आग की लपटों में घिर गई शहजादी जहानआरा ! किसी भी मुगल शहजादी न इससे पहले या इसके बाद इस तरह की आग स्वप्न में भी नहीं देखी होगी।
शहजादी जहानआरा औरंगजेब की कैद में थी, यह सोच-सोचकर स्वयं औरंगजेब ही हैरान हो जाता था। उसे पुराने दिन याद आते थे जब वह अपने भाई-बहिनों से झगड़ा हो जाने पर अपनी बहिन के आंचल में पनाह पाता था। उसे वे दिन भी रह-रहकर याद आते थे जब जहानआरा द्वारा औरंगजेब को शाहजहाँ से माफी दिलाए जाने के बाद औरंगजेब राजधानी दिल्ली छोड़कर अपने मामा शाइस्ता खाँ के साथ दक्षिण के मोर्चे पर जा रहा था।
अभी वह दिल्ली से अधिक दूर नहीं गया था कि उसे राह में शाही फरमान मिला कि शहजादी जहानआरा बीमार है, इसलिए वह चाहे तो अपनी बहिन से मिलने के लिए दिल्ली आ सकता है।
इस परवाने के मिलते ही औरंगजेब अपने मामा शाइस्ता खाँ को लेकर बीच रास्ते से ही दिल्ली के लिए लौट लिया था। जब उसने अपनी बहिन की यह हालत देखी तो वह सन्न रह गया। संसार में और किसी से न सही, वह अपनी बहिन जहानआरा से बहुत प्रेम करता था। उसकी नेकदिल बहिन पर कुदरत ने इतना बड़ा जुल्म किया था कि औरंगजेब का नेकी पर से विश्वास ही उठ गया।
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हुआ यह था कि जहानआरा के महल में एक दासी नृत्य कर रही थी। इस दौरान वह एक शमादान के काफी निकट चली गई और उसके कपड़ों में लगे इत्र के तेल ने आग पकड़ ली। रहमदिल जहानआरा ने जब दासी के कपड़ों से लपटें निकलती हुई देखीं तो वह आग बुझाने के लिए दौड़ी। नर्तकी का तो पता नहीं क्या हुआ क्योंकि इतिहास में उसका उल्लेख नहीं मिलता किंतु इस प्रयास में जहानआरा के स्वयं के कपड़ों में लगे इत्र के तेल ने आग पकड़ ली और जहानआरा भयानक लपटों में घिर गई।
जहानआरा का शरीर बुरी तरह जल गया जिससे पूरे शरीर पर जख्म हो गए। आग की लटपों ने जहानआरा की छाती पर बुरी तरह कहर ढाया था तथा आंच की गर्मी उसके हृदय तक पहुंच गई थी। इस कारण शहजादी के बचने की कोई संभावना नहीं रही।
इस अप्रत्याशित दुर्घटना से शाहजहाँ बुरी तरह घबरा गया। उसने बेटी की सलामती के लिए मस्जिदों, मजारों एवं आस्तानों पर दुआएं करवाईं। सैंकड़ों कैदियों को रिहा किया, गरीबों में धन-सम्पत्ति, भोजन और कपड़ा बंटवाया तथा देश-विदेश के विख्यात हकीमों को शहजादी के इलाज के लिए बुलवाया।
जहानआरा कभी भी मर सकती थी, इसलिए औरंगजेब, मुरादबक्श तथा शाहशुजा को दिल्ली बुलवाया गया ताकि वे अपनी बहिन से अंतिम बार मिल सकें। दारा तो सदा से बादशाह के पास नियुक्त था ही।
बेटी की ऐसी हालत देखकर शाहजहाँ गहरे शोक में डूब गया। उसने राजकाज त्याग दिया और दरबार में जाना बंद कर दिया। वह हर समय बेटी के पास बैठकर आंसू बहाता रहता। एक साल तक देश-विदेश से आए हकीम और वैद्य शाह-बेगम जहानआरा का इलाज करते रहे।
अंत में शाहजहाँ के भाग्य से दुआएं और दवाएं असर लाईं तथा जहानआरा मौत के मुंह से बाहर आ गई। लगभग एक साल में उसके शरीर के जख्म भर पाए। इसके बाद शाहबेगम जहानआरा जियारत करने के लिए ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर अजमेर गई।
अपने परबाबा अकबर की तरह जहानआरा भी जिंदगी भर मुइनुद्दीन चिश्ती की अहसानमंद रही और इस घटना के बाद जियारत करने के लिए कई बार अजमेर आई।
शाह-बेगम के स्वस्थ होने की खुशी में शाहजहाँ ने अपने खजाने के मुंह खोल दिए। गरीब जनता में धन बंटवाया गया और फकीरों की झोलियां चांदी के सिक्कों से भर दी गईं। जब जहानआरा बिस्तर से उठी तो बादशाह ने अपने खजाने के सबसे कीमती हीरे और जवाहरात उसे भेंट किए तथा सूरत के बंदरगाह से होने वाली आय भी उसी के नाम कर दी।
यदि कोहिनूर हीरा, तख्ते ताउस और दिल्ली तथा आगरा के लाल किले छोड़े दिए जाएं तो दुनिया की ऐसी कोई महंगी चीज नहीं थी जो उस समय जहानआरा के पास नहीं थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता