वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब श्रीराम अयोध्या के राजा बन गए तब एक दिन वे अपने राज्य के विभिन्न भागों में यह देखने के लिए गए कि उनके राज्य में कहीं अधर्म तो नहीं हो रहा है! जब राज्य के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए श्रीराम अपने राज्य के दक्षिणी भाग में पहुंचते तो वहां उन्होंने शैवल पर्वत के उत्तरी भाग में एक विशाल सरोवर दिखाई दिया। इस सरोवर के तट पर एक तपस्वी बड़ी भारी तपस्या कर रहा था।
वह नीचे को मुख किए हुए लटका हुआ था। रघुकुल नंदन श्रीराम ने उस तपस्वी से कहा कि उत्तम तप का पालन करने वाले तापस तुम धन्य हो! मैं दशरथकुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के कौतूहल से ये बातें पूछ रहा हूँ। तुम्हें किस वस्तु को पाने की इच्छा है? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्ट देवता से वर के रूप में तुम क्या पाना चाहते हो? स्वर्ग या दूसरी कोई वस्तु अथवा कौनसा पदार्थ है, जिसके लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो, जो दूसरों के लिए दुष्कर है?
तुम यह भी बताओ कि तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो अथवा शूद्र? तुम्हारा भला हो, ठीक-ठीक बताना। महाराज श्रीराम के इस प्रकार पूछने पर नीचे सिर किए लटके हुए उस तपस्वी ने कहा- महायशस्वी राम! मैं शूद्रयोनि में उत्पन्न हुआ हूँ और सदेह स्वर्गलोक में जाकर देवत्व प्राप्त करना चाहता हूँ। इसीलिए ऐसा उग्र तप कर रहा हूँ। हे राम मैं झूठ नहीं बोलता, मैं देवलोक पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से ही यह तपस्या में लगा हूँ। आप मुझे शूद्र समझिए, मेरा नाम शम्बूक है।
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शम्बूक इस प्रकार कह ही रहा था कि श्रीरामचंद्र ने म्यान में से चमचमाती हुई तलवार खींच ली और उसी से उसका सिर काट लिया। शंबूक का वध होते ही इन्द्र और अग्नि सहित सम्पूर्ण देवता ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर भगवान श्रीराम की बारम्बार प्रशंसा करने लगे। उसी समय उनके ऊपर सब ओर से वायुदेव द्वारा बिखेरे गए दिव्य एवं परम सुगन्धित पुष्पों की वर्षा होने लगी।
देवताओं ने कहा- ‘हे देव आपने यह देवताओं का ही कार्य सम्पन्न किया है। शत्रुओं का दमन करने वाले रघुकुल नंदन सौम्य श्रीराम! आपके इस सत्कर्म से यह शूद्र सशरीर स्वर्गलोक में नहीं जा सका है।’
हिन्दू जनमानस का एक बहुत बड़ा वर्ग शंबूक-वध के प्रसंग पर उद्वेलित रहता है। बहुत से लोग श्रीराम पर आक्षेप लगाते हैं कि उन्होंने शंबूक का वध इसलिए किया कि वह शूद्र था किंतु जब हम वैदिक, उत्तर वैदिक एवं पौराणिक काल के सम्पूर्ण वांगमय को देखते हैं तो हमें कुछ अलग तरह की बातें दृष्टिगोचर होती हैं। हम उनमें से कुछ बातों की चर्चा करना चाहेंगे।
सबसे पहले हमें वाल्मीकि रामायण के रचना काल पर विचार करना चाहिए जिसके सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। हिन्दू धर्म में यह धारणा प्रचलित है कि रामायण की रचना वेदों के बाद हुई थी, क्योंकि आर्यों को लिपि का ज्ञान भी वैदिक काल के बीत जाने पर हुआ था।
श्रीराम का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दशम् मण्डल में हुआ है। ऋग्वेद की रचना का काल आज से लगभग 6000 वर्ष पहले से लेकर आज से लगभग 4000 साल पहले तक का माना जाता है जबकि ऋग्वेद के दशम् मण्डल की रचना का काल ई.पू.1500 माना जाता है। अतः माना जा सकता है कि रामायण का रचना-काल ई.पू.1500 के बाद रहा होगा। रामायण की भाषा वैदिक भाषा से भिन्न है तथा भाषा की दृष्टि से वाल्मीकि रामायण उत्तर वैदिक-काल की रचना प्रतीत होती है।
उत्तर-वैदिक काल में आर्य समुदाय में जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था का उदय नहीं हुआ था। लोग अपनी रुचि के अनुसार अपना कर्म चुनते थे और वही उसका वर्ण होता था। इस काल में केवल तीन ही वर्ण थे। शूद्र वर्ण का उदय तो उत्तर-वैदिक काल के सैंकड़ों साल बाद हुआ। अतः श्रीराम के काल में शंबूक के शूद्र होने तथा शूद्र होने के कारण उसका वध किए जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
एक आख्यान के अनुसार जिस प्रकार वाल्मीकि के पूर्व रामकथा मौखिक रूप से विद्यमान थी, उसी प्रकार दीर्घकाल तक ‘वाल्मीकि-रामायण’ भी मौखिक रूप में ही जीवित रही। इस महाकाव्य की रचना के पश्चात् लव-कुश ने उसे कंठस्थ किया और वर्षों तक उसे गाते रहे किन्तु अन्त में इस काव्य को लिपिबद्ध करने का कार्य भी स्वयं वाल्मीकि ने ही किया।
भाषा की दृष्टि से रामायण की संस्कृत न केवल उत्तर-वैदिक-काल के बाद की है अपितु सातवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में हुए प्रसिद्ध संस्कृत-विद्वान् पाणिनि के भी बाद की है। पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ में वाल्मीकि अथवा वाल्मीकि-रामायण का उल्लेख नहीं है किन्तु उसमें कैकयी, कौशल्या, शूर्पणखा आदि का उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि पाणिनि के काल में यद्यपि रामकथा प्रचलित थी, फिर भी वाल्मीकि रामायण की रचना उस समय तक नहीं हुई थी। इससे विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि वाल्मीकि-रामायण की रचना ई.पू. 600-500 के काल में हुई होगी।
वर्तमान समय में हमें जो वाल्मिीकि-रामायण मिलती है, पाठ की दृष्टि से उस
वाल्मीकि-रामायण के चार प्रामाणिक संस्करण उलपब्ध हैं- उदिच्य पाठ, दक्षिणात्य पाठ, गौड़ीय पाठ और पश्चिमोत्तरीय पाठ।
सारांश रूप में हम यह कहना चाहते हैं कि वाल्मीकि-रामायण के नाम से जो पुस्तक वर्तमान समय में हमारे हाथों में है, उसकी रचना ऋग्वैदिक काल में मौखिक रूप से हुई थी और जब लिपि का आविष्कार हुआ तब इसे लिखित रूप प्राप्त हुआ। इस बीच इसके मूल स्वरूप में कितने ही परिवर्तन आए होंगे, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर वैदिक काल के बाद आरम्भ हुए पौराणिक काल में जो शूद्र-वर्ण था, उसमें केवल शिल्प-कर्म करने वाले लोग थे, वे अस्पर्श्य नहीं थे, इसलिए वे तपस्या करने पर वध योग्य नहीं माने जा सकते थे।
श्रीराम कथा में श्रीराम के उज्जवल चरित्र के विभिन्न तत्वों के आधार पर कहा जा सकता है कि शंबूक-वध एक क्षेपक है जो बहुत बाद के काल में प्रचलित मान्यताओं के प्रभाव से किसी अनाम व्यक्ति ने जोड़ दिया है। जो राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं, जो राम केवट से गंगापार उतार देने का सविनय अनुरोध करते हैं, जो राम निषाद राज को गले लगाते हैं, जो राम वनवासी वानरों को अपने भाई लक्ष्मण से भी बढ़कर बताते हैं, वे श्रीराम शंबूक का वध केवल इसलिए नहीं कर सकते कि वह शूद्र होकर तपस्या कर रहा है।
यदि शंबूक-वध की कथा को सत्य मान लिया जाए तो भी उसका वध किए जाने का कारण यह माना जाना चाहिए कि वह सदेह स्वर्ग जाना चाहता था और देवलोक पर विजय प्राप्त करना चाहता था। पुराणों में राजा मान्धाता की कथा मिलती है जिसके अनुसार उसने स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी और इन्द्र ने उसे लवणासुर के हाथों मरवाया था।
विभिन्न पुराणों सहित वाल्मीकि रामायण में श्रीराम के पूर्वज राजा सत्यव्रत की कथा मिलती है, जिसमें बताया गया है कि राजा सत्यव्रत ने सदेह स्वर्ग जाने का प्रयास किया तो देवताओं ने उसे स्वर्ग से धकेल कर आकाश में उल्टा लटका दिया जिसे हम त्रिशंकु के नाम से जानते हैं।
पौराणिक काल का जितना भी हिन्दू धार्मिक साहित्य उपलब्ध है, उसमें सदेह स्वर्ग जाने की कामना को बहुत बड़ा अपराध माना गया है। शंबूक यही अपराध करने जा रहा था, अतः यदि शंबूक-वध की कथा सत्य है तो उसके वध का कारण उसका सदेह स्वर्ग जाने तथा देवलोक पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना है, न कि उसका शूद्र होकर तपस्या करना। यदि शंबूक के स्थान पर कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य भी यही प्रयास करता तो उसका यही अंत होना था।
एक बात और भी है जो शंबूक-वध के प्रसंग को संदेहास्पद बनाती है। पौराणिक काल के पश्चात् भारत में चार्वाकों की एक दीर्घ परम्परा विकसित हुई। उन्होंने हिन्दू धर्मग्रंथों में बहुत सी अशोभनीय बातें जोड़ दीं ताकि हिन्दू समाज अपनी वैदिक एवं पौराणिक परम्पराओं से दूर हो जाए तथा सनातन धर्म से उसका विश्वास हट जाए।
अतः यदि यह कहा जाए कि शंबूक-वध का प्रसंग कालांतर में चार्वाकों द्वारा जोड़ दिया गया होगा तो इसमें कोई अतिश्योत्ति नहीं होगी। वाल्मीकि रामायण में भगवान बुद्ध को चोर एवं दण्डनीय बताया गया है। हमने पहले भी कहा है कि भगवान बुद्ध के जीवन काल से बहुत पहले ही रामायण की रचना हो चुकी थी, अतः उसमें बुद्ध का उल्लेख होना ही नहीं चाहिए। अतः इस कथन को बाद में जोड़ा गया है। जातक कथाओं में रामायण के पात्रों का उल्लेख है जो कि बुद्ध के जीवन काल के कुछ पश्चात् ही रचे गए थे। इन कथाओं में राम को बहुत आदर से स्मरण किया गया है, यदि उस काल की रामायण में बुद्ध को चोर बताया गया होता तो जातक कथाओं में राम का स्मरण आदर से नहीं किया गया होता!
सम्पूर्ण हिन्दू वांगमय में कोई ऐसी अन्य कथा नहंी मिलती जिसमें किसी शूद्र वर्ण के व्यक्ति को तपस्वी बनने से रोका गया हो अथवा उसे तपस्वी बनने पर मार डाला गया हो! वाल्मीकि रामायण में शंबूक-वध का उल्लेख आया है जबकि गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित रामचरित मानस में यह प्रसंग नहीं है।
महाभारत कालीन ऋषि रोमहर्षिण तथा उनके पुत्र सूतजी भी सूतकर्म करने वाले थे किंतु उन्होंने व्यास गद्दी पर बैठकर ऋषियों एवं राजाओं को पुराण सुनाए थे। उन्हें तो किसी ने नहीं मारा!
अतः हम सार रूप में यही कहना चाहेंगे कि इक्ष्वाकु वंशी राम जिनका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मण्डल में हुआ है, जन-जन के राम हैं, उनके लिए किसी व्यक्ति के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होने का कोई अर्थ नहीं हैं। ये उन्हीं श्री हरि विष्णु के मानव अवतार हैं जिन्होंने श्रीकृष्ण अवतार में दासी पुत्र विदुरजी के घर भोजन किया, न कि हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन के यहाँ! वैदिक काल में वर्ण का निर्धारण कर्म से होता था तथा महाभारत काल में वर्ण का निर्धारण उस घर से होता था, जिसमें रहकर बालक पलता था। जाति प्रथा तो भारतीय समाज में बहुत बाद में आई है। अतः शंबूक-वध की कथा नितांत कल्पना है तथा हिन्दू समाज की समरसता को भंग करने के उद्देश्य से गढ़ी गई है।