Sunday, December 22, 2024
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शहजादी जेबुन्निसा का अंत

शहजादी जेबुन्निसा का अंत औरंगजेब के क्रूर कृत्यों की लम्बी सूची में शामिल एक और कारनामा थी जिसके कारण जेबुन्निसा जेल में ही तिल-तिल कर मर गई!

शहजादी जेबुन्निसा के कुछ पत्र औरंगजेब के बागी शहजादे अकबर के दौराई सैनिक शिविर से पकड़े गए थे तथा औरंगजेब ने शहजादी जेबुन्निसा को राजद्रोह के आरोप में सलीमगढ़ की जेल में बंद कर दिया था। यह एक हैरानी की बात है कि औरंगजेब अपनी पांच पुत्रियों में से सबसे अधिक प्रेम अपनी बड़ी पुत्री जेबुन्निसा से करता था और अपने पांच पुत्रों में से सर्वाधिक प्रेम अपने चौथे नम्बर के पुत्र अकबर से करता था किंतु इन दोनों ने ही औरंगजेब को मुगलों के तख्त से उतारने का षड़यंत्र रचा।

माना जाता है कि औरंगजेब की कट्टर नीतियों से तंग आकर जेबुन्निसा ने अपने बागी भाई अकबर का साथ दिया था। अकबर ने अपने पिता औरंगजेब पर आरोप लगाया था कि वह जो कुछ कर रहा है, वह इस्लाम के अनुसार नहीं है। अकबर की बहिन जेबुन्निसा ने अकबर के इस आरोप का समर्थन किया था।

औरंगजेब ने शहजादी जेबुन्निसा की समस्त सम्पत्ति जब्त कर ली तथा उसे मिलने वाली चार लाख रुपए सालाना की पेंशन भी बंद कर दी। एक बार जेल में जाने के बाद शहजादी फिर कभी वहाँ से बाहर नहीं निकल सकी। अपने यौवन के चरम पर वह जेल में गई।

कहा जाता है कि जेबुन्निसा का बाबा शाहजहाँ जेबुन्निसा का विवाह दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह से करना चाहता था ताकि आगे चलकर दारा शिकोह तथा उसके बाद सुलेमान शिकोह हिन्दुस्थान का बादशाह बने तो जेबुन्निसा को हिन्दुस्थान की मल्लिका बनाया जा सके किंतु न तो शाहजहाँ का भाग्य ऐसा था कि वह हिन्दुस्थान का बादशाह बना रह सके, न दारा शिकोह का भाग्य ऐसा था कि अपने बाप के तख्त पर बैठ सके। न सुलेमान का भाग्य ऐसा था कि उसका विवाह जेबुन्निसा से हो सके और उसे हिन्दुस्तान की मल्लिका बना सके।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

जेबुन्निसा पर लाहौर के गवर्नर अकील खान से प्रेम करने का आरोप लगा किंतु वह प्रेम परवान नहीं चढ़ सका। तत्कालीन इतिहासकारों के अनुसार ईरान के शासक शाह अब्बास (द्वितीय) के पुत्र मिर्जा फारूक ने शहजादी जेबुन्निसा से विवाह करने का प्रस्ताव भिजवाया था किंतु शहजादी ने यह शर्त रखी कि वह विवाह करने से पहले शहजादे को अपनी आंखों से देखेगी। न तो कभी ईरान का शहजादा भारत आया और न कभी शहजादी जेबुन्निसा फारूक से विवाह करने के लिए ईरान गई।

अपने पिता औरंगजेब के दरबार में जेबुन्निसा अत्यंत सम्मानित अतिथि की हैसियत से प्रवेश करती थी किंतु उसी पिता ने शहजादी को जीवन भर के लिए जेल में पटक दिया था। अधूरी हसरतें लिए यह विदुषी और परम सुंदरी शहजादी जेल में ही तिल-तिल कर मरती रही और अपने दुर्भाग्य को कोसती रही।

जब ई.1686 में उसने सुना कि उसका भाई अकबर भारत छोड़कर ईरान भाग गया है तो जेबुन्निसा की समस्त आशाएं भी समाप्त हो गईं। अब उसके पास जेल से निकलने का एक ही रास्ता बचा था कि उसका पिता औरंगजेब जितनी जल्दी हो सके अल्ला मियां को प्यारा हो जाए किंतु कुदरत ने यह सुख जेबुन्निसा की किस्मत में लिखा ही नहीं था।

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जेबुन्निसा बीस साल तक जेल में जीवित रही। अंत में ई.1702 में वह बीमार पड़ गई और सात दिन की बीमारी के बाद बंदी अवस्था में ही उसकी मृत्यु हो गई। उस समय जेबुन्निसा 63 साल की वृद्धा थी। शहजादी जेबुन्निसा का अंत मुगलों के इतिहास पर ऐसा कलंक है जिसे किसी भी बहाने से धोया नहीं जा सकता। औरंगजेब भी तब तक 83 वर्ष का वृद्ध था फिर भी वह अपनी बेटी को कभी क्षमा नहीं कर सका जिससे उसने कभी सर्वाधिक स्नेह किया था। जिस समय जेबुन्निसा की मृत्यु हुई, उस समय औरंगजेब दक्खिन के मोर्चे पर मराठों और शियाओं से जबर्दस्त संघर्ष कर रहा था।

उन दिनों दिल्ली के उत्तर में स्थित कश्मीरी गेट के बाहर एक बाग हुआ करता था जिसमें तीस हजार पेड़ थे तथा उसे तीस हजारी बाग कहा जाता था। जेबुन्निसा की देह को उसी बाग में दफनाया गया तथा वहीं पर उसकी कब्र बनाई गई। शहजादी जेबुन्निसा का अंत हो गया किंतु वह अपनी कब्र में भी शांति से नहीं लेटी रह सकी। जब अंग्रेजों के समय में रेल लाइन बनाई गई तब जेबुन्निसा के मकबरे को तथा कब्र के पत्थर को आगरा के पास सिकंदरा में स्थित जेबुन्निसा के पूर्वज जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर के मकबरे में स्थानांतरित कर दिया गया।

लाहौर में भी एक मकबरे को जेबुन्निसा का मकबरा कहा जाता है किंतु उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। शहजादी जेबुन्निसा का अंत दिल्ली में हुआ था न कि लाहौर में।

जेबुन्निसा की मृत्यु के लगभग 22-23 साल बाद उसकी बिखरी हुई कविताओं का एक संग्रह तैयार किया गया जिसका नाम दीवान-ए-मखफी रखा गया। इस संकलन में 421 गजलें तथा कुछ रुबाइयां थीं। ईस्वी 1730 में इस पाण्डुलिपि में कुछ अन्य गजलें भी जोड़ी गईं।

ई.1929 में दिल्ली की एक प्रिण्टिंग प्रेस में जेबुन्निसा की कविताओं का दीवान प्रकाशित हुआ। ई.2001 में इस पुस्तक को ईरान में छापा गया। इस दीवान की कुछ पाण्डुलिपियां पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय, लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम तथा जर्मनी की तुबिनजेन विश्वविद्यालय में रखी हुई हैं।

यहाँ हम एक और शहजादे की चर्चा करना चाहते हैं जिसे इतिहास में नेकूसियर के नाम से जाना जाता है। जब औरंगजेब ने ई.1681 में शहजादी जेबुन्निसा को बंदी बनाया था तब औरंगजेब केवल इसी कार्यवाही से संतुष्ट नहीं हुआ था। उस समय अकबर का एक पुत्र नेकुसियर आगरा के लाल किले में निवास कर रहे औरंगजेब के हरम में पलता था जिसकी आयु उस समय केवल 2 साल थी। औरंगजेब ने उसे भी अपने हरम से अलग करके, आगरा के लाल किले में ही बंदी बना लिया।

औरंगजेब अब तक अपने बाप, भाई-भतीजों और बेटे-बेटियों को ही जेल में डालता रहा था किंतु अब उसने पहली बार अपना विषैला पंजा अपने पोते की तरफ बढ़ाया था। औरंगजेब का यह पोता ई.1695 तक जेल में ही बंद रहा। इस कारण अकबर अपने इस पुत्र का मुख कभी नहीं देख सका।

जब वह 16 साल का हुआ तब औरंगजेब ने उसे जेल से मुक्त करके असम का गवर्नर बनाकर दिल्ली से दो हजार किलोमीटर दूर भेज दिया। उस समय तक अकबर को भारत छोड़कर ईरान भागे हुए नौ साल हो चुके थे इसलिए नेकूसियर द्वारा औरंगजेब के विरुद्ध बगावत करने की संभावना नहीं थी।

कुछ ऐतिहासिक संदर्भों के अनुसार औरंगजेब की मृत्यु के बाद सैयद बंधुओं ने इसी नेकूसियर को कुछ दिन के लिए बादशाह घोषित किया था। जबकि कुछ अन्य संभर्द बताते हैं कि आगरा के स्थानीय गवर्नर बीरबल ने ई.1719 में नेकूसियर को बंदीगृह से बाहर निकाला तथा उसे बादशाह घोषित कर दिया।

उन दिनों मुगलों के तख्त पर वही शहजादा बैठ सकता था जो सैयद बंधुओं द्वारा पसंद किया जाता था। सैयद बंधुओं ने बीरबल तथा नेकूसियर को पकड़ने के लिए एक सेना भेजी। इस सेना ने नेकूसीयर को बंदी बना लिया।

नेकूसीयर को कुछ दिन के लिए आगरा के लाल किले में बंदी बनाकर रखा गया किंतु कुछ दिन बाद दिल्ली के सलीमगढ़ दुर्ग की जेल में भेज दिया जहाँ नेकूसियर के सबसे बड़े ताऊ मुहम्मद सुल्तान ने जीवन के 16 साल, नेकूसियर की सबसे बड़ी बुआ जेबुन्निसा ने जीवन के 20 साल तथा नेकूसीयर के एक अन्य ताऊ मुअज्जम शाह ने जीवन के 7 साल बिताए थे।

उन सबने सुख की कामना की थी किंतु उन्हें अपार दुःख की प्राप्ति हुई क्योंकि औरंगजेब रूपी सांप उन सबकी जन्म-कुण्डली में बड़ी मजबूती से कुण्डली मारकर बैठ गया था जिसने एक-एक करके अपने समूचे कुनबे को डस लिया था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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