छत्रपति शिवाजी के पुत्र शंभाजी अपने पिता की तरह सफलताएं अर्जित नहीं कर पाए किंतु हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए उनका बलिदान शिवाजी के बलिदान किसी भी तरह कम नहीं था। हिन्दू धर्म युगों तक शंभाजी का ऋणी रहेगा। अपने प्राणों की परवाह किए बिना शंभाजी ने बड़ी घृणा से औरंगजेब के मुंह पर थूक दिया!
पाठकों को स्मरण होगा कि 4 अप्रेल 1680 को छत्रपति शिवाजी का निधन हो जाने के बाद उनके बड़े पुत्र शंभाजी ने मराठों का नेतृत्व संभाला। शंभाजी की माता सईबाई शिवाजी की पटरानी थी किंतु उसका निधन शिवाजी के जीवन काल में ही हो गया था। शिवाजी के निधन के समय शिवाजी की तीन रानियां जीवित थीं।
ये तीनों ही शंभाजी की सौतेली माता थीं। इनमें से सोयरा बाई पर छत्रपति शिवाजी की हत्या का आरोप लगा। इस कारण शंभाजी ने उसे प्राणदण्ड दिया। शिवाजी की रानी पुतली बाई, शिवाजी की देह के साथ सती हो गई। शिवाजी की तीसरी रानी सकवर बाई को कुछ दिनों बाद औरंगजेब की सेना ने पकड़कर कैद कर लिया।
सम्भाजी की पत्नी येशुबाई तथा येशूबाई का पुत्र साहूजी भी सकवर बाई के साथ औंरगजेब के हाथों बंदी बना लिए गए। शिवाजी के परिवार के सदस्य बहुत लम्बे समय तक औरंगजेब की कैद में रहे। इन लोगों को औरंगजेब ने बहुत अपमानित किया एवं ना-ना प्रकार के दुःख दिए। फिर भी शंभाजी ने औरंगजेब के सामने झुकने से मना कर दिया और अपने पिता शिवाजी महाराज द्वारा देखा गया हिन्दू पदपादशाही का सपना साकार करने में लगे रहे।
जब ई.1681 में शंभाजी ने औरंगजेब के बागी पुत्र अकबर को अपने राज्य में शरण दी तो औरंगजेब शंभाजी के प्राणों का प्यासा हो गया क्योंकि अब औरंगजेब को यह खतरा सताने लगा कि यदि असंतुष्ट मुगल शहजादों तथा राजपूतों के साथ मराठों का भी गठजोड़ हो गया तो वह आने वाले समय में मुगलिया सल्तनत के लिए अत्यंत खतरनाक सिद्ध होगा।
औरंगजेब स्वयं दक्खिन के मोर्चे पर आकर बैठ गया तथा अपनी समस्त शक्ति झौंककर शंभाजी महाराज को पकड़ने का प्रयास करने लगा किंतु वह कभी भी शंभाजी को सम्मुख युद्ध में परास्त नहीं कर सका।
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इस तरह औरंगजेब को शंभाजी से संघर्ष करते हुए आठ-नौ साल बीत गए। 15 फरवरी 1689 को औरंगजेब के सेनापति मुकरब खाँ को सूचना मिली कि शंभाजी अपने दो सौ सैनिकों के साथ अपने राज्य के संगमेश्वर नामक गांव में आया हुआ है जबकि उसकी सेना रायगढ़ छावनी में है। मुकरब खाँ को यह सूचना शंभाजी की पत्नी येसूबाई के भाई गणोजी शिर्के ने दी थी जो कि शंभाजी से असंतुष्ट चल रहा था और शंभाजी से बदला लेना चाहता था।
मुकरब खाँ ने उसी समय 5000 सिपाहियों को लेकर शंभाजी को घेर लिया। शंभाजी के मुट्ठी भर सिपाही पांच हजार मुगल सैनिकों के मुकाबले में अधिक समय तक नहीं टिक सके तथा मुगलों ने शंभाजी तथा उनके मंत्री कवि कलश को जीवित ही पकड़ लिया।
जब शंभाजी तथा कवि कलश को औरंगजेब के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो दोनों ने बड़ी निर्भीकता से औरंगजेब का सामना किया। शंभाजी की वीरता देखकर औरंगजेब ने उनसे कहा कि मेरे चार पुत्रों में से यदि एक भी तुम्हारे जैसा हुआ होता तो समूचा हिन्दुस्तान मुग़ल सल्तनत में समा गया होता। शंभाजी उस समय भी औरंगजेब को मारकर हिन्दू पद-पादशाही स्थापित करने की बात करते रहे। इस पर औरंगजेब ने शंभाजी महाराज को मृत्युदण्ड सुनाया।
जब यह बात पादशाह बेगम जीनत उन्निसा को ज्ञात हुई तो उसने अपने पिता औरंगजेब से प्रार्थना की कि शंभाजी महाराज को यह अवसर दिया जाए कि यदि वह इस्लाम कबूल कर ले तो उसे नहीं मारा जाएगा। यदि शंभाजी इस्लाम स्वीकार कर लेता है तो मैं उससे विवाह कर लूंगी। कुछ फारसी तवारीखों के अनुसार स्वयं औरंगजेब ने शंभाजी को अपने सामने बुलाकर यह प्रस्ताव दिया किंतु जब शंभाजी ने यह सुना कि औरंगजेब उससे मुसलमान बनने के लिए कह रहा है तो शंभाजी ने बड़ी घृणा के साथ औरंगजेब के मुंह पर थूक दिया।
भारत जैसे विशाल साम्राज्य का स्वामी औरंगजेब एक छोटे से हिन्दू राजा द्वारा किए गए इस अपमान से तिलमिला गया। इससे पहले किसी ने भी औरंगजेब का इतना अपमान करने का साहस नहीं किया था। क्रोध से पागल हुए औरंगजेब ने जल्लादों को बुलाकर आदेश दिया कि शंभाजी को दर्दनाक मृत्यु दी जाए।
इस आदेश के बाद 15 दिनों तक शंभाजी का एक-एक अंग काटा गया। पहले हाथ-पैरों की एक-एक अंगुली काटी गई। उसके बाद हाथ और पैर काटे गए। शम्भाजी की आखें निकाल ली गईं, जीभ खींच ली गई, चमड़ी उतार ली गई एक-एग अंग काटकर नदी में फैंक दिया गया।
15 दिन तक दी गई भयानक याताअनों से तड़पने के बाद 11 मार्च 1689 को सम्भाजी के प्राण निकल गए। इतिहासकारों के अनुसार 15वें दिन शंभाजी का सिर कलम किए जाने से उनकी मृत्यु हुई।
कवि कलश का भी यही हाल किया गया। इस प्रकार मुगलों को देश से बाहर निकालकर हिन्दू पदपादशाही की स्थापना का स्वप्न देखने वाले छत्रपति शिवाजी के परिवार को मुगलों के हाथों बहुत भयानक यातनाएं झेलनी पड़ीं किंतु यह परिवार कभी मुगलों के सामने झुकने को तैयार नहीं हुआ।
शिवाजी तथा उनके परिवार ने जीवन की नहीं मृत्यु की साधना की, सुख के रूप में मिलने वाली गुलामी की नहीं अपितु दुख के साथ मिलने वाली स्वतंत्रता की साधना की। यही कारण था कि पिता और पुत्र अर्थात् शिवाजी और शंभाजी भारत के इतिहास में सम्राट पृथ्वीराज चौहान और महाराणा प्रताप की तरह आदर के पात्र बन गए। वे ऐतिहासिक नायकों की श्रेणी से निकलकर मिथकों के नायक बन गए।
कहा जाता है कि छत्रपति शंभाजी महाराज के टुकड़े तुलापुर की नदी में फेंकें गए। नदी के किनारे रहने वाले लोगों ने शंभाजी के शरीर के टुकड़े एकत्रित करके सिल दिए तथा उनका अंतिम संस्कार किया। इन लोगों को अब ‘शिवले’ नाम से जाना जाता है। ये लोग आज भी प्रतिवर्ष शंभाजी की स्मृति में एक माह के उत्सव का आयोजन करते हैं जो भारत की वीर-पूजन परम्परा का महत्वपूर्ण आयोजन है।
औरंगजेब ने सोचा था कि शंभाजी की हत्या के बाद मराठा शक्ति बिखर जाएगी किंतु हुआ ठीक उलटा। शंभाजी के बलिदान के बाद मराठों ने अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन किया जिसके कारण औरंगजेब मराठों को कभी नहीं जीत सका तथा उसके मरते ही जाटों, राजपूतों, सिक्खों और मराठों ने मुगलों के कफन में आखिरी कीलें ठोक दीं।
औरंगजेब की पुत्री जीनत उन्निसा अपने पिता के इस हैवानियत भरे कारनामे से इतनी दुखी हुई कि वह फिर कभी किसी से विवाह करने को तैयार नहीं हुई। वह अविवाहित ही मृत्यु को प्राप्त हुई। यहाँ हम थोड़ी सी चर्चा जीनत उन्निसा के सम्बन्ध में करना चाहेंगे।
जीनत उन्निसा औरंगजेब की दूसरे नम्बर की बेटी थी। उसका जन्म 5 अक्टूबर 1643 को औरंगाबाद में दिलरास बानू की कोख से हुआ था। जीनत उन्निसा को औरंगजेब ने पादशाह बेगम घोषित किया था। औरंगजेब के शासन के आरम्भिक काल में औरंगजेब की बहिनें रौशनआरा तथा जहानआरा इसी पद पर रह चुकी थीं।
जीनत उन्निसा को मुगलिया इतिहास में उसकी दयालुता एवं भलाई के कामों के लिए जाना जाता है। अपनी बड़ी बहिन जेबुन्निसा तथा छोटी बहिन जुब्दत उन्निसा की भांति जीनत उन्निसा भी इस्लामिक दर्शन एवं कुरान की जानकार थी।
जीनत उन्निसा अपने सगे भाई आजमशाह से बहुत घृणा करती थी जबकि अपने सबसे छोटे सौतेले भाई कामबख्श से बहुत प्रेम करती थी। इसलिए जब भी औरंगजेब कामबख्श से नाराज होता था, तब जीनत उन्निसा दौड़कर अपने पिता के पास जाती थी और उससे प्रार्थना करती थी कि वह कामबख्श को क्षमा कर दे।
यही कारण था कि जहाँ औरंगजेब ने अपने अन्य शहजादों को कभी न कभी जेल में अवश्य डाला था किंतु जीनत उन्निसा के रहते कामबख्श के लिए जेल के दरवाजे कभी नहीं खुल सके।
अपने जीवन के अंतिम भाग में जब औरंगजेब अकेला पड़ गया तब जीनत तथा उसकी सौतेली माता उदयपुरी महल ही औरंगजेब का सहारा बनीं।
औरंगजेब के दक्खिन प्रवास के दौरान बादशाह के डेरे की सारी व्यवस्थाएं जीनत ही संभालती थी। ई.1700 में जीनत उन्निसा ने दिल्ली में लाल किले के पास यमुनाजी की तरफ एक मस्जिद बनाई जिसे जीनत उल मस्जिद कहा जाता था। जीनत की मृत्यु के बाद जीनत को उसी मस्जिद में दफनाया गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता