शेर खाँ पन्द्रह महीने तक बाबर के प्रधानमंत्री निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा की सेवा में रहा। इस दौरान शेर खाँ ने मुगलों के सैनिक संगठन, उनकी रणपद्धति तथा उनकी शासन व्यवस्था का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
कुछ समय बाद शेर खाँ फिर से अपनी जागीर सहसराम में चला आया परन्तु इस बार भी वह अधिक दिनों तक सहसराम में नहीं रह सका। उन्हीं दिनों बिहार के शासक बहादुर खाँ नूहानी की मृत्यु हो गयी और उसके स्थान पर उसका अल्पवयस्क बालक जलाल खाँ बिहार का सुल्तान बना। जलाल खाँ की माँ दूदू उसकी संरक्षिका बन गई। शेर खाँ, जलाल खाँ का शिक्षक रह चुका था, इसलिए दूदू ने शेर खाँ को बुला भेजा और इस बार उसे सुल्तान का नायब बना दिया। इस पद पर रहते हुए शेर खाँ को अपने राजनीतिक भविष्य को नई ऊंचाइयाँ देने के अवसर सहज ही प्राप्त हो गए।
शेर खाँ ने बहुत यत्न से अल्पवयस्क सुल्तान जलाल खाँ तथा उसकी माता दूदू की सेवा की तथा हर तरह से उनका विश्वास जीत लिया। इस कारण बिहार में शेर खाँ की शक्ति तथा प्रभाव बढ़ते ही चले गए। कुछ ही समय में शेर खाँ बिहार सल्तनत का सर्वेसर्वा बन गया। इससे नूहानी अफगानों में बड़ी ईर्ष्या पैदा हो गई और वे शेर खाँ के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगे। कुछ असन्तुष्ट नूहानी अफगान बिहार से भागकर बंगाल पहुँचे और वहाँ के शासक नसरतशाह को बिहार पर आक्रमण करने के लिये उकसाने लगे ताकि नूहानी अफगान अपनी खोई हुई शक्ति फिर से प्राप्त कर सकें। नसरतशाह ने नूहानी अफगानों का साथ मिल जाने से उत्साहित होकर बिहार पर आक्रमण कर दिया परन्तु शेर खाँ ने बंगाल की सेना को परास्त करके मार भगाया। इस घटना के बाद बिहार में नूहानी सरदारों का प्रभाव समाप्त हो गया तथा शेर खाँ का कद और अधिक मजबूत हो गया।
ई.1530 में आगरा में बादशाह बाबर की मृत्यु हो गई और हुमायूँ मुगलों का बादशाह हुआ। ई.1531 में जब हुमायूँ कालिंजर दुर्ग का घेरा डाले हुए था तब शेर खाँ ने चुनार दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
चुनार दुर्ग अत्यंत सुदृढ़ होने के कारण अभेद्य समझा जाता था। विशेष भौगोलिक परिस्थिति होने के कारण यह दुर्ग पूर्व का फाटक कहलाता था किंतु शेर खाँ को इस दुर्ग पर अधिकार अपने भाग्य की प्रबलता के कारण बिना किसी युद्ध के ही मिल गया था।
यह दुर्ग दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी के समय से अफगान अमीर ताज खाँ के अधिकार में था जो अपनी पत्नी लाड मलिका के वशीभूत था। इस कारण ताज खाँ की अन्य औरतों के पुत्र अपने पिता ताज खाँ से नाराज रहते थे। एक रात ताज खाँ के बड़े पुत्र ने जो कि एक अन्य मलिका से था, लाड मलिका पर आक्रमण करके उसे घायल कर दिया। ताज खाँ के इस बागी पुत्र ने अपने पिता ताज खाँ की भी हत्या कर दी और चुनार से भाग खड़ा हुआ।
शेर खाँ ने इस अवसर से लाभ उठाया और उसने लाड मलिका को अपनी बातों में लेकर चुनार दुर्ग में प्रवेश कर कर लिया तथा लाड मलिका से विवाह कर लिया। शेर खाँ को चुनार दुर्ग में बड़ी सम्पत्ति मिली। इससे शेर खाँ की शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई। इस सम्पत्ति के बल पर शेर खाँ तेजी से सैनिकों की भर्ती करने लगा। जब हुमायूँ को शेर खाँ की इस गतिविधि की जानकारी हुई तो हुमायूँ ने चुनार के दुर्ग पर अधिकार करने के लिए हिन्दू बेग नामक सेनापति को चुनार भेजा। हिन्दू बेग ने शेर खाँ से कहा कि वह यह दुर्ग मुगलों को सौंप दे किंतु शेर खाँ ने हिन्दू बेग को चुनार का दुर्ग देने से मना कर दिया। इस पर हुमायूँ स्वयं भी सेना लेकर चुनार पहुँच गया।
हुमायूँ की सेना चार महीने तक चुनार दुर्ग पर घेरा डाले रही किंतु दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सकी। अंत में दोनों पक्ष समझौता करने को तैयार हो गये। शेर खाँ ने हुमायूँ से प्रार्थना की कि वह चुनार का दुर्ग शेर खाँ के अधिकार में छोड़ दे। इसके बदले में शेर खाँ ने अपने तीसरे पुत्र कुत्ब खाँ को एक सेना के साथ हुमायूँ की सेवा में भेजना स्वीकार कर लिया। हुमायूँ ने शेर खाँ की प्रार्थना स्वीकार कर ली और आगरा लौट गया। इस समझौते से हूमायू की प्रतिष्ठा को धक्का लगा तथा शेर खाँ को अपनी योजनाएँ पूर्ण करने का अवसर मिल गया। चुनार का दुर्ग हाथ आ जाने से उसकी शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई।
ई.1532 में बंगाल के शासक नसरत शाह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र महमूद खाँ बंगाल का सुल्तान हुआ। ई.1534 में महमूद खाँ ने बिहार पर आक्रमण किया परन्तु शेर खाँ ने उसे सूरजगढ़ के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया। सूरजगढ़ का युद्ध मध्यकालीन इतिहास के निर्णयात्मक युद्धों में से एक है। इस युद्ध में शेर खाँ को विपुल युद्ध सामग्री भी प्राप्त हुई तथा उसने बंगाल के सुल्तान के साथ-साथ बिहार के नूहानी अफगानों की बची-खुची शक्ति को भी कुचल दिया। कुछ समय बाद शेर खाँ ने बिहार के सुल्तान जलाल खाँ को हटा दिया तथा स्वयं बिहार का स्वतन्त्र शासक बन गया।
शेर खाँ से समझौता करने के बाद हुमायूँ, गुजरात के शासक बहादुरशाह पर अभियान करने के लिए ग्वालियर की ओर चला गया। हुमायूँ ने ग्वालियर, उज्जैन, माण्डू, मंदसौर, चाम्पानेर तथा खम्भात आदि में इतना अधिक समय गंवा दिया कि शेर खाँ को अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए पर्याप्त समय मिल गया। उसने बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली और वह पूर्व के समस्त अफगानों का नेता बन गया।
शेर खाँ ने अफगान अमीरों को आश्वासन दिया कि यदि वे शेर खाँ के झण्डे के नीचे संगठित होकर मुगलों का सामना करें तो मुगलों को भारत से बाहर निकाला जा सकता है तथा अफगानों को अपने पुराने प्रांत तथा जागीरें फिर से प्राप्त हो सकते हैं। इस समय तक लोदी पूरी तरह नेपथ्य में जा चुके थे। इसलिए समस्त अफगान अमीर शेर खाँ के झंडे के नीचे एकत्रित होने लगे। शेर खाँ ने गुजरात के शासक बहादुरशाह के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया जिसने शेर खाँ को विपुल धन प्रदान किया ताकि शेर खाँ एक बड़ी सेना तैयार कर सके।
शेर खाँ ने एक सुनिश्चित आर्थिक नीति का अनुसरण करके बहुत सा धन इकट्ठा किया तथा उसकी सहायता से एक विशाल सेना तैयार की। यद्यपि शेर खाँ ने अपने पुत्र कुत्ब खाँ को एक सेना के साथ हुमायूँ की सेवा में भेजने का वचन दिया था परन्तु उसने इस वचन को पूरा नहीं किया और अपनी सेना बढ़ाने में लगा रहा। वास्तविकता यह थी कि शेर खाँ हुमायूँ को अपनी कूटनीतिक चालों में फंसाकर मूर्ख बना रहा था। उसके मन में कपट भरा हुआ था। वह शीघ्र ही हुमायूँ के समूचे राज्य को हड़प जाने वाला था!
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता