फीरोजशाह तुगलक ने मुल्ला-मौलवियों की सलाह पर अपने शासन का संचालन किया। इस कारण राज्य में सुन्नी मुसलमानों को ही वास्तविक प्रजा समझा गया तथा शिया, सूफी एवं हिन्दू प्रजा को सुल्तान के कोप का भाजन बनना पड़ा। फीरोजशाह का जन्म ई.1309 में हुआ था। वह ई.1351 में 42 वर्ष की आयु में दिल्ली के तख्त पर बैठा था। फीरोज के अन्तिम दिन सुख तथा शांति से नहीं बीते।
ई.1370 के आते-आते फीरोजशाह तुगलक बूढ़ा हो गया और उसके अंग शिथिल होने लगे। उसने शहजादे फतेह खाँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तथा राज्य के अधिकांश कार्यों की जिम्मेदारी उसी को दे दी किंतु ई1374 में शहजादे फतेह खाँ की मृत्यु हो गई। इससे सुल्तान को भीषण आघात पहुंचा। शासन में शिथिलता आने लगी और राज्य दलबन्दी का शिकार हो गया।
फीरोज ने अपने दूसरे शहजादे जफर खाँ को अपना उत्तराधिकारी बनाया किंतु उसकी भी मृत्यु हो गई। वृद्ध हो जाने के कारण फीरोज शासन को नहीं सम्भाल सका। शासन की सारी शक्ति प्रधानमंत्री खान-ए-जहाँ के हाथों में चली गई।
फीरोज ने अपने तीसरे शहजादे मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी चुना किंतु सुल्तान का नायब (प्रधानमंत्री) खान-ए-जहाँ तख्त प्राप्त करने के लिए शहजादे मुहम्मद को अपने मार्ग से हटाने का उपाय खोजने लगा। उसने सुल्तान को समझाया कि शहजादा कुछ असंतुष्ट अमीरों से मिलकर सुल्तान को मारने का षड्यन्त्र रच रहा है।
सुल्तान ने षड्यंत्र करने वालों को कैद करने की आज्ञा दे दी परन्तु शहजादा राजवंश की स्त्रियों के साथ चुपके से पालकी में बैठकर सुल्तान के सामने उपस्थित हुआ और सुल्तान के चरणों में गिरकर उसे समझाया कि खान-ए-जहाँ स्वयं तख्त पाना चाहता है इसलिए उसने शहजादे पर षड्यंत्र का आरोप लगाया है। फीरोज के मन में यह बात बैठ गई। उसने खान-ए-जहाँ को पदच्युत करके बंदी बना लेने की आज्ञा दे दी। जब खान-ए-जहाँ को इसकी सूचना मिली तब वह मेवाड़ की ओर भाग गया।
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शहजादा फिर से सुल्तान का कृपापात्र बन गया और विलासिता का जीवन व्यतीत करने लगा। उसने कई अयोग्य मित्रों को नौकरियां दे दीं। इससे योग्य तथा अनुभवी अफसरों में असंतोष फैलने लगा और धीरे-धीरे शहजादे का विरोध होने लगा। अंत में गृहयुद्ध की स्थिति आ गई। इस युद्ध से घबराकर शहजादा सिरमूर की पहाड़ियों की ओर भाग गया।
वृद्ध सुल्तान फीरोजशाह तुगलक ने फिर से शासन अपने हाथों में ले लिया। अत्यंत वृद्ध हो जाने के कारण वह शासन को नहीं संभाल सका। उसने अपने सारे अधिकार अपने पोते तुगलक शाहबीन फतेह खाँ को दे दिए। थोड़े दिन बाद 20 सितम्बर 1388 को 80 वर्ष की आयु में फीरोज तुगलक की मृत्यु हो गई।
यद्यपि फीरोजशाह अपने सुधारों के लिए प्रसिद्ध है, परन्तु उसके सुधारों में दूरदर्शिता का अभाव था। जागीर प्रथा आरम्भ करना, गुलामों की संख्या में वृद्धि करना, सैनिकों के पदों को आनुवांशिक बनाना आदि ऐसे सुधार थे जिनका राज्य के स्थायित्व पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
सुन्नी प्रजा के लिए फीरोजशाह का शासन बड़ा उदार था। मजहबी संकीर्णता के कारण वह अच्छे तथा बुरे दोनों प्रकार के अधिकारियों के साथ दया तथा सहानुभूति दिखाता था और अनुचित साधनों का प्रयोग करने वालों की भी सहायता करता था। उसमें राजनीतिज्ञता का अभाव था। इस कारण वह राजनीति को मजहब से अलग नहीं कर सका।
उलेमाओं तथा मौलवियों के परामर्श के बिना वह कोई काम नहीं करता था। वह कुरान के नियमों के अनुसार शासन करता था। इससे हिन्दू प्रजा का उत्पीड़न होता था। समस्त इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि फीरोज में उच्च कोटि की धर्मिक असहिष्णुता थी और हिन्दुओं के साथ बड़ा दुर्व्यवहार होता था।
फीरोजशाह अत्यंत साधारण योग्यता का धनी था। न उसमें महत्त्वाकांक्षा थी और न संकल्पशक्ति। सामरिक दृष्टि से उसका व्यक्तित्व बहुत छोटा था। उसमें संगठन तथा संचालन शक्ति का सर्वथा अभाव था। न वह सल्तनत की वृद्धि कर सका और न उसे छिन्न-भिन्न होने से रोक सका। उसकी सेना का संगठन दोषपूर्ण था। जागीरदारी प्रथा तथा सैनिकों के पद को वंशानुगत बनाकर उसने शासन में ऐसे दोष उत्पन्न कर दिए जिनसे तुगलक-वंश का पतन आरम्भ हो गया।
फीरोजशाह के कार्यों में न कोई मौलिकता थी और न दूरदृष्टि। सुल्तान का स्वभाव उसका सबसे बड़ा शत्रु था। सुन्नी प्रजा के प्रति उसकी उदारता तथा दयालुता और गैर-सुन्नी प्रजा के लिए उसकी कठोरता उसके अच्छे कार्यों को चौपट कर देती थी। चौदहवीं शताब्दी में सफलता पूर्वक शासन करने के लिए सुल्तान में जिस संतुलन का समावेश होना चाहिए था, उसका फीरोज में अभाव था। सारांश यह है कि यद्यपि फीरोज के कृत्यों से सुन्नी प्रजा को सुख पहुँचा परन्तु उसकी नीति के अन्तिम परिणाम बुरे हुए और सल्तनत कमजोर हो गई।
फीरोज तुगलक का पिता मुलसलमान तथा माता हिन्दू थी। स्वाभाविक रूप से उसे हिन्दुओं से भी सहानुभूति होनी चाहिये थी किंतु राजपूत स्त्री का पुत्र होते हुए भी फीरोज कट्टर मुसलमान था और उसे हिन्दुओं से घोर घृणा थी। उसने धार्मिक असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। वह हिन्दू प्रजा को मुसलमान बनने के लिए प्रोत्साहित करता था और जो हिन्दू, मुसलमान हो जाते थे उन्हें जजिया से मुक्त कर देता था।
एक ओर तो उसने अपनी प्रजा पर 23 प्रकार के कर हटा लिए किंतु दूसरी ओर उसने ब्राह्मणों पर भी जजिया लगा दिया। एक ओर फीरोज तुगलक मुस्लिम प्रजा को सुखी बनाने का प्रयास कर रहा था किंतु दूसरी ओर वह शिया सम्प्रदाय के मुसलमानों के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं करता था। सूफियों को भी वह घृणा की दृष्टि से देखता था।
सुल्तान फीरोजशाह स्वयं को दयालु कहता था इसलिए वह बंगाल में सुन्नी मुस्लिम औरतों का क्रंदन सुनकर जीती हुई बाजी हारकर लौट पड़ा किंतु मार्ग में उसने जाजनगर तथा जगन्नाथ पुरी पर आक्रमण करके हिन्दू सैनिकों की हत्या करने में संकोच नहीं किया। जाजनगर के राजा ने सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली और प्रतिवर्ष कुछ हाथी भेजने का वचन दिया। फिर भी सुल्तान ने जगन्नाथ मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया और मूर्तियों को समुद्र में फिंकवा दिया। जाजनगर जीतने के बाद अनेक सामन्तों तथा भूमिपतियों को नष्ट करता हुआ फीरोज दिल्ली लौटा। उसने नगर कोट के राजा से विपुल धन लेकर भी वहाँ बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मारा।
इतिहासकारों ने सही लिखा है कि फीरोजशाह तुगलक औरंगजेब की भांति कट्टरपंथी था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता