दया को तू अपनी मस्जिद मान, भलाई एवं निष्कपटता को अपनी नमाज की दरी मान, जो कुछ भी उचित और न्यायसंगत है, वही तेरी कुरान है। नम्रता को अपनी सुन्नत मान ले, शिष्टाचार को अपना रोजा मान ले, इस प्रकार तू मुसलमान बन जाएगा।
-गुरु नानक
गुरु नानक
सिक्खों के प्रथम गुरु ‘नानक देव’ सिक्ख धर्म के प्रवर्त्तक थे। उनका जन्म ई.1469 में अविभक्त पंजाब के तलवण्डी गांव में हुआ था। नानक देव ने ‘गुरमत’ को खोजा और गुरमत की शिक्षाओं को स्वयं देश-देशांतर जाकर फैलाया। गुरु नानक एकेश्वरवादी और निराकारवादी थे तथा जाति-पाँति, अवतारवाद और मूर्ति-पूजा को नहीं मानते थे।
उनकी शिक्षाएँ ‘आदि ग्रन्थ’ में पाई जाती हैं। गुरु नानक बगदाद भी गए जहाँ उनका बड़ा स्वागत-सत्कार हुआ। बगदाद में उनका एक मन्दिर भी है जिसमें तुर्की भाषा में एक शिलालेख मौजूद है। गुरु नानक के सैयद-वंशी शिष्यों के उत्तराधिकारी अब भी उस मन्दिर की रक्षा करते हैं। गुरु नानक की वेशभूषा और रहन-सहन सूफियों जैसा था। गुरु नानक और शेख फरीद के बीच गाढ़ी मैत्री थी।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि गुरु नानक पर इस्लाम का प्रभाव अधिक था। हिन्दू और मुसलमान दोनों ने गुरु नानक का शिष्यत्व स्वीकार किया। गुरु नानक जाति-पांति को नहीं मानते थे इसलिए उनके अनुयाइयों में समस्त जातियों के लोग सम्मिलित थे। उनके शिष्यों में समाज के निर्धन एवं उपेक्षित लोगों की बहुलता थी। उनके अनुयाइयों को ‘सिक्ख’ कहा जाता था। यह ‘शिष्य’ शब्द का पंजाबी भाषा में रूपान्तर था।
सिक्ख धर्म की स्थापना
गुरु नानक का पन्थ ‘सिक्ख धर्म’ के नाम से विख्यात हुआ। नानक स्वयं किसी नवीन धर्म की स्थापना करना नहीं चाहते थे। उनके जीवन काल में सिक्ख धर्म का कोई अस्तित्त्व नहीं था। ई.1538 में गुरु नानक के निधन के बाद उनके अनुयाइयों तथा शिष्यों ने ‘सिक्ख धर्म’ की स्थापना की।
गुरु नानक का दर्शन
गुरु नानक का मत भारतीय वेदान्त दर्शन पर आधारित है तथा उसमें ‘तसव्वुफ’ के भी लक्षण हैं। गुरु नानक की उपासना के चारों अंग- सरन खंड, ज्ञान खंड, करम खंड तथा सच खंड; सूफियों के चार मुकामात- शरीअत, मारफत, उकबा और लाहूत से ही निकले हैं। गुरु नानक का सिद्धान्त वेदान्त के उस रूप पर आश्रित था जिसे तंत्र ने प्रस्तुत किया था और मध्य-काल के प्रायः समस्त सन्त सम्प्रदायों ने स्वीकार किया था।
वे ‘एक-ओंकार’ या ‘अकाल पुरुष’ को चरम सत्य मानते थे। अकाल पुरुष ने ‘पुरुष’ और ‘प्रकृति’ की सृष्टि की और अपना हुकुम चलाया। प्रकृति, माया, मोह, गुण, देवता, राक्षस और सारा जगत् उसी से बना है। इसलिए सारी प्रकृति और सारा जगत सत्य है। इसके सब काम अंहकार से चलते हैं किंतु व्यक्तिगत अंहकार को ही सब कुछ मान बैठना पाप की जड़ है।
अतः मनुष्य को अपने कर्म द्वारा अपने मन से इस व्यक्तिगत अंहकार को निकालकर समष्टिगत अंहकार अर्थात् सृष्टि की सम्पूर्णता को आत्मसात करना चाहिए जो अकाल पुरुष की अभिव्यक्ति है। गुरु नानक कहते हैं- ‘मन कागज है और हमारे कर्म स्याही हैं, पुण्य और पाप इस पर लिखा हुआ है। हमें अपने कर्म की स्याही द्वारा मन के कागज पर लिखे हुए पुण्य के लेख को बढ़ाना है और पाप के लेख को मिटाना है। इसके लिए गुरु की सहायता आवश्यक है।’
गुरु नानक का मुख्य उपदेश था कि ईश्वर सत्य है तथा एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिन्दू-मुसलमान सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर के लिए एक-समान हैं। मनुष्य को अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि परमात्मा के दरबार में उसे लज्जित न होना पड़े। गुरुनानक के बाद नौ अन्य गुरुओं ने भी गुरमत का प्रचार किया।
पंजाब में रहने वाले विभिन्न जातियों के लोगों ने सिक्ख गुरुओं से दीक्षा ग्रहण की। नानक का कहना था कि संसार में रह कर तथा सुन्दर गृहस्थ का जीवन व्यतीत कर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सिक्ख धर्म के अनुसार मनुष्य को सरल तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करना चाहिए।
मोहसिन फानी ने लिखा है- ‘सिक्खों में ऐसा कोई नियम नहीं है कि ब्राह्मण खत्री का शिष्य न हो, नानक खुद खत्री थे। यही नहीं उन्होंने खत्रियों को भी जट्टों से निचली श्रेणी दी है, जो वैश्यों में सबसे छोटे माने जाते हैं।’
गुरु के सिक्ख खेती, नौकरी, व्यापार या दस्तकारी करते हैं और अपनी शक्ति के अनुसार ‘मसण्ड’ अर्थात् गुरु के प्रतिनिधि को ‘नजर’ अर्थात् भेंट देते हैं। वे ‘नाम जपन अते वण्ड के छकन’ (नाम जपने और बाँटकर खाने) को अपना विशेष नियम समझते हैं।
हिन्दुओं के सम्बन्ध में गुरु नानक का मत था- ‘हिन्दुओं में से केाई भी वेद-शास्त्रादि को नहीं मानता, अपितु अपनी बड़ाई करने में लगा रहता है। उनके कान एवं हृदय सदा तुर्कों की धार्मिक शिक्षाओं से भरते जा रहे हैं। ये लोग मुसलमान कर्मचारियों के निकट एक-दूसरे की निन्दा करके सबको कष्ट पहुँचा रहे हैं। वे समझते हैं कि रसोई के लिए चौका लगा देने मात्र से हम पवित्र हो जाएंगे।’
मुस्लिम शासन के लिए कर उगाहने वाले हिन्दू कर्मचारियों को लक्ष्य करके गुरु नानक ने कहा है- ‘गौ तथा ब्राह्मणों पर कर लगाते हो और धोती, टीका और माला जैसी वस्तुएँ धारण किए रहते हो। तुम अपने घर पर तो पूजा-पाठ करते हो और बाहर कुरान के हवाले दे-देकर तुर्कों के साथ सम्बन्ध बनाए रहते हो। ये पाखण्ड छोड़ क्यों नहीं देते?’
उपरोक्त पंक्तियों में हिन्दूओं की आलोचना तो है ही किन्तु हिन्दू-धर्म में सुधार की इच्छा भी है। सिक्ख धर्म का सारा इतिहास हिन्दुत्व के लिए इस तड़प से परिपूर्ण रहा है।
गुरु नानक ने मुसलमानों को लक्ष्य करके कहा- ‘दया को तुम अपनी मस्जिद मानो, भलाई एवं निष्कपटता को अपनी नमाज की दरी मानो, जो कुछ भी उचित और न्यायसंगत है, वही तुम्हारी कुरान है। नम्रता को अपनी सुन्नत मान ले, शिष्टाचार को अपना रोजा मान ले और इस प्रकार तू मुसलमान बन जाएगा।’
उन्होंने पाँचों नमाजों की व्याख्या करते हुए कहा- ‘पहली नमाज सच्चाई है, दूसरी इन्साफ है, तीसरी दया है, चौथी नेक-नीयत है और पाचँवी अल्लाह की बंदगी है।’ गुरु नानक मुसलमानों द्वारा की जाने वाली हिंसा से बहुत व्यथित रहते थे। उनके समय में हिंदुओं का बड़ी संख्या में नरसंहार हुआ। बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ में इस नरसंहार का वर्णन किया है। उसने हिन्दुओं के सिरों की मीनारें चिनवाईं।
बाबरनामा में ऐसी बहुत सी घटनाएं लिखी गई हैं। सिक्खों के 16वीं सदी के ग्रंथों में सिक्खों और मुसलमानों के बीच हुए हिंसक युद्धों के उल्लेख मिलते हैं। बाबर के शासनकाल में हुए हिन्दुओं के नरसंहार के गुरु नानकदेव प्रत्यक्षदर्शी थे। उन्होंने हिंदुओं पर हुए अत्याचारों से व्यथित होकर परमात्मा को सम्बोधित करते हुए लिखा है- ‘ऐती मार पई कुरलाणे, तैं कि दर्द न आया?‘
सिक्ख धर्म की दार्शनिक मान्यताएँ
सिक्ख धर्म का लक्ष्य
सिक्ख धर्म का परम लक्ष्य मानव मात्र का कल्याण करना है। गुरु नानक का मानना था कि धर्म के बाह्य आडम्बरों के कारण लोगों के बीच भेद उत्पन्न होता है और वे गुमराह होते हैं। उन्होंने मनुष्यों को सब तरह के भेदभाव भुलाकर ईमानदारी और नेक-नीयत से अपना काम करने का उपदेश दिया। यही कारण था कि उन्होंने स्वयं कोई अलग धर्म नहीं चलाया।
सिक्ख धर्म में ईश्वर तत्त्व का निरूपण
सिक्खमत की शुरुआत ‘एक’ से होती है। सिक्खों के धर्म ग्रंथ में ‘एक’ की ही व्याख्या है। ‘एक’ को निरंकार, परब्रह्म आदि गुणवाचक नामों से जाना गया है। गुरु ग्रंथ साहिब के शुरुआत में ‘निरंकार’ का स्वरूप बताया है जिसे ‘मूल मन्त्र’ भी कहते हैं- ‘एक ओंकार, सतिनामु, करतापुरखु, निर्भाओ, निरवैरु, अकालमूर्त, अजूनी, स्वैभंग गुर पर्सादि। जपु। आदि सचु जुगादि सचु है भी सचु नानक होसी भी सचु।’
इस प्रकार सिक्ख धर्म एकेश्वरवादी है तथा ईश्वर को एक-ओंकार कहता है। गुरु नानक का मानना था कि ईश्वर ‘अकाल पुरुष’ और ‘निरंकार’ है। अकाल पुरुष का अर्थ होता है जिस पर समय का प्रभाव नहीं पड़ता। न उसका जन्म होता है और न मृत्यु।
निरंकार का अर्थ निर्गुण-निराकार से है, अर्थात् जिसका कोई आकार या रूप नहीं है। इसलिए ईश्वर की मूर्ति या चित्र नहीं बनाया जा सकता। गुरु अर्जुनदेव के अनुसार- ‘परमात्मा व्यापक है, जैसे सभी वनस्पतियों में आग समायी हुई है एवं दूध में घी समाया हुआ है। इसी तरह परमात्मा की ज्योति ऊँच-नीच सभी में व्याप्त है परमात्मा घट-घट में व्याप्त है।’
सिक्ख धर्म में जीव-आत्मा तत्त्व का निरूपण
सिक्ख धर्म की मूल शिक्षाओं में आत्मा के निराकारी स्वरूप, मन (आत्मा), चित (परात्मा), सुरत, बुधि, मति आदि की जानकारी दी गई है। इनकी गतिविधिओं को समझ कर मनुष्य स्वयं को समझ सकता है। इसे सिक्ख धर्म में ‘आतमचिंतन’ कहते हैं।
जीव-आत्मा जो निराकार है, उस के पास निरंकार के सिर्फ 4 ही गुण व्याप्त हैं- ‘ओंकार, सतिनाम, करता पुरख, स्वैभंग।’ शेष चार गुण प्राप्त करते ही जीव-आत्मा पुनः वापिस निरंकार में समा जाती है किन्तु उसको प्राप्त करने के लिए गुरमत के ज्ञान द्वारा जीव-आत्मा को समझना आवश्यक है। आत्मा क्या है? कहाँ से आई है? इसका अस्त्तिव क्यों है? करना क्या है? आत्मा के विकार क्या हैं? आत्मा विकार मुक्त कैसे हो? आत्मा स्वयम् निरंकार की अंश है। आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने पर निरंकार का ज्ञान हो जाता है। इत्यादि विषयों पर सिक्ख धर्म में खूब विचार किया गया है।
चार पदार्थ की प्राप्ति में विश्वास
मानव को अपने जीवन में ‘चार ‘पदार्थ’ प्राप्त करने अनिवार्य हैं-
(1.) ज्ञान पदार्थ: ज्ञान पदार्थ या प्रेम पदार्थ किसी से ज्ञान लेकर प्राप्त होता है। गुरमत का ज्ञान पढ़ कर या समझ कर। भक्त लोग ये पदार्थ देते हैं। इसमें माया में रह कर माया से छूटने का ज्ञान है। सब विकारों को त्यागना और निरंकार को प्राप्ति करना ही इस पदार्थ का ध्येय है।
(2.) मुक्त पदार्थ: ज्ञान पदार्थ की प्राप्ति के बाद ही मुक्त पदार्थ प्राप्त होता है। माया की प्यास ख़त्म होने पर मन और चित एक हो जाते हैं। जीव सिर्फ़ नाम की आराधना करता है। इसको जीवित मुक्त कहते हैं।
(3.) नाम पदार्थ: नाम आराधना से प्राप्त किया हुआ निराकारी ज्ञान है। इसको ‘धुर की बनी’ भी कहते हैं। यह बिना कानों के सुनी जाती है और हृदय में प्रगट होती है। यह नाम ही जीवित करता है। आँखें खोल देता है। ३ लोक का ज्ञान मिल जाता है- ‘नानक नाम मिले तां जीवां।’
(4.) जन्म पदार्थ: यह निराकारी जन्म है। बस शरीर में है किन्तु सुरत शब्द के साथ जुड़ गयी है। शरीर से प्रेम नहीं है। दुःख सुख कुछ भी नहीं मानता, पाप पुण्य कुछ भी नहीं। बस जो ‘हुकुम’ होता है वो करता है- हुक्मे अंदर सब है बाहर हुक्म न कोए।
गुरुओं के सम्बन्ध में सिक्ख धर्म की मान्यता
गुरु, भगवान के सेवक हैं जो मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए समय-समय पर आते हैं किंतु वे भगवान बिल्कुल नहीं है। केवल मनुष्य ही ‘गुरु’ नहीं है, शास्त्र और शब्द भी ‘गुरु’ है। इसलिए गुरुओं में श्रद्धा रखने और उनके शास्त्र को मानने से मनुष्य की आत्मा का ‘अकाल पुरुष’ से संयोग हो सकता है, जो जीवन का चरम लक्ष्य है।
ब्राह्मणों के वचनों में विश्वास नहीं
गुरु नानक ब्राह्मणों के वचनों पर विश्वास नहीं करते थे। गुरुग्रंथ साहिब में गुरु नानक के एक पद में कहा गया है- ‘पण्डित पोथी पढ़ते हैं किन्तु विचार को नहीं बूझते। दूसरों को उपदेश देते हैं, इससे उनका मायिक व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है, वे संसार में भटकते रहते हैं। इन्हें सबद के सार का कोई ज्ञान नहीं है। पण्डित तो वाद-विवाद में ही पड़े रहते हैं।’
पण्डित वाचहि पोथिआ न बूझहि बीचारू।
आन को मती दे चलहि माइआ का बामारू।
कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सबदु सु सारू। -आदिग्रन्थ, पृ. 55
कर्म-फल सिद्धांत में विश्वास नहीं
सिक्ख-मत कर्म-फल सिद्धांत में विश्वास नहीं रखता। सिक्ख-धर्म के अनुसार मनुष्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता। मनुष्य केवल सोचने तक सीमित है। करता वही है जो ‘हुक्म’ में है, चाहे वो किसी गरीब को दान दे रहा हो, चाहे वो किसी को जान से मार रहा हो- ‘हुक्मे अंदर सब है बाहर हुक्म न कोए।‘
पाप-पुण्य में विशवास नहीं
इसी लिए गुरमत में पाप पुन्य को नहीं माना जाता- ‘पाप पुन्य दोउ एक सामान।’ अगर इंसान कोई क्रिया करता है तो वो अंतर-आत्मा के साथ आवाज़ मिला कर करे। यही कारण है की गुरमत कर्मकाण्ड के विरुद्ध है। गुरु नानक देव ने अपने समय के भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, रूढ़ियों और पाखण्डों की आलोचना करते हुए जन-साधारण को पण्डों तथा पीरों के चंगुल में न फंसने की सलाह दी।
चार पुरुषार्थों में विश्वास नहीं
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पदार्थों में नहीं लिया गया। गुरु गोबिंद सिंह कहते हैं-
ज्ञान के विहीन लोभ मोह में परवीन,
कामना अधीन कैसे पांवे भगवंत को।
मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं
सिक्खमत में भक्तों एवम सद्गुरुओं ने अपने ‘एक-निरंकार’ को ‘आकार रहित’ कहा है। क्योंकि सांसारिक पदार्थ समाप्त हो जाते हैं किंतु परब्रह्म कभी नहीं मरता। इसी लिए उसे ‘अकाल’ कहा गया है। ‘जीव-आत्मा’ भी आकार रहित है और इस शरीर के साथ कुछ समय के लिए बंधी है। इसका अस्त्तिव शरीर के बिना भी है, जो साधारण मनुष्य की बुद्धि से परे है। इस कारण सिक्खमत मूर्ति-पूजा के विरुद्ध है। सिक्ख-गुरुओं ने मूर्ति-पूजकों को अंधा एवं जानवर इत्यादि कहा है।
निराकार परमात्मा की तस्वीर नहीं बनाई जा सकती। कोई भी संसारी पदार्थ जैसे कि कब्र, भक्तों एवं सद्गुरुओं की ऐतिहासक वस्तुएं, प्रतिमाएं आदि को पूजना सिक्खों के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है। धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान जो एक विधि निरंकार के देश की तरफ लेकर जाता है, सिक्ख उसके समक्ष नतमस्तक होते हैं किन्तु धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी सिक्खों के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है क्योंकि वे भी सांसारिक पदार्थ ही हैं।
अवतारवाद और पैगम्बरवाद में विश्वास नहीं
सिक्ख-मत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव ‘एक-निरंकार’ का अंश है इसलिए पशु, पक्षी, वृक्ष इत्यादि भी अवतार हैं। मनुष्य योनि में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। सिक्ख धर्म में व्यक्ति की पूजा नहीं होती- ‘मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने को एके भगवान।’ कोई भी अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरा नहीं उतरता क्योंकि सबने जन्म लिया है।
सिक्ख किसी अवतार को परमेश्वर नहीं मानते। यदि कोई अवतार गुरमत का उपदेश करता है तो सिक्ख उस उपदेश को स्वीकार कर लेते हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि आत्मा मरती नहीं, इस बात से सिक्ख-मत सहमत है किंतु सिक्ख-मत श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए ‘कर्म’ के उपदेश से सहमत नहीं है।
सिक्ख-मत की दृष्टि में पैग़म्बर वह है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान जनसाधारण में बांटे। इस्लाम में कहा गया है कि मुहम्मद आखरी पैगम्बर हैं, सिक्खों में कहा गया है कि ‘हर जुग जुग भक्त उपाया।’ अर्थात्् भक्त हर युग में पैदा होते हैं और ‘एक-निरंकार’ का सन्देश लोगों तक पहुँचाते हैं।
सिक्खमत ‘ला इलाहा इल्ल अल्लाह (अल्लाह् के सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है) से सहमत है, वे इससे भी सहमत हैं कि मुहम्मद रसूल अल्लाह हैं किन्तु वे इस बात से सहमत नहीं हैं कि सिर्फ़ मुहम्मद ही रसूल अल्लाह है। अर्जुन देव जी कहते हैं- ‘धुर की बानी आई, तिन सगली चिंत मिटाई।’ अर्थात मुझे धुर से वाणी आई है और मेरी समस्त चिंताएं मिट गई हैं।