Thursday, November 21, 2024
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शिवाजी का औरंगजेब विरोध (10)

छत्रपति शिवाजी का औरंगजेब विरोध भारतीय इतिहास को गति प्रदान करती है। उस काल में बहुत से हिन्दू राजा औरंगजेब का विरोध कर रहे थे जिनमें जोधपुर का राजा जसवंतसिंह, मेवाड़ का महाराणा राजसिंह तथा बुंदेला राजा छत्रसाल प्रमुख हैं।

शिवाजी का औरंगजेब विरोध करने की नीति अपनाने का प्रमुख कारण था 9 अप्रेल 1669 को औरंगजेब द्वारा हिन्दू प्रजा के लिए जारी आदेश। इस आदेश में कहा गया कि मुगल साम्राज्य में समस्त हिन्दू मंदिर और विद्यालय गिरा दिए जाएं, हिन्दू त्यौहार न मनाए जाएं तथा हिन्दू तीर्थयात्रा पर न जाएं। नए हिन्दू मंदिर एवं विद्यालय बनाने पर रोक लगा दी गई।

हिन्दू मंदिर और विद्यालय ध्वस्त करने के लिए औरंगजेब ने हजारों मुस्लिम दलों का गठन किया तथा मुगल अधिकारियों को निर्देशित किया कि वे अपने क्षेत्र में किए गए विध्वंस की जानकारी भेजें। उत्तर भारत में इन आदेशों की अनुपालना तत्काल आरम्भ हो गई।

4 सितम्बर 1669 को काशी विश्वनाथ का मंदिर गिराकर वहाँ मस्जिद बना दी गई। मथुरा में केशवराज मंदिर, उज्जैन, अहमदाबाद इत्यादि स्थानों के प्रसिद्ध मंदिरों को भूमिसात कर दिया गया। सोमनाथ का दूसरा मन्दिर भी ध्वस्त कर दिया गया। असम, उड़ीसा, बंगाल आदि प्रांतों में भी यही किया गया।

बादशाह के अधीन हिन्दू शासकों द्वारा हिन्दू मठों, धार्मिक संस्थाओं एवं विद्यालयों को दी जाने वाली सहायता राशि बंद कर दी गई और पुजारियों तथा मंदिरों की जमीनें एवं जागीरें जब्त कर ली गईं। लाखों देव मूर्तियां तोड़कर फैंक दी गईं और मंदिरों को आग के हवाले कर दिया गया।

शिवाजी का औरंगजेब विरोध

जब औरंगजेब द्वारा पूरे देश में देवालयों एवं देवविग्रहों का विध्वंस आरम्भ किया गया तो शिवाजी ने शांति की नीति का परित्याग कर दिया। 14 दिसम्बर 1669 से 11 जनवरी 1670 के बीच शिवाजी ने अपनी सेनाओं को मुगल शिविरों से वापस बुला लिया। इस प्रकार शिवाजी द्वारा औरंगजेब का विरोध करने की नीति खुल्लमखुल्ला अपना ली गई।

शहजादे मुअज्जम के साथ औरंगाबाद में नियुक्त प्रतापराव और आनंदराव अपनी सेनाओं के साथ वापस राजगढ़ लौट आए। इसके बाद शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण आरम्भ कर दिए।

उसने महाराजा जयसिंह द्वारा छीने गए अपने पुराने दुर्गों को फिर से हस्तगत करना आरम्भ कर दिया। शिवाजी की माता जीजाबाई ने भी शिवाजी को प्रेरित किया कि वे दुष्ट बादशाह का दमन करें जो हिन्दू प्रजा का उत्पीड़न कर रहा है और हिन्दू देव विग्रहों का अपमान कर रहा है। सूरत के इंग्लिश प्रेसीडेंट गैरी ने 23 जनवरी 1670 को अपनी कम्पनी के उच्चाधिकारियों को पत्र लिखकर सूचित किया-

”महाविद्रोही शिवाजी फिर से औरंगजेब के खिलाफ लड़ाई में लगा है जिसने धर्म सुधार की भावना से उत्साहित होकर बहुत से गैर-ईसाई मंदिरों को गिरा दिया है और बहुतों को मुसलमान बनने को मजबूर किया है।”

औरंगजेब का मान मर्दन करके उसकी गतिविधियों को बाधित करने में शिवाजी की सफलता को रेखांकित करते हुए शिवाजी के समकालीन कवि भूषण ने लिखा है-

कुम्भकर्न असुर औतारी औरंगजेब

कीन्हीं कत्ल मथुरा दोहाई फेरी रब की।

खोदि डारे देवी देव सहर-मुहल्ला बाके,

लाखन तुरुक कीन्हें छूटि गई तब की।

भूषण भनत भाग्यों कासीपति विस्वनाथ,

और कौन गिनती में भूली गति भव की।

चारौं वर्ण धर्म छोड़ि कमला नेवाज पढ़ि,

शिवजी न होतो तौ सुनति होत सब की।।

सिंहगढ़ पर अधिकार

एक दिन जीजाबाई ने इच्छा व्यक्त की कि शिवाजी, सिंहगढ़ पर फिर से अधिकार करे। यह दुर्ग पहले बीजापुर के अधिकार में था तथा इसे शिवाजी ने अपने अधीन कर लिया था। बाद में जयसिंह के साथ हुई पुरंदर की संधि में सिंहगढ़, औरंगजेब को समर्पित कर दिया गया था और इस समय भी यह मुगलों के अधीन था।

सिंहगढ़ के मुगल किलेदार उदयभान राठौड़ के पास काफी संख्या में सैनिक थे। इसलिए सिंहगढ़ को जीतना दुष्कर कार्य था। फिर भी शिवाजी ने माता के आदेश की पालना करने का निश्चय किया तथा तानाजी मलसुरे को इसका दायित्व सौंपा। तानाजी ने 4 फरवरी 1670 को आधी रात के समय 300 मावली सिपाही लेकर सिंहगढ़ पर आक्रमण किया।

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उसने अपने भाई सूर्याजी के साथ 250 सिपाही दुर्ग के मुख्य द्वार पर छिपा दिए। तानाजी अपने कुछ सिपाही लेकर गोह की सहायता से दुर्ग के ऊपर चढ़ गया तथा दुर्ग के भीतर उतरकर दुर्ग के द्वार खोल दिए तथा सूर्याजी को संकेत किया। सूर्याजी अपने सैनिकों के साथ तैयार खड़ा था, उसने तुरंत ही दुर्ग पर धावा बोल दिया।

मुगल दुर्गपति उदयभान राठौड़ भी अपने सिपाहियों को लेकर मोर्चे पर आ गया जिससे भयंकर मारकाट मच गई और तानाजी मलसुरे काम आया।

तानाजी के गिरते ही मावली सेना भागने लगी। इस पर सूर्याजी ने चिल्लाकर कहा कि यदि भागने का प्रयास किया तो सभी मार दिए जाएंगे क्योंकि बाहर निकलने का रास्ता बंद हो गया है। इसलिए प्राण रहने तक लड़ो और जीत प्राप्त करो। मावली सैनिक फिर से लड़ने लगे और थोड़ी देर के संघर्ष के बाद उन्होंने उदयभान को उसके सैनिकों सहित मार डाला।

प्रातः होने तक दुर्ग मराठियों के अधिकार में आ चुका था। सूर्याजी ने दुर्ग के एक मकान में आग लगाकर शिवाजी को दुर्ग हस्तगत किए जाने की सूचना दी। तानाजी मलसुरे का शव शिवाजी तथा जीजाबाई के सामने लाया गया।

शिवाजी ने शोक व्यक्त करते हुए कहा कि गढ़ तो आया किंतु सिंह चला गया। सूर्याजी मलसुरे को सिंहगढ़ का दुर्गपति नियुक्त किया गया। इस दिन की स्मृति में सिंहगढ़ में शौर्य दिवस मनाने की परम्परा आरम्भ हुई जो आज तक प्रचलित है।

पुरंदर, माहुली तथा चांदवाड़ा पर अधिकार

सिंहगढ़ जीतने के बाद शिवाजी ने मुगलों से दुर्ग छीनने का काम तेज कर दिया। 8 मार्च 1670 को मराठों ने पुरंदर दुर्ग पर आक्रमण करके उसे फिर से अपने अधिकार में ले लिया तथा मुगल सेनापति रजीउद्दीन को पकड़ लिया। शिवाजी के मराठे लौहगढ़ तथा रोहीड़ा दुर्ग पर चढ़ गए। मुगलों में अव्यवस्था फैल गई। मराठे दक्कन के प्रत्येक भाग में लड़ रहे थे।

24 जनवरी 1670 के एक मुगल सूचना पत्र में कहा गया है- ”शिवाजी की फौजें बरार प्रांत को लूट रही हैं। उन्होंने शाही इलाकों से 20 लाख रुपए इकट्ठे किए हैं।”

मराठवाड़ा के उस्मानाबाद जिले में स्थित औशा नामक दुर्ग के दुर्गपति, बरखुरदार खाँ ने बादशाह को सूचित किया- ”बीस हजार सैनिकों की शिवाजी की फौजें इस क्षेत्र में आ चुकी हैं। मराठा, प्रांत में लूटमार कर रहे हैं और माल इकट्ठा कर रहे हैं। किले से दो कोस दूर उनका पड़ाव है। शिवाजी ने मेरी जागीर लूट ली है। मेरे पास जीवन निर्वाह का कोई जरिया नहीं बचा है। मुझे कुछ धन देने का अनुग्रह किया जाए।”

शिवाजी ने माहुली पर आक्रमण किया गया। भयभीत मुगल किलेदार मनोहरदास गौड़ ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। मुगल सेनापति दाऊद खाँ बड़ी सेना लेकर आया और दूसरा दुर्गपति नियुक्त कर दिया। जब, दाऊद खाँ अपनी कुछ सेना वहीं छोड़कर वापस जुन्नार के लिए रवाना हुआ तो मार्ग में, शिवाजी ने उसकी गर्दन काट ली और माहुली पर अधिकार कर लिया।

चांदवाड़ के दुर्ग में मुगलों का बहुत बड़ा कोष रहता था। शिवाजी ने दुर्ग पर आक्रमण करके वह समस्त कोष छीन लिया। शिवाजी ने उजबेक खाँ को मारकर कल्याण एवं भिवंडी पर भी अधिकार कर लिया। मुगल सेनापति लोधी खाँ बुरी तरह घायल होकर इलाके से भाग गया।

शिवाजी ने माथेरान तथा करनाला के दुर्ग भी छीन लिए। इस प्रकार शिवाजी ने कोंकण प्रदेश सहित मुगल राज्य के वे समस्त किले छीन लिए जो जयसिंह के साथ हुई संधि के बाद औरंगजेब के पास चले गए थे।

सूरत की दूसरी लूट

शिवाजी औरंगजेब को चैन से नहीं बैठने देना चाहता था। उसने सूरत पर पुनः आक्रमण करने का निश्चय किया। शिवाजी को सूचना मिली कि सूरत का सूबेदार मर गया है तथा इस समय वहाँ सैनिक भी कम संख्या में हैं। 3 अक्टूबर 1770 को शिवाजी 15 हजार घुड़सवारों को लेकर सूरत पहुंच गया।

उसने फिर सूरत के व्यापारियों को संदेश भिजवाया किंतु कोई भी व्यापारी उससे मिलने नहीं आया। इस पर शिवाजी के सिपाही शहर में घुसकर लूटपाट करने लगे। तीन दिन तक सूरत को लूटा गया। अंग्रेजों ने अपनी सम्पत्ति पहले ही स्वालि बंदरगाह पर पहुंचा दी थी। जब शिवाजी आया तो अंग्रेजों ने उसे उपहार आदि देकर प्रसन्न किया।

पुर्तगालियों ने भी शिवाजी को प्रसन्न रखने का मार्ग अपनाया। उन्हीं दिनों भारत के किसी मुस्लिम राज्य का सुल्तान मक्का से यात्रा करके लौटा था और सूरत बंदरगाह पर ही था। शिवाजी ने उसे भी लूट लिया। उससे सोने का एक पलंग सहित, लाखों रुपयों का धन प्राप्त हुआ।

शिवाजी की सेना ने सूरत से इस बार 66 लाख रुपए लूटे तथा आधा शहर जलाकर राख कर दिया। इसी बीच सूचना मिली कि बुरहानपुर से एक बड़ी मुगल सेना तेज गति से सूरत की ओर बढ़ रही है। इसलिए शिवाजी लूट का धन लेकर रवाना हो गया।

सूरत की इस लूट के बाद बहुत बड़ी संख्या में व्यापारी सूरत छोड़कर बम्बई आदि शहरों को चले गए और मुगल उनकी रक्षा नहीं कर पाए। मुगलों का यह बंदरगाह उजड़ जाने से मुगल सल्तनत की बहुत बड़ी आय का माध्यम समाप्त हो गया।

दाऊद खाँ कुरैशी से सामना

जब शिवाजी सूरत से अपने राज्य के लिए लौट रहा था, तब उसे सूचना मिली कि मुगल सेनापति दाऊद खाँ कुरैशी एक बड़ी सेना लेकर उसके मार्ग में आ डटा है। शिवाजी ने अपनी सेना के 4-5 भाग किए तथा प्रत्येक टुकड़ी को एक होशियार सेनानायक के नेतृत्व में मुगल सेना पर अलग-अलग दिशाओं से आक्रमण करके युद्ध में उलझाने के निर्देश दिये।

इसके बाद शिवाजी की एक सेना लूट के माल को लेकर एक दर्रे के रास्ते राजगढ़ की तरफ चली गई। जब यह सब चल ही रहा था, शिवाजी ने मुगलों के चार हजार घोड़े पकड़ लिए। इस कारण मुगल सेनापति ने शिवाजी के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि घोड़े लौटा दिए जाएं तो शिवाजी बिना युद्ध किए जा सकता है।

शिवाजी ने यह शर्त स्वीकार कर ली। मुगलों की सेना में रायबग्गा नामक एक महिला सेनानायक थाी जो पहले भी शिवाजी और कर्तलब अली खाँ से हुए युद्ध में मुगलों की तरफ से शिवाजी से लड़ चुकी थी। उसने इस समझौते को मानने से इन्कार कर दिया तथा शिवाजी पर हमला बोल दिया।

शिवाजी ने रायबग्गा की सेना को बुरी तरह परास्त कर दिया तथा उसे औरत जानकर जीवित लौट जाने का अवसर दिया। मुगल सेना पस्त होकर चुपचाप बैठ गई और शिवाजी शान से राजगढ़ चला गया।

बरार तथा खानदेश पर आक्रमण

सूरत की लूट के बाद शिवाजी ने बरार, बागलान तथा खानदेश पर भी आक्रमण किए और बहुत से दुर्ग अपने अधिकार में ले लिए। शिवाजी के सेनापति प्रतापराव गूजर ने मुगलों के विख्यात दुर्ग बुरहानपुर के निकट बहादुरपुर को लूटा और बरार प्रांत में प्रवेश करके समृद्धशाली नगर करंजा में लूट मचाई।

यहाँ से शिवाजी को लगभग 1 करोड़ रुपए की सम्पत्ति प्राप्त हुई जो पूना एवं रायगढ़ के लिए रवाना कर दी गई। प्रतापराव ने करंजा के बड़े व्यापारियों को बंधक बना लिया और उन्हें बड़ी-बड़ी राशि लेकर छोड़ा। शिवाजी ने उन समस्त मुगल क्षेत्रों से चौथ वसूल की जहाँ से होकर शिवाजी की सेनाएं गुजरीं। इस प्रकार शिवाजी ने दक्षिण में मुगलों का शक्ति संतुलन बिगाड़ दिया।

छत्रसाल द्वारा शिवाजी से भेंट

बुंदेलखण्ड के राजा चम्पतराय ने आजीवन औरंगजेब की सेवा की किंतु औरंगजेब ने चम्पतराय को मरवा दिया। चम्पतराय के पुत्र छत्रसाल ने भी औरंगजेब की बड़ी सेवा की तथा जयसिंह की सेना के साथ रहकर शिवाजी के विरुद्ध कई युद्ध लड़े। वह शिवाजी की वीरता से बहुत प्रभावित था।

एक दिन छत्रसाल अपनी पत्नी और मित्रों के साथ शिकार खेलने के बहाने से मुगल खेमे से निकला और चुपचाप पूना जा पहुंचा। शिवाजी ने उसका स्वागत किया और उसे राजनीति, छद्मनीति एवं छापामार युद्ध के बारे में जानकारी दी। छत्रसाल ने शिवाजी के साथ मिलकर औरंगजेब की सेना से युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की।

इस पर शिवाजी ने उसे सलाह दी कि वह अपनी मातृभूमि बुंदेलखण्ड लौट जाए और अपनी मातृभूमि को मुगलों से मुक्त कराए। वहाँ उसे अपने ही देश के बहुत से साथी मिल जाएंगे। छत्रसाल को यह सलाह उचित लगी। शिवाजी ने उसकी कमर में तलवार बांधी तथा अपने हाथों से उसका तिलक किया। छत्रसाल, मुगलों की नौकरी छोड़कर अपने पैतृक राज्य महोबा चला गया और औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की घोषणा कर दी।

संत तुकाराम से भेंट

शिवाजी ने महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम से भेंट की। तुकाराम ने उसे सलाह दी कि वह समर्थ गुरु रामदास की शरण में जाए और उन्हें अपना गुरु स्वीकार करे। रामदास का जन्म आपके मार्ग दर्शन के लिए ही हुआ है।

शिवाजी ने संत तुकाराम के आदेश का पालन किया तथा समर्थ गुरु रामदास से भेंट करके उन्हें अपना गुरु बनाया। रामदास ने भी शिवाजी को सहर्ष अपना शिष्य स्वीकार कर लिया। रामदास ने नागपुर के निकट रामटेक में भगवान रामचन्द्र के मंदिरों का निर्माण करवाया जो हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र बन गए।

महावत खाँ का दक्षिण में आगमन

शिवाजी का औरंगजेब विरोध सूरत की दूसरी लूट में चरम पर पहुंच गया। सूरत की दूसरी लूट ने औरंगजेब के लिए कड़ी चुनौती खड़ी कर दी। उसने महावत खाँ को दक्षिण में शिवाजी के विरुद्ध अभियान करने के लिए भेजा। गुजरात के सूबेदार बहादुर खाँ को उसका सहायक सेनापति बनाकर भेजा गया। 10 जनवरी 1671 को महावत खाँ ने औरंगाबाद में शहजादा मुअज्जम से भेंट की।

महाराजा जसवंतसिंह, दिलेर खाँ तथा दाऊद खाँ भी अभी तक दक्षिण में थे। ये सब सेनापति, सूबेदार और राजा एक-दूसरे से ईर्ष्या एवं शत्रु भाव रखते थे। इसलिए सभी लोग नाच-गाने एवं शिकार में व्यस्त रहते थे।

औरंगजेब के अभियान को आगे बढ़ाने में इनकी बहुत कम रुचि थी। इसी बीच दक्षिण में कोई बीमारी फैल गई जिसने हजारों मनुष्यों और पशुओं को चपेट में ले लिया। इस कारण मुगल सेनाओं के बहुत से सिपाही एवं बोझ खींचने वाले पशु मर गए।

इस प्रकार हम देखते हैं कि शिवाजी का औरंगजेब विरोध इतना प्रबल था कि आगे चलकर औरंगजेब को दिल्ली, आगरा और अजमेर का मोह छोड़कर दक्खिन के मोर्चे पर आकर 25 साल बिताने पड़े।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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