Sunday, December 22, 2024
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49. बाबर के प्रधानमंत्री खलीफा का नौकर था शेर खाँ!

बबार की मृत्यु के तुरंत बाद तथा हुमायूँ के बादशाह बनते ही शेर खाँ का नाम अचानक ही इतिहास की पुस्तकों में सामने आने लगता है। उससे पहले शेर खाँ का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह शेर खाँ कौन था, कहाँ से आया था, अचानक ही क्यों इतना महत्वपूर्ण हो गया था, इसे जानने के लिए हमें हुमायूँ के इतिहास को कुछ समय के लिए विश्राम देकर शेर खाँ की तरफ चलना होगा। क्योंकि यहाँ से शेर खाँ तथा हुमायूँ का इतिहास साथ-साथ चलने लगते हैं। एक के इतिहास को समझे बिना, दूसरे के इतिहास को समझना कठिन है।

शेर खाँ के पूर्वज अफगानिस्तान में रहने वाले सूर कबीले से निकले थे। इसलिये वे ‘सूर’ एवं ‘सूरी’ कहलाते थे। ये लोग स्वयं को मुहम्मद गौरी का वंशज मानते थे। शेर खाँ के दादा का नाम इब्राहीम खाँ सूरी और पिता का नाम हसन खाँ सूरी था। इब्राहीम खाँ सूरी, अफगानिस्तान के रौह नामक स्थान का निवासी था और घोड़ों का व्यापारी था।

जब दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने अफगानों को भारत में आने का निमंत्रण दिया तब इब्राहीम खाँ सूरी अपने पुत्र हसन खाँ के साथ हिन्दुस्तान चला आया। उसने पंजाब में स्थित हिसार-फिरोजा की जागीर में जमाल खाँ नामक एक अफगान अमीर के यहाँ नौकरी कर ली। जमाल खाँ ने इब्राहीम खाँ सूरी को कुछ गाँव जागीर में दे दिये जिससे वह पचास घोड़ों का खर्च चला सके। इब्राहीम खाँ लोदी के बाद हसन खाँ भी जमाल खाँ की नौकरी करने लगा। धीरे-धीरे हसन खाँ उन्नति करने लगा और पाँच सौ घोड़ों का सरदार बन गया।

हसन खाँ सूरी की चार पत्नियाँ थीं। उनमें से पहली पत्नी एक अफगान महिला थी और शेष तीन हिन्दुस्तानी नौकरानियाँ थीं जिनकी सुंदरता से प्रभावित होकर हसन खाँ ने एक-एक करके उनसे विवाह कर लिये थे। हसन की अफगान पत्नी से दो पुत्र हुए जिनमें से बड़े का नाम फरीद खाँ तथा छोटे पुत्र का नाम निजाम खाँ रखा गया। यही फरीद खाँ आगे चलकर पहले शेर खाँ के नाम से जाना गया तथा बाद में शेरशाह सूरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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कुछ समय पश्चात् दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने जमाल खाँ का स्थानांतरण हिसार-फरोजा से जौनपुर कर दिया। इस पर हसन खाँ भी अपनी चारों पत्नियों एवं उनके बच्चों को लेकर जमाल खाँ के साथ बिहार चला आया। जमाल खाँ ने हसन खाँ को बिहार में स्थित सहसराम तथा खवासपुर टाँडा का जागीरदार बना दिया।

जब हसन खाँ का पुत्र फरीद खाँ कुछ बड़ा हुआ तो उसने अनुभव किया कि उसका पिता हसन खाँ अपनी अफगान बीवी अर्थात् फरीद खाँ की माता की बजाय अपनी हिंदुस्तानी बीवियों से अधिक प्रेम करता था। वह फरीद खाँ और निजाम खाँ की बजाय हिंदुस्तानी बीवियों के पेट से उत्पन्न आलौदों पर प्यार लुटाता था।

इस कारण फरीद खाँ अपने पिता हसन खाँ से असंतुष्ट होकर जौनपुर चला गया और वहाँ जमाल खाँ के पास रहकर अरबी-फारसी पढ़ने लगा। कुछ समय बाद हसन खाँ स्वयं जौनपुर गया तथा जमाल खाँ को मध्यस्थ बनाकर अपने पुत्र फरीद खाँ को सहसराम ले आया। हसन खाँ ने फरीद को योग्य जानकर उसे अपनी जागीर का प्रबंध सौंप दिया।

फरीद खाँ प्रतिभावान एवं शिक्षित तो था ही, साथ ही उसने जौनपुर के राजनीतिक वातावरण में रहकर युद्ध एवं जागीरी शासन के कार्य के बारे में बहुत सी बातें सीख ली थीं। इसलिए फरीद खाँ ने अपने पिता की जागीर का प्रबंधन बहुत मेहनत एवं समझदारी से किया जिससे हसन खाँ की आय बढ़ गई और हसन खाँ फरीद खाँ को चाहने लगा।

यह बात हसन खाँ की हिन्दुस्तानी बीवियों को पसंद नहीं आई और वे फरीद खाँ को हसन खाँ से दूर करने का यत्न करने लगीं। अन्ततः उन्होंने षड़यंत्र करके फरीद खाँ को उसके पिता की जागीर से निकलवा दिया।

इस बार फरीद खाँ अपने पिता की जागीर छोड़कर आगरा चला गया और पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोदी की नौकरी करने लगा। जब दौलत खाँ लोदी फरीद खाँ के काम से प्रसन्न हो गया तब फरीद ने दौलत खाँ लोदी से अनुरोध किया कि वह सुल्तान इब्राहीम लोदी से कहकर मुझे मेरे पिता की जागीर दिलवा दे क्योंकि मेरे पिता ने अपनी हिन्दुस्तानी बीवियों के कहने से मुझे अपनी जागीर से बेदखल कर दिया है।

जब दौलत खाँ लोदी ने यह बात सुल्तान इब्राहीम लोदी को बताई तो इब्राहीम लोदी ने कहा कि उसने तुम्हारे सामने अपने पिता की निंदा करके बहुत ही नीचता का काम किया है, इसलिए मैं उसे जागीर नहीं दे सकता। फरीद खाँ मन-मसोसकर रह गया।

ई.1520 में फरीद के पिता हसन की मृत्यु हो गई। यह सूचना पाते ही फरीद ने आगरा से सहसराम के लिए प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचते ही उसने भाइयों को अपने पिता की जागीर से मार भगाया और जागीर पर अधिकार कर लिया। फरीद के सौतले भाइयों को चौंद के जागीरदार मुहम्मद खाँ सूरी का संरक्षण तथा समर्थन प्राप्त हो गया जो एक प्रभावशाली अमीर था। इससे फरीद संकट में पड़ गया। उसने अपने भाइयों के षड़यंत्रों को रोकने के लिए बिहार के शासक बहादुर खाँ नूहानी के यहाँ नौकरी कर ली जिसके प्रभाव का प्रयोग करके फरीद अपने भाइयों के षड़यंत्रों को विफल कर सकता था।

अपनी योग्यता तथा परिश्रम से फरीद ने अपने नये स्वामी को भी प्रसन्न कर लिया। एक बार फरीद ने शेर का शिकार किया। फरीद की वीरता से प्रसन्न होकर बहादुर खाँ नूहानी ने उसे शेर खाँ की उपाधि दी। तब से फरीद शेर खाँ कहलाने लगा। थोड़े दिन बाद शेर खाँ को शाहजादे जलाल खाँ का शिक्षक नियुक्त कर दिया गया। इससे शेर खाँ के प्रभाव तथा उसकी प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हो गई।

एक बार शेर खाँ छुट्टी लेकर अपनी जागीर पर गया परन्तु वहाँ अधिक दिनों तक रुक गया। इस पर शेर खाँ के शत्रु मुहम्मद खाँ सूरी ने बिहार के सुल्तान बहादुर खाँ नूहानी को शेर खाँ के विरुद्ध भड़काया। बहादुर खाँ नूहानी, मुहम्मद खाँ की बातों में आ गया तथा शेर खाँ से अप्रसन्न हो गया। मुहम्मद खाँ सूरी ने शेर खाँ से कहा कि वह जागीर में अपने भाइयों को हिस्सा दे। शेर खाँ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इससे अप्रसन्न होकर मुहम्मद खाँ ने शेर खाँ की जागीर पर आक्रमण कर दिया। शेर खाँ भाग खड़ा हुआ और उसने जुनैद बर्लस के यहाँ नौकरी कर ली जो उन दिनों बाबर के पूर्वी प्रान्तों का गवर्नर था।

अपने नये स्वामी की सहायता से शेर खाँ ने मुहम्मद खाँ को मार भगाया और एक बार फिर अपनी जागीर का स्वामी बन गया। जुनैद बर्लस शेर खाँ से इतना प्रसन्न हो गया कि वह शेर खाँ को अपने भाई निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा के पास आगरा ले गया जो बाबर का प्रधानमन्त्री था। खलीफा ने शेर खाँ को मुगल सेना में रख लिया। इस प्रकार शेर खाँ बाबर के प्रधानमंत्री निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा का नौकर हो गया।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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