाचार भिजवाया। जहाँगीर ने कहा कि उस धोखेबाज को जीवित रखने में क्या लाभ है? उसका सिर काटकर हमारे पास भेज दो।

जिस दिन बादशाह की चिट्ठी महावतखाँ के पास पहुँची, उसी दिन महावतखाँ ने दाराबखाँ का सिर गर्दन से अलग कर दिया। इसके बाद उस कटे हुए तरबूज को थाली में सजा कर कीमती रेशम से ढंकवाया और स्वयं उस थाली को लेकर अब्दुर्रहीम के डेरे में पहुँचा।

– ‘लो अब्दुर्रहीम! तरबूज खाओ।’ महावतखाँ ने रेशमी कपड़े से ढंकी हुई थाली अब्दुर्रहीम के सामने बढ़ाई।

– ‘आज अवश्य ही कोई अनहोनी होने वाली है जो तू अपने हाथों में मेरे लिये थाली धर कर लाया है।’ अब्दुर्रहीम ने थाली हाथ में लेते हुए कहा।

जैसे ही अब्दुर्रहीम ने थाली का कपड़ा हटाना चाहा तो महावतखाँ ने अब्दुर्रहीम का हाथ पकड़ कर कहा- ‘अब्दुर्रहीम! तूने ऐसा क्यों कहा?’

रहीम ने क्षणभर अपनी बूढ़ी आँखों से मक्कार महावतखाँ की ओर देखा और फिर मुस्कुराकर बोला-

‘गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि।

उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतौरी आहि। ‘[1]

अब्दुर्रहीम का जवाब सुनकर महावतखाँ तिलमिला कर रह गया। उसने कहा- ‘बूढ़े शैतान! तुझ पर खुदा की मार। मैं तेरी तरह शाइरी तो नहीं करता किंतु इतना अवश्य जानता हूँ कि इस तरबूज में तुझे तेरी शाइरी का जवाब जरूर मिल जायेगा।’

अब्दुर्रहीम ने थाली पर से कपड़ा हटाया तो उसकी आँखें पथरा गयीं। दाराबखाँ का सिर छाती से लगाते हुए उसने कहा- ‘यह शहीदी तरबूज  है।[2] खास बेल पर ही लगता है।’

अब्दुर्रहीम का यह जवाब सुनकर महावतखाँ अपना स्याह पड़ गया चेहरा लेकर वहाँ से चला गया। जाते-जाते खानखाना के वचन उसके कानों में पड़े-

‘अधम वचन काको फल्यो, बैठि ताड़ की छाँह।

रहिमन  काम  ने आय है, ये नीरस जग माँह।। ‘[3]

 इसके बाद फिर कभी महावतखाँ का साहस अब्दुर्रहीम से बदतमीजी करने का नहीं हुआ।


[1] बड़प्पन उसी को शोभा देता है, जो बड़प्पन धारण कर सकता है। स्तन यदि हृदय के स्थान पर कहीं और लगा दिये जायें तो वे फोड़े कहलाते हैं।

[2] तरबूज की एक किस्म का नाम भी शहीदी है। इसका स्वाद शहद की तरह मीठा होता है।

[3]  दुष्ट वचन किसी को अच्छा परिणाम नहीं देता है। जैसे कि ताड़ के पेड़ से छाया नहीं मिलती। दुष्ट वचन और ताड़ के पेड़ किसी काम के नहीं होते।

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