लाल किले में शाइस्ता खाँ की मक्कारी के कई किस्से कहे जाते थे। उसकी औरत ने शाहजहाँ के शासनकाल में आत्मघात करके प्राण त्यागे थे क्योंकि शाहजहाँ ने दिल्ली के लाल किले में उसकी इज्जत लूटी थी। फिर भी शाइस्ता खाँ शाहजहाँ के साथ रहा और जब औरंगजेब ने शाहजहाँ के विरुद्ध बगावत की तो शाइस्ता खाँ ने औरंगजेब का भरपूर साथ देकर शाहजहाँ को बंदी बनाया था।
जिस समय औरंगजेब दक्खिन का सूबेदार था, उसने छत्रपति शिवाजी को मराठा शक्ति के रूप में उभरते हुए देखा था। वह शिवाजी को मुगलों के लिए बड़ा खतरा मानकर उन्हें नष्ट करने की योजना बना ही रहा था कि औरंगजेब के भाइयों में उत्तराधिकार का युद्ध छिद्ध गया और औरंगजेब को दक्खिन छोड़कर आगरा आना पड़ा। जब औरंगजेब मुगलों के तख्त पर बैठने में सफल हो गया तो उसने अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्खिन का सूबेदार नियत किया तथा उसे निर्देश दिए कि वह दक्खिन में जाकर छत्रपति शिवाजी का सफाया करे।
औरंगजेब की आधिकारिक जीवनी आलमगीरनामा में इस आदेश के सम्बन्ध में कहा गया है- ‘शक्तिशाली बनकर शिवाजी ने बीजापुरी राज्य के प्रति सभी तरह का भय और लिहाज छोड़ दिया। उसने कोंकण क्षेत्र को रौंदना और तहस-नहस करना आरम्भ कर दिया। यदा-कदा अवसर का लाभ उठाकर उसने बादशाह के महलों पर हमले किए। तब बादशाह ने दक्कन के सूबेदार अमीर-उल-अमरा शाइस्ता खाँ को हुक्म दिया कि वह शक्तिशाली सेना के साथ कूच करे, नीच का दमन करने का प्रयास करे, उसके इलाकों और किलों को हथिया ले और क्षेत्र को तमाम अशांति से मुक्त करे।’
शाइस्ता खाँ को कई युद्ध करने का अनुभव था। ई.1660 के आरंभ में वह विशाल सेना लेकर औरंगाबाद के लिए रवाना हुआ तथा 11 फरवरी 1660 को अहमदनगर जा पहुंचा। 25 फरवरी 1660 को वह अहमदनगर से दक्खिन के लिए रवाना हुआ। इस अभियान में शाइस्ता खाँ की मक्कारी के नए अध्याय खुलने वाले थे।
अभी शाइस्ता खाँ मार्ग में ही था कि उसे समाचार मिला कि शिवाजी ने छुरा भौंककर बीजापुर के सेनापति अफजल खाँ का वध कर दिया है। इस पर शाइस्ता खाँ ने अपनी सेना को तेजी से आगे बढ़ने के लिए कहा। दक्खिन तक पहुंचने से पहले ही उसे समाचार मिले कि शिवाजी ने मुगल सेनापति फजल खाँ, रूस्तमेजा तथा सिद्दी जौहर की सेनाओं को परास्त कर दिया है।
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9 मई 1660 को शाइस्ता खाँ पूना पहुंच गया। औरंगजेब ने मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह को भी शिवाजी के विरुद्ध लड़ने के लिए दक्खिन के मोर्चे पर पहुंचने के निर्देश दिए। इस कारण महाराजा जसवंतसिंह भी अपनी विशाल सेना के साथ पूना की तरफ बढ़ने लगा। दुष्ट शाइस्ता खाँ तथा महाराजा जसवंतसिंह को इतने बड़े सैन्य दलों के साथ महाराष्ट्र पर चढ़कर आया देखकर शिवाजी संकट में पड़ गए और पूना छोड़कर पहाड़ों में चले गए।
शाइस्ता खाँ ने पूना नगर पर अधिकार कर लिया तथा शिवाजी के महल में डेरा जमाकर बैठ गया जिसे लालमहल कहा जाता था। यह शाइस्ता खाँ की मक्कारी का एक और उदाहरण था कि वह छत्रपति के महल में ही जाकर रहने लगा।
शाइस्ता खाँ ने अपने सिपहसालार कर्तलब अली खाँ की कमान में एक सेना शिवाजी के कोंकण क्षेत्र वाले दुर्गों पर अधिकार करने भेजी। ई.1660 के अंत में कर्तलब खाँ शिवाजी का पीछा करते हुए भारी फौज के साथ लोणावाला के समीप घाटों से नीचे उतर गया।
शिवाजी कोंकण के चप्पे-चप्पे से परिचित थे इसलिए उन्होंने कर्तलब अली खाँ को भारी जंगल में प्रवेश करने दिया। शिवाजी ने उसे उम्बर खिन्ड नामक ऐसे दर्रे में घेर लिया जहाँ से कर्तलब खाँ का बचकर निकलना बहुत कठिन था। यह दर्रा 20-22 किलोमीटर लम्बे-चौड़े जलविहीन क्षेत्र के निकट स्थित निर्जन पहाड़ी में बना हुआ है जिसमें से एक साथ दो आदमी भी नहीं निकल सकते। दर्रे के दोनों तरफ ऊंची पहाड़ियां हैं। शिवाजी ने अपनी सेना को इन्हीं पहाड़ियों में छिपा दिया।
फरवरी 1661 में मुगल सेना अपनी तोपें और रसद लेकर खिन्ड दर्रे तक पहुंची। शिवाजी की सेना ने उसके आगे और पीछे दोनों तरफ के मार्ग बंद कर दिए। मुगल सेना बुरी तरह से घिर गई। अब शिवाजी के सैनिक पहाड़ियों के ऊपर से मुगलों पर पत्थरों, लकड़ियों तथा गोलियों से हमला करने लगे। मुगल सेना पिंजरे में बंद चूहे की तरह फंस गई। कुछ ही समय में उसके पास पानी समाप्त हो गया।
सैंकड़ों मुगल सिपाही इस घेरे में मारे गए। कर्तलब अली खाँ के स्वयं के प्राण संकट में आ गए। उसने शिवाजी के पास, युद्ध बंद करने का अनुरोध भिजवाया। शिवाजी ने उससे भारी जुर्माना वसूल किया तथा उसकी सारी सैन्य-सामग्री छीन ली तथा कर्तलब खाँ को लौट जाने का मार्ग दे दिया। कर्तलब अली खाँ अपने बचे हुए सिपाहियों को लेकर शाइस्ता खाँ के पास लौट गया।
कर्तलब खाँ को परास्त करने के बाद शिवाजी ने कोंकण प्रदेश में स्थित बीजापुर राज्य के दाभोल, संगमेश्वर, चिपलूण तथा राजापुर आदि कस्बों तथा पाली एवं शृंगारपुर आदि छोटी रियासतों को अपने राज्य में मिला लिया। शिवाजी की एक सेना ने नेताजी पाल्कर के नेतृत्व में मुगलों को उलझा लिया जबकि स्वयं शिवाजी एक सेना लेकर कोंकण के बचे हुए प्रदेश जीतने लगे। ई.1661 में शिवाजी ने समूचा कोंकण जीत लिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता