शहजादी रौशन आरा ने अपने भाई दारा शिकोह के लिए प्राणदण्ड की मांग की! दरअसल वह अपने आप को उत्तराधिकार के युद्ध की वास्तविक विजेता मानती थी। उसे पता नहीं था कि यही उसके जीवन की सबसे बड़ी पराजय है।
29 अगस्त 1661 को औरंगजेब के आदेश से दारा शिकोह तथा उसके 14 वर्षीय पुत्र सिपहर शिकोह को फटे हुए कपड़े पहनाए गए तथा उनके सिरों पर मैले-कुचैले कपड़ों की पगड़ियां बांधी गईं और बाप-बेटों को एक छोटे कद की कुरूप सी हथिनी पर बैठाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया।
भयंकर शक्ल वाला तातारी गुलाम नजरबेग इस समय दिल्ली के कैदखाने का मुखिया था। वह हाथ में नंगी तलवार लेकर एक ऊंची सी हथिनी पर सवार हुआ तथा दुर्भाग्यशाली शहजादों के पीछे-पीछे चला।
लकदक करते रेशमी कपड़ों, रत्न-जड़ित पगड़ियों, चमचमाते हीरे-जवाहरातों से लदे हुए दारा शिकोह और उसके पुत्र जाने कितनी ही बार दिल्ली की सड़कों पर सिंहल द्वीप के पेरू हाथियों पर बैठकर निकले थे। दारा ने न जाने कितने मन अशर्फियां इन्हीं सड़कों पर दीन-दुखियों को लुटाई थीं। आज दिल्ली की जनता उन्हें इस हालत में देखकर हाहाकार कर उठी।
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अपमान की इस घड़ी में दारा सिर झुकाए हुए बैठा था, लोग उसकी जय बोलते थे किंतु दारा आंख उठाकर भी उनकी ओर नहीं देखता था। कितने ही लोग फूट-फूट कर रोने लगे और औरंगजेब पर लानत भेजने लगे। हालांकि बादशाह पर लानत भेजना दण्डनीय अपराध था किंतु दारा के दुर्भाग्य को देखकर वे अपने ऊपर आने वाली विपत्ति को भी भूल गए थे।
शाम के समय दारा तथा सिपहर शिकोह को खवासपुरा ले जाया गया और वहाँ अंधेरी कोठरी में डाल दिया गया।
दारा की इस लोकप्रियता को देखकर औरंगजेब विचलित हो गया। उसी शाम उसने अपने दरबारियों की एक बैठक बुलाई तथा दारा के भविष्य के बारे में उनकी राय पूछी। दानिशमंद खाँ नामक एक अमीर ने साहस करके औरंगजेब से प्रार्थना की कि दारा की जान बख्श दे किंतु शहजादी रौशन आरा तथा दारा के मामा शाइस्ता खाँ ने दारा शिकोह के लिए भयानक मौत की मांग की।
शहजादी रौशन आरा दुनिया की पहली बहिन होगी जिसने अपने भाई के प्राणों की रक्षा करने के स्थान पर उसके प्राण लेने की इच्छा व्यक्त की। इसी प्रकार शाइस्ता खाँ दुनिया का पहला मामा होगा जिसने अपने भांजे के प्राणों की रक्षा करने के स्थान पर उसके प्राण लेने में रुचि दिखाई जबकि दारा ने शायद ही कभी अपनी बहिन रौशन आरा और मामा शाइस्ता खाँ को कोई नुक्सान पहुंचाया था।
जब औरंगजेब के दरबार में दारा को लेकर दो मत हो गए तो औरंगजेब ने एक न्याय समिति गठित की जिसमें इस्लाम के उच्च जानकारों को लिया गया। इस समिति ने एक स्वर से दारा को काफिर तथा इस्लाम का गुनहगार घोषित किया तथा उसका सिर कलम किए जाने की सिफारिश की।
जब यह समाचार दिल्ली में फैल गया कि दारा का सिर कलम किया जाएगा तो 30 अगस्त 1659 को जनता ने विश्वासघाती मलिक जीवां को दिल्ली की सड़कों पर घेर कर उस पर हमला कर दिया। औरंगजेब समझ गया कि दारा को एक भी दिन जीवित रखना खतरे को आमंत्रण देना है। इसलिए उसी रात भयानक शक्ल वाला नजरबेग हाथ में नंगी तलवार लेकर दारा की कोठरी में घुस गया। दारा ने भयभीत होकर अपने पुत्र सिपहर शिकोह को अपनी छाती से चिपका लिया।
दुष्ट नजरबेग और उसके साथियों ने दारा के हाथों से सिपहर शिकोह को छीन लिया और दारा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि दारा का कटा हुआ सिर शाहजहाँ के पास आगरा भेज दिया गया किंतु शाहजहाँ ने दारा का सिर देखने से मना कर दिया। दारा के धड़ को हाथी पर रखकर दिल्ली की सड़कों तथा गलियों में घुमाया गया और अन्त में हुमायूँ के मकबरे में दफना दिया गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता