Sunday, December 22, 2024
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31. शरभंग ऋषि ने श्रीराम को समस्त योग, यज्ञ, तप एवं व्रत समर्पित कर दिए!

महर्षि अत्रि एवं सती अनसूया से भेंट करने के पश्चात् ईक्ष्वाकु वंशी राजकुमार रामचंद्र ने दण्डकारण्य के गहन वन में प्रवेश किया। दण्डकारण्य का अद्भुत परिवेश किसी को भी चकित कर देने वाला था। इस वन में स्थान-स्थान पर मुनियों के आश्रम बने हुए थे जिनमें असंख्या मुनि सांसारिक बंधनों को त्यागकर तपस्या करते थे। स्थान-स्थान पर यज्ञ कुण्ड बने हुए थे, ऋषियों के आश्रमों में उपनिषदों का आयोजन होता था। आश्रमों में बड़ी संख्या में गाएं पाली जाती थीं जिनके दूध एवं घी से न केवल ऋषि ही पुष्ट होते थे अपितु यज्ञ देव भी संतुष्ट रहते थे।

ऋषियों के आश्रमों के निकट अनेक वन्यपशु विचरण करते थे किंतु वे ऋषियों एवं आश्रम की गायों को किंचित् भी हानि नहीं पहुंचाते थे। दण्डकरारण्य का वातावरण इतना पवित्र था कि वहाँ नित्य की स्वर्ग के देवगण ऋषियों के दर्शनों के लिए आते थे तथा आश्रमों में होने वाले वेदपाठों के श्रवण का आनंद उठाते थे।

स्वर्ग की बहुत सी अप्सराएं स्वर्ग छोड़कर दण्डकारण्य में नृत्य करने आती थीं। नदियों एवं झरनों का पावन जल इस सम्पूर्ण धरती को दिव्य औषधियों एवं कंद-मूल तथा फल से लदे हुए वृक्षों से सम्पन्न रखता था।

आज जिस प्रदेश को हम छत्तीसगढ़ के रूप में जानते हैं, उसका बहुत सा प्रदेश इसी दण्डकारण्य में स्थित था। इस पुयण्भूमि में कई ऋषि और मुनि तो हजारों साल से तपस्या कर रहे थे। जब दण्डकारण्य के ऋषियों को ज्ञात हुआ कि श्रीराम ने दण्डकारण्य में प्रवेश किया है उनके आनंद का पार नहीं था। बहुत से ऋषियों को देवताओं ने बता रखा था कि एक दिन स्वयं श्री हरि विष्णु मानव देह धरकर आपके आश्रम में आपको दर्शन देने आएंगे।

इस कारण बहुत से ऋषि युगों से श्रीराम के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक दिन जब उन्हें ज्ञात हुआ कि श्रीराम ने अत्रि मुनि के आश्रम से प्रस्थान कर दिया है तो ऋषि-मुनि अपने आश्रमों को श्रीराम के स्वागत के लिए सजाने लगे। बहुत से ऋषियों ने दण्डकारण्या के पथों को बुहार कर अपने आश्रम को आने वाले मार्गों को सुगम कर दिया ताकि श्रीराम को उनके आश्रमों तक आने में कोई कष्ट न हो, कहीं वे मार्ग न पाकर उनका आश्रम छोड़कर आगे न बढ़ जाएं।

पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-

श्रीराम ने जब मुनियों के समूहों को वेदपाठ करते हुए और सामगायन करते हुए सुना तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए। ऐसा सामगायन न तो देवलोक के गंधर्व कर सकते थे और न कश्यप के पुत्र तुम्बरू! ऋषियों की पावन भूमि देखकर इक्ष्वाकु राजकुमारों श्रीराम एवं श्रीलक्ष्मण ने अपने धनुषों की प्रत्यंचा खोल दी और तीर अपने तरकष में रख लिए। वे जिस ऋषि के आश्रम के द्वार पर जाकर खड़े हो जाते थे, उनका जीवन धन्य हो जाता था। प्रत्येक ऋषि श्रीराम से कुछ कहना चाहता था और प्रत्येक ऋषि श्रीराम से कुछ सुनना चाहता था। ऋषि-पत्नियों को ऐसा लगा मानो श्रीराम उनके अपने पुत्र हों।

बहुत से ऋषियों ने श्रीराम से प्रार्थना की कि वे यहीं रुक जाएं, यहाँ सब प्रकार की सुख सुविधाएं हैं। बहुत से ऋषियों ने तो श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकी के लिए पर्णकुटियां भी बना रखी थीं किंतु श्रीराम ऋषियों का सान्निध्य प्राप्त करते हुए आगे बढ़ते रहे। श्रीराम का लक्ष्य शरभंग ऋषि के आश्रम तक पहुंचने का था। इसलिए वे मुनियों से शरभंग ऋषि की कुटिया का मार्ग पूछने लगे। शीघ्र ही यह समाचार शरभंग ऋषि तक पहुंच गया कि श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजी शरभंग ऋषि के आश्रम की ओर बढ़ रहे हैं।

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जब यह समाचार ऋषि शरंभग के आश्रम में पहुंचा, तब देवराज इन्द्र शरभंग ऋषि के आश्रम में आए हुए थे, वे ऋषि को ब्रह्मलोक ले जाना चाहते थे किंतु जब शरभंग ने सुना कि श्रीराम आ रहे हैं तो उन्होंने देवराज इन्द्र से क्षमा मांग ली और ब्रह्मलोक जाने से मना कर दिया तथा अपने आश्रम में रहकर श्रीराम की प्रतीक्षा करने लगे। उन दिनों दण्डकराण्य में ऋषियों एवं मुनियों के आश्रम बने हुए थे तो वहीं, कुछ राक्षसों ने भी इस वन में आकर अपना निवास बना लिया था। वे अवसर प्राप्त होते ही इन मुनियों को मार कर खा जाते थे। शरभंग ऋषि के आश्रम की तरफ बढ़ते हुए श्रीराम को एक दिन विराध नामक राक्षस दिखाई दिया जो मनुष्यों को मारकर खा जाता था। श्रीराम ने उस नरभक्षी राक्षस का वध कर दिया।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार विराध श्रीराम एवं लक्ष्मण को मारकर सीताजी को भार्या बनाना चाहता था। इसलिए उसने अचानक आक्रमण करके सीताजी को उठा लिया और बोला- ‘मुनियों के वस्त्र पहनकर इस जंगल में सुंदर युवती के साथ घूमते हुए लज्जा नहीं आती! मैं तुम दोनों का वध करके इस स्त्री को अपनी भार्या बनाउंगा।’

विराध की बातें सुनकर सीताजी भयभीत हो गईं। सीताजी को भयभीत देखकर श्रीराम के अंग शोक से शिथिल हो गए और उन्होंने लक्ष्मण से कहा- ‘ऐसा लगता है कि माता कैकेई ने जिस इच्छा से हमें वन में भेजा है, आज उनकी वह इच्छा पूरी हो जाएगी।’

श्रीराम ने विराध से उसका परिचय पूछा। इस पर विराध ने कहा- ‘मुझे ब्रह्माजी से वरदान मिला हुआ है कि किसी शस्त्र से मेरा वध नहीं किया जा सकता। इसलिए तुम इस स्त्री को छोड़कर यहाँ से चले जाओ।’

जब श्रीराम एवं लक्ष्मण ने विराध पर शस्त्रों से प्रहार किया तो वे शस्त्र वरदान के प्रभाव से विराध के शरीर से निकलकर धरती पर गिरने लगे। विराध ने राम और लक्ष्मण को पकड़कर अपने कंधों पर उठा लिया तथा हिंसक पशुओं से भरे हुए भयानक वन में घुस गया।

इस पर सीताजी ने राक्षस से कहा- ‘तू इन दोनों भाइयों को छोड़ दे और मुझे पकड़कर ले चल।’

सीताजी को करुण विलाप करते हुए देखकर श्रीराम एवं लक्ष्मण ने शस्त्रों की बजाय द्वंद्वयुद्ध में राक्षस का संहार करने का निर्णय किया तथा उन्होंने राक्षस के कंधे पर बैठे-बैठे ही विराध की दोनों भुजाएं उखाड़ दीं। इससे राक्षस धरती पर गिर गया। श्रीराम एवं लक्ष्मण ने दुष्ट राक्षस को मुक्कों तथा लातों से पीटना आरम्भ किया तथा उसे उठाकर बार-बार धरती पर पटकने लगे। इस पर भी वह राक्षस नहीं मरा तो श्रीराम विराध की गर्दन पर पैर रखकर खड़े हो गए एवं लक्ष्मण ने एक खड्डा खोदा। दोनों राजकुमारों ने विराध को उसी खड्डे में गाढ़ दिया।

जब विराध मरने लगा तो उसने श्रीराम से कहा- ‘मैं तुम्बरू नामक गंधर्व हूँ, एक दिन मुझे कुबेर ने बुलाया किंतु मैं रम्भा पर आसक्त होने के कारण समय पर कुबेर के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ। इस कारण कुबेर ने मुझे राक्षस होने का श्राप दिया था। आज आपके हाथों से मृत्यु पाकर मेरी मुक्ति हो गई।’

जहाँ वाल्मीकि रामायण में विराध के वध का वर्णन विस्तार से किया गया है, वहीं गोस्वामी तुलसीदासजी ने विराध के वध का उल्लेख अत्यंत संक्षेप में किया है। विराध को मारने के बाद श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजी ने मुनि के आश्रम पहुंच कर उनके चरणों में प्रणाम किया।

मुनि शरभंग बोले- ‘हे राम! आपका स्वागत है, मर्हिष अत्री ने आपसे सत्य कहा था, मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था।’ मुनि शरंभग ने अपने समस्त योग, यज्ञ, जप, तप तथा व्रत श्रीराम को समर्पित कर दिए तथा अपना शरीर योगानल से भस्म करके वैकुण्ठ को चले गए। मुनि शरभंग इंद्र के साथ ब्रह्मलोक नहीं गए क्योंकि इससे उनकी अभेद मुक्ति होती अर्थात् उनकी आत्मा पमरात्मा में विलीन हो जाती। इसलिए मुनि शरभंग ने श्रीराम के आने की प्रतीक्षा की ताकि वे उनसे भेद भक्ति का वरदान ले सकें। इस प्रकार की मुक्ति में भक्त कभी भी परमात्मा में विलीन नहीं होता, अपितु सांसारिक बंधनों एवं मोह-माया से मुक्त होकर भक्त बना रहता है और परमात्मा के सान्निध्य का आनंद भोगता है।  

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